Magazine - Year 1969 - Version 2
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Language: HINDI
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आत्म-तेजो बलम्-बलम्
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रोम के शासक जूलियस सीजर एक बार समुद्री-यात्रा कर रहे थे कुछ समुद्री लुटेरों ने आक्रमण कर दिया और उसे कैद करके होडस द्वीप में बन्दी कर दिया, फिर सीजर के सम्बन्धियों की धन भेजने का सन्देश भेज दिया। प्लूटार्च लिखते हैं कि सीजर यद्यपि डाकुओं का बन्दी था पर वहाँ भी वह एक सम्राट की तरह ही रोबदार में रहता था। जिस किसी डाकू को वह डाट देता था, वह सुन्न रह जाता था। सब उसकी आज्ञा का पालन करते थे वह उन्हें धमकाता भी था और कहता था कि जब यहाँ से चला जाऊँगा तो तुम सबकी फाँसी के तख्त पर लटका दूँगा पर कोई डाकू चूँ तक नहीं करता था। छुट कारा पाकर उसने वैसा किया भी पर यहाँ उसके आत्मतेज की महत्ता थी, जो वह गिरफ्तार होकर भी डाकुओं पर शासन करता रहा।
वशिष्ठ अपने आश्रम में थे तब विश्वामित्र राजा थे। एक बार अपने सैनिकों सहित वे कोई प्रान्त विजय कर लौट रहे थे। कहते है उस समय महर्षि वशिष्ठ ने योगबल से सम्पूर्ण सेना सहित विश्वामित्र का स्वागत और भोज किया। विश्वामित्र बहुत प्रभावित हुए और वशिष्ठ से वह विद्या पूछी पर जब उन्होंने विशिष्ट पर आक्रमण कर दिया पर उतनी सेना और शस्त्र भी वशिष्ठ का बाल बाँका न कर सके। परास्त हुए विश्वामित्र ने स्वीकार किया, जो असंख्य स्वस्थ शरीरों की सम्मिलित शक्ति से भी बढ़कर शक्ति है, वह आत्मतेज है। आत्म शक्ति के आगे शरीर या शस्त्र शक्ति तक निरर्थक और निरुपाय है।
भगवान् बुद्ध के तेज आविर्भूत हुए खूँखार अंगुलिमाल डाकू को जिसको मनुष्य काटने और छोटे छोटे पक्षियों को काट डालने में कोई अन्तर न जान पड़ता था, अपनी तलवार फेंकती पड़ी और तथागत के पैरों में गिरना पड़ा, उसे चमत्कार कहा जा सकता है पर यह सब आत्म तेज का प्रभाव था, जिसकी शक्ति के आगे अजगर चूहा शेर बकरी और भेड़िया भेड़ बन जाता है। उस तेज की शक्ति और सामर्थ्य का कोई पारापार नहीं
विधिवत् आत्म ज्ञाता न होने और उसकी एक स्खलित मात्र प्राप्त कर लेने वाले नैपोलियन की जीवट और साहस को भी वैसे ही चमत्कार की संज्ञा दी जा सकती है। नैपोलियन कैद से छूटकर भागा उस समय बोर्बान सेनाएँ सतर्क कर दी गई। सेनापतियों को आदेश दे दिया गया कि नैपोलियन उधर आये तो उसे गोली मार दी जाये पर हुआ कुछ और ही। नैपोलियन उधर ही गया, जहाँ सन्नद्ध सेना राइफलें ‘लोड’ किये खड़ी थी पर उसके आगे किसी को भी घोड़ा दबाने का साहस नहीं हुआ। सारी सेना फिर नैपोलियन के सेनापतियों में आ गई है।
एथेन्स के वियेडोज ने एक बार शर्त लगाकर नगर के प्रतिष्ठित व्यक्ति हिप्पेनिकोस को सबके सामने थप्पड़ लगा दिया और दूसरे ही दिन उसने उसे इतना प्रसन्न कर लिया कि हिप्पेनिकोस ने अपनी पुत्री का विवाह ही उसके साथ कर दिया। वियेडोज के बारे में कहा जाता है कि उसके पास इतनी प्रबल आत्म शक्ति थी कि दुश्मन को एक मिनट में मित्र बना सकता था।
