Magazine - Year 1971 - Version 2
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Language: HINDI
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चेतना की प्रचण्ड ज्योति ज्वाला-कुण्डलिनी
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कुण्डलिनी शक्ति का एक नाम ‘जीवन अग्नि’ (फायर आफ लाइफ) भी है। जो कुछ भी चमक, तेजस्विता, आशा, उत्साह, उमंग, उल्लास दिखाई पड़ता है, उसे उस अग्नि का ही प्रभव कहा जा सकता है। शरीरों में बलिष्ठता, निरोगता, स्फूर्ति, क्रियाशीलता के रूप में और मस्तिष्क में तीव्र बुद्धि, दूरदर्शिता, स्मरण शक्ति, सूझ-बूझ कल्पना आदि विशेषताओं के रूप में यही परिलक्षित होती है। आत्म-विश्वास और उत्कर्ष की अभिलाषा के रूप में धैर्य और साहस के रूप में इसी शक्ति का चमत्कार झाँकते हुए देखा जा सकता है। रोगों से लड़कर उन्हें परास्त करने और मृत्यु की सम्भावनाओं को हटाकर दीर्घजीवन का अवसर उत्पन्न करने वाली एक विशेष विद्युत्-धारा जो मन में प्रवाहित होकर समस्त शरीर को सुरक्षा की अमित सामर्थ्य प्रदान करती है उसे कुण्डलिनी ही समझा जाना चाहिए। यह जीवन अग्नि इस समस्त विश्व ब्रह्मांड में संव्याप्त हैं। जड़ पदार्थों में जब यह काम करती है तब उसे विद्युत कहते हैं अध्यात्म भाषा में इसे अपरा प्रकृति कहा गया है। पदार्थों का उद्भव, अभिवर्धन एवं परिवर्तन इसी की प्रक्रिया से होता है। पदार्थ निर्जीव है पर उसमें यह त्रिविधि हलचल होती रहती है। हलचल न हो तो जड़ पदार्थ कही जानी वस्तुएं भी स्थिर निश्चल हो जाये और सर्वत्र शून्यता नीरवता ही दिखाई पड़ने लगे। अपरा प्रकृति विश्व विद्युत अणु संचालन से लेकर विविध विधि दृश्य जगत की गतिविधियों का संचार करती है। इस प्रकार वे जड़ कहे जाने वाले पदार्थ भी एक तरह की चेतना ज्ञान बुद्धि अनुभूति से रहित जीवन तत्व से भरे हुए ही है। अपने ढंग का जीवन उनमें भी विद्यमान है। जीवन अग्नि का दूसरा रूप है-परा प्रकृति। इसे प्राणियों की अनुभूति कह सकते हैं। बुद्धि विवेक, इच्छा, ज्ञान, भावना आदि इसी के अंग है। अचेतन मस्तिष्क को केन्द्र बनाकर यही परा प्रकृति उनकी शारीरिक, मानसिक, स्वाभाविक गतिविधियों का अविज्ञात रूप से संचालन करती रहती है। श्वाँस-प्रश्वाँस, रक्ताभिषरण निद्रा जागरण, क्षुधा, मल त्याग एवं देह के भीतरी अंग-प्रत्यंगों का संचालन उसी के द्वारा होता है। उसकी दूसरी क्रिया चेतन विज्ञात मस्तिष्क के द्वारा-अन्तःकरण बनकर दृश्यमान होती है। इसे व्यक्तिगत क्रिया-कलाप में जीवन अग्नि का ही कर्तृत्व कहना चाहिए। यह परा और अपरा और परा प्रकृति में प्रत्यक्ष अनुभव में आने वो परखे जाने वाले स्थूल क्रिया-कलाप है। इसी क्रिया का पदार्थ गत-व्यक्तिगत एवं विभाजित भी कह सकते हैं। व्यष्टि इसी का नाम है। इससे उच्च स्तर की सूक्ष्म चेतना और है जिसे विश्व व्यापी सामूहिक एवं समष्टि कह सकते हैं। यह यन्त्रों और उपकरणों से इन्द्रियों से-मनः चेतना से भी प्रकट, स्पष्ट और सिद्ध नहीं होती। पर उसका अस्तित्व असंदिग्ध रूप से है। इस जड़ चेतन जगत के संचालन में जो व्यवस्था, क्रम-बद्धता और नियमितता दीख पड़ती है उसके आधार पर उसे ज्ञान दृष्टि से देखा जा सकता है। वह चेतना सत्ता अनुभूति एवं सम्वेदनाओं से भी समझ में आ सकती है। इसे भाव दृष्टि कहते हैं। ज्ञान दृष्टि और भाव दृष्टि से ही मनुष्य उसे समझ सकता है और उसकी निकटता तक पहुँच सकता है। इस चेतन-सूक्ष्म-जीवन अग्नि को ब्रह्म, ईश्वर परमात्मा आदि नामों से जाना जाता है। अध्यात्म और साधन विज्ञान का उद्देश्य यह है कि व्यक्ति की भावनात्मक ‘जीवन अग्नि’- आत्मा उस विश्व व्यापी भाव चेतना के साथ अपना सम्बन्ध जोड़े और समीपता से उत्पन्न होने वाले लाभों से लाभान्वित हो। विश्व बिजली के उत्पादन केन्द्र से अपना तार जोड़कर ही छोटे यन्त्र अपने को सामर्थ्यवान बनाते हैं। अग्नि के समीप जाकर ही तो गीली और ठण्डी लकड़ी ज्वलन्त अग्नि का रूप धारण करती है। नर-नारी समीपता की स्थिति बना कर हो तो दाम्पत्य सुख और सन्तान लाभ से लाभान्वित होते हैं। अलग-अलग रहने से तो निष्क्रियता ही रहेगी। धन और ऋण विद्युत के दोनों घटक अलग-अलग रहने पर-निष्क्रिय ही पड़े रहते हैं। मिलन होते ही शक्ति प्रवाह-करेंट चल पड़ता है। यही जड़ अग्नि का नियम -चेतन अग्नि पर भी लागू होता है। यही स्थूल व्यवस्था क्रम चेतन जगत में भी लागू होता है। व्यक्तिगत जीवन अग्नि-आत्मा का परमात्मा के साथ समन्वय सम्बन्ध स्थापित करने की प्रक्रिया जितनी अग्रगामी होती है उतना ही मनुष्य में देवत्व का उदय अवतरण दीखता है। उसकी इस जन-साधारण का सामान्य जीवन क्रम से अतिरिक्त जो विशेषताएं इस ब्रह्म वर्चस् अथवा आत्म बल कहते हैं। यह आत्म बल व्यक्तित्व की प्रखरता-समर्थता और महानता के रूप में देखा जा सकता है। लौकिक कर्तृत्व में यह ब्रह्म वर्चस जब समन्वित रहता है तो मनुष्य तत्व वेत्ता, दृष्टा, ऋषि, मनीषी, महा मानव के रूप में दीखता है। लौकिक कर्तृत्व भी कई बार उसका ऐसा होता है जो साधारणतया घटित न होते रहने के कारण चमत्कार जैसा कौतूहल वर्धक और आश्चर्यजनक लगता है। जो सफलताएं साधारण शरीर क्रम से बहुत समय में और बहुत स्वल्प मात्रा में मिलती हैं वे यदि स्वल्प समय, स्वल्प श्रम और प्रचुर परिमाण में उपलब्ध हो सकें तो उन्हें अध्यात्म भाषा में सिद्धियाँ या विभूतियाँ कहा जायेगा। व्यक्तिगत जीवन अग्नि-आत्मा का -सर्वव्यापी समष्टि अग्नि के साथ संयोग सम्बन्ध हो जाने पर उपरोक्त दोनों ही लाभ होते हैं। 1. व्यक्तित्व की सर्वांगीण प्रखरता। 