Magazine - Year 1969 - Version 2
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Language: HINDI
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जीव-कोषों के मन और मानसोपचार
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ऐसा माना जाता है कि आत्मा स्वयं परिपूर्ण होने के कारण जो कुछ भी उसके सम्पर्क में आता है, उसे भी वह परिवर्तित कर देती है, बहुत उच्च आध्यात्मिक क्षमता वाले महापुरुष, योगी, महात्मा अपने आध्यात्मिक तेज या प्रभाव को रोगी मनुष्य पर इस प्रकार डाल देते है कि उसका सारा शरीर उससे थोड़े काल के लिये भरकर पूर्ण हो जाता है। प्राचीनकाल में गुरुकुलों में छोटे-छोटे विद्यार्थी ही नहीं वयस्क जिज्ञासु, साधक और वानप्रस्थ भी इसी आकांक्षा से जाया और साधन किया करते थे कि उन्हें वहाँ के गुरु तपोनिष्ठ आचार्य की प्राण-शक्ति का एक अंश मिल जायेगा ओर उससे आत्म-विकास की साधना काफी सुविधाजनक ओर सरल हो जायेगी।
कुछ लोगों को, जिन्हें पात्र समझा जाता था ओर यह विश्वास कर लिया जाता था कि यह शिष्य मेरी पात की हुई शक्ति को अपने स्वार्थ ओर इन्द्रिय सुखों में ही व्यय नहीं करेगा, उसे गुरुजन अपनी ओर से भी शक्ति दिया करते थे, शक्ति देने का यह क्रम समीपवर्ती पर ही नहीं होता था, दूरस्थ व्यक्ति को भी मनश्चेतना के माध्यम से प्राण-शक्ति भेजने का भी विधान था। इस पद्धति से विचार व सन्देश भी उसी प्रकार प्रेषित किये जाने का प्रचलन था, जिस तरह अब वायरलेस के माध्यम से एक स्थान के सन्देश लाखों मील दूर तक पहुँचा दिये जाते थे। अभी भी यह विद्या विलुप्त नहीं हुई। हमारा निजी जीवन भी इस तरह की सम्भावनाओं से ओत-प्रोत रहा है।
अपने प्रिय-परिजनों को किन्हीं अवश्यम्भावी कष्टों से बचाने, किसी ऐसे कार्य को न करने देने, जिसमें उसकी हानि हो, हमें कई बार अपनी प्राण-शक्ति का विपुल भंडार व्यय करना पड़ा है। बदले में हमें वह कष्ट मिले है। चाहते तो उस प्राण-शक्ति को बचाकर अपनी आयु दुगुनी तिगुनी कर सकते थे पर पूज्य गुरुदेव के विश्वास ओर अपनी आर्ष परम्परा को हमने निराश न होने देने का सदैव प्रयत्न किया है।
आज चिकित्सा के इतने अच्छे साधन ओर प्रशिक्षित डाक्टर हैं तो भी रोगी अच्छे नहीं होते फिर किसी दवा, दारु के बिना कोई रोगी कैसे अच्छा किया जा सकता है, दूरस्थ व्यक्ति पर अपने मनोबल को किस प्रकार चरितार्थ किया जा सकता है, यह बातें लोगों को अटपटी लगती है। प्रत्यक्षवादी लोग इन बातों पर विश्वास नहीं करते। उससे ऐसी कोई हानि नहीं कि इस मान्यता का अन्त ही हो जायेगा। तर्क-बुद्धि होना कोई बुरी बात नहीं उससे अन्धविश्वास की पोल ही खुलती है, दुःखद बात यह है कि एक अत्यन्त आवश्यक ओर लोकोपयोगी पहलू उपेक्षित ओर अधूरी पड़ा है। जिस विद्या से हजारों लोग चिकित्सा का लाभ पाते, सैकड़ों आत्म-कल्याण की दिशा में अग्रसर होते, वह केवल अविश्वास के कारण ही निरर्थक हो रही हैं
