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Magazine - Year 1969 - Version 2

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मस्तिष्क और मानवीय शक्ति का रहस्योद्घाटन

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अधिक से अधिक तीन पौण्ड भार की मानव खोपड़ी में वैज्ञानिकों की जाँच के अनुसार लगभग 14000500000 (चौदह अरब पाँच लाख) ज्ञान-तन्तु बैठे हुए है। सरकारी कार्यालयों में काम करने वाले क्लर्कों कर्मचारियों और पदाधिकारियों की तरह यह ज्ञान-तन्तु ही सम्पूर्ण शरीर समाज का रिकार्ड, लेखा-जोखा रखते है और एक शुभचिन्तक अभिभावक की भाँति शरीर की समस्त अंग-प्रत्यंगों की सुरक्षा और भरण-पोषण का ध्यान रखते हैं। मस्तिष्क से विलक्षण मशीन और रहस्यपूर्ण प्रयोग शाला इस संसार में दूसरी नहीं। सम्भवतः भगवान् ने जितना जटिल बनाकर वह मनुष्य रूप में इस तरह प्रकट हो गया, जिस प्रकार विचित्र दृश्यों वाले विराट् जगत् में वह विभिन्न क्रीड़ायें किया करती है।

भौतिक दृष्टि से अब तक मस्तिष्क के सम्बन्ध में कुल 17 प्रतिशत जानकारी प्राप्त की जा सकी है, जिसमें मस्तिष्क के अगले भाग (फोरब्रेन) के सम्बन्ध तो अब तक कुल 3 प्रतिशत जानकारी प्राप्त की जा सकी है, शेष 97 प्रतिशत भाग अभी भी अविज्ञात है।

तो भी वैज्ञानिकों ने यह बात मान ली है कि मनुष्य जीवन के सम्पूर्ण सुख-दुःख ईर्ष्या-द्वेष काम-क्रोध तृष्णा-ऐष्णा भय-निर्भयता स्वार्थ-परमार्थ आदि सभी गुण अवगुण यही से सम्बन्धित है, मस्तिष्कीय शक्ति का किसी भी दिशा में विकास करके कैसी भी सफलता प्राप्त की जा सकती है।

फ्राँसीसी वैज्ञानिक प्रो० डेलगाडो ने एक बार बाल से भी अधिक सूक्ष्म विद्युदग्र (इलेक्ट्राड) बनाया और उसे लूलू जंतु की कनपटी में स्पर्श कराया। लूलू बड़ा ही डरपोक जानवर होता है पर विद्युत द्वारा मस्तिष्क के एक विशेष भाग को उत्तेजित करते ही उसका सारा भय निर्भयता में बदल गया और वह इस तरह से कार्य करने लगा जैसे वह कोई शेर हो। उससे अधिक बलवान और खूँखार जानवर उसके लाये गये पर वह तनिक भी नहीं डरा वरन् उल्टे उन्हें धमकाकर यह सिद्ध कर दिया भय जीवन की स्वाभाविकता नहीं है वरन् मस्तिष्क की एक अवस्था मात्र है। हम किसी भी गुण को अपने आप में एक नये सिरे से पैदा करके उसकी पूर्णता प्राप्त कर सकते है।

इस प्रयोग से मानसिक दृष्टि से कमजोर व्यक्तियों को यह सोचने का अवसर मिला कि कमजोरी अपनी भूल है, वस्तुतः दुःख और कमजोरियाँ मनुष्य के लिये है ही नहीं, यदि अपने मस्तिष्क के गुण परक, साहस परक, सुख और आनन्द परक भाग को जागृत रखें तो न हम अपने ही आनन्द से आनन्दित रह सकते है वरन् संसार में और भी जो सर्वत्र गुण और आनन्द के कण बिखरे पड़े है, उनसे भी खींच-खींचकर गुण और आनन्द की मात्रा बढ़ाकर सुख शांति और समृद्धि का जीवन जी सकते है। भय, बुराई और निराशायें यदि अपने ही अन्दर से उत्तेजित हो रही हों तो प्राकृतिक नियम के अनुसार और भी सब जगह से दुःख ही दुःख दौड़ता चला आयेगा और जीवन में जो थोड़ी सी शांति और प्रसन्नता थी उसे भी नष्ट कर डालेगा।

