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Magazine - Year 1969 - Version 2

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नास्तिक दर्शन पर वैज्ञानिक आक्रमण

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ईश्वर और उसके अस्तित्व पर विश्वास भारतीय धर्म की महत्त्वपूर्ण आधार शिला है। उसके आधार पर लोग भौतिक आकर्षक से बचे और अपना मनुष्य जीवन सार्थक करने में सफल हुए है। किन्तु अब लोग विज्ञान का युग कहकर इन तथ्यों की अवहेलना करने लगे है। जर्मनी के विद्वान् नीत्से ने नास्तिक दर्शन नाम का एक अलग दर्शन ही तैयार कर दिया और लोगों को इस भ्रम में डाल दिया कि संसार ईश्वर की कोई वस्तु नहीं है। प्रत्यक्ष संसार ही सब कुछ है, इसमें ही जो कुछ इन्द्रिय जन्य सुख है, वही स्वर्ग है। उन्हें ही प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिये

फ्रायड ने तो काम सुख का ही सर्वस्व सिद्ध करने में अपना सारा जीवन लगा दिया। पोथियाँ रचकर तैयार कर दी और काम स्वेच्छाचार का डटकर प्रचार किया। कहना न होगा कि आज सारा परिश्रम उसके पद चिह्नों पर पूरी तरह चल निकला है। भारतवर्ष भी इस लहर से अछूता नहीं रह सका। यहाँ भी अब आस्तिकता का नाम ही रह गया है, मध्यम श्रेणी के पढ़े लिखे लोग तेजी से नास्तिक होते जा रहे है।

नीत्से और फ्रायड के समान ही भारतवर्ष में भी चार्वाक नाम का पण्डित हुआ है, उसने भी ईश्वर के अस्तित्व को इनकार किया और स्वेच्छाचार का प्रतिपादन किया था। फलस्वरूप कुछ दिन के लिए यहाँ ऐसी आध्यात्मिक शाँति और सामाजिक अव्यवस्था फैल गई थी कि उसे दूर करने के लिए जगद्गुरु शंकराचार्य को एक नये सिरे से धार्मिक क्राँति करनी पड़ी थी। यह कार्य कुछ कठिन था पर विश्व व्यवस्था के लिए उन्हें यह तप करना ही पड़ा।

नास्तिक दर्शन का प्रथम सूत्र-यह संसार जड़ मात्र है। भूमि, जल, अग्नि और वायु ये ही चार तत्व प्रमेय के रूप में स्वीकार किये और कहा कि इन्हीं चार भूतों की उचित मात्रा में पारंपरिक संयोग होने पर स्वभावतः चैतन्य की उत्पत्ति हो जाती है। कणादि, गुड़, महुआ आदि के एकत्र होने पर मादकता तैयार हो जाती है, चूना, पान, सुपारी के संयोग से रक्त वर्ण पैदा हो जाता है, इसी तरह इन चार तत्वों का ही संयोग है कि शरीर में एक चेतना अंगड़ाई ले लेती है। चूँकि यह चेतना स्वयंभू है इसलिए उसकी हर इच्छा को पूर्ण करना ही मनुष्य का धर्म है। जो भी खाने की इच्छा हो खाये, कोई दोष नहीं काम सुख सर्वाधिक संतुष्टि प्रदान करता है, इस लिये काम तुष्टि पर कोई प्रतिबन्ध नहीं होना चाहिये। उसकी दृष्टि में व्यभिचार कुछ भी नहीं है।

