• News
  • Blogs
  • Gurukulam
English हिंदी
×

My Notes


  • TOC
    • सेवा और प्रार्थना
    • आत्म-बल जीवन की महानतम सम्पदा
    • “बिन्दु में सिन्धु समाया”
    • ग्लैडस्टन सोलोमन
    • नास्तिक दर्शन पर वैज्ञानिक आक्रमण
    • हमारी आध्यात्मिक जिज्ञासा और आकांक्षा
    • गिरजाघर का विवाद
    • आत्मा का अस्तित्व-सत्य और तथ्य
    • सद्विचारों की समग्र साधना
    • आत्म-तेजो बलम्-बलम्
    • ब्रह्मचर्य द्वारा आत्म बल का संचय
    • Quotation
    • आत्मा के अस्तित्व का प्रमाण-भूत
    • Quotation
    • पुरुषार्थी ही पुरस्कारों के अधिकारी
    • आत्म-हत्या
    • स्वार्थपरता व्यक्ति और समाज के लिए
    • तर्पण का अर्थ
    • परलोक और पृथ्वी-कितने दूर कितने पास
    • मूर्ख बादशाह
    • जीव-कोषों के मन और मानसोपचार
    • मन को दुर्बल न बनने दें
    • चरित्रवान और संगठित नागरिक
    • स्वप्न और मनुष्य जीवन की गहराई
    • माँसाहार मानवता का अपमान
    • कोलाहल से दूर शान्त एकान्त की ओर
    • कौन अधिक श्रद्धावान
    • जीव जन्तुओं का आध्यात्मिक चेतना
    • कुत्ते की दयालुता
    • गायत्री साधना :- - गायत्री उपासना की रहस्यमयी प्रतिक्रिया
    • अपनों से अपनी बात- - विदाई की घड़ियां और हमारी व्यथा-वेदना
    • सच्चा-जीवन
    • सच्चा-जीवन (Kavita)
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login
  • TOC
    • सेवा और प्रार्थना
    • आत्म-बल जीवन की महानतम सम्पदा
    • “बिन्दु में सिन्धु समाया”
    • ग्लैडस्टन सोलोमन
    • नास्तिक दर्शन पर वैज्ञानिक आक्रमण
    • हमारी आध्यात्मिक जिज्ञासा और आकांक्षा
    • गिरजाघर का विवाद
    • आत्मा का अस्तित्व-सत्य और तथ्य
    • सद्विचारों की समग्र साधना
    • आत्म-तेजो बलम्-बलम्
    • ब्रह्मचर्य द्वारा आत्म बल का संचय
    • Quotation
    • आत्मा के अस्तित्व का प्रमाण-भूत
    • Quotation
    • पुरुषार्थी ही पुरस्कारों के अधिकारी
    • आत्म-हत्या
    • स्वार्थपरता व्यक्ति और समाज के लिए
    • तर्पण का अर्थ
    • परलोक और पृथ्वी-कितने दूर कितने पास
    • मूर्ख बादशाह
    • जीव-कोषों के मन और मानसोपचार
    • मन को दुर्बल न बनने दें
    • चरित्रवान और संगठित नागरिक
    • स्वप्न और मनुष्य जीवन की गहराई
    • माँसाहार मानवता का अपमान
    • कोलाहल से दूर शान्त एकान्त की ओर
    • कौन अधिक श्रद्धावान
    • जीव जन्तुओं का आध्यात्मिक चेतना
    • कुत्ते की दयालुता
    • गायत्री साधना :- - गायत्री उपासना की रहस्यमयी प्रतिक्रिया
    • अपनों से अपनी बात- - विदाई की घड़ियां और हमारी व्यथा-वेदना
    • सच्चा-जीवन
    • सच्चा-जीवन (Kavita)
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login




Magazine - Year 1969 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
SCAN TEXT


माँसाहार मानवता का अपमान

Listen online

View page note

Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
×

Add Note


First 24 26 Last
अपने को समाज का अभिन्न अंग मानने वाला कोई भी व्यक्ति, जो कि समाज को अपने लिये और अपने को समाज के लिये महत्वपूर्ण समझता है, कोई भी ऐसा काम करने में संकोच करेगा, जिसका प्रभाव प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप में सामाजिक हित के लिये अशुभ सिद्ध होता हो, फिर चाहे वह वैसा काम करने में स्वतन्त्र ही क्यों न हो, समाज से आत्मीयता की अनुभूति करने वाले अपने तक सीमित व्यक्तिगत क्रियाओं तथा विचारों को भी संयत एवं समुचित रखने में सावधान रहते हैं, क्योंकि वे अपनी विकृतियों से होने वाली व्यक्तिगत हानि को भी समाज की हानि मानते हैं।

