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Magazine - Year 1969 - Version 2

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Language: HINDI
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परलोक और पृथ्वी-कितने दूर कितने पास

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25 अगस्त 1966 को नार्थ डेकोटा में एक वायुसेना के अधिकारी को रेडियो तरंगों के द्वारा सन्देश भेजने में एकाएक बाधा अनुभव हुई। अधिकारी उसका कारण समझ नहीं पा रहा था, तभी एक दूसरे ऑफिसर ने आकर बताया कि उसने एक उड़न तश्तरी यू0 एफ॰ ओ॰ (अन आइडेन्टीफाइड आब्जेक्ट) देखी है। उससे गहरे लाल रंग का प्रकाश निकल रहा था। वह कभी ऊपर, कभी नीचे उड़ रही थी। इसी समय एक रैडार ने भी 100000 फीट ऊपर उड़ते हुए, एक गोल तश्तरी पर्दे पर (फ्लैश) देखी। उड़ान तश्तरी जब तक दिखाई देती रही, तब तक संचार व्यवस्था सिगनल-सिस्टम बिलकुल ठप्प रही, इसके बाद सन्देशों का आवागमन फिर प्रारम्भ हो गया।

अब तक यह उड़न तश्तरी दक्षिण की ओर मुड़ चुकी थी और यह अनुमान था कि कोई 15 मील की दूरी पर वह पृथ्वी पर उतर गई है, इसलिये अस्त शस्त्रों से सुसज्जित वायुसेना का एक कुशल दस्ता (स्क्वेड्रेन) उधर दौड़ाया गया। किन्तु उनके वहाँ पहुँचने तक 8 मिनट में ही वह गोला न जाने कहाँ अदृश्य हो गया। इसी बीच दूसरी तश्तरी उत्तर की ओर दिखाई दी, उसे भी रैडार ने देखा पर जब तक दस्ता उधर दौड़े वह भी गायब हो गई।

3 अगस्त 1965 की बात है, सीता आना (कैलीफोर्निया) के पास एक उड़न तश्तरी बाई ओर से आई और सड़क पर देर तक इस तरह चक्कर लगाती रही, मानो वह किसी वस्तु का ढूँढ़ रही हो, फिर दायें मुड़ी और खेतों का चक्कर लगाया। सड़क निरीक्षक रेक्स हेफ्लिन उड़न तश्तरी की इन दृश्यों को अपने कैमरे में खींच लिया। उसका एक चित्र धर्मयुग के 1 दिसम्बर 1968 के अंक में प्रकाशित भी हुआ है। उसमें सड़क के बाई ओर ऊपर उड़न तश्तरी साफ दिखाई देती है।

5 अगस्त 1953 में एक और आश्चर्यजनक घटना ब्लैकहाक, साउथ डेकोटा में घटी। चालकों ने रात में आकाश की ओर अद्भुत वस्तुएँ देखी। वायु सेना के एक अड्डे पर रैडार ने भी इन उड़ान तन्त्रियों को देखा। वायुयान चालक ने बताया कि वह सबसे अधिक चमकने वाले तारे से भी अधिक चमकदार कोई वस्तु देख रहा है। वह वायुयान से दुगुनी गति (स्पीड) से दौड़ रही थी। वायुयान के पीछे करते ही वह कही अदृश्य हो गई।

इसी तरह 6 नवम्बर 1957 के दिन ओटावा से 100 मील दूर वास्काटाँग झील के पास एक उड़ान तश्तरी रात के कोई 9 बजे आई, उसके कारण रेडियो की शार्ट और मीडियम दोनों लहरे बन्द हो गई थी। इस उड़न तश्तरी के दर्शकों में एक इलेक्ट्रानिक्स इंजीनियर भी था, उसने अपने रिसीवर को चालू करना चाहा पर उसे तीव्र कीट कीट की आवाज के अतिरिक्त कुछ सुनाई न पड़ा वह आवाज उड़न तश्तरी के माध्यम से किसी अन्य लोक के नियन्त्रण केन्द्र का संकेत थी या और कुछ, उसकी कुछ भी जानकारी नहीं है।