यह संयोग ही है कि विज्ञान भी उस स्थिति में आ गया है, जिसने इन मान्यताओं की विज्ञान सम्मत पुष्टि की जा सके। आध्यात्मिक चिकित्सा और प्राण-संचालन की प्रक्रिया को समझने के लिये शरीर के अन्तर्गत रहने वाली मन-शक्ति को समझ लेना आवश्यक है। क्योंकि जिस प्रकार ध्वनि तरंगों को पकड़ने के लिये रेडियो में एक विशेष प्रकार का क्रिस्टल फिट किया जाता है, शरीर अध्यात्म का भी एक क्रिस्टल है और वह मन हैं। विज्ञान जानने वालों को पता है कि ईथर
नमक तत्व सारे ब्रह्माण्ड में व्याप्त है, हम जो भी बोलते है, उनका भी एक प्रवाह है पर वह बहुत हल्का होता है, किन्तु जब अपने शब्दों को विद्युत परमाणुओं में बदल देते हैं तो वह शब्द तरंगें भी विद्युत-शक्ति के अनुरूप ही प्रचण्ड रूप धारण कर लती है ओर बड़े वेग से चारों तरफ फैलने लगती हैं। वह शब्द तरंगें सम्पूर्ण आकाश में भरी रहती है, रेडियो उन लहरों को पकड़ती है और विद्युत परमाणुओं को रोक कर केवल शब्द तरंगों को लाउडस्पीकर तक जाने देता है, जिससे दूर बैठे व्यक्ति की ध्वनि यहाँ भी सुनाई देने लगती है। शब्द को तरंग ओर तरंगों को फिर शब्द में बदलने का काम विद्युत करती है उसी प्रकार आध्यात्मिक चिकित्सा और विचार प्रकरण (टेलीपैथी) का काम मन करता हैं।
यों मन शरीर में एक प्रथम सत्ता की भाँति दिखाई देता है पर वैज्ञानिक जानते हैं कि शरीर के प्रत्येक कोष में एक प्रथम मन होता है। कोषों के मनों का समुदाय ही अवयव स्थित मन का निर्माण करता हैं प्रत्येक अवयव का क्रिया क्षेत्र अलग-अलग है पर वह सब मत अवयव के अधीन है। मान लीजिये गुदा के समीपवर्ती जीवकोष (सेल्स) अपनी तरह के रासायनिक पदार्थ ढूँढ़ते ओर ग्रहण करते हैं। उनकी उत्तेजना काम-वासना को भड़काने का काम करती है, किन्तु अवयव मन नहीं चाहता कि इन गुदावस्थित जीव-कोषों की इच्छा को पूरा किया जाये तो वह काम-वासना पर नियन्त्रण कर लेगा। इसी प्रकार शरीर के हर अंग के मन अपनी-अपनी इच्छायें प्रकट करते है पर अवयव मन उन सबको काटता, छाँटता रहता है, जो इच्छा पूर्ण नहीं होने को होती, उसे दबाता रहता है और दूसरे को सहयोग देकर वैसा काम करने लगता है।
इस बात को ओर ठीक तरह से समझने के लिये शरीर रचना का थोड़ा ज्ञान होना आवश्यक है। यह भौतिक शरीर सूक्ष्म जीव-कोषों से बना है, प्रत्येक जीव-कोष प्रोटीन की एक अण्डाकार दीवार में घिरा रहता है। उस कोष के अन्दर सैकड़ों प्रकार के यौगिक और मिश्रण पाये जाते हैं। नाइट्रोजन ओर न्यूक्लिक अम्लों का सब से बड़ा समूह इस सेल के अन्दर होता है। फास्फोरस चर्बियाँ (वसायें) और शर्करायें भी उसमें मिलती हैं, साथ ही बीसियों अन्य कार्बनिक पदार्थ सूक्ष्म मात्राओं में पाये जाते है, जैसे विटामिन और हार्मोन, उसमें बहुत से अकार्बनिक लक्षण भी होते हैं। यानी प्रोटीन न्यूक्लिक अम्ल, वसायें शर्करायें ओर लवण, ये साँसारिक पदार्थ जिन्हें रसायनज्ञ एक जीवित कोशिका में पाता है, निश्चय ही ऐसे पदार्थ नहीं है, जिनसे विचारों का निर्माण होता है, फिर भी ऐसे ही पदार्थों के ऊपर उस असम्भव विचार का भवन निर्मित होता है, जिसे हम जीवन कहते है, अतः उस जीवन की विचित्रता और बढ़ जाती है, यह मान्यता आधुनिक विज्ञान वेताओं की है।