2. कर्तृत्व में सफलताओं का आना ऐसा असाधारण समावेश है जिसे सिद्धि या चमत्कार नाम से पुकारा जा सके। आवश्यक नहीं कि कोई ब्रह्म वर्चस् सम्पन्न व्यक्ति दूसरे लोगों पर अपनी इन विशेषताओं को प्रकट करें पर उनमें होती वे दोनों ही है। स्वभावतः इन दोनों उपलब्धियों को पाकर व्यक्ति का अन्तरात्मा अधिक प्रफुल्ल और सन्तुष्ट रहेगा। संसार में भी दो आनन्द है। 1. इन्द्रिय तृप्ति (वासना) 2. अहंकार की तृप्ति-तृष्णा। लोभ और मोह तृष्णा के अंतर्गत आते हैं। इन्द्रियों के सुख के अपने-अपने रसास्वादन अनोखे ही है। सामान्य चेतना वाला व्यक्ति इन्हीं दो माध्यमों से सन्तोष और सुख प्राप्त करने के फेर में लगे रहते हैं। पर वे उन्हें एक हलकी सी झलक दिखाकर तिरोहित होते रहते हैं। ठहरते नहीं। वासना और तृष्णा की तृप्ति का अवसर जब तक नहीं आता है तब तक उनके लिए ललक उत्सुकता से बेचैनी रहती है। जैसे ही वे मिले कि क्षण भर में आनन्द समाप्त। जिह्वा स्वाद पेट भरते ही समाप्त, मैथुन सुख का स्खलन होते ही अन्त-धन लाभ होते ही उसकी सुरक्षा की चिन्ता-स्त्री पुत्र मिलते ही उनके साथ जुड़े हुए भारी उत्तरदायित्वों का निर्वाह चिन्ता बन कर सामने खड़े हो जाते हैं। यश और पद पर दूसरे लोग घात लगाते हैं और अकारण ईर्ष्या द्वेष भरी शत्रुता की बात आ जाती है। इन परिस्थितियों में सामान्य स्तर के मनुष्य सुख सन्तोष के लिए वासना, तृष्णा की परिधि में घनघोर प्रयत्न करने पर भी खाली हाथ रहते हैं जबकि आत्मा के साथ परमात्मा को जोड़कर ब्रह्म वर्चस् की मात्रा बढ़ा लेने वाला-व्यक्तित्व की प्रखरता और कर्तृत्व में प्रफुल्ल और सन्तुष्ट रहने लगता है। अध्यात्म और साधना विज्ञान का प्रयोजन व्यक्ति को इन्हीं लाभों से लाभान्वित करता है। कहा जा चुका है कि इस विश्व ब्रह्माण्ड में संव्याप्त जीवन अग्नि-ब्रह्म चेतना के दो स्वरूप हैं एक परा एक अपरा। अपरा प्रकृति पदार्थों में गतिशीलता हलचल उत्पन्न करती है और परा प्रकृति प्राणधारियों में इच्छाओं और अनुभूतियों का संचार करती है। यह विभाजन सर्वांश में सत्य नहीं है। बहुमत और बाहुल्य को ध्यान में रखते ही यह प्रतिपादित है। जड़ पदार्थों में मात्र क्रियाशीलता ही नहीं होती एक अत्यंत स्वल्प अंश, भावना भी विद्यमान रहता है। भारत के सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक सर जगदीशचन्द बोस ने यह प्रमाणित किया था कि पेड़ पौधे जड़ समझे जाने पर भी उनमें गतिशीलता ही नहीं एक अत्यन्त स्वल्प मात्रा में चेतनात्मक भावना विद्यमान है और वे भी भली बुरी परिस्थितियों में सुख-दुःख अनुभव करते हैं। ठीक इसी प्रकार चेतन कहे जाने वाले प्राणियों को भी पूर्ण चेतना -पूर्ण परा प्रकृति आनन्दित नहीं मान लेना चाहिए। उनका जीव अंश भावनाओं से तरंगित