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Magazine - Year 1969 - Version 2

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अपव्यय एक पाई का भी न करें

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( पं0 श्रीराम शर्मा आचार्य लिखित और युग-निर्माण योजना द्वारा प्रकाशित

“अपव्यय का ओछापन” पुस्तिका का एक अंश)

आर्थिक क्षेत्र में बुद्धिमान का चिह्न उपार्जन ही नहीं खर्च करने की क्रिया भी है। उपार्जन केवल बुद्धिमत्ता पर ही नहीं बहुत करके परिस्थितियों पर भी निर्भर रहता है। एक सी योग्यता और बुद्धिमत्ता होते हुए किसी को बहुत उपार्जन का अवसर मिल जाता है और किन्हीं को परिस्थितियाँ काफी पीछे छोड़ देती है। हर अधिक उपार्जन करने वाला अधिक सुयोग्य, अधिक बुद्धिमान या अधिक प्रयत्नशील हो सो बात नहीं है। जिसका खाँचा बैठ गया पूँजीवादी अर्थ प्रणाली में वही समृद्धि उपार्जित करने लगता है। पैसा पैसे को कमा सकता है। बापदादों की छोड़ी सम्पत्ति उत्तराधिकार में मिल सकती है। जुआ, सट्टा, लाटरी फल सकती है, चोरी चाण्डाली से भी बहुत कमाया जा सकता है। कहना इतना भर है कि उपार्जन की मात्रा को ही अर्थ क्षेत्र की बुद्धिमत्ता नहीं माना जा सकता। बुद्धिमत्ता की वास्तविक कसौटी यह है कि व्यक्ति किस तरह अपनी कमाई को खर्च करता है।

अनेक व्यक्ति कमाते तो बहुत है पर खर्च करने के सम्बन्ध में बड़े अदूरदर्शी होते हैं जो आता है वही अस्त व्यस्त तरीके में फूँक देते है और आये दिन अभाव ग्रस्त एवं कर्जदार बने रहते है वे पैसे का मूल्य नहीं समझते उसे खिलवाड़ जैसी कोई चीज समझते है और लोग हमें जितना अधिक खर्च करते देखेंगे उतना ही अमीर या बड़ा आदमी मानेंगे और उतना ही सम्मान करेंगे। इस दृष्टि से भी कई व्यक्ति बहुत फिजूल खर्ची करते है। कई तो इतने दुर्व्यसन पाल रखे होते हे कि कमाई का बहुत बड़ा भाग उसी में खर्च हो जाता है।

अनावश्यक रूप से हाथ खुला रखकर यदि पैसा उड़ाया जाय तो कुबेर का खजाना भी खाली हो सकता है और लक्ष्मी को भी दरिद्रता का शिकार बनना पड़ सकता है। कितने बड़े बर्तन में कितना ही पानी क्यों न भरा हो तली का एक छोटा छेद कुछ ही समय में उसे खाली कर देने के लिये पर्याप्त है। बिना सोचे समझे, चाहे जिस काम में- मन की तरंग के आधार पर खर्च करने वाले सदा अभाव ग्रस्त ओर दरिद्र ही रहेंगे भले ही उनकी आमदनी कितनी ही बढ़ी चढ़ी क्यों न हो।

पैसा किस प्रकार, किस काम में कितना खर्च किया जाता है उसको पूरा जान लेने पर ही किसी की बुद्धिमत्ता का स्तर परखा जा सकता है। अपव्यय सबसे बड़ी मूर्खता है। अपनी हैसियत, औकात, आमदनी और आवश्यकता का ध्यान रखे बिना जो अनावश्यक खर्च किया जाता है वह व्यक्ति तथा परिवार के विकास में सबसे बड़ा अवरोध सिद्ध होता है। इन दिनों उचित और आवश्यक कार्य ही इतने बढ़े चढ़े है कि उनकी पूर्ति कठिन हो जाती है। स्वास्थ्य, शिक्षा, चिकित्सा, व्यवसाय आदि आवश्यक कार्या के लिये ढेरों पैसा लगता है। अन्न, वस्त्र, मकान की जरूरतें बहुत सारा पैसा माँगती है। जब तक कुरीतियों का क्रान्तिकारी उन्मूलन न हो जाय तब तक विवाह शादी, अलन–चलन पर्व त्यौहार आदि पर भी पैसा खर्च करना ही पड़ेगा। यदि फिजूल खर्ची की आदत पड़ गई है और पैसों को कागज का टुकड़ा समझकर ज्यों त्यों उड़ा दिया जाता है तो समय पर अनिवार्य आवश्यकताओं के लिये हाथ खाली रहेगा और उनमें खेद पूर्वक कटौती करनी पड़ेगी।

व्यक्ति अकेला नहीं है। वह अनेक पारिवारिक कर्तव्यों ओर उत्तरदायित्वों से जुड़ा हुआ है। बूढ़े माता पिता और छोटे बहिन भाइयों के अतिरिक्त घर में दूसरे लोग भी होते है जो उपार्जन करने वालों से अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति चाहते है। संयुक्त परिवार प्रणाली के साथ जुड़ा हुआ यह एक पवित्र कर्तव्य है कि असमर्थ परिजनो की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए यथा सम्भव कुछ उठा न रखा जाय। विवाह होते ही पत्नी और उसके द्वारा सन्तान के लालन पालन की जिम्मेदारी आती हे। बड़े होने पर उनकी शिक्षा, शादी तथा आजीविका के साधन जुटाने पड़ते है। आजकल आये दिन अस्वस्थता का भी दौर रहता है। चिकित्सा चिकित्सा में कंजूसी करके करके साथियों के जीवन से खिलवाड़ भी नहीं की सकती। पारिवारिक प्रगति के अनेक द्वार खोले जा सकते है और प्रियजनों का सुयोग्य एवं समर्थ बनाने के लिये कितनी पूँजी जुटाई जा सकती है।