प्रसिद्ध रूसी वैज्ञानिक प्रोफेसर एनोरवीन ने कई प्रयोग करके यह दिखाया कि दुःख या सुख मस्तिष्क से स्रवित होकर रक्त में मिल जाने वाले दो विभिन्न प्रकार के रस है। और यह मनुष्य की इच्छा, स्वभाव और अभ्यास पर निर्भर है कि वह अपने मस्तिष्क के किस स्रोत का स्राव करता है। उन्होंने बताया कि मस्तिष्क की अत्यन्त गहराई में ऐसे सूक्ष्म संस्थान है, जिनका सम्बन्ध मस्तिष्क और रीढ़ की हड्डी को जोड़ने वाले ‘रेटिक्यलर फार्मेशन’ से है। यही से कुछ ग्रंथियों का स्राव होता रहता है। कुछ ग्रंथियों से अच्छे मधुर रस का स्राव होता है, जिससे प्रसन्नता, प्रफुल्लता, मुस्कान, हँसी, मृदुलता, शिष्टता, सौम्यता आदि गुण फूटते रहते है और अच्छा-सा लगता है और दूसरे प्रकार के रस में बुराई के अंश जुड़े रहते है, उससे मनुष्य चिन्तित, दुःखी, निराश और उद्विग्न बना रहता है। डा० एनोरवीन ने यह भी बताया कि इन ग्रन्थियों का स्राव अपने आप नहीं होता वरन् यह सब विचारणाओं से होता है अर्थात् हमारे अच्छे बुरे विचार और भावनायें ही सुख-दुःख की जन्मदाता है।

प्रश्न उठता है-फिर सारा संसार सुखी क्यों नहीं है? उसका एकमात्र कारण है, आसक्ति और पूर्णग्रह। हम सुख और शांति, प्रसन्नता और प्रफुल्लता वाह्य पदार्थों में ढूँढ़ते है, जबकि उनका उद्गार तो अपने ही भीतर है उसे जागृत रखकर ही अपने विचारों में मस्त रहकर ही हम निरन्तर उसका रसास्वादन कर सकते है।

कुछ ऐसी घटनायें भी प्रकाश में आई है, जिनसे पता चलता है कि हमारे जीवन की गतिविधियों के कारण कई बार अत्यन्त प्राचीन अर्थात् पूर्व-जन्मों के संस्कार भी होते है, किन्तु मनुष्य शरीर की बनावट ऐसी है कि मनुष्य इसी जीवन में संस्कारों का वह मैल धोकर पुनः पूर्णानन्द की प्राप्ति कर सकता है।

कनाडा के शोध वैज्ञानिक रिसर्च-साँइटिस्ट डाक्टर डब्ल्यू जीपेन फील्ड ने भी एक ऐसा ही यन्त्र बनाया, जैसा फ्राँस के डा० डेलगाडो ने बनाया था। ऐसा एक व्यक्ति की कनपटी में स्पर्श कराते ही उसकी पूर्व जीवन की स्मृतियाँ जागृत हो गई। वह अपने आप उन मित्रों से बातचीत करने लगा, जो कई वर्ष पूर्व मर चुके थे। एक मिर्गी की बीमार लड़की का मस्तिष्क खोलकर देखा गया जब भी उसे मिर्गी आती थी, उसकी एक नस फूल जाती थी, उस समय हर बार उसे एक ही तरह का भयंकर स्वप्न दिखाई दिया करता था।, डाक्टरों ने अनुमान लगाया, इस स्थान पर किसी भयंकर घटना के शब्द और दृश्य अंकित (टेप) है, उसके उत्तेजित होते ही उसे मिर्गी आने लगती है, स्त्री के वर्तमान जीवन में कभी ऐसी कोई घटना घटी ही नहीं थी। जब उस नस के फलने वाले भाग को काटकर फेंक दिया गया तो स्त्री हमेशा के लिये चंगी हो गयी। इस पर वैज्ञानिकों ने बताया कि हम आज जो भी करते है, चाहे कितना ही छिपकर करें पर वह सबका सब मस्तिष्क में ‘चित्रगुप्त’ अचेतन मन-के लेखे-जोखे की तरह अंकित हो जाता है। अपना मस्तिष्क एक साक्षी तत्त्व है और वह इस सम्बन्ध में किसी से भी पक्षपात नहीं करता है। अच्छे दृश्य, शब्द घटनायें और अनुभूतियाँ मस्तिष्क में होंगी तो उसके सुखद परिणाम मनुष्य भोगेगा और बुरे दृश्य होंगे, बुराइयाँ उसने जीवन में की होगी, तो उनसे भी वह कभी बच नहीं सकेगा।