“इसी प्रकार चूँकि यह प्राकृतिक नियम है कि हर शक्तिशाली वस्तु अशक्त की खा जाती है, इसलिये मनुष्य का ऐसा करना प्राकृतिक है। अर्थात् माँस, मछली खाना कोई दोष नहीं “मैं स्थूल हूँ’, कृश हूँ इत्यादि साधारण उक्तियों और शरीर में केवल स्थूलता और कृशता होने के कारण किसी आत्मा का अस्तित्व सिद्ध नहीं होता। देह ही सब कुछ है। आत्मा कुछ नहीं मृत्यु के समय देह से आत्मा निकलकर परलोक चली जाती है, वह निरा भ्रम है। यदि आत्मा परलोक गमन करती तो स्त्री पुत्रों के प्रेम से आकर्षित होकर कभी लौट भी आती, किन्तु ऐसे कोई उदाहरण नहीं मिलते। सार्थक की एक और मान्यता यह है कि संसार में सत्य कुछ नहीं, सब मिथ्या है, प्रमाण, अनुमान और उपमाओं से किसी वस्तु को सत्य सिद्ध करना उसकी दृष्टि में भ्रम के अतिरिक्त कुछ नहीं था। ता वादी अतीन्द्रिय ईश्वरवादी सत्ता को भी नहीं मानता। जड़वादी होने के कारण स्वेच्छाचारिता और कलाकारिता को अत्यन्त प्रोत्साहन दिया गया हैं। उनके मतानुसार स्वर्ग यही है, प्रत्यक्ष सुखोपभोग ही वह स्वर्ग है, जिसकी अन्यत्र कामना की जाती है। जो वर्तमान सुख का परित्याग करता है, वह मूर्ख है। शरीर को कष्ट देना उससे भी बड़ी मूर्खता है। ऋण लेकर भी घृत पीना चाहिए। माँस, मदिरा मछली, मुद्रा (धन) और मैथुन, यही स्वर्गीय सुख के आधार है। जो इनको प्राप्त करने में जितना सफल रहा, वह उतना ही भाग्यशाली है, चाहे उसके लिये कितना ही पाखण्ड, धूर्तता, चालाकी और चोरी ही क्यों न करनी पड़े। इस प्रकार जड़वाद, भौतिकवाद, नास्तिक दर्शन, स्वेच्छाचार, कामाचारवाद, लोकायतवाद, लोकायतिकवाद का ही सम्मिलित स्वरूप है और वर्तमान विश्व सिद्धान्तकारों का नाम भले ही न जानता हो पर अधिकाँश इन मान्यताओं पर चल रहा है।”

यह दर्शन संसार के लिए कितना उपयोगी ठहरा है, इस पर कुछ लिखने की अपेक्षा यह कहना अधिक युक्ता संगत है कि संसार की परिस्थितियों को देख लो उत्तर मिल जायेगा। आज किसी में विश्वास नहीं अशान्ति उद्विग्नता से लोगों के जीवन बुरी तरह ग्रस्त है, बीसवीं सदी में जितनी जनसंख्या है, उतने ही रोग है। अर्थात् अधिकाँश व्यक्ति न समझ में आने वाली बीमारियों से रुग्ण है। छल, कपट, हिंसा, धोखेबाजी के कारण किसी का भी न तो जीवन सुरक्षित है और न इज्जत। सामाजिक जीवन जीते हुए भी लोग अपने को उस जंगल में भटका हुआ अनुभव करते है, जिसमें चारों और हिंसक ही हिंसक जन्तु झूम रहे हो। यह देन किसी और की नहीं-अनात्मवाद अनीश्वरवाद परायण और जड़वादी दर्शन की ही पूँजी है।

नीत्से, फ्रायड, चार्वाक जैसे प्रतिभाशाली पण्डित यह नहीं सोच सके कि मृतक देह में वह चारों तत्व जिन्हें वह जीवन का आधार मानते थे, चैतन्य क्यों नहीं बनी रही? वे थोड़ा भी गम्भीर चिन्तन करते तो उन्हें पता चल जाता कि तन्मात्राओं की अनुभूति करने वाला कोई और तत्व भी है, वह इन चार तत्वों से भिन्न है। अदृश्य वस्तु के अस्तित्व को कोई इनकार नहीं कर सकता। तार में होकर बिजली चलती है पर वह दिखाई नहीं देती इसका यह तात्पर्य नहीं कि उसके अस्तित्व से इनकार कर दिया जायें विद्युत न होती तो बल्ब कहाँ से जलता प्रकाश कहाँ से आता?