लिंकोलन के राजा रिचर्ड नारमंडी का युद्ध लड़ रहे थे और सेना भेजने के लिए उसने विशेष ह्यूजो को आदेश भेजा, किन्तु मारकाट से द्रवीभूत राजपुरोहित ने मारकाट की और न बढ़ने के लिए कुमुक भेजने से इनकार कर दिया। रिचर्ड की आज्ञा भंग करना कोई हँसी खेल न था पर राजपुरोहित ह्यगो बिना किसी भय के उसके पास अकेला गया, राजा उस समय भोजन कर रहे थे। उन्होंने मुँह फेर लिया पर विशेष न कड़ककर कहा-मेरा अभिवादन करो। राजा चुप रहा, इस पर उसने राजा को ओर से झकझोर डाला और तब रिचर्ड नर्म पड़ गया। जब उसने अभिवादन कर लिया तभी अगले परामर्श का क्रम चला। लोग हैरान थे कि विशेष ऐसा क्या मंत्र जानता है, जो अपराधी होकर भी सम्राट् की तरह शासन करता है। इसका उत्तर स्वयं रिचर्ड ने इस प्रकार दिया-उसके मुख पर एक अलौकिक तेज टपकता है। उसकी कान्ति कुछ ऐसी चित्ताकर्षक, ऐसी शक्तिशाली है कि आँखों से मिलाने वाला व्यक्ति अपने आप पराभव हो जाता है।
बलटोहा (लाहौर) स्टेशन के पास फतेहसिंह नामक जाट की भी ऐसी घटनायें सुनने में आती है। कहते है, उसके गाँव में एक बलिष्ठ भैंसा बड़ा उत्पाती था। एक दिन वह फतेहसिंह के खेत में भी घुस गया और उसके पिता को पछाड़ कर बाहर फेंक दिया। फतेहसिंह को उसकी खबर लगी तो वह निधड़क भैंसे के पास चला गया। भैंसे ने उस पर, उसने भैंसे पर नजर डाली आँखें चार हुई और भैंसा सिर नीचे किये रह गया। उसने उसकी नाक छेद दी और रस्से से बाँध दिया पर भैंसा हिला-डुला तक नहीं।
इन घटनाओं से उस युग की याद आ जाती है, जब यहाँ ऋषि आश्रम जाकर शेर तक अपनी भयंकरता भूल जाते और गाय की तरह सीधे हो जाते थे सब आत्म-शान्ति का चमत्कार था। पिछले दिनों छत्रपति शिवाजी, गुरुगोविन्दसिंह, फ्रेडरिक, रामकृष्ण परमहंस, दयानन्द आदि अनेक महापुरुष हुए हैं, जिनके चेहरों से आत्म-तेज फूटा करता था। ये लोग वह असाधारण कार्य भी हँसते-खेलते कर सकते थे।
अंग्रेजी में जिसे “औरा’’ कहते हैं, वह पौरुष तेज स्थूल शरीर की शक्ति नहीं वरन् मन का गुण या उसे आत्मा का प्रकाश का प्रकाश कह सकते है और उसका विकास आत्मानुभवी होकर ही हो सकता है। विचार शक्ति से सम्बन्ध रखने वाली यह शक्ति व्यायाम और योगाभ्यास से भी नहीं आती वरन उसके लिए मानसिक साधनायें करनी होती है। ध्यान और जप के माध्यम से आत्मा के आलोक तक पहुँचना पड़ता है, तब वह शक्ति प्रदीप्त हो पाती है। एक जीवन भर अभ्यास करते रहने के उपरान्त प्राप्त हुई यह आत्म शक्ति ही किन्हीं पुरुषों को संयोगवश दूसरे जन्म में जन्म से ही मिल जाती है।
