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Magazine - Year 1969 - Version 2

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सद्विचारों की समग्र साधना

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First 8 10 Last
सभी का प्रयत्न रहता है कि उनका जीवन सुखी और समृद्ध बने। इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए लोग पुरुषार्थ करते, धन सम्पत्ति कमाते, परिवार बसाते और आध्यात्मिक साधना करते है। किन्तु क्या पुरुषार्थ करने, धन दौलत कमाने, परिवार बसाने और धर्म कर्म करने मात्र से लोग सुख शाँति के पाने उद्देश्य में सफल हो जाने है। सम्भव है इस प्रकार प्रयत्न करने से कई लोग सुख शांति की उपलब्धि कर लेते है, किन्तु बहुतायत में तो यही दिखता है कि धन सम्पत्ति और परिवार परिजन के होते हुए भी लोग दुःखी और त्रस्त दिखते है। धर्म कर्म करते हुए भी असंतुष्ट और अशाँत है।

सुख शाँति के लिए धन दौलत अथवा परिवार परिजन की उतनी आवश्यकता नहीं है जितनी आवश्यकता सुविचारों की होती है। वास्तविक सुख शाँति पाने के लिये विचार साधना की ओर उन्मुख होना होगा। सुख शाँति न तो संसार की किसी वस्तु में है और न व्यक्ति में उसका निवास मनुष्य के अन्तःकरण में है। जो कि विचार रूप से उसमें स्थित रहता है। सुख शाँति और कुछ नहीं, वस्तुतः मनुष्य के अपने विचारों की एक स्थिति है। जो व्यक्ति साधना द्वारा विचारों को उस स्थिति में रख सकता है, वही वास्तविक सुख शाँति का अधिकारी बन सकता है। अन्यथा, विचार साधना से रहित धन दौलत से शिर मारते और मेरा तेरा, इसका उसका करते हुए एक झूठे सुख, मिथ्या शाँति के मायाजाल में लोग यो ही भटकते हुए जीवन बिता रहे है और आगे भी बिताते रहेंगे

वास्तविक सुख शाँति पान के लिए विचारों की साधना करनी होगी। सामान्य लोगों की अपेक्षा दार्शनिक, विचारक, विद्वान्, सन्त और कलाकार लोग अधिक निर्धन और अभाव ग्रस्त होते है तथापि उनकी अपेक्षा कही अधिक संतुष्ट, सुखी और शाँत देखे जाते है। इसका एक मात्र कारण यही है कि सामान्य जन सुख शाँति के लिए जहाँ लौकिक अथवा भौतिक साधना में निरत रहते है, वहाँ वे व्यक्ति विशेष मानसिक साधना अथवा वैचारिक साधना के अभ्यासी होते है। उपरोक्त व्यक्ति विशेष अपनी सफलता के लिए जिस साधना में लग होते है, उसके लिए मनःशक्ति और बौद्धिक संतुलन की बहुत आवश्यकता होती है। वैभव और विभव उपार्जित करने की लिप्सा में वे लोग विचार संतुलन का महत्व नहीं भूलते और निर्धनता के मूल्य पर भी मिलने वाले मानसिक संतुलन का त्याग नहीं करते। यही कारण है कि वे लोग अन्य सामान्य जनों की अपेक्षा अधिक शान्त और संतुष्ट दिखलाई देते है।

विचार साधना का सफल विशेष लोगों के लिए ही अपवाद नहीं उसका सुफल हर वह जनसाधारण भी पा सकता है, जो उचित रूप से विचार साधना में निरत होता है। भारत में जीवन विकास करने और स्थायी सुख शाँति पाने के लिए मंत्र जाप पर बहुत बल दिया जाता था। आज भी आध्यात्मिक लोग पहले की ही तरह आत्म शाँति के लिए मंत्रों का जाप तथा अनुष्ठान करते रहते है। यज्ञ, अनुष्ठान, जप तथा पूजा पाठ और कुछ नहीं विचार साधना का ही एक प्रकार है। यज्ञ और जाप यद्यपि मानव जीवन का एक अनिवार्य नियम है, जिसका प्रायः लोग पालन करते है, जो लोग नहीं करते वे अपने एक मानवीय कर्तव्य से विमुख होते है, तथापि संकट और आपत्ति का शमन करने और उसके स्थान पर सुख शाँति की सामान्य स्थिति लाने के लिए लोग विशेष अनुष्ठानों का आयोजन करते है। यज्ञो और जपो के माध्यम से विचारों की साधना करते है।