धन्यवाद वैज्ञानिक वोह्वर को जिसने सर्वप्रथम यह बताया कि रसायन का जीव विज्ञान से गठबंधन हुए बिना चैतन्य जगत् स्थिर नहीं रह सकता। 1827 में उसने एल्युमीनियम और 1828 में यूरिया नामक शारीरिक रसायन का विश्लेषण कर उसने यह सिद्ध किया कि शारीरिक रसायन और धातुओं को प्रयोगशाला में उपलब्ध किया जा सकता है, किन्तु जीव कोई स्वतन्त्र सत्ता है, जिसे प्रयोगशाला में नहीं पकड़ा जा सकता। यह घोषणा रसायन और औषधि जगत् में तीव्र हलचल पैदा करने वाली थी। तब से अब तक अकार्बनिक रसायन के ही लगभग 50000 यौगिकों की खोज की जा चुकी है, किन्तु जीवन के सम्बन्ध में कोई युक्ति संगत विश्लेषण वैज्ञानिक प्रस्तुत नहीं कर सके।

किन्तु वैज्ञानिकों ने उसकी खोज का संकल्प अवश्य किया। खोजते खोजते थे कोशिका और उसके द्वारा उत्पादनों और घटकों तक जा पहुँचे। उन्होंने देखा कि कोशिश (सेल्स, जिनसे मिलकर शरीर बना है) के भीतर जो सैकड़ों यौगिक भरे पड़े है, उन्हें निश्चित रूप से प्रयोग शाला में बनाया जा सकता है। उन्होंने इस बहुत ही सूक्ष्म कोशिका के भीतर जीव विज्ञान के भी सूक्ष्मदर्शी यन्त्रों से अध्ययन करना प्रारम्भ किया, जो निष्कर्ष प्राप्त हुए यद्यपि वह अपूर्ण है पर जितने है, जड़वादी मान्यता को काट देने के लिये वही काफी है। वैज्ञानिक दृष्टि में कोशिका व पिण्ड है, जिसमें सम्पूर्ण जगत का सूक्ष्म दर्शन छिपा हुआ है। उसे अध्ययन कर लेने वाला कभी नास्तिक नहीं हो सकता है।

यद्यपि यह अत्यन्त सूक्ष्म संरचना है तथापि बोधगम्य (नोबुल) है। एक बिन्दु में मनुष्य के लाल रक्त की लगभग 5 हजार कोशिकाओं समा सकती है। यह कोशिका झिल्ली पौधों और बैक्टीरियाज में अपेक्षाकृत अधिक मोटी और कड़ी होती है, यह एक प्रकार की निर्जीव चहार दीवारी है। सूक्ष्म जलीय जगत् तो उसके अन्दर बन्द है, आइए उस पर एक दृष्टि डाल कर देखे कि वहाँ कौन से तत्व क्या कर रहे है।

सूक्ष्मदर्शी यंत्रों द्वारा कोशिका झिल्ली के भीतर की इस रचना को बड़े आश्चर्य के साथ देखा जाता है। यह झिल्ली कोशिका के अन्तर समस्त इकाइयों की अपेक्षा अधिक सक्रिय इकाई है, किन्तु उसकी सक्रियता भीतर घुसे हुए नाभिक (न्यूक्लियस)की इच्छा के कारण है। न्यूक्लियस ह वही चेतन और केन्द्रीभूत सत्ता मानी रही है जिस पर कोशिश को सारा क्रिया व्यापार चलता है। यह एक अत्यन्त सूक्ष्म पर विराट जगत का प्रतिनिधि है। उसी को देखकर आइन्स्टीन ने कहा था कि यह क्षितिज भी अण्डाकार (कर्व) स्थिति में है, जब लोगों ने पूछा कि उसके बाद क्या है तो उसने कहा कुछ नहीं यह संसार का सबसे आश्चर्य है कि यह संसार जिसकी सीमा अनन्त है, वह भी घिरा हुआ, मुड़ा अर्थात् ससीम है। सीमा स्थित है।

जो भी हो हमें उस कोशिका झिल्ली का अध्ययन करना है। यह झिल्ली उन तत्वों को छाँटती है, जिनकी न्यूक्लियस अच्छा करता है, जिस प्रकार सिनेमा हाल के गेट पर खड़े ए चौकीदार जिसके पास पैसा टिकट होता है, उसी तरह उन्हें अन्दर जाने देते है, उसी प्रकार कोशिका झिल्ली भीतर केवल उन्हीं तत्वों को जाने देती है, जिसकी न्यूक्लियस इच्छा और प्रेम करता है। इस न्यूक्लियस के अतिरिक्त वहाँ कमजोर रेशों और अपेक्षा कृत मजबूत तंतुओं का जाल सा बिछा हुआ है। इन्हें क्रोमैटिन कहते हैं। क्योंकि वह रंगों को जब्त करते है, जब एक कोशिका दूसरी कोशिका में विभाजित होती है तो यह तंतु ही व्यावर्त्तन, पृथक्करण और पुनर्स्थापन के रूप में एक प्रकार की सामूहिक नृत्य सा करते है। आधुनिक नृत्यकार भी उस नृत्य की गति का मुकाबला नहीं कर सकते।