होता है और उनका शरीर जड़ जगत के नियमों से बंधा है। इस प्रकार चेतन प्राणियों का भी शरीर भाग जड़ सृष्टि के नियमों से प्रभावित है। इसलिए उतने अंश में प्राणधारी को भी जड़ कहा जा सकता है। यहाँ बाहुल्य की दृष्टि से ही जड़ चेतन का विभाजन है। वस्तुतः इस विश्व में कोई भी पदार्थ या प्राणी न तो पूर्ण तया जड़ है और न चेतन। दोनों शक्तियों का न्यूनाधिक मात्रा में समावेश रहता है यदि इनका पूर्ण विच्छेद हो जायेगा तो भी शून्यता और नीरवता के अतिरिक्त और कुछ शेष न रहेगा। जीवन अग्नि के समष्टि रूप को अध्यात्म भाषा में ब्रह्माग्नि-परमात्मा और व्यष्टि रूप में उसे जीवाग्नि आत्मा-कहा गया है। ब्रह्म तत्व का विवेचन ब्रह्म विद्या के रूप में और जीव विद्या का विवेचन आत्म विद्या के रूप में किया गया है। यह दोनों शक्तियाँ मूलतः एक ही प्रवाह के अविच्छिन्न अंग है, पर उनका स्वरूप समझने के लिए-विश्लेषण और अनुभव की दृष्टि से दो हिस्सों में बाँटना पड़ता है। विद्युत एक ही तत्व है। उसका शक्ति संचार संयोग और वियोग के विश्व नियम के आधार पर होना ही चाहिए से उसे ऋण और धन निगेटिव ओर पॉजिटिव कहकर समझा-समझाया जा सकता है। इसी प्रकार जीवन अग्नि को समष्टि रूप से परा और अपरा तथा व्यष्टि रूप में परमात्मा और आत्मा कहा जा सकता है । जो कुछ यहाँ हो रहा है, हो चुका या होने वाला है वह सब उसी परिधि के अंतर्गत आता है। अध्यात्म विद्या में इस गूढ़ और वैज्ञानिक रहस्य को सर्व साधारण को समझाने के लिए आलंकारिक शैली का उपयोग किया है। इसी उभय पक्षीय तत्व का शिव और शक्ति-ब्रह्म और माया कृष्ण और राधा-राम और सीता आदि अनेक दिव्य युग्मों के रूप में विवेचन विस्तार किया है। यह शैली सर्व साधारण को अति गम्भीर विषयों को सरलता पूर्वक समझने की दृष्टि से उपयोगी भी है। साधना में श्रद्धा और भक्ति का समावेश आवश्यक है। उसके बिना विश्वास परिपक्व नहीं होता है और विश्वास के बिना मनोबल या आत्म-बल का प्रकटीकरण नहीं होता। शारीरिक बल वर्धन के लिए व्यायाम आवश्यक है और व्यायाम के लिए-गेंद, डम्बल मुद्गर आदि उपकरण चाहिए। अदृश्य जीवन अग्नि-परमात्मा चेतना के साथ सम्बन्ध बनाने और बढ़ाने के लिए जिस मनोवैज्ञानिक ढांचे को खड़ा करना पड़ता है उसके लिए भी वह आलंकारिक प्रतिष्ठापना बहुत काम आती है। साकार सगुण ईश्वर का सृजन इसीलिए हुआ है। उमा महेश, राम सीता, आदम हव्वा आदि की मान्यताएं इसी आधार पर हैं। विश्वा की परिपक्वता में आध्यात्मिक प्रयोजन में उस प्रकार की साकार मान्यताएं अनिवार्य रूप से आवश्यक होती है। ईश्वर को व्यक्ति माने बिना हमारी अन्तःचेतना उससे भावनात्मक सम्बन्ध न तो बना सकती है और न बढ़ा सकती है। मानवीय चेतना का निर्माण ही इस ढंग से हुआ है कि उसका घनिष्ठ भाव दृश्य