4 अक्टूबर 1967 को एक शाम को कनाडा के समुद्रीतट पर शागहार्बर के सैकड़ों निवासियों ने एक विचित्र वस्तु आकाश से निकल आते देखी। उसकी चमकदार किरणें पीछे एक कतार-सी छोड़ती आ रही थी। इसके बाद उसे लोगों ने समुद्र की सतह पर उतरते देखा। किरणों की कतार समुद्र में जाकर विलीन हो गई। 20 मिनट के भीतर ही पुलिस कर्मचारी घटना स्थल पर पहुँचे और उड़न तश्तरी के धँसने वाले स्थान की खोज करने लगे।

एक जहाज और आठ नावें भी उस खोज में सम्मिलित हुई। सेटेलाइट के नेत्र प्रकाश में केवल समुद्र के एक स्थान से पीले रंग का भाग निकलता दिखाई दिया। बहुत से बुलबुले भी निकल रहे थे। ऐसा वहाँ पहले कभी नहीं देखा गया था। फिर भी उड़ान तश्तरी का कोई प्रकाश नहीं दिखाई दिया दो दिन तक नौ सैनिक गोता खोर गोता लगाते रहे पर वहाँ किसी वस्तु या उड़न तश्तरी का कोई प्रमाण नहीं मिला।

हैसलबेक जर्मनी का वह जंगली हिस्सा जहाँ अमेरिका और रूस की सीमायें मिलती है, 11 जुलाई 1952 में एक विचित्र घटना घटित हुई। एक उड़न तश्तरी, जिसका व्यास कोई 8 मीटर होगा, के पास दो चमकीले लबादे पहने, छोटे छोटे मनुष्य खड़े थे। वहाँ का एक निवासी अपनी 11 वर्षीय पुत्री के साथ जा रहा था। उसे देखते ही वह लबादाधारी उड़न तश्तरी में समा गये और देखते देखते अन्तरिक्ष में विलीन हो गये।

एनिड ओकलाहोमा के पुलिस स्टेशन में 29 जुलाई 1952 को एक आदमी ने प्रवेश किया। वह डर के मारे थर थर काँप रहा था। उसने अपना नाम सिड यूवैक बताया। वह हमारी बुरी तरह भयग्रस्त था कि कोई स्वप्न में भी उसके अभिनय करने की बात नहीं सोच सकता था। उसने बताया कि एक उड़न तश्तरी उसका अपहरण करना चाहती थी वाइसा और दाकोमिस के मध्य 81 हाइवे पर वह अपनी कार से जा रहा था कि एक जबर्दस्त उड़न तश्तरी बड़े वेग से कार के ऊपर के कारण हवा का इतना तीव्र झकझोरा आया कि कार थपेड़ा खाकर सड़क से बाहर जा गिरा। तश्तरी घड़ी के पेण्डुलम की तरह कार के ऊपर थोड़ी देर तक झूलती रही और फिर एकाएक गायब हो गई।

काल्पनिक-सी लगने वाली उड़न तश्तरियों की यह घटनायें अब तथ्यों के इतने समीप आ गई है कि उन्हें ‘झूंठ’ कहकर टाला नहीं जा सकता, यदि हमारी धरती में विज्ञान का इस तरह विकास हो सकता है कि यहाँ के लोग समुद्र में कूद कर कई दिन तक उसके भीतर रह सकते हैं, खेतों, खलिहानों, सड़कों, शैलाबग्रस्त क्षेत्रों का निरीक्षण कर सकते हैं। आकाश में दूर-दूर तक मंगल, शुक्र और चन्द्रमा की सतह तक अपने स्पूतनिक (राकेट) पहुँचा सकते हैं तो इसमें आश्चर्य ही क्या है कि ब्रह्माण्ड के किसी और नक्षत्र में भी इस तरह का वैज्ञानिक विकास हो चुका हो और वहाँ के निवासी भी पृथ्वी वासियों से संपर्क या सम्बन्ध स्थापित करना चाहतें हो। या फिर यहाँ की परिस्थितियों का अध्ययन कर रहे हो, ताकि एक दिन यहाँ के लोगों उसे छीन कर अपने यहाँ के निवासियों को लाकर बसा सकें।