इस कथन की “जैसा आहार वैसा ही मन बनता है” वैज्ञानिक पुष्टि किसी अगले लेख में करेंगे, अभी यह समझ लेना चाहिये कि शरीर के प्रत्येक अवयव के जीवकोषों से विचार उठा करते हैं, इन्हें इन्द्रियों की इच्छा भी कह सकते हैं, वह यद्यपि न कि क्षमता के अन्दर होती है, तो भी यदि उनकी अपनी शक्ति प्रचण्ड हुई तो यह पूर्ण मन को भी झकझोर कर रख देती है। कई बार काम-वासना या कुछ अच्छी वस्तु खाने की इच्छा इतनी बलवान् हो उठती है कि साधन न होते हुए भी लोग अनुचित तरीके से उन्हें प्राप्त करने की चेष्टा करते है, यह उन अवयवों के जीव-कोषों की क्षमता का ही प्रभाव होता है।
यह जीव-कोषों के मन ही मिलकर अवयव मन का निर्माण करते हैं, इसलिये मन को एक वस्तु न मानकर अध्यात्म-शास्त्र में उसे ‘मनोमय कोश’ कहा गया है। एक अवस्था ऐसी होती है, जब शरीर के सब मन उसके आधीन काम करते हैं, जब यह अनुशासन स्थापित हो जाता है तो मन की क्षमता बड़ी प्रचण्ड हो जाती है और उसे जिस तरफ लगा दिया जाये उसी और वह तूफान की सी तीव्र हलचल पैदा कर देता है।
इन सूक्ष्म जीवों के मन निःसन्देह प्रत्युत्पन्न मति पटल (संस्कार जन्य मन) के आधीन हैं ओर बुद्धि की आज्ञाओं को भी मानते है। इन जीवों के मन में अपने विशेष कार्य के लिये विचित्र योग्यता रहती है। रक्त से आवश्यक सार का शोषण, अनावश्यक का स्याम इनकी बुद्धि का प्रमाण है। यह क्रिया शरीर के हर अंग में होती है, जो जीव-कोष संस्थान ज्यादा सक्रिय होता है, वह ज्यादा बलवान रहता है और अपने पास-पड़ोस वाले जीव-कोषों की शक्ति को मन्द कर देता है। जैसे गुदा वाले जीव-कोष जो काम-वासना में रुचि रखते है, वह सक्रिय होते है तो आमाशय के जीव-कोषों की शक्ति का भी अपहरण कर लेते हैं और इस तरह काम-वासना की प्रत्येक पूर्ति के साथ आमाशय की शक्ति घटती जाती है और वह शक्ति पेट का मरीज हो जाता है। जीव-कोषों का अनुशासित न होना ही शरीर की इन चोरियों का कारण बनता है। जो भी हो यह सत्य है कि पचन का आसात्वत, घावों का भरना, आवश्यकतानुसार दूसरे स्थानों पर दौड़ जाना, अन्य बहुत से कार्य कोषगत जीवन के ही मानसिक कार्य हैं। उन्हें विश्रृंखलित रहने देने से उनका सम्राट मस्तिष्क में रहने वाला मन भी कमजोर और अस्त-व्यस्त हो जाता है, किन्तु जब सम्पूर्ण शरीर के मन उसके अनुशासन में आ जाते है तो शक्ति बहुत अधिक बढ़ जाती है।
केवल कोमल स्नायु, पेशियाँ, झिल्लियाँ आदि ही नहीं हड्डियाँ, दाँत, नाखून आदि कठोर पदार्थ भी सूक्ष्म जीवों के योग से बने होते हैं, पर इनमें भी स्वतंत्र और प्रत्युत्पन्न मन के आधीन काम करने की दोहरी क्षमता होती है। अर्थात् सब जीव-कोश स्थानीय कार्य भी करते रहते हैं और संगठित कार्य भी। जिस प्रकार एक गाँव के सब लोग अपना अलग- अलग काम करते रहते है, अपना खेत जोतना, अपना काटना, अपने लिये अलग पकाना, अपने ही परिवार के साथ बसना, अपनी बनाई कुटिया में रहना आदि केवल अपने तक ही सीमित रहते है पर आवश्यकता आ जाती है तो सब लोग इकट्ठे होकर कोई सार्वजनिक कुआँ-तालाब आदि भी खोदते हैं, एक आदमी दूसरे की सहायता करता है। ठीक वैसे ही जीव-कोषों के मन और प्रत्युत्पन्न मन में भी दो क्षेत्र है ओर दोनों अत्यन्त महत्वपूर्ण है। कुछ कोष ऐसे भी होते हैं, जिन्हें शरीर में केवल सुरक्षा की दृष्टि से तैनात किया है, वे गंदगी को दूर करने, कचरा न जमा होने देने की चौकीदारी भी करते हैं और कोई रोग का कीटाणु ( वायरस ) शरीर में आ जाये तो उससे युद्ध करने का काम भी वे कोष करते है। इस तरह शरीर के मन तो अपनी-अपनी व्यक्तिगत ड्यूटी पूरी करते हैं, दूसरे बाह्य जगत से संपर्क बनाते है, दोनों अलग-अलग अपने काम करते रहते है।
शरीर के अन्दर इस तरह जीव-कोषों का मेला लगा हुआ है। अनुमानतः केवल लाल रंग के कोषों की संख्या कम से कम 75000, 000, 000 है, इनका काम फेफड़ों से आक्सीजन चूसना, धमनियों ओर वाहिनियों के द्वारा सारे शरीर में बाँटना होता है। यह जीव-कोष अपेक्षाकृत अधिक महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह बाह्य जगत से भी शक्ति चूसने के वैज्ञानिक कार्य को पूरा करते हैं। इसलिये मनुष्य शारीरिक शक्ति की कमी के बावजूद भी दिन तक जिन्दा रहता है, क्योंकि यह विश्व-व्यापी प्राण सत्ता से शरीर का सम्बन्ध बनाये रहते है।
प्रत्युत्पन्न मन जब एकाग्र और संकल्पशील होता है तो सभी कोष स्थित मन जो विभिन्न गुणों और स्थानों की सुरक्षा वाले होते है, उसी के आधीन होकर काम करने में लग जाते हैं, फिर उस संग्रहित शक्ति से किसी भी स्थान के जीव-कोषों को किसी दूसरे के शरीर में पहुँचकर उस व्यक्ति की किसी रोग से रक्षा की जा सकती हे, सुनने, समझने वाले मनों में हलचल पैदा करके उन्हें सन्देह दिया जा सकता है, किसी को पीड़ित या परेशान भी किया जा सकता है।
जीव-विज्ञान के प्रसिद्ध विद्वान् रिचीकाल्डर ने इस तथ्य का प्रतिपादन इस तरह किया है-इलेक्ट्रान हमारा दास है, क्योंकि वे मानवीय प्रतिक्रियाओं में अधिक तेजी से चलते हैं, ये मानवीय नेत्र से भी अधिक देख सकते हैं, मानवीय स्पर्श से अधिक हर्ष अनुभव कर सकते हैं। मानवीय कान से अधिक सुन सकते हैं, मस्तिष्क की अपेक्षा शीघ्र और ठीक गिनती कर सकते है। हमारे सामने दूर आस्वादन (टेलेगस्टेशन) दूर श्रवण (टेलेआडीशन) दूर घ्राण ग्रहण (टेले आल्फेक्शन) सुगन्धि पदार्थ तथा बोलते चित्र भी हैं, वह इन्हीं दास इलेक्ट्रोनों का काम है। नियन्त्रण मोटरों (सर्वोमोटर) के द्वारा इलेक्ट्रान किसी रोलिंग मिल के हजारों टन इस्पात को ड़ड़ड़ भर वजन की तरह उठा देता है, जबकि वह पदार्थपरक मन है इसके सहारे यदि मानव के जीव-कोषों में अवस्थित मन (इलेक्ट्रान्स) की शक्ति का अनुमान करें तो वहाँ तक सम्भवतः हमारी बुद्धि न पहुँचे पर अब इस तथ्य से कोई इंकार नहीं कर सकता कि ऐसे कोई विद्या हो सकती है। जब एक शरीर अपनी विशेष शक्ति या सन्देश किसी और शरीरधारी को दे सकें।