अपने समाज में नैतिक तथा धार्मिक प्रतिबन्ध तो है, किन्तु माँस-भोजन पर कोई कानूनी रोक नहीं है। कोई कानूनी प्रतिबन्ध न होने से माँस-भोजन में रुचि रखने वाले व्यक्ति उससे होने वाली सामाजिक तथा राष्ट्रीय हानियों पर रंचमात्र भी ध्यान देने को तैयार नहीं। कानून के भय से किसी विषय के औचित्य अथवा अनौचित्य पर विचार किया और उससे बचे तो कोई विशेषता नहीं है। मनुष्यता की शोभा तो इस बात में है कि राज-दण्ड के दबाव के बिना ही नैतिकता तथा राष्ट्रीयता के नाते ऐसा कोई काम न करे, जो राष्ट्र अथवा समाज के लिये किसी प्रकार भी हानिकर हो। किंतु इस सहज सभ्यता का मूल्य मानने वाले कितने होंगे। सहज सभ्यता का मूल्याँकन करने वाले सत्पुरुष जिस समाज में जितने अधिक होंगे वह समाज उसी अनुपात में वास्तविक सुख समृद्धि का अधिकारी बनेगा।

आज भारतीय समाज में माँसाहार की प्रवृत्ति बहुत बढ़ गई है। इस सम्बन्ध में भारतीय-जन शारीरिक, मानसिक अथवा आध्यात्मिक हानियों पर तो विचार नहीं ही करते हैं, उसे होने वाली सामाजिक एवं राष्ट्रीय हानियों पर विचार करने की भावना रखते दृष्टिगोचर नहीं होते, जबकि उन हानियों से सीधे-सीधे उनकी व्यक्तिगत एवं समष्टिगत भौतिक प्रगति भी प्रभावित होती है।

मनुष्य सामाजिक प्राणी है। सामाजिक जीवन का अर्थ है मिल-जुल कर स्नेह सौहार्दपूर्वक रहना। स्वार्थ एवं संघर्ष सामाजिक जीवन के प्रतिकूल भाव है। सफल सामाजिक जीवन तभी सम्भव है, जब उसका प्रत्येक सदस्य सौम्य, सहनशील और शाँत स्वभाव वाला हो। इसी स्थिति में जब मिल-जुल कर रह सकते है और पारस्परिक सद्भावना सहयोग के बल पर व्यष्टि एवं समष्टिगत उन्नति भी कर सकते हैं। इसके विपरीत जिस समाज के सदस्य स्वार्थी, क्रोधी, असहिष्णु और असहयोगी होते हैं, वे समाज के पारस्परिकता के अभाव में यथा स्थान पड़े-पड़े कष्ट-क्लेशों के बीच एड़ियाँ रगड़ा करते हैं।

मनुष्य की प्रवृत्तियों पर भोजन का प्रभाव बहुत दूर तक पड़ता है। जो शुद्ध सात्विक भोजन किया करता है। उसका स्वभाव प्रायः शाँत, संतुलित और सहिष्णु रहता है। उस पर क्रोध अशाँति अथवा संघर्ष की प्रति क्रिया अपेक्षाकृत कम हुआ करती है। जो अशुद्ध और तामसी भोजन का अभ्यासी है, उसका स्वभाव बहुधा पुरुष ही होता है। स्वभाव की पुरुषता किसी भी अनर्थ अथवा संघर्ष की संवाहिका हो सकती है। माँस शत-प्रतिशत तामसी भोजन है।

वैज्ञानिकों एवं चिकित्सा शास्त्रियों का मत है कि माँसाहार करने से स्वभाव क्रोधी बनता है, बुद्धि मन्द होती है और मानसिक स्थिरता पर अशुभ प्रभाव पड़ता है। क्रोध की अतिरेकता में मनुष्य उचित, अनुचित का ध्यान नहीं रख पाता, मन्द बुद्धिमता के कारण उसके निर्माण ही उल्टे नहीं होने लगते, बल्कि दृष्टिकोण ही विपरीत हो जाता है। मानसिक अनस्थिरता के कारण किसी का किसी छोटी-सी बात पर उत्तेजित हो उठना सहज सम्भव है। मनुष्य की यह स्वभावगत न्यूनतायें सामाजिक भावना को शिथिल कर देती है। ऐसी दशा में विघटन, विसंगति और विस्फोट की परिस्थितियाँ उत्पन्न होती हैं, जो सामाजिक सहजता तथा प्रगति को धक्का पहुँचाती है। समाज में अशाँति अथवा संघर्ष का जन्म मनुष्यों के दो विपरीत स्वभावों के कारण ही होता है।