उन्नीसवीं शताब्दी में यह सारी बातें यों ही झुठला देने की हो सकती थीं बीसवीं सदी में नहीं भगवान् राम को विरथ देखकर आकाश से इन्द्र ने विमान भेजा, मातुतिन उसका चालक था। लंका से अयोध्या पहुँचाने के लिए भी पुष्पक विमान आया था। बेबीलोन के हिब्रू भविष्यवक्ता इजकिल ने भी इस तरह का एक विवरण ईसा से 1130 वर्ष पूर्व लिखा था और बताया कि एक दिन उसने देखा कि एक तूफान सा उठ रहा है, उसमें एक प्रचण्ड बादल फँस गया है। धीर-धीरे बादल से एक गोला निकला, उसे देखकर आँखें चौंधिया जाती थी। उसमें से चार जीवित प्राणी निकले। मुझे पृथ्वी से एक चक्का ऊपर उठता भी दिखाई दिया। वह चारों जीवित प्राणी भी नहीं दिखाई दिये। उसके इस कथन को तब भ्रान्त प्रलाप कहा गया था पर आज का वैज्ञानिक यह मानने को विवश है कि पृथ्वी का सम्बन्ध यदि करोड़ों वर्ष पूर्व से ही लोकान्तर वासियों से रहा हो तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है।

शक्तिशाली दूरवीक्षण यन्त्रों और गणों द्वारा अनेक वैज्ञानिक अथाह अन्तरिक्ष में तैरते हुए ग्रहों के सम्बन्ध में सही जानकारी प्राप्त करने के लिए दिन रात जुटे रहते है, अव वे भी मानने लगे है कि ब्रह्माण्ड के करोड़ों ग्रहों में से किसी न किसी में बुद्धिमान् प्राणियों का आविर्भाव अवश्य है और वे भी हमारी तरह दूसरे जगतों से संपर्क स्थापित करने के प्रयत्न में संलग्न है। मनुष्य ने स्वयं ऐसे रैडार स्टेशन बना लिये है, जो दस प्रकाश वर्षों की दूरी तक आपस में संचार सम्बन्ध बनाये रख सकते है। यहाँ यह समझ लेना आवश्यक है कि ग्रह नक्षत्रों की दूरी इतनी अधिक है कि उस गज, फिट, इंच या मीलों, मीटर में नहीं नापा जा सकता, वह प्रकाश की गति से नापा जाता है। प्रकाश की एक सेकेण्ड में एक लाख छियासी होगा कि उस नक्षत्र तक हमारी पृथ्वी से 1 लाख 83 हजार मील प्रति सेकेंड की गति से चलने में 1 वर्ष लगेगा।

खगोल शास्त्रियों का मत है कि 10 प्रकाश वर्ष की दूरी में कुल 10 नक्षत्र ही ऐसे हैं, जिनमें थोड़ा बहुत बुद्धिमान प्राणियों के अस्तित्व की सम्भावना है पर यदि हजार या करोड़ प्रकाश वर्ष की सीमा से ऊपर उठ जायें तो सम्भव है, वहाँ अधिक बुद्धिमान प्राणी मिलें किन्तु पृथ्वीवासी की आयु हजार वर्ष की हो नहीं सकती, इसलिये 1 हजार वर्ष की प्रतीक्षा में न ही वहाँ जाने का

क्योंकि यदि किसी वैज्ञानिक यंत्र के माध्यम से वहाँ जाने का प्रयत्न किया भी जाय तो मनुष्य बीच में ही कहीं मर जायेगा।