वेद क्या है? कल्याणकारी मंत्रों के भण्डार। मंत्र क्या है? ऋषि मुनियों के अनुभूत तथा परिपक्व विचारों का शब्दशः सार! यज्ञ और जाप, अनुष्ठान क्या है, उन्हीं आप्त पुरुषों के कल्याणकारी विचारों की साधना। यह विचार साधना का ही फल था कि प्राचीन आप्त पुरुष त्रिकालदर्शी और जनसाधारण सुख शाँति के अधिकारी होते थे। सुख शाँति के अन्य उपायों का निषेध न करते हुए भारतीय ऋषि मुनि अपने समाज को धर्म का अवलम्बन लेने के लिए विशेष निर्देशन किया करते थे। जनता की इस आवश्यकता की पूर्ति के लिए उन्होंने जिन वेदों, पुराणों, शास्त्रों, उपनिषदों आदिक धर्म ग्रन्थों का प्रणयन किया है, उनमें मंत्रों, तर्कों, सूत्रों व शक्तियों द्वारा विचार साधना का ही पथ प्रशस्त किया है।

मंत्रों का निरन्तर जाप करने से साधक के पुराने कुसंस्कार नष्ट होते है और उनका स्थान नये कल्याणकारी संस्कार लेने लगते है। संस्कारों के आधार पर अन्तःकरण का निर्माण होता है। अन्तः करण के उच्च स्थिति में आते ही सुख शाँति के सारे कोष खुल जाते है। जीवन में जिनका प्रत्यक्ष अनुभव होने लगता है। मंत्र वास्तव में अन्तः करण को उच्च स्थिति में लाने के गुप्त मनोवैज्ञानिक प्रयोग है। जैसा कि पूर्व प्रकरण में कहा जा चुका है कि न तो सुख शाँति का निवास किसी वस्तु अथवा व्यक्ति में है और न स्वयं ही उनकी कोई स्थिति है। वह वास्तव में मनुष्य के अपने विचारों को ही एक स्थिति है। सुख दुःख उन्नति, अवनति का आधार मनुष्य की सुख अथवा अशुभ मनः स्थिति ही है। जिसकी रचना तदनुरूप विचार साधना से ही होती है।

शुभ और दृढ़ विचार मन में धारण करने से, उनका चिन्तन और मनन करते रहने से मनोदशा में सात्विक भाव की वृद्धि होती है। मनुष्य का आचरण उदात्त तथा उन्नत होता है। मानसिक शक्ति का विकास होता है, गुणों की प्राप्ति होती है। जिसका आचरण उन्नत है, जिसका मन दृढ़ और बलिष्ठ है, जिसमें गुणों का भण्डार भरा है, उसको सुख शाँति के अधिकार से संसार में कौन वंचित कर सकता है। भारतीय मंत्रों का अभिमत दाता होने का रहस्य वही है कि बार बार जपने से उनमें निवास करने वाला दिव्य विचारों का सार मनुष्य के अन्तःकरण में भरा है, उसको सुख शाँति के अधिकार से संसार में कौन वंचित कर सकता है। भारतीय मंत्रों का अभिमत दाता होने का रहस्य यही है कि बार बार जपने से उतने निवास करने वाला दिव्य विचारों का सार मनुष्य के अन्तःकरण में भर जाता है, जो बीज की तरह वृद्धि पाकर मनोवाँछित फल उत्पन्न कर देते है।

प्राचीन भारतीयों की आयु औसतन सौ वर्ष की होती थी। जो व्यक्ति संयोगवश सामान्य जीवन में सौ वर्ष से कम जीता था, उसे अल्पायु का दोषी माना जाता था, उसकी मृत्यु को अकाल मृत्यु कहा जाता था। इस सतयुग का रहस्य जहाँ उनका सात्विक तथा सौम्य रहन सहन, आचार विचार और आहार विहार होता था, उसे अल्पायु का दोषी माना जाता था, उसकी मृत्यु का रहस्य जहाँ उनका सात्विक तथा सौम्य रहन सहन, आचार विचार और आहार विहार होता था, वहाँ सबसे बड़ा रहस्य उनकी तत्सम्बन्धी विचार साधना रहा है। वे वेदों में दिए-प्रववाम शरद शतम्। अदीन स्याम शरदः शतम्। जैसे अनेक मंत्रों का जाप किया करते थे। यह मंत्र जाप आयु सम्बन्धी विचार साधना के सिवाय और क्या होता था, गायत्री मंत्र की साधना का भी रहस्य है।

