Magazine - Year 1971 - Version 2
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प्रेम तत्व-वैज्ञानिक विश्लेषण और उसका महान महत्व
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कई छोटे बच्चे ऐसे मिले जिनमें बाल्यकाल से ही विध्वंसात्मक प्रवृत्तियों का विकास आयु के अनुपात से कई गुना अधिक था। न्यूयार्क (अमेरिका) के डाक्टर रेनी स्पिट्ज ने उनकी पारिवारिक परिस्थितियों की जानकारी प्राप्त की तो मालूम हुआ कि उनमें से 99 प्रतिशत ऐसे थे जिन्हें अपनी माँ का प्रेम नहीं मिला था। या तो उनकी माँ का देहावसान हो चुका था या सामाजिक परिस्थितियों ने उन्हें माँ से अलग कर दिया था- स्थिति कुछ भी रही हो परिणाम एक ही था कि वे बच्चे आत्मिक दृष्टि से बड़े क्रूर और उत्पाती थे।
इस प्रारम्भिक अन्वेषण ने डॉ. रेनी स्पिट्ज को प्रेम भावना के वैज्ञानिक विश्लेषण की प्रेरणा भर दी। उन्होंने दो भिन्न सुविधाओं वाले संस्थानों की स्थापना की एक में वह बच्चे रखे गये जिन्हें थोड़ी थोड़ी देर में माँ का वात्सल्य और दुलार प्राप्त होता था। वे जब भी चाहें, जब भी माँ को पुकारें उन्हें अविलम्ब वह स्नेह सुलभ किया जाता था और दूसरी ओर वह बच्चे रखे गये जिनके लिये बढ़िया से बढ़िया भोजन, वस्त्र, आवास, चिकित्सा, क्रीड़ा के बहुमूल्य साधन उपस्थित किये गये पर मातृ प्रेम के स्थान पर इन्हें एक संरक्षिका भर मिली थी जो दस-दस बारह-बारह बालकों का नियन्त्रण करती थी। प्रेम और दुलार इतने बच्चों को वह भी कृत्रिम वहाँ अकेली नर्स कहा से दे पाती ? हाँ कभी-कभी झिड़कियाँ उन बच्चों को अवश्य पिला देती। उन बच्चों का यही था जीवन क्रम।
एक वर्ष बाद दोनों स्थानों के बच्चों का परीक्षण किया गया। उनकी कल्पना शक्ति की मनोवैज्ञानिक जाँच, शारीरिक विकास की माप, सामाजिकता के संस्कार, बुद्धि चातुर्य और स्मरण शक्ति का परीक्षण किया गया। जिस प्रकार दोनों संस्थानों की परिस्थितियों में पूर्ण विपरीतता थी परिणाम भी एक दूसरे से ठीक उलटे थे, जिन बच्चों को साधारण आहार दिया गया था- जिनके लिए खेलकूद, रहन-सहन के साधन भी उतने अच्छे नहीं दिये गये थे किन्तु माँ का प्रेम प्रचुर मात्रा में मिला था पाया गया कि उन बच्चों की कल्पना शक्ति, स्मृति सामाजिक सम्बन्धों के संस्कार शरीर और बौद्धिक क्षमता का विकास 101.5 से बढ़कर एक वर्ष में 105 विकास दर तक बढ़ गया था। दूसरे संस्थान के बच्चों की, जिन्हें भौतिक सुख-सुविधाओं की तो भरमार थी पर प्यार के स्थान पर गहन शून्यता, विकास दर 124 से घटकर 72 रह गयी थी। इन बच्चों को उसी अवस्था में एक वर्ष तक और रखा गया तो पाया कि वह औसत 72 से भी घटकर बहुत ही आश्चर्यजनक बिन्दु 42 तक उतर आया है। पहली संस्था के बच्चों के शारीरिक विकास के साथ दीर्घ जीवन में भी वृद्धि हुई क्योंकि देखा गया कि उस संस्थान में जो 236 बच्चे रखे गये थे उनमें से इस दो वर्ष की अवधि में एक भी शिशु की मृत्यु नहीं हुई जबकि प्यार-विहीन बच्चों वाले संस्थान के 37 प्रतिशत शिशु काल के मुख में अकाल समा गये।
प्रेम की विधायक शक्ति संसार की समस्त शक्तियों से सर्वोपरि है आज का संसार प्रेम के लिए तड़प रहा हैं किन्तु परिस्थितियाँ मनुष्य ने अपनी ही भूल से ऐसी विकृत करलीं कि घर-बार--धन-सम्पत्ति--मकान परिवार सब कुछ होते हुये भी किसी को निस्वार्थ प्रेम उपलब्ध नहीं। इन्द्रिय सुखों की हुड़क और ललक का तो सर्वत्र बोलबाला है किन्तु आत्मा को असीम शक्ति और शान्ति प्रदान करने वाला प्रेम कहीं नाम मात्र को भी दिखाई नहीं देता। डा0 एड्रीन वान्डेर के अनुसार आज जो सर्वत्र पागलपन (न्युरासिस) की स्थिति दिखाई दे रही है वह मातृवत् प्रेम के अभाव के कारण ही हैं।