यही बात दूसरे लोकों से आने वाले प्राणियों के लिये भी है, इसलिये वैज्ञानिक सन्देह करते है कि उड़न तस्करों के उतरने की बात कुछ बुद्धि संगत है भी या नहीं। पर उन्हीं के कुछ अनुसंधान इस असम्भावना को भी भगा देते है। जीव-जन्तुओं पर किये गये अनुसन्धानों से पता चला है कि यदि किसी प्राणी को जीवित अवस्था में बहुत अधिक ठण्डा कर दिया जाये तो वह एक प्रकार की सुषुप्तावस्था (हाइबरनेशन) में चला जाता है। उस समय इतनी गहरी नींद आ जाती है कि कोई पास से गुजरे तो यही समझेगा कि यह किसी की लाश हे, किन्तु सौ वर्ष या उससे भी अधिक समय बाद वह नींद टूटने पर प्राणी बिलकुल वैसा ही स्वरूप और थकावट रहित अनुभव कर सकता है, जैसा कि सौ कर जागने के पश्चात् यदि इस सिद्धान्त को व्यवहारिक बनाया जा सके तो सम्भव है कि हजार प्रकाश वर्ष की दूरी मनुष्य सुषुप्तावस्था में पार कर ले और किसी नक्षत्र में पहुँचने पर फिर जाग उठे। वहाँ के अध्ययन के पश्चात् फिर उसी स्थिति में एक हजार वर्ष बाद पृथ्वी पर लौट आये। तब अधिक से अधिक यही होगा कि यहाँ के लोग कई सभ्यताओं बदल चुके होंगे और अंतरिक्षवासी का अपना ही परिचय देना कठिन हो जाये।

यह समस्या दूसरी तरह से सुलझ सकती है। हमारे शास्त्रों में मनुष्यों की आयु कई-कई हजार वर्ष बताया गया है शंकर की द्वितीय पत्नी उमा ने तो कई हजार वर्ष केवल तपस्या ही की थी। लोग उसे गप्प कहते हैं पर आज का वैज्ञानिक वह मूल नहीं करना चाहता। वह मानता है कि वृद्धावस्था एक रोग है और उसे दूर किया जा सकता है। जीव कोशिका पर चल रहे अनुसन्धान एक दिन मनुष्य की आयु की इच्छानुरूप बना सकते हैं, अब इसमें सन्देह नहीं रह गया, श्रम और समय ही अपेक्षित रहा है।

अन्तरिक्ष यानों से रेडियो सन्देह प्राप्त करने में जो समय लगता है, उसे बहुत कम करने के लिये वैज्ञानिक किसी ऐसे ‘क्रिस्टल’ की खोज में है, जो ‘मन’ की गति से काम कर सकता हो। उस अवस्था में यह देरी सिकुड़ कर इतनी रह जायेगी, जितनी परस्पर बातचीत में होगी। किसी ऐसे तत्व की सम्भावना से वैज्ञानिक इनकार नहीं करते। वैज्ञानिकों ने उसकी पुष्टि में अपेक्षित तीव्र गति (रिलेटिव वेलौसिटी) का एक सिद्धान्त भी खोज लिया है, उसके अनुसार जो रेडियो सन्देह किसी स्थान को पहुँचाने में या कोई वस्तु अन्य ग्रह में पहुँचाने में दस हजार वर्ष लेती हो वह केवल 20 वर्ष में ही पहुँचाई जा सके। यद्यपि ब्रह्माण्ड की अनंता और असीमितता के आये वह अपेक्षित तीव्र गति भी बहुत न्यून है। पर उससे इस सम्भावना की पुष्टि तो हो ही जाती है कि ऊपर ब्रह्माण्ड के किसी नक्षत्र में पहुँचने के लिये समय और गति को नियन्त्रित और अपेक्षित बनाया जा सकता है।

इस प्रयास में बहुत कुछ सहयोग ब्रह्माण्ड भी दंगा। हमें यह पता है कि पृथ्वी एक भयंकर गति से घूमती है और सूर्य का भी चक्कर लगाती है। सूर्य स्वयं भी भ्रमण करता है और अपने सौर-मण्डल के दूसरे नक्षत्रों को भी चक्कर लगाने के लिये विवश करता है। सौर मण्डल में चक्कर काटते हुए नक्षत्र सामूहिक रूप से किसी अन्य नक्षत्र का चक्कर काटता है। ऐसे-ऐसे अनेक सौर मण्डल परिक्रमा करने में लगे हुए हैं। परिक्रमाशील की ओर उड़ने वाला पृथ्वी के यान को गणित के ऐसे सिद्धान्त के सहारे भेजा जाना सम्भव है, जिससे आधी दूरी तो वह चले और आधा भाग वह नक्षत्र चलकर पास आ जावे जिसमें उसे जाना है।

