Magazine - Year 1971 - Version 2
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Language: HINDI
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प्रेम की सृजनात्मक शक्ति
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सृजन प्यार से प्रारम्भ होता है। जिस वस्तु, व्यक्ति या परिस्थिति से हम प्यार करते हैं उसे प्राप्त करने की इच्छा होती है और जिसकी इच्छा होती है उसके लिए प्रयत्न किया जाता है। यह प्रयत्न ही सफलता का जनक है। मोटे तौर से किसी सफलता का श्रेय उसके लिये किये गये प्रयत्न या पुरुषार्थ को दिया जाता है पर यह स्थूल निरूपण है। गहराई तक जाने पर पता चलेगा कि प्रयत्न और पुरुषार्थ जैसे कष्टकर भार को कोई अनायास ही उठाने को तैयार नहीं हो जाता। उसके मूल में तीव्र इच्छा अभीष्ट को प्राप्त करने की होनी चाहिए तभी शरीर और मन का सुव्यवस्थित पुरुषार्थ बन पड़ता है। इच्छा में जितनी शिथिलता होगी, पुरुषार्थ उतना ही अधूरा रहेगा और उस अधूरे पुरुषार्थ से सफलता भी आँशिक, अस्त व्यस्त या संदिग्ध ही रहेगी। स्कूल जाने वाले छोटे बच्चे को जब तक विद्या का महत्व मालूम नहीं होता, उसे प्राप्त करने की इच्छा नहीं जगती और स्कूली वातावरण में कोई तात्कालिक आकर्षण नहीं दीखता तो वह पढ़ने जाने में अरुचि दिखाता है और हीलाहुज्जत करता है। पर जब उसे विद्या का महत्व मालूम हो जाता है और विद्वान बनने, उपाधि प्राप्त करने की आकाँक्षा प्रबल होती है तो बिना किसी के कहे स्वयं रात को देर तक जगता है। पूछने जहाँ तहाँ जाता है और उसके लिये पूरी मेहनत करता है। इसी बालक को यदि कोई ऐसा काम करने के लिए कहा जाये जिसमें उसकी रुचि न हो तो इस प्रकार की दौड़−धूप उससे बन ही न पड़ेगी। तब सफलता की तो आशा ही कैसे की जायेगी। तात्पर्य यह हुआ कि सफलता के मूल में प्रत्यक्ष आँखों से जो पुरुषार्थ कारण मालूम पड़ता है वह स्वतन्त्र नहीं हुआ वरन् इच्छा का फलितार्थ मात्र है। इसलिये श्रेय भी इच्छा को ही मिलना चाहिए भले ही वह प्रत्यक्ष दिखाई न पड़ती हो। अब थोड़ा और गहराई तक प्रवेश करें तो पता चलेगा कि इच्छा भी अनायास ही नहीं उठ पड़ती। वह उसी दिशा में चलती है जिसमें अपना प्यार होता है। इसमें लाभ हानि का आकर्षण मुख नहीं है। अन्तरंग में वह आकर्षण का प्रधान है, जिसे प्यार कहा जा सकता है। प्यार के कारण जो उत्कट आकांक्षाएं उठती हैं वे सदा साँसारिक दृष्टि से लाभकर ही नहीं होती, वरन् कई बार तो पूरी तरह हानिकारक ही होती हैं तो भी उस हानि को उठाने में प्रेमी प्रत्यक्ष लाभों की अपेक्षा भी बहुत अधिक महत्व देता है और उस जोखिम को उठाने के लिए सहर्ष तैयार रहता है। मीरा ने प्रभु प्रेम को प्रत्यक्षतः क्या पाया। घर-द्वार, राज-पाठ, सुख साधन छोड़कर बावली की तरह बाहर वालों की उपहासास्पद और घर वालों की कोपभाजन बनी रही और कष्ट तथा अभाव भरा जीवन जीती रही। ईश्वर भक्ति में प्रत्यक्षतः घाटा ही रहता है। जितना परिश्रम और मनोयोग भक्ति के लिए लगता है उतने में तो ढेरों पैसा और सुख साधन कमाये जा सकते हैं। पर भक्ति भावना से प्रेरित मनुष्य उस लाभ को छोड़कर अपनी भावना में निमग्न रहने को ही सर्वोपरि मानता है। साँसारिक प्रेमियों को ही देखें, तो लगता है वे भी कम कष्ट नहीं उठाते। इंग्लैण्ड के राजा एडवर्ड ने अपनी प्रेमिका सिम्पसन के लिए इतने बड़े साम्राज्य का सिंहासन खुशी-खुशी त्याग दिया। लैला-मजनू, शीरी फरिहाद की पुरानी गाथाओं के नये संस्करण भी जहाँ तहाँ देखने सुनने को मिलते ही रहते हैं। यह तथ्य बताते हैं कि प्यार भरी भावनाएं मूर्तिमान करने की इच्छा से प्रेरित होकर व्यक्ति ऐसे पुरुषार्थ भी कर सकता है जिसमें साँसारिक दृष्टि से हानि ही हानि दीखती है, लाभ की तो वहाँ कोई सम्भावना ही नहीं रहती। सफलता-पुरुषार्थ पर पुरुषार्थ इच्छा की तीव्रता पर निर्भर रहता है। और यह इच्छा जहाँ से उठती है उस मूल उद्गम का नाम है प्यार। प्यार अन्तरात्मा की एक स्वाभाविक वृत्ति