इस भिन्नता के कारण कभी-कभी शाँति प्रिय लोगों को भी संघर्ष में उलझ जाना पड़ता है। जो असामाजिक स्वभाव के होते हैं, उनमें उसकी शाँति तथा प्रगति की चिन्ता होती ही नहीं। किन्तु इससे भी दुःखदायी बात यह होती है कि समाज के प्रति सद्भावना रखने वालों को भी कभी-कभी आत्म-सम्मान अथवा मर्यादा की रक्षा करने के लिये अन्यथा व्यक्तियों से प्रेरित संघर्ष में उलझना पड़ता है, जिससे उनके द्वारा होने वाले सामाजिक हित को हानि पहुँचती है।

माँस भोजियों के कारण ही मनुष्यों का एक बड़ा वर्ग पशु-हत्या के क्रूर कर्म में नियुक्त रहता है। इस वर्ग का बधिक, व्याध अथवा कसाई कहा जाता है। इस वर्ग पर प्रायः क्रूर निर्दयी तथा अविचारी होने का दोष लगाया जाता है। बहुत सीमा तक यह लाँछन सही भी होता है। हत्या कर्म करते-करते इस वर्ग के स्वभाव से करूँगा, दया, क्षमा, संवेदना, सहानुभूति, सौहार्द्र की कोमल भावनायें नष्ट हो जाती हैं और उनका स्थान निर्दयता, क्रूरता, पुरुषता, असहनशीलता और कठोरता की वृत्तियाँ ले लेती हैं। जिससे वह ऐसे अनुचित काम करने में संकोच नहीं करते जो समाज के लिये अहितकर होते हैं ओर किसी भी सामाजिक व्यक्ति को नहीं करने चाहिये।

शिकागो, जो कि अमेरिका का एक बड़ा शहर है, अपने बड़े-बड़े कसाईखानों के लिये संसार में सबसे बढ़ा-चढ़ा माना जाता है। यहाँ के बूचड़ खानों में प्रतिदिन लगभग पच्चीस-तीस हजार पशुओं का वध किया जाता है। और काटने से लेकर खाल उतारने, माँस पहुँचाने, पशुओं को पकड़कर लाने, खत्ते पर लगाने, रक्त समेटने, ढोने और सफाई करने के साथ माँस काटने, बाँटने और उसका हिसाब-किताब रखने के विभिन्न कामों में लाखों आदमी नियुक्त रहते हैं। यह सबके सब समान रूप से अकरुण स्वभाव के हो जाते हैं। पशु-वध का वह नृशंस हत्या-काँड करते, देखते और उसकी जीविका खाते-खाते उनका निर्दयी हो जाना कोई विलक्षण बात नहीं।

शिकागो के एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ने अनेक वर्षों अपराधों एवं अपराधियों की जाँच करने के बाद अपनी रिपोर्ट में लिखा है-अधिकतर अपराध कसाई घरों के कार्य में लगे व्यक्तियों द्वारा ही किये जाते हैं। इस घृणित पेशे को करते-करते इन लोगों की समस्त सद्-वृत्तियाँ कुण्ठित हो जाती है और तब वे अक्सर अवसर आने पर मनुष्यों पर छुरी फेरने में नहीं हिचकिचाते।” इस प्रकार माँसाहार के कारण समाज का बड़ा वर्ग हृदयहीन होकर नृशंस बन जाता है, जिससे वह समाज का अहित ही किया करता है। जिसकी सद्वृत्तियाँ नष्ट हो गई हों, जो हृदयहीन होकर दारुण स्वभाव का हो गया हो, वह अशाँति, अपराध अथवा अपकार करने वाला न हो ऐसी आशा करना मरु-मरीचिका के समान एक विडम्बना होगी।

एक अपराध केवल एक अपराध तक ही सीमित नहीं रहता। वह शाखा, प्रशाखा में फूट फैलकर अनेक हो जाते हैं। इस प्रकार एक के द्वारा अन्य अनेक प्रकार के अपराधों की वृद्धि होते रहने से समाज की शाँति और व्यवस्था को हानि पहुँचना स्वाभाविक ही है। अशाँत एवं अव्यवस्थित समाज न कभी प्रगति कर पाया है और न कभी कर पायेगा। कहना न होगा कि समाज की इस अशाँति अव्यवस्था का दोष उन माँस भोजियों पर ही जाता है, जिनके लिये पशु काटे जाते हैं और मनुष्य कसाई का काम करके क्रूर एवं असामाजिक बनाता है।