इन सब सम्भावनाओं के व्यक्त करने का एक ही कारण है और वह यह है कि यदि इन सब सम्भावनाओं का विकास किसी अन्य नक्षत्र ने कर लिया होगा और वे पृथ्वी से संपर्क साधना चाहते होंगे तो वे निश्चय ही उड़न तश्तरियों में बैठ कर पृथ्वी में आते होंगे। इसलिये उड़न तश्तरियों के इन प्रसंगों को मिथ्या नहीं कहा जा सकता।

अपनी-अपनी जानकारी गुप्त रखने की भी एक परम्परा वैज्ञानिक देशों में है। इसलिये विज्ञान के जो आविष्कार और तथ्य सामने आ चुके हैं, उससे वैज्ञानिकों और राजनीतिज्ञों की डायरियों में गुप्त हैं, वह जैसे-जैसे सामने आती जायेंगी, यह सिद्ध होता जायेगा कि सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के ग्रह-नक्षत्र एक ही कुटुम्ब के सदस्य है, उनमें उसी तरह सम्बन्ध स्थापित किया जा सकता है, जैसे एक गाँव से रखते हैं।

अर्जेन्टीना के शोष-विद्वान् डा. पेड्रो रोमनुक ने व्यूनस एरस में लगभग इसी तथ्य को प्रमाणित करते हुए बताया है कि रूस ओर अमेरिका दोनों के पास दूसरे ग्रहों से आई हुई टूटी-फूटी उड़न तश्तरियाँ है। वह कैनेडी विश्वविद्यालय के अंतर्गत- ‘बायोसाइको सिंयेसिस’ भाषण-माला के उद्घाटन समारोह में बोल रहें थे। उन्होंने रहस्योद्घाटन करते हुए कहा- ‘‘रूस को एक ‘नर्स-शिप’ मिला है, जिसका अध्ययन वहाँ के विद्वानों ने किया है पर उन्होंने उस सम्बन्ध में कोई बात नहीं बताई। इसी प्रकार अमेरिका को अलामों गोर्डों, न्यूमैक्सिको क्षेत्र में एक उड़न तश्तरी मिली।

उत्तर पश्चिमी अमेरिका वेधशाला के निर्देशक श्री सिलास न्यूटन ने अमेरिका वायु गुप्त बरी केन्द्र को इसकी सूचना दी। उन्होंने यह भी बताया कि इस उड़न तश्तरी में दरवाजों की जगह बाहर निकलने के छोटे-छोटे छेद बने हुए हैं इनमें से केवल छोटे आकार के प्राणी गुजर सकते है। स्वच्छ और कड़ी धातु की इस उड़न तश्तरी में छोटे आकार के 6 शब भी पाये गये। इनमें पाये गये प्राणियों का आकार-प्रकार मनुष्यों से मिलता-जुलता है। ऐसा लगता है, उड़न तश्तरी का द्वार खराब हो गया तो वायु मंडलीय प्रभाव से उनकी मृत्यु हो गई। यह अन्तरिक्ष यान सौर-शक्ति से चलता है। इन प्राणियों ने किसी धातु का पारदर्शी नीला वस्त्र सा धारण किया हुआ था, इस धातु पर किसी कैंची या ज्वलनशील टार्च का भी कोई प्रभाव नहीं पड़ता।”

डा. रोमनिक ने उस सौर-शक्ति के बारे में विस्तार से कुछ नहीं बताया पर अब यह निश्चित हो चुका है कि कभी यहाँ जीवित प्राणी दूसरे नक्षत्रों से अवश्य आते रहें होंगे ओर उनका पृथ्वीवासियों से घनिष्ठ सम्बन्ध भी रहा होगा इस सम्बन्ध में कुछ अत्यन्त महत्वपूर्ण प्राचीन अवशेषों का विवरण किसी अगले अंक में देखें

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