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Magazine - Year 1969 - Version 2

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हमारी आध्यात्मिक जिज्ञासा और आकांक्षा

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आत्म स्वरूप का ज्ञान, जिज्ञासा द्वारा ही संभव है। हम वस्तुतः है क्या-यह बोध तभी हो सकता है, जब हम उसको जानने के लिए उत्सुक और उत्कंठित हो जिस विषय में कोई रुचि, कोई उत्कंठा नहीं होती उसको कदापि नहीं जाना जा सकता।

ज्ञान का जन्म जिज्ञासा द्वारा ही होता है। पूर्वकालीन ऋषियों को जिज्ञासा हुई कि वे यह जाने कि इस अपार और रहस्यमय सृष्टि का आदि उद्गम क्या है? उनकी इस जिज्ञासा ने उन्हें प्रेरित किया और वे साधना मार्ग से शोध में प्रवृत्त हुए, जिसके परिणामस्वरूप उस ईश्वर को खोज ही लाये, जो इस निखिल ब्रह्माण्ड का रचयिता, पालन कर्ता और लय कर्ता है। उनकी जिज्ञासा ने ही उन्हें यह श्रेय प्रदान किया कि वे सृष्टि के रहस्यों, उसके आदि स्त्रोत ईश्वर का पता ही नहीं लगा सके, बल्कि उससे सीधा सम्पर्क भी स्थापित कर सकें।

वैज्ञानिकों को प्रकृति के रहस्यों और उसके उत्पादनों की प्रक्रिया जानने की जिज्ञासा हुई और वे इस खोज में निरत हो गये। उन्होंने पृथ्वी, पवन, जल और अग्नि के भौतिक रहस्य को जाना और उसका उपयोग किया। उन्होंने वनस्पतियों, औषधियों और प्राणियों के आधिभौतिक स्वरूप की जिज्ञासा की, विज्ञाता ने उन्हें शोभा कार्यों में संलग्न किया। जिसके फलस्वरूप आज के विशाल भौतिक विज्ञान, औषधि विज्ञान, वनस्पति विज्ञान और जीव विज्ञान आदि शास्त्रों की रचना हुई।

मानस शास्त्रियों को जिज्ञासा हुई कि यह जान कि मनुष्य के अन्दर चलने वाले द्वन्द्वों का क्या आधार है। जिज्ञासा ने सक्रियता प्रदान की और उन्होंने स्थूल शरीर से भिन्न एक ऐसे निराकार मानसिक संसार का पता लगा डाला, जो बाह्य जीवन का मुख्य आधार है और आज का मानस ज्ञान एक व्यवस्थित शास्त्र के रूप में प्रतिष्ठित है।

अध्यात्म, भौतिक और मानस शास्त्रियों यदि जिज्ञासा न हुई होती तो क्या यह सम्भव था कि यह वैचित्र्यपूर्ण बृहत् ज्ञान मनुष्य जाति के पास होता। जिज्ञासा ही किसी ज्ञान की आधार शिला है, उसकी जननी है। आत्म ज्ञान भी आत्म जिज्ञासा के बिना नहीं हो सकता। यदि अपना, सच्चा और वास्तविक रूप जानना है तो उसे जानने की प्रबल जिज्ञासा करनी होगी, इससे रहित अन्य कोई उपाय नहीं, जिससे मनुष्य आत्मस्वरूप का ज्ञान पा सके। अस्तु, आत्म ज्ञान के लिये जिज्ञासा करिये और उसकी अनुकूल सक्रियता के लिये विचार, भाव और दृष्टिकोण का निर्माण कीजिये आत्मनिरीक्षण करते हुए अनुभवों की लड़ी बनाते चलिये, एक दिन आपकी आत्म ज्ञान हो जायेगा।

निश्चय रखिये कि आप जो कुछ देखते है, वस्तुतः वह ही नहीं है। यदि वास्तव में वही होते तो अपने को पूर्ण और संतुष्ट अनुभव करते, आनन्दित और उल्लसित बातें मनुष्य अपने तन मन और क्रियाओं द्वारा अपने जिस रूप को व्यक्त करता है, वह उसका वह आदिरूप नहीं है जिसकी शोध वाँछनीय है। वह शरीर और उसके उपादान ही होता, तब तो वह अपने को हर समय जाने ही रहता, कुछ और जानने की आवश्यकता ही न होती। किन्तु आवश्यकता है, उसका अनुभव भी होता है और पूर्ति इच्छा थी। यही आवश्यकता इस बात की साक्षी है कि मनुष्य का वास्तविक स्वरूप कुछ और है, जिसको जानना ही चाहिये। क्योंकि उसके बिना न तो पूर्णता प्राप्त हो सकती है और न अक्षय सुख शाँति।