माँसाहार अमानवीय भोजन है। उसके खाने से मनुष्य शरीर में पाशविक विकार आ जाते हैं, विभिन्न प्रकारों रोगों की वृद्धि होती है। वीर्य दूषित हो जाता है, जिसका प्रभाव भावी सन्तान पर पड़े बिना नहीं रहता। रोगी, निर्बल एवं निर्दयी संतानों से राष्ट्र की आगामी पीढ़ियाँ खराब हो सकती हैं। माँस भोजियों के बच्चे प्रारम्भ से ही माँस खाना सीख जाते है। जिससे उनमें वे सब विकार बहुतायत से संचय हो जाते हैं, जो माँसाहार से उत्पन्न होते हैं।

जिन बच्चों को बाल्यकाल से ही दया, प्रेम, सहृदयता, सहानुभूति व सदाचार की शिक्षा दी जाती है, वे आगे चलकर समाज के हितकारी सदस्य और राष्ट्र के योग्य नागरिक बनते हैं। किन्तु जिनमें माँसाहार जैसे क्रूरतापूर्ण कृत्य के द्वारा अकरुण एवं हृदय-हीनता की भावना जगा दी जायेगी, उनका समाज के लिये हितकारी सदस्य बन सकना शत-प्रतिशत सम्भव नहीं। माँसाहार में निरत रखते हुये यदि बच्चों को सुशील नागरिकता की शिक्षा दी भी जाये तो वह उन पर अधिक प्रभाव नहीं डालेगी। उपदेश अथवा शिक्षा के अनुरूप आचार-व्यवहार का निर्माण करने से ही किसी सद्शिक्षा का वाँछित प्रभाव हो सकता है। विद्वानों का मत है कि संसार में फैले दुराचार दुर्भाव, स्वार्थ और संघर्ष का अस्सी प्रतिशत उत्तरदायित्व माँसाहार पर ही है, जिसे मनुष्य चाय से ग्रहण कर अपनी नैतिक, सामाजिक और राष्ट्रीय हानि कर रहा है।

माँस-भोजी बहुधा शराब और तम्बाकू भी पीने लगते है, जिससे माँस भोजन का विकार और भी बढ़ जाता है। माँस भोजन, शराब और तम्बाकू तीनों मिलकर मनुष्य की प्रवृत्तियाँ किस सीमा तक बिगाड़ सकते हैं, इसके लिये समाज शास्त्रियों का यह कथन ही अनुमान कर सकने के लिये पर्याप्त है-चोरी डकैती, बलात्कार, व्यभिचार एवं हत्या करने वालों में अधिकतर वे ही लोग होते हैं, जो माँस, शराब और तम्बाकू का सेवन किया करते हैं। संसार के समस्त अपराधियों की नब्बे प्रतिशत संख्या बहुधा इन्हीं व्यसनों की आदी होती है।

सामाजिक सुख-शाँति और मानवता के मण्डल के लिये आवश्यक है कि संसार से माँस भोजन की प्रथा को उठा दिया जाये। इसकी विकृति के कारण मनुष्य क्रूर एवं क्रोधी बनकर असामाजिक बन जाता है। समाज एवं राष्ट्र के उत्थान क लिये जिन सुन्दर गुणों, सुकुमार भावनाओं और सद्प्रवृत्तियों की आवश्यकता होती है, माँसाहार के कारण उनका स्निग्ध विकास नहीं हो पाता। माँसाहार से मनुष्य में हिंसा की भावना बढ़ती है, जिससे समाज में अशाँति और अमंगल की परिस्थितियाँ उत्पन्न होती हैं। माँसाहार के कारण समाज में बढ़ने वाली विकृतियों को देखकर अमेरिका के प्रसिद्ध प्रचारक श्री ऐजल ने जो भाव किया है, वह ध्यान देने योग्य है। उन्होंने कहा-

“गरीब और अनबोल प्राणियों के वकील की हैसियत से मैं आपको बतलाना चाहता हूँ कि जितनी शीघ्र बच्चों को माँस भोजन से विरत कर उनमें जीव दया और समस्त प्राणियों के प्रति सहानुभूति की भावना जगाने के लिये शिक्षण संस्थाओं में माँगलिक साहित्य का प्रचार किया जायेगा, उतनी शीघ्र नाशकारी हिंसा-भावना की जड़ कटेगी। इतना ही नहीं बल्कि सब प्रकार के अपराधों का मूल नष्ट हो जायेगा। कुकृत्य के बदले दण्ड देने और जेल में बन्द करने से जहाँ एक अपराध को रोका जा सकता है, वहाँ बच्चों को निरामिष भोजी एवं अहिंसक बनाकर आगामी समाज से सारे दुष्ट कार्यों को मिटाया जा सकता है।