यदि अनावश्यक खर्च करने की आदत है तो धन अधिकतर बेकार बातों में ही उड़ जाएगा फिर उचित आवश्यकताओं से वंचित ही रहना पड़ेगा-हमें समझना चाहिए कि कमाते भले ही हम हों पर उस आजीविका में परिवार के हर सदस्य की साझेदारी है। खर्च करते समय परिवार की वर्तमान और भावी आवश्यकताओं का ध्यान रखते हुये यह मानना पड़ेगा कि व्यय करने के मामले में हम स्वतन्त्र नहीं हे। एक सद्गृहस्थ को इसी तरह सोचना चाहिये और अनावश्यक अपव्यय में एक कौडी खर्च करने से पूर्व हजार बार सोचना चाहिये।

आजकल ठाठ-बाठ और फैशन के नाम पर न जाने कितने पैसों की बर्बादी होती है। कीमती पोशाकें, जेवर, शृंगार, सजावट के लिये ढेरों धन बर्बाद होता रहता है। यदि विवेक से काम लिया जाता तो इसे आसानी से बचाया जा सकता था। शौक-मौज के नाम पर कमाई का बड़ा हिस्सा खर्च होता है। खाते पीते लोगों का एक नया व्यसन और है यारबाजी। पतंगबाजी, नशेबाजी, रंडीबाजी आदि की तरह ‘यारबाजी’ भी दुर्गति की निशानी है। निठल्ले, आवारा और सिरफिरे लोग इस तलाश में रहते हैं कि कोई आँख का अन्धा और गाँठ का पूरा ‘दोस्त’ मिले। समय काटने और अपने दुर्व्यसनों में सहायक ढूँढ़ने के लिये बड़ी चाल से और चापलूसी से दूसरों पर दोस्ती गाँठते है और फिर उसकी पीठ पर सवार हो लेते है। गपशप,ताश,चौपड़,सैर सपाटा यही उनके धन्धे रहते है। ऐसे दोस्त जिनके पीछे भूत पलीत की तरह लग जाय तो समझना चाहिये अब इसका बहुमूल्य समय और गाढ़ी कमाई का पैसा पानी की तरह बहेगा। यारबाजी के कुचक्र में सैकड़ों ने अपने को बर्बादी के गर्त में गिराया है।

पारिवारिक उत्तरदायित्वों के अतिरिक्त सामाजिक उत्कर्ष एवं पीड़ितों की सहायता भी मनुष्य का एक पवित्र कर्तव्य है। अपनी आमदनी का एक अंश अपनी श्रद्धा और सुविधानुसार नियमित रूप से लगाते रहना चाहिये, शरीर निर्वाह के अतिरिक्त अपने और अपने परिजनों के बौद्धिक एवं भावनात्मक उत्कर्ष के लिये स्वाध्याय एवं सत्संग के साधन भी जुटाये जाने चाहिये। अनुभवों के एकत्रीकरण के लिए योजनाबद्ध यात्राएँ उपयोगी होती है। मनोरंजन के लिये कुछ खर्च करना चाहिए। निर्वाह के अतिरिक्त उपरोक्त खर्च भी आवश्यक मद में ही जोड़े जा सकते है। इनके लिये कुछ पैसा तभी बचाया जा सकता है जब फिजूल खर्ची की सारी मदे कड़ाई के साथ काट दी जाय। आमदनी हरेक की सीमित ही होती है। अपव्यय की कोई सीमा नहीं। यदि अविवेक पूर्वक खर्च किया जाता रहा तो उससे महत्त्वपूर्ण आवश्यकताएँ ही रोकनी पड़ेगी, परिणाम दोनों ही दृष्टि से अहितकर होगा। अपव्यय से आदतें खराब होगी दुर्व्यसन पल्ले बँधेंगे, गैर जिम्मेदारी की प्रवृत्ति बढ़ेगी ओर तंगी भुगतनी पड़ेगी। दूसरी ओर अपने तथा परिवार के विकार की उचित आवश्यकताएँ पूरी न हो सकने की आत्म-ग्लानि ही रहेगी।

हमें अपनी आमदनी का एक भाग भावी उत्तरदायित्वों की पूर्ति के लिये बचत के रूप में सुरक्षित रखना चाहिये इसके बाद जो बचे उसे बजट बनाकर खर्च करना चाहिये। व्यक्तिगत शौक-मौज का बजट छोटा रहना चाहिए और कड़ाई बरती जानी चाहिए कि उनमें निर्धारित रकम से अधिक तनिक भी खर्च न किया जाय।

पैसा मनुष्य के कठिन परिश्रम का प्रतिफल है। उसका एक एक छोटा सिक्का उचित और उपयुक्त कार्यों में ही खर्च होना चाहिये। धन हमारी भौतिक और आत्म प्रगति में बहुत सहायक हो सकता है। उससे अपना और दूसरों का भारी हित किया जा सकता है पर यह सब होगा तभी जब खर्च के बारे में पूरी सतर्कता बरती जाय। उपयोगी प्रयोजनों की पूर्ति तभी हो सकती है जब अनुपयोगी अपव्यय को कड़ाई के साथ रोका जाय। ऐसी व्यवस्था जहाँ बने वहीं बुद्धिमत्ता का प्रयोग कुछ समझा जाएगा।

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