जिस प्रकार एक छोटी सी वस्तु के पीछे एक बृहत् भण्डार, बूँद के पीछे समुद्र, बीज के पीछे वृक्ष और वायु की छोटी सी लहर के पीछे पवनमान अवस्थित है, इसी प्रकार हमारी चेतना के पीछे एक विराट् चेतना छिपी है। जिस प्रकार कोई एक इकाई किसी अनन्तता की साक्षी है, उसी प्रकार हमारी लघु चेतना किसी अखण्ड एवं असीमित चेतना की साक्षी है। जो कुछ वर्तमान अथवा दृश्यमान है, उसका एक आदि स्त्रोत होना ही चाहिये और वह होता भी है। वह प्रच्छन्न आदि स्त्रोत ही किसी वस्तु का सच्चा स्वरूप होती।

बूँद वस्तुतः बूँद नहीं होती है, उसका वास्तविक स्वरूप वह समुद्र है, जिससे वह आई है और जिसमें उसे लय हो जाना ही बीज को उसके उसी रूप में बीज मानना भूल है। बीज वस्तुतः विशाल वनस्पति है, जिससे वह उत्पन्न हुआ है और एक दिन अपना यह माध्यमिक रूप मिटाकर तद्रूप हो जाता है। वायु का लघु प्रवाह एक श्वाँस मात्र नहीं है। वह, वह सर्वव्यापक वायुमण्डल है, जिसमें वह आती और जिसमें जाकर लीन हो जाती है। इसी प्रकार लघु चेतन सागर है, जिसे परमात्मा कहते है और जिससे वह उत्पन्न होता है और अन्ततः जिसमें मिल जाता है। निस्संदेह मनुष्य आत्मा रूप में परमात्मा ही है। वह न शरीर है और न मन, बुद्धि, अहंकार आदि जो कि स्थूल रूप से प्रकट होता रहता है।

यदि सच्ची जिज्ञासा का सहारा लिया जाय तो आये दिन इस सत्य को अनुभव भी किया जा सकता है। यह सत्व तो सर्वथा मान्य ही है कि ईश्वर सच्चिदानन्द स्वरूप है। संसार में जो कुछ सत्य, शिव और सुन्दर है, वह ईश्वर रूप है। जब मनुष्य किसी लहलहाती लता पर हँसते, झूमते किसी फूल को देखता है तो उसे उसके प्रति एक आत्मिक आकर्षण हो उठता है। वह उस सुविकसित एवं सुवासित पुष्प को देखकर केवल प्रसन्न ही नहीं होता बल्कि सोचने लगता है कि कितना अच्छा होता, यदि मैं भी इस पुष्प की तरह सुन्दर सुगंधित और विकसित होता। इसी की तरह संसार को आनन्द देता हुआ, हँसता खेलता और अपने ही आनन्द में मस्त होकर झूमता। हमारा रंग रूप भी इसी की तरह प्यारा प्यारा और आडम्बर रहित होता।

मनुष्य जब वर्षा ऋतु में बादलों की गरज से मत्त होकर नाचते मोर को देखता है तो ठगा सा खड़ा हो जाता है और सोचने लगता है- क्यों न मुझे इस मोर की तरह सुन्दर पंख मिले और क्यों न मैं भी इसकी ही तरह मस्ती पा सका। कितना सुख हो कि इसी की तरह मनमोहक कलेवर पाकर और इसी की तरह विभोरता पाकर मैं भी मदमस्त होकर नृत्य कर सकूँ। इसकी वाणी की तरह मुझे भी लोक रंजन बाह्य मिली होती तो मैं भी बोल बोल कर संसार को अपनी और आकर्षित कर लेता।

मनुष्य जब इतिहास के सत्पात्रों के विषय में बढ़ता अथवा उनकी वीरता, बलिदान और त्याग की कथायें सुनता, किसी सत्पुरुष को जनसेवा और लोक रतन के कार्य करते देखता तो उसके मन में इच्छा होती है कि वह भी जनहित में ऐसे ही साहस और वीरता के काम कर सकता। इसी प्रकार त्याग एवं बलिदान द्वारा आत्मा को सुख दे पाता। इसी स्फूर्ति, दृढ़ता और उत्साह आदि गुणों का अधिकारी बनता तो कितना आनन्द, कितना उल्लास और कितनी सुख शाँति होती।

तात्पर्य यह है कि मनुष्य जिस और जहाँ भी सत्य, शिव और सुंदरम् के साथ सतोगुण का दर्शन करता है, उसकी आत्मा में वैसा बनने की प्यास जाग उठती है। उस उन दृश्यों, उन गुणों और उन महानताओं से तादात्म्य अनुभव होने लगता है। उसकी वह कामना, जिज्ञासा अथवा इच्छा उसकी आत्मीयता की ही द्योतक होती है। वास्तविकता यह है कि वह आकर्षण, वह आत्मीयता उस दृश्य की नहीं होती, जिसे वह बाहर देखता है। उसकी सारी सौन्दर्यानुभूति उसकी अपनी अन्तरात्मा की होती है, जो दृश्य का आत्मबल पाकर स्फुरित ही उठती है और जिसे वह अज्ञानवश बाह्य उपकरणों में मानता है।