प्रसिद्ध जीव-शास्त्री जम्स ओल्ड्स के एक विद्यार्थी ने एक चूहे के मस्तिष्क में ऐसा प्रयोग करके दिखाया कि उसके मस्तिष्क के एक भाग को सचेत कर देने से वह अपना व्यक्तित्व ही भूल गया और एक बच्चे की साइकिल का पाइडिल घुमाने लगा, उसे इसमें इतना आनन्द आया कि उसने एक घंटे में कोई आठ सौ पाइडिल घुमाये, इस बीच उसके आगे मीठे भोजन का थाल भी रखा गया जिसे खाना और सूँघना तो दूर उसने देखा तक भी नहीं।

एक शरीर में भिन्न व्यक्तित्व का सन्निहित होना यह बताता है कि मनुष्य जीवन आत्म-विकास की एक कड़ी है, हमारी ज्ञान-धारायें हमारी चेतना शाश्वत है उसे शुद्ध, पवित्र, बलवान और आनन्दपूर्ण बनाकर हम सदैव ही अच्छे जीवन का आनन्द ले सकते हैं

जो थोड़ी-सी घटनायें पाश्चात्य वैज्ञानिकों ने चूहों, बन्दरों पर प्रयोग करके देखी, वह वस्तुतः हमारे सामने प्रतिदिन, प्रतिक्षण घटित होती रहती है। भारतीय योगियों ने हमें जप करना, प्रार्थना करना, सेवा, सहयोग और सहानुभूतिपूर्ण जीवन जीना सिखाया है, उसके पीछे उनकी आत्म-चेतनता की गहनतम खोजें, प्रयोग और अनुभूतियाँ ही है, उन्होंने देखा था, हम जो भी है या जो कुछ रहे हे और आगे होंगे, वह सब मस्तिष्क की रचना है। चोट लगती है पाँव में अनुभव करता है मस्तिष्क, रोती है आँखें दुःख करता है मस्तिष्क, पत्थर उठाते है हाथ किन्तु उसके लिए आदेश देता है मस्तिष्क, अन्धकार होता है, हमारे शरीर से काई वस्तु टकराती है, उसकी चिन्ता करता है मस्तिष्क, विश्लेषण करता है मस्तिष्क और फिर उसे बचने या उठा लेने की बात सोचना और आदेश भी देना यह सब मस्तिष्क के ही कार्य है, इसलिये उन्होंने मस्तिष्क की ही खोज करने का निश्चय किया।

भ्रूमध्य (दोनों भौहों के बीच) एक प्रकाशपूर्ण प्रयोगशाला की शोध करना उसी का प्रतिफल था। भारतीय योगियों ने ध्यान जमाकर देखा कि शरीर में एक चेताना काम करती है, ‘मन’ नामक इस चेतना के द्वारा उन्होंने इसके द्वारा सारे शरीर को अपने वाहन की तरह नियंत्रण में करने का लाभ प्राप्त किया, जैसा कि संसार के इतिहास में आज तक कहीं नहीं हुआ। लोग समय नहीं लगाना चाहते, उस कष्ट-साध्य प्रक्रिया से नहीं गुजरना चाहते और एक बात यह भी है कि भौतिकता के चंगुल से छूटना उन्हें अच्छा भी नहीं लगता, अन्यथा ध्यान और जप प्रणाली के द्वारा इन तथ्यों को आज भी एकाग्रचित्त होकर ढूँढ़ा और उनसे लाभान्वित हुआ जा सकता है।