इस महामंत्र का जाप करने वालों को बहुधा ही तेजस्वी, समृद्धिशाली तथा ज्ञानवान क्यों देखा जाता है? इसीलिये कि इन मंत्र के माध्यम से सविता देव की उपासना के साथ सुख, समृद्धि तथा ज्ञान परक विचारों की साधना की जाती है। मनुष्य जीवन में जो कुछ पाता या खोता है, उसका हेतु मान भले ही किन्हीं और कारणों को लिया आये, किन्तु उसका वास्तविक कारण मनुष्य के अपने विचार ही होते है, जिन्हें धारण कर वह जान अथवा अनजान दशा में प्रत्यक्ष से लेकर गुप्त मन तक चिन्तन तथा मनन करता रहता है।

विचार साधना मानव-जीवन की सर्वश्रेष्ठ साधना है। इसके समान सरल तथा सच्च फलदायिनी साधना दूसरी नहीं है। मनुष्य जो कुछ पाना अथवा बनाना चाहता है, उसके अनुरूप विचार धारण कर उनकी साधना करते रहने से वह मन्तव्य में निश्चय ही सफल हो जाता है। यदि किसी में स्वावलम्बन की कमी है और वह स्वावलम्बी बनकर आत्म निर्भरता की सुखद स्थिति पाना चाहता है तो उसे चाहिये कि वह तदनुरूप विचारों की साधना करने के लिये, इस प्रकार का चिन्तन तथा मनन करे, मुझे परमात्मा ने अनन्त शक्ति दी है, मुझे किसी दूसरे पर निर्भर रहने की आवश्यकता नहीं है। परमुखापेक्षी रहना मानवीय व्यक्तित्व के अनुरूप नहीं परावलम्बी होना कोई विवशता नहीं है। वह तो मनुष्य की एक दुर्बल वृत्ति ही है। मैं अपनी इस दुर्बल वृत्ति का त्याग कर दूँगा और स्वयं अपने परिश्रम तथा उद्योग द्वारा और स्वयं अपने परिश्रम तथा उद्योग द्वारा अपने मनोरथ सफल करूँगा परावलम्बी व्यक्ति पराधीन रहता है और पराधीन व्यक्ति संसार में कभी सुख और शाँति नहीं पा सकता, मैं साधना द्वारा अपनी आन्तरिक शक्तियों का उद्घाटन करूँगा, शारीरिक शक्ति का उपयोग करूँगा और इस प्रकार स्वावलम्बी बनकर अपने लिये सुख शाँति की स्थिति स्वयं अर्जित करूँगा निश्चय ही इस प्रकार के अनुकूल विचारों की साधना से मनुष्य की परावलम्बन की दुर्बलता दूर होने लगेगी और उसके स्थान पर स्वावलम्बन का सुखदायी भाव बढ़ने और दृढ़ होने लगेगा।

मनोवैज्ञानिकों तथा चिकित्सा शास्त्रियों का कहना है कि आज रोगियों की बड़ी संख्या में ऐसे लोग बहुत कम होते है, जो वास्तव में किसी रोगी से पीड़ित हो। अन्यथा बहुतायत ऐसे ही रोगियों की होती है, जो किसी न किसी काल्पनिक रोग के शिकार होते है। आरोग्य का विचारों से बहुत बड़ा सम्बन्ध होता है। जो व्यक्ति अपने प्रति रोगी होने, निर्बल और असमर्थ होने का भाव रखते है। और सोचते रहते है कि उनका स्वास्थ्य अच्छा नहीं रहता। उन्हें आँख, नाक, कान पेट, पीठ का कोई न कोई रोग लगा ही रहता है। बहुत कुछ उपाय करने पर भी वे पूरी तरह स्वस्थ नहीं रह पाते, ऐसे अशिव विचारों को धारण करने वाले वास्तव में कभी भी स्वस्थ नहीं रह पाते। यदि उनको कोई रोग नहीं भी होता है तो भी उनकी इस अशिव विचार साधन के फलस्वरूप कोई न कोई रोग उत्पन्न हो जाता है और वे वास्तव में रोगी बन जाते है।