प्रसिद्ध वैज्ञानिक मुलर ने 17 वर्ष तक मक्खियों पर विविध प्रयोग करके देखा कि जीव का प्रत्येक कोश प्रोटीन से बना है और जब इस प्रोटीन का रासायनिक विश्लेषण किया जाता है तो उसमें अनेक प्रकार के एसिड और रासायनिक द्रव्य पाये जाते है। जो बदलते, घटते और बढ़ते है। उसने ऐसे अनेक प्रयोग किए और यह प्रयत्न किया कि रासायनिक स्थिति में परिवर्तन करके क्या शारीरिक रचना में कोई परिवर्तन किया जा सकता है। इसमें उसे कोई सफलता न मिली। क्योंकि इन तत्वों के मूल में जो जीन नामक तत्व था उस पर किसी प्रकार की प्रतिक्रिया नहीं रही थीं अर्थात् उस पर ताप, विष शीत आदि का भी प्रभाव नहीं ही रहा था। ऐसे प्रयोग पहले भी हो चुके थे। इस बार जब मुलर ने एक्स किरणों का प्रयोग किया और वे गुण सूत्रों को भेदकर जीन तक पहुँचो तो उसमें असाधारण हलचल हुई और तब जो नई मक्खियों पैदा हुई उनका आकार प्रकार बिलकुल ही भिन्न निकला और इस तरह इस सिद्धान्त का प्रतिपादन हुआ कि जीन ही जीवन से सम्बन्धित कोई तत्व है और उससे अधिक कोई जानकारी वैज्ञानिक प्राप्त नहीं कर सकें।
हाँ यह अवश्य हुआ कि उन्होंने कोश के मूल को जब सूक्ष्म दर्शन यंत्रों से देखा तो उस परमाणु में ही उन्हें विशाल ब्रह्माण्ड की झाँकी अवश्य मिली। यह देखा गया कि वहाँ कई सूर्यों जितनी ऊर्जा और चमक विद्यमान् है तो भी जीन के उस कारण शरीर की अभी तक कोई जानकारी वैज्ञानिक प्राप्त नहीं कर सकें
तत्त्वदर्शी और योगियों का कथन है कि जिस तरह बाहर एक आकाश है, उसी तरह का एक आकाश शरीर के भीतर भी है वह भी उसी प्रकार सूक्ष्म है, जिस प्रकार बाहर के आकाश को न तो देखा जा सकता है और न छुआ जा सकता है। न्यूक्लियस (नाभिक) के मूल में भी एक ऐसा ही आकाश है, उसमें कोई स्वरूप स्थिर नहीं होता, किन्तु उसकी सामर्थ्य बड़ी विशाल है। वही चेतन तत्व, विचार और ज्ञान शक्ति है, इसलिये उसे संकल्प कहा गया। यहाँ से चेतना का विकास होता है, शरीर के प्रत्येक अणु में व्याप्त इस शक्ति का महत्व ही सर्वाधिक और सर्वोपरि है, उसके ही ध्यान और चिन्तन द्वारा यहाँ शक्ति के स्वामी और आत्म तेज के भण्डार बनने की परम्परा रही है, यजुर्वेद में कहा गया है-
यज्जाग्रतो दूरमुदैति देवन्त दुसुप्तस्य तथैवेति।
दूरडगमजज्योतिषाँ ज्योति रकन्तम्मे
मनः शिव संकल्प मस्तु।
अब मैं अपने मन की शिव में धारण करता हूँ, (अर्थात् मेरी विचार शक्ति अब उस संकल्प में प्रवाहित हो रही है। जब यह स्थिति होती है तो मनुष्य आत्मस्थित में होता है। जब इस सूक्ष्मातिसूक्ष्म स्थिति में साधक पहुँचता है तो आत्म तेज अपने आप झलकने लगता है।) जो जागृति एवं सुषुप्ति की अवस्था में दूर दूर तक जाया करता है। ज्योति रूप धारण कर सुदूर नक्षत्रों तक पहुँच जाता है।
इस तथ्य का प्रतिपादन श्वान और श्लाइडन वैज्ञानिक ने किया है। उनका कथन है कि जब जीवकोष का विश्लेषण किया जाता है तो उसमें पदार्थ और तत्व दो भाग होते है। एक कोशिका, दूसरा नाभिक। कोशिका को यदि काटकर नाभिक से अलग कर दिया जाता है तो वह नष्ट हो जाता है पर नाभिक में स्वतः निर्माण की क्षमता होती है और वह कभी नष्ट नहीं होता। फिर वह अपनी इच्छानुसार अपने स्वरूप को पुनः विकसित कर लेता है।