यह गति बड़ी रहस्यपूर्ण होती है, यह उन चार तत्वों को क्रियाशील करने का वैज्ञानिक तरीका है, जिससे नई सृष्टि की उत्पत्ति होती (नये बालक का जन्म भी इसी विभाजन क्रिया से होता है) है। किन्तु वह सब करने वाला पाँचवाँ आकाश तत्व भी वहाँ विद्यमान् है। न्यूक्लियस उसी आकाश में स्थित है, अर्थात् वह किसी भी तत्व पर टिका हुआ नहीं है, जबकि कोशिश झिल्ली के अन्दर गति करने वाले सभी पदार्थ परस्पर सम्बद्ध होते है।

न्यूक्लियस और कोशिका परिधि के बीच वाले भाग में जिसे साइटोप्लाज्म कहते है, अनेक संरचनाएँ होती है। छोटी सघन पहाड़ियाँ माइटोकोन्ड्रिया और उससे भी छोटे टीले माइक्रोसोक्से मिट्टी के कणों के बने प्रतीत होते है। कहीं कहीं पतले तंतु गोल्जीबाडील टेढ़े टेड़े ढंग से पड़े लहराते है, जिससे हवा का अस्तित्व दर्शन होता है। कुछ कोशिकाओं में दूसरी वस्तुऐं जैसे पिगमेट, स्टार्च कण, चर्बी को गोलियाँ बिखरी पड़ी रहती है। कोश में 70 प्रतिशत जल और इन तत्वों को क्रियाशील रखने वाले तापीय कण भी रहते है। इस बिन्दु जगत में ही चारों तत्वों के साथ आकाश भी छाया हुआ है। वैज्ञानिक इस सूक्ष्म रचना से दंग रह गये और अपने आपसे पूछने लगे, यदि कोशिका ही जीवन संरचना की इकाई है तो क्या उसके कार्य की भी इकाई है? रक्त परिसंचरण के आविष्कर्ता विलियम हार्वे ने उसका उत्तर देते हुए कहा था- हम जो कुछ जानते है। वह उसकी तुलना में जो अब भी अज्ञात है, बहुत कम है। यह वक्तव्य आज भी उतना ही सत्य है। वैज्ञानिक यह मानते है, कोशिका के आकाश में स्थित जगत के सम्पूर्ण अध्ययन के लिए 335 वर्ष की अवधि भी बहुत अल्प है। चार्वाक और नीत्से ने तो न जाने कैसे प्रत्यक्ष देहात्मवाद को ही सर्वस्य कह दिया। आज के वैज्ञानिक उसे एक मूर्खतापूर्ण प्रलाप ही कहते है।

चार तत्वों से देह की परिश्रम यों खण्डित हो गई। जब तक न्यूक्लियस है, तब शरीर का महत्व कुछ नहीं, यह भी सिद्ध हो गया। परलोक में क्या कुछ है। वहाँ जीवन है भी या नहीं, यह भले ही अभी समझ में न आया हो पर चन्द्रमा और शुक्र में अपने जहाज उतार कर अमेरिका और रूस ने परलोक के अस्तित्व को भी सिद्ध कर दिया। क्या परलोकवाद को सिद्ध कर दिया। क्या परलोकवाद की सिद्ध करने के लिए और कोई प्रमाण चाहिये।

स्वेच्छाचार और कामाचार की बुराइयाँ आज सभी देख रह है, यह तो सामाजिक व्यवस्था की दृष्टि से ही अनुचित है, वैज्ञानिक दृष्टि से तो उसे पाप और आत्मा के पतन का कारण गया है। इस तरह नास्तिक दर्शन ने रंगीनी से भरा हुआ ता महल बनाया, विज्ञान ने उसके टुकड़े टुकड़े कर दिये। अब निकट भविष्य में ही उस मान्यता का प्रादुर्भाव हो रहा है। जिसमें नास्तिक दर्शन की माँस तो क्या, भी दिखाई न देगी

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