इसके विपरीत जो स्वास्थ्य सम्बन्धी सदाचार की साधना करते है, वे रोगी होने पर भी शीघ्र चंगे हो जाया करते है। जो रोगी इस प्रकार सोचने के अभ्यस्त होते है, वे एक बार उपचार के अभाव में भी स्वास्थ्य लाभ कर लेते है-मेरा रोग साधारण है, रोग उपचार लाभ कर लेते है-रोग साधारण है, मेरा उपचार ठीक-ठीक पर्याप्त ढंग से हो रहा है, दिन दिन मेरा रोग घटता जाता है और मैं अपने अन्दर एक स्फूर्ति, चेतना और आरोग्य की तरंग अनुभव करता हूँ। मेरे पूरी तरह स्वस्थ हो जाने म अब ज्यादा देर नहीं है। इसी प्रकार जो निरोग व्यक्ति भूल कर भी रोगों की शंका नहीं करता और अपने स्वास्थ्य से प्रसन्न रहता है। जो कुछ खाने को मिलता है, खाता और ईश्वर को धन्यवाद देता है, वह न केवल आजीवन निरोग ही रहता है, बल्कि दिन दिन उसकी शक्ति और सामर्थ्य भी बढ़ती जाती है।

जीवन की उन्नति और विकास के सम्बन्ध में भी यही बात लागू होती है। जो व्यक्ति दिन रात यही सोचता रहता है कि उसके पास साधनों का अभाव है। सोचता रहता है कि उसके पास साधनों का अभाव है। उसकी शक्ति सामर्थ्य और योग्यता कम है, उसे अपने पर विश्वास नहीं है। संसार में उसका साथ देने वाला कोई नहीं है। विपरीत परिस्थितियाँ सदैव ही उसे घेरे रहती है। वह निराशावादी व्यक्ति जीवन में जरा भी उन्नति नहीं कर सकता, फिर चाहे उसे कुबेर का कोष ही क्यों न दे दिया जाय और संसार के सारे अवसर ही क्यों न उसके लिये सुरक्षित कर दिये जाये।

इसके विपरीत जो आत्म विश्वास, उत्साह, साहस और पुरुषार्थ भावना से भरे विचार रखता है। सोचता है कि उसकी शक्ति सब कुछ कर सकने में समर्थ है। उसकी योग्यता इस योग्य है कि वह अपने लायक हर काम कर सकता है। उसमें परिश्रम और पुरुषार्थ के प्रति लगन है। उसे संसार में किसी की सहायता के लिए बैठे नहीं रहना है। वह स्वं ही अपना मार्ग बनाएगा और स्वयं ही अपने आधार पर उस पर अग्रसर होगा-ऐसा आत्म विश्वासी और आशावादी व्यक्ति अभाव और प्रतिकूलताओं में भी आगे बड़ जाता है।

मुख शाँति का अपना कोई अस्तित्व नहीं यह मनुष्य के विचारों की ही एक स्थिति होती है। यदि अपने अन्तः करण में उल्लास, उत्साह, प्रसन्नता एवं आनन्द अनुभव की अनुभूति की हठात् उपेक्षा दूर की जाय तो कोई कारण नहीं कि मनुष्य सुख शाँति के लिए लालायित बना रहे। मैं आनन्द रूप परमात्मा का अंश हूँ, मेरा सच्चा स्वरूप आनन्दमय ही है, मेरी आत्मा में आनन्द के कोष भरे है, मुझे संसार की किसी वस्तु का आनन्द अपेक्षित नहीं है। जो आनन्दपूर्ण, आनन्दमय और आनन्द का उद्गम आत्मा है, उससे दुःख, शोक अथवा ताप संताप का क्या सम्बन्ध? किन्तु यह सम्भव तभी है, जब तदनुरूप विचारों की साधना में निरत रहा जाय।

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