उसकी इच्छा कैसे होती है, विकास करते समय वह अन्यान्य रूप कैसे धारण कर लेता है, इसका उत्तर वे भी नहीं दे सकें। उन्होंने इतना ही कहा-वह न जाने कोसी शक्ति है। पर तत्व वेत्ताओं ने उसका उत्तर दिया कि यही से अहंकार या संकल्प का प्रादुर्भाव होता है और संसार जड़ और चेतन स्पष्टतः दो भागों में बँट जाता है। संकल्प और विचार जगत यद्यपि दृश्य नहीं है, बोधगम्य है तो भी उसकी शक्ति और सामर्थ्य इतनी अधिक है कि उस एक ही अणु के गुस्से से सारी सृष्टि में प्रलय हो सकती है। ऊपर जो थोड़े से चमत्कार जैसे विवरण दिये गये है, वह तो उस महाशक्ति के अरबों अंश शक्ति से भी बहुत कम है। उसकी यथार्थ स्थिति को तो शास्त्रकार की समझ पाया है और अब विज्ञान उस पर विश्वास करने लगा है।
अर्य वाव स योअयमन्तः पुरुष आकाशः अयं वावस
शोअषमन्तहृर्दय आकाशस्तदेतत् पूर्णमग्रवति पूर्णम प्रव
तिनी श्रियं तभन्ते य एवं वेद।
-(छा. प्रपा. 3 खंड 12 छन्द 9)
अर्थात्-पुरुष के हृदय देश में जो आकाश है, यह वही आकाश है जो बाहर है। जैसे बाहर का आकाश शून्यवाद होते हुए भी ब्रह्म से परिपूर्ण है, जैसे ही हृदयाकाश भी शून्य सा लगता हुआ भी आत्म तेज से पूर्ण है, गायत्री इसी ब्रह्म का गान करती है। यह आकाश शून्य नहीं है, ब्रह्म का गान करती है। यह आकाश शून्य नहीं है, ब्रह्म का गान करती है। यह आकाश शून्य नहीं है, ब्रह्म से परिपूर्ण एकरस है, जो उपासक ऐसा साक्षात्कार कर लेता है, वह पूर्ण तथा परिवर्तन रहित श्री (ऐश्वर्य) को पा लेता है।
बाह्य मण्डल की सूक्ष्मता का स्वरूप योगी लोभ इस तरह बताते है- आत्मजा मंडल सृष्टि में लघुता की दृष्टि से परमाणु से भी छोटा और सूक्ष्मता में बाह्य के समान सूक्ष्म है। रंग रूप में अनुपयोग या स्वयं अपना ही स्वरूप है, परन्तु चित्त में वह समीपस्थ प्रकृति के गुण वाला हो जाता है। अर्थात् जैसी प्रकृति होगी वैसा ही चित्त होगा। उसी के अनुरूप शरीर के कोश बनेंगे और तदनुरूप ही स्थूलता और सूक्ष्मता ग्रहण करेंगे डा. खुराना ने यह सिद्ध किया है कि कोश में प्रोटीन को जिस पर रोग के कीटाणुओं का आक्रमण हो जाता है, उसे बदला जा सकता है। औषधि विज्ञान की यह असाधारण खोज है। पर उससे भी शक्तिशाली आत्म तत्व है, जो इच्छा और संकल्प मात्र से रोग मोचन और बड़े बड़े अलौकिक कार्य तक सम्पन्न कर सकता है।
कौषीतकि ब्राह्मणोचित के चतुर्थ अध्याय में अजात शत्रु ने गार्गी को आत्म तेज की विद्या बताई है। जैसे अग्नि, अरणि आदि काष्ठों में वर्तमान रहता है, जैसे ही इस शरीर में आत्मा भी नख पर्यन्त सर्वत्र विद्यमान् है। 19 वा मन्त्र जब तक उस आत्मा की इन्द्र ने नहीं जाना तब तक वह दैत्यगणों से हारते रहे परन्तु जैसे ही उन्होंने आत्मा को जाना वैसे ही उन्होंने दैत्यों को संहार किया। आत्मा को जानने वाला ज्ञानी अपने सब पापों को मिटाकर सब प्राणियों में श्रेष्ठ होकर सबका स्वामी बनता है।