मनुष्य का वही सुन्दर स्वरूप जिसे वह बाह्य दृश्यों, पर आरोपित करके देखता है, उसका अपना वास्तविक स्वरूप है, जिसकी उसे जिज्ञासा करनी चाहिये। उसी आन्तरिक सौंदर्य और आनन्दानुभूति को बिना किसी उपादान अथवा आनन्द के देखना और पाना आत्म साक्षात्कार है।

मनुष्य अपने आत्म रूप में बड़ा ही सुन्दर और आनंद मय है। यही कारण है कि जब वह किसी को गदा देखता है तो कामी कामना नहीं करता कि वह भी वैसा ही हो जाता। किसी अपराधी को जेल जाते देखकर उसके मन में यह जिज्ञासा कभी नहीं होती कि वह भी वैसा अपराध करके जेल जा सकता है। किसी शुष्क अथवा निकृष्ट पशु पक्षी को देखकर उसके हृदय में यह उत्सुकता नहीं होती कि वह भी उसी की तरह सूख जाता अथवा उसी की तरह कुरूप बन जाता।

इतिहास में किसी अत्याचारी अथवा आततायी का वर्णन पढ़कर मनुष्य के हृदय में यह भाव नहीं आता कि वह भी उसी की तरह रक्त पात करता, दूसरों को पीड़ा पहुँचता अथवा किसी का धन अथवा समान लूटता तो बड़ा आनन्द रहता। एक ओर जहाँ मनुष्य की सत्य, शिव और सुंदरम् से प्रेम होता है, वहाँ दूसरी ओर दुष्टता, दुराचार और दुराशा से घृणा और विकर्षण भी होता है। यह विवेकपूर्ण अनुभूति बतलाती है कि मनुष्य का स्वरूप वास्तविक स्वरूप सत्य, शिव और सुन्दर का प्रतिरूप है, उसके उस रूप में कुरूपता, असत्य सत्य, शिव और सुन्दर के सिवाय और कुछ नहीं है, अस्तु उसका अंश भी अपने आदि स्त्रोत के समान उसी का स्वरूप है।

निश्चय ही मनुष्य का सत्य रूप ईश्वर रूप ही है। अपने इस स्वरूप के विपरीत कार्य करने वाले या तो पूरे मनुष्य नहीं माने जा सकते अथवा वह मानना होगा कि वे वह सब करके एक मौलिक अपराध कर रहे है, एक पाप कर रहे है, जो उन्हें नहीं करना चाहिये।

यह निश्चय हो जाने पर कि मनुष्य आत्मा रूप में परमात्मा ही है, यदि वह अपने गौरव, अपनी गरिमा और अपने महत्व का प्रतिपादन नहीं कर पाता तो यह उसकी कमी ही कही जायेगी किसी महान पिता का पुत्र होकर भी, किसी शक्तिशाली का अंग होकर भी यदि कोई अपने आपमें निकृष्ट और दीन हीन बना रहना चाहता है तो यह उसका दुर्भाग्य ही माना जायेगा। अन्यथा अपने उच्च से उच्च सर्वोच्च स्वरूप का ज्ञान हो जाने पर निकृष्ट न होगा। ऐसे महान, व्यक्तित्व के पास ईर्ष्या द्वेष, छल कपट, शोषण, क्रूरता आदि आसुरी वृत्तियों का क्या काम रह सकता है।

आइए अपने अन्दर जिज्ञासा जागृत कर अनुभव के आधार पर अपने सत्यस्वरूप का साक्षात्कार करे, उसमें विश्वास और उसी के अनुरूप अपना आचरण बनायें। यदि इस विकास में हमारी निम्न वृत्तियाँ बाधक बनती है तो मान ले कि यही वह अवरोध है, यह वह आवरण है जो हमें अपने वास्तविक स्वरूप की ओर जाते और उसे देखने में बाधा डाल रहा है। सौंदर्यानुभूति और सत्कर्मों की ओर से चलकर और ईर्ष्या द्वेष, मद मत्सर, लोभ, क्रोध आदि दूषणों को छोड़ते हुए आत्मा स्वरूप की ओर सरलतापूर्वक पहुँचा जा सकता है।

हम सब परमपिता परमात्मा, उस सर्वव्यापक और सर्वशक्तिमान तत्व उस आदि एवं अंतिम स्त्रोत से निकली इकाइयाँ है, जिनका वास्तविक स्वरूप वही एक प्रभु एवं विभु है, अपने उस स्वरूप को पहचाने और तद्रूप होकर उसी स्वरूप को प्राप्त करें।

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