दार्शनिक तथा मानव-मण्डल के आकांक्षी महात्मा पैथागोरस ने एक स्थान पर कहा है-

‘‘ऐ मौत के आड़े में उलझे हुये इंसान। अपनी तश्तरियों को माँस से सजाने के लिये जीवों की हत्या न कर। जो पशुओं की गरदन पर छुरी चलवाता है, उनका करुण कुन्दन सुनता है, जो पाले हुए पशु-पक्षियों की हत्या में मौज मनाता है, उसे अत्यन्त तुच्छ स्तर का व्यक्ति ही समझा जाना चाहिये। जो आज पशुओं का माँस खा सकता है, वह किसी दिन मनुष्य का रक्त भी पी सकता है। ऐसी सम्भावना को असम्भव नहीं माना जा सकता।’’

माँस भोजन से होने वाली सामाजिक एवं राष्ट्रीय हानि पर विचार करना और उसे छोड़ देना मनुष्यता का सबसे बड़ा सम्मान है। इस दृष्टि से याज्ञवल्क्य स्मृति का यह वाक्य हृदयंगम करने योग्य है-

“सदन्कामान वाप्नोति तपमेध फलं तथा। गृहेपि निवासत्यिन्दो मुनि माँस विवर्जनात्॥

जो गृहस्थ माँस का त्याग कर देता है, वह मुनि के समान है, उसे अश्वमेध यज्ञ का फल अनायास ही प्राप्त हो जाता है और उसकी मनोकामनायें पूर्ण हो जाती हैं।

First 24 26 Last


Other Version of this book



Version 1
Type: SCAN
Language: HINDI
...

Version 2
Type: TEXT
Language: HINDI
...


Releted Books


Articles of Books

  • सेवा और प्रार्थना
  • आत्म-बल जीवन की महानतम सम्पदा
  • “बिन्दु में सिन्धु समाया”
  • ग्लैडस्टन सोलोमन
  • नास्तिक दर्शन पर वैज्ञानिक आक्रमण
  • हमारी आध्यात्मिक जिज्ञासा और आकांक्षा
  • गिरजाघर का विवाद
  • आत्मा का अस्तित्व-सत्य और तथ्य
  • सद्विचारों की समग्र साधना
  • आत्म-तेजो बलम्-बलम्
  • ब्रह्मचर्य द्वारा आत्म बल का संचय
  • Quotation
  • आत्मा के अस्तित्व का प्रमाण-भूत
  • Quotation
  • पुरुषार्थी ही पुरस्कारों के अधिकारी
  • आत्म-हत्या
  • स्वार्थपरता व्यक्ति और समाज के लिए
  • तर्पण का अर्थ
  • परलोक और पृथ्वी-कितने दूर कितने पास
  • मूर्ख बादशाह
  • जीव-कोषों के मन और मानसोपचार
  • मन को दुर्बल न बनने दें
  • चरित्रवान और संगठित नागरिक
  • स्वप्न और मनुष्य जीवन की गहराई
  • माँसाहार मानवता का अपमान
  • कोलाहल से दूर शान्त एकान्त की ओर
  • कौन अधिक श्रद्धावान
  • जीव जन्तुओं का आध्यात्मिक चेतना
  • कुत्ते की दयालुता
  • गायत्री साधना :- - गायत्री उपासना की रहस्यमयी प्रतिक्रिया
  • अपनों से अपनी बात- - विदाई की घड़ियां और हमारी व्यथा-वेदना
  • सच्चा-जीवन
  • सच्चा-जीवन (Kavita)
Your browser does not support the video tag.
About Shantikunj

Shantikunj has emerged over the years as a unique center and fountain-head of a global movement of Yug Nirman Yojna (Movement for the Reconstruction of the Era) for moral-spiritual regeneration in the light of hoary Indian heritage.

Navigation Links
  • Home
  • Literature
  • News and Activities
  • Quotes and Thoughts
  • Videos and more
  • Audio
  • Join Us
  • Contact
Write to us

Click below and write to us your commenct and input.

Go

Copyright © SRI VEDMATA GAYATRI TRUST (TMD). All rights reserved. | Design by IT Cell Shantikunj