यह बात तो डाक्टर और एनाटामिस्ट्स भी जानते है कि दोनों भौहों के सीध में जहाँ दोनों आँखों की नसें (आप्टिकनर्ब्स) मिलकर आप्टिक कैजमा बनाती है, उस स्थान पर ‘पिचुट्री’ नाम की एक ग्रन्थि (ग्लैण्ड) पाई जाती है, यही से सारे शरीर का नियन्त्रण करने वाले क्रोध, भय, चिन्ता, प्रसन्नता आदि के हारमोन्स निकलते है इसका सारे शरीर में नियन्त्रण है, इसीलिये इसे स्वामी ग्रन्थि (मास्टर ग्लैण्ड) कहते है। भारतीय इसे ही मन ‘आज्ञा चक्र’ कहते है। इसी में सूँघने, स्वाद अनुभव करने, देखने आदि का ज्ञान होता है। यहाँ पर दाहिने-बायें दो बल्ब (आल फैक्ट्री बाल्ब्स) लगे होते है। इनकी सूक्ष्म रचना के बारे में तो वैज्ञानिक नहीं जान पाये, किन्तु वे यह मानते है कि इस स्थान की आन्तरिक जानकारी मिलने से मस्तिष्क और शरीर के सूक्ष्म अंतर्वर्ती रहस्यों का पता लगाया जा सकता है।

मन को स्वस्थ और प्रसन्न रखकर अपने आपको प्रसन्न रखने का एक तरीका मनोवैज्ञानिक है, दूसरा वैज्ञानिक। पर वह यंत्रों से नहीं मन की इसी सूक्ष्म-शक्ति के नियन्त्रण से ही प्रयोग में लाया जा सकता है। हम जो कुछ भी है मस्तिष्क है, हमारी जो कुछ भी शक्तियाँ है, वह मस्तिष्क में सन्निहित है। मस्तिष्क को जाने बिना न तो हम शरीर की यथार्थता का पता लगा सकते है और न अपने आपका। मस्तिष्क में ही आत्मा है, परलोक पुनर्जन्म, विश्वज्ञान और परमात्मा भी उसी में है। तत्त्व-दर्शन का आधार मस्तिष्क है, मस्तिष्क की सूक्ष्म प्राण और मनोमय प्रणाली को जान लिया जाये तो सम्पूर्ण ज्ञान-विज्ञान सुख-सन्तोष एवं आनन्द को करतल गत किया जा सकता है।

ध्यान बिन्दु उपनिषद् में लिखा है-

कपाल कुहरे मध्ये चतुर्द्वारस्य मध्यमें।

तदात्मा राजते तत्र यथाव्योम्नि दिवाकरः॥

कोदण्डद्वय मध्येस्तु ब्रह्मरन्ध्रेषु शक्ति च।

स्वात्मानं पुरुषं पश्येन्म्नस्तत्र लयं गतम॥

रत्नानि ज्योत्स्निनादं तु बिन्दुमाहेश्वरं पदम्।

य एवं वेद पुरुषः सकैवल्यं समश्नुते॥

-ध्यानबिन्दु. 103 से 106

“अर्थात् कपाल कुहर के मध्य में चारों द्वारों (आँख, कान, नाक, मुख) का मध्य स्थान है, वहाँ आकाश रन्ध्र से आता हुआ नाद मोर के नाद के समान सुनाई देता है। जैसे आकाश में सूर्य विद्यमान् है, उसी प्रकार यहाँ आत्मा विराजमान् है और ब्रह्म-रन्ध्र में दो कोदण्ड के मध्य शक्ति संस्थित है। वहाँ पुरुष अपने मन को लय करके स्वात्मा को देखो वहाँ रत्नों की प्रभा वाले नाद, बिन्दु महेश्वर निवास है, जो इसे जानता है कैवल्य को प्राप्त होता है।”

वैज्ञानिक पद्धति से मस्तिष्क के अधिक से अधिक 17 प्रतिशत भाग को जाना जा सकता है, जबकि अत्यन्त कौतूहल वर्धक रहस्य, शेष 83 प्रतिशत में छिपे है। सुपीरियर एण्ड इन्फीरियर सेरेयल पेडेवल्स के बीच अवस्थित मस्तिष्क में ही सम्पूर्ण दृश्य केन्द्र (आप्टिक एरिया) अनुभूति केन्द्र (सेन्सरी एरिया) बने हैं मस्तिष्क से निकलने वाली सभी नसों के नाभिक (न्यूक्लियाई) ड़ड़ड़ड़ पर हैं यहाँ एक अद्भुत संसार छिपा है पर उसे यन्त्रों से नहीं, भावनाओं से, ध्यान से ही देखा जा सकता है, उसकी जानकारी चित्त-वृत्तियों के निरोध, एकाग्रता, आध्यात्मिकता के समन्वय से ही की जा सकती है, अन्य के उपाय शायद ही सम्भव हो।

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