मनुष्य सर्वोपरि आत्मा है शेष सब पीछे की बातें हैं। शरीर गौण है आत्मा प्रधान-सो आत्मा की तृप्ति का स्थान प्रथम और शारीरिक सुविधाओं का गौण है। जड़ को खुराक, पानी मिलता रहे तो वृक्ष अपने विकास की सुविधायें कहीं से भी अपने आप जुटा लेता है पर बाहर से उसकी पत्तियों में पानी छिड़का जाता रहें, धूप दी जाती रहें खाद और कीटाणु नाशक बुरके जाते रहें पर जड़ को न तो दिया जाये पानी और न खुराक ऐसी स्थिति में पेड़ जी सकेगा ? प्रेम आत्मा की प्यास और हर हृदय की एकमात्र चाहना है यदि प्रेम न मिलेगा तो जीवन हरा-भरा न रह सकेगा। वह मुरझायेगा और अवश्य मुरझायेगा चाहे बाहर से उसे धन-सम्पत्ति यश और वैभव के भाण्डागार में ही क्यों न गाड़ दिया जाये।
डा0 फ्रीट्स टालबोट एकबार जर्मनी गये। वहाँ उन्होंने ड्यूशेल्डोर्फ नगर का बच्चों का अस्पताल देखा। इस अस्पताल में उन्होंने एक वृद्ध स्त्री देखी जो देखने में आकर्षक भी नहीं थी किन्तु जितनी भी बार डा0 टालबोट ने इसे देखा उसकी मुखाकृति में एक विलक्षण शांतिप्रद सौम्यता और मुस्कान उन्होंने देखी। हर समय उसकी बगल में कोई न कोई बच्चा दबा हुआ होता। टालबोट के मन में उस स्त्री को देखकर उसे जानने की अनायास जिज्ञासा उत्पन्न हो गई उन्होंने अस्पताल के डाइरेक्टर ने उस स्त्री का परिचय पूछा तो-डाइरेक्टर ने बताया - वह तो अन्ना है श्रीमान जी ! डाक्टरों की डाक्टर ! एक ही औषधि है उसके पास-’प्रेम’ जिन बच्चों को हम असाध्य रोगी घोषित कर देते हैं अन्ना उन्हें भी अच्छा कर देती है।
यह घटना उन दिनों की है जब अमेरिका - इंग्लैंड आदि विकसित देशों में भी अस्पतालों में भरती होने वाले अधिकांश बच्चे मृत्यु के ग्रास बन जाते थे क्योंकि वे अपनी बीमारी बता नहीं पाते थे और डाक्टर रोगों को पहचान नहीं कर पाते थे किन्तु अन्ना ने यह दिखा दिया कि बच्चे ही नहीं प्रेम तो हर मनुष्य की औषधि है संजीवनी है, अमृत है प्रेम पाकर कोई व्यक्ति मर नहीं सकता। अन्ना इसे प्रयोग करके दिखाती थी। अस्पताल के असाध्य रोगी बच्चों को छाती से चिपकाये वह अस्पताल के अहाते रोगी घूमती, काम करती और अपने इस सामान्य जैसे जीवन क्रम में ही केवल बच्चों को चूम-चूमकर उन्हें हार्दिक स्नेह दुलार के साथ कभी नहला कर, कभी चोटी गुह कर, कभी खेल खिलाकर यह विश्वास करा देती कि अन्ना के अन्तःकरण में प्रेम का सागर लहराता है और वह समस्त समुद्र उसी के लिये है रोगी अपना कष्ट भूल जाता अच्छा होने लगता पथरी जो आपरेशन से निकालना कठिन होता अन्ना का प्यार उसे गला कर नष्ट कर देता जो कीटाणु वर्षों औषधि खाने पर भी नहीं मरते अन्ना का प्रेम उन्हें दो दिन में नष्ट कर देता और अन्ना ही वह प्रकाश थी जिसने योरोप को पहली बार शिशु सदनों में बाल विकास अस्पतालों में रोगियों की चिकित्सा में प्रेम-माधुर्य को सर्वोपरि स्थान देने की व्यवस्था बनाईं।
प्रेम की “सृजन शक्ति” दुनिया की हर ताकत से बड़ी है। प्रेम की तुलना तो भगवान से ही हो सकती है प्राणियों का जीवन आधार यह प्रेम ही है प्रेम सुधा पीकर मरणासन्न भी जी उठते हैं फिर यदि जीवितों को प्रेम पयपान का अवसर मिल जाये तो वसुन्धरा स्वर्ग बन जाये न कोई रोगी रहे न दुःख यदि संसार में एकबार निस्वार्थ प्रेम का सागर लहरा जाये।