है। क्योंकि आनन्द नाम का तत्व मात्र उसी में सन्निहित है। सुख साधन तो पदार्थों के द्वारा मिल सकते हैं। अथवा लोगों के शरीर खराद कर उनके द्वारा उपलब्ध किये जा सकते हैं पर आनन्द दूसरी ही चीज है। उसे आत्मा की छाया कह सकते हैं। अन्तःकरण जिस पर अपनी आत्मीयता का आरोपण कर देता है उसमें उससे अपनी प्रतिच्छाया प्रतिध्वनि का दर्शन होता है यही प्यार है। आत्मा अपने आप अपने को देख नहीं सकता अपने रस को स्वयं चख नहीं सकता, इसके लिए उसे किसी दूसरे माध्यम की जरूरत पड़ती है। अपना मुख अपने आप देख सकना कठिन है इसके लिये दर्पण की जरूरत पड़ती है। उसी प्रकार आत्म रस को निचोड़ने और उसका आस्वादन करने के लिए किसी दूसरे निर्जीव या सजीव माध्यम की जाय जरूरत पड़ती है इस संदर्भ में जिसका भी चुनाव हो जाय वही प्रिय लगने लगता है और उसकी समीपता, प्राप्ति एवं एकाकरित के लिए अन्तःकरण में उत्कट उमंग उठने लगती है। वस्तुतः इस उमंग का नाम ही प्यार है। वह पदार्थ या व्यक्ति जिससे प्यार किया गया है वह तो गौण निमित्त-अथवा माध्यम मात्र हैं वस्तुतः प्रेम आत्मा का रस है और वह अपने आप अपने अन्तरंग में उठता उमड़ता है। अपने आप ही अपने को आनन्द और उल्लास से पूर्ण करता है। इस दिव्य तत्व की कुछ बूंदें जिस पर पड़ जायें वह तो उस अमृत का तनिक सा रसास्वादन करने मात्र से धन्य हो जाता है। सृजन मात्र प्रतिक्रिया है। क्रिया के अन्तरंग में तो प्यार को ही देखा जायेगा। जिस प्रयोजन से गहरा प्यार हो जाता है भले ही वह विवेक की कसौटी पर हानिकारक ही क्यों न हो उसे उपलब्ध करने के लिए व्यक्ति इतनी शक्ति लगा देता है जितनी उसमें दिखाई भी नहीं पड़ती थी। फरहाद ने शरी को प्राप्त करने के लिए ऊँचे पहाड़ को काटकर उस नगर तक नहर खोद लाने का असम्भव दीखने वाला काम पूरा किया था। वैज्ञानिकों, अन्वेषकों, महामानवों, दुस्साहसियों और अद्भुत सफलताएं प्राप्त करने वालों-आश्चर्यजनक कार्य कर दिखाने वालों की गतिविधियों और परिस्थितियों का विश्लेषण किया जाये कि साधन उनके पास बहुत नहीं थे, परिस्थितियाँ भी अनुकूल नहीं थी। पर उनकी लगन उफन पड़ती थी। वे अभीष्ट प्रयोजन से अत्यधिक प्यार करते थे और उसे प्राप्त करने के लिए पूरे भावावेश के साथ लालायित थे। उस उत्कंठा ने मन्द बुद्धि मस्तिष्क में नई नई सूझ बूझें उत्पन्न की, जो लोग उपहास उड़ाते थे उन्हें तत्परता ने प्रभावित किया और जो साधन सम्भव दिखाई नहीं पड़ते थे वे न जाने कहाँ से दौड़ते चले आये और उस प्रयोक्ता के सामने उपस्थित हो गये। इसे कोई दैवी वरदान कहना चाहे तो कहे वास्तव में देवत्व का एकत्रीकरण मानवीय अन्तःकरण में प्यार के रूप में ही हुआ है और वह जिस दिशा में पूरी तरह नियोजित हो जाता है वहाँ चमत्कार ही चमत्कार उत्पन्न करता है। दैवी वरदान को दूसरे शब्दों में प्रेम की शक्ति का चमत्कार भी कह सकते हैं। प्यार में सृजन की अद्भुत शक्ति भरी पड़ी है। शक्ति शक्तियों का पुंज है। ईश्वर का युवराज होने के कारण उसे वह सब संपदाएं तथा विभूतियाँ सहज ही उपलब्ध हैं जो इस संसार में प्रकट या अप्रकट रूप में विद्यमान है। पर यह सब प्रायः सुषुप्त अवस्था में पड़ी रहती है। समुद्र मंथन की तरह प्रबल प्रयास करने पर ही इन्हें सजग, सक्रिय और समर्थ बनाया जा सकता है। अन्तःकरण के समुद्र को मथ डालने का प्रयोजन केवल प्रेम ही पूरा कर सकता है। प्रेमी की समस्त जागृत और सुषुप्त सामर्थ्य सजग होकर अभीष्ट दिशा में संलग्न हो जाती है। नीरस मनोभूमि वाली स्थिति में जितना मनोबल था उसकी तुलना में प्रेमी बनने के बाद हजार गुना मनोबल जाग पड़ता है। और उस आधार पर इतने बड़े काम कर डालना सम्भव हो जाता है जिनका उस व्यक्ति की पूर्व स्थिति को देखते हुए तारतम्य मिलाना कठिन हो जात है। प्रेम स्वयं सृजन है। वह जहाँ उत्पन्न होता है वहाँ देवत्व उत्पन्न करता है और जिस पर उसे प्रयुक्त किया जाता है वह समर्थ बनता है। शर्त इतनी ही है कि प्रेम सच्चे अर्थों में प्रेम होना चाहिए।