पदार्थों से ही सम्भव है। हवा, सर्दी या गर्मी, बिजली ईथर आदि के अस्तित्व और बल से हम भली प्रकार से परिचित हैं, पर उन्हें प्यार नहीं कर सकते-उनके साथ भावनात्मक संपर्क नहीं बना सकते। इस स्तर का संपर्क बने बिना भाव संचार का उपासनात्मक प्रयोजन पूरा नहीं हो सकता और आत्मा को परमात्मा से मिलाने वाला भाव संचार साधन बन ही नहीं पाता। ज्ञान से इतना भर समझा समझाया जा सकता है कि ईश्वर है और उसका विधा-कर्तृत्व यह है। उससे प्रेम करने की भार वासध्ना निराकार के साथ सम्भव है ही नहीं। इसलिए आत्म विद्या को दो भागों में बाँटा गया एक ज्ञानयोग जिसमें वस्तुस्थिति को समझना भर सीमित है। दूसरा भक्ति योग जिसमें भावनात्मक उभार आवेश का चुम्बकत्व पैदा करके उस परब्रह्म के साथ सघनता स्थापित करना सम्भव होता है। निराकार और साकार का क्षेत्र यही है। निर्गुण और सगुण का सारा ढाँचा इन्हीं दो आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए खड़ा किया है। सो इन दोनों को अलग-अलग नहीं वरन् एक दूसरे का अविच्छिन्न अंग-पूरक मानकर चलना चाहिए। निराकार और साकार-निर्गुण और सगुण ब्रह्म दो अलग-अलग तत्व नहीं है और न उन्हें दो अलग-अलग विज्ञान धारा ही मानना चाहिए। वरन् ऋण और धन विद्युत की तरह-परा और अपरा प्रकृति की तरह समझने समझाने पर विभिन्न परिस्थितियों में उनके विभिन्न प्रयोजन के लिए ही यह उभयपक्षीय विवेचना है। वस्तुतः सब कुछ दोनों का मिला-जुला ही है। एकाकीपन यहाँ कहीं भी नहीं है। इतना समझ लेने के बाद कुण्डलिनी शक्ति के जागरण तत्सम्बन्धी मान्यतायें उसका आधार-साधना का स्वरूप समझने में सुविधा हो सकती है। व्यक्तिगत जीवन में-मनुष्य कलेवर में-परा प्रकृति के-चेतन प्रवाह का केन्द्र स्थान मस्तिष्क के मध्य अवस्थित ब्रह्मरंध्र--सहस्रार कमल है। इसी को कैलाशवासी शिव या शेषशायी विष्णु एवं कालाग्नि कहते हैं। दूसरा केन्द्र जननेन्द्रिय के मूल गह्वर में है। उसे अपरा प्रकृति का केन्द्र कहना चाहिए। इसे शक्ति, पार्वती- एवं कुण्डलिनी जीवाग्नि कहते हैं। इन दोनों को धन और ऋण विद्युत भी कहा जा सकता है। मानवीय शरीर को -पिण्ड को-इस दृश्य ब्रह्माण्ड का-विश्व विराट् का एक छोटा नमूना ही कह सकते हैं। जितनी भी शक्तियाँ इस विश्व ब्रह्माण्ड में कहीं भी विद्यमान है उन सबका अस्तित्व इस शरीर में भी मौजूद है। जिस प्रकार वैज्ञानिक जानकारी प्रयोग विधि और यन्त्र व्यवस्था के आधार पर विद्युत, ईथर आदि शक्तियों में प्रत्यक्षता लाभ उठाया जाता है, ठीक उसी प्रकार योग साधना के वैज्ञानिक प्रयोगों द्वारा शरीरगत अपरा प्रकृति की प्रचंड शक्तियों का उद्भव किया जा सकता है। इसी को योगियों के दिव्य कर्तृत्व के रूप में देखा जा सकता है। अलौकिकताएं सिद्धियाँ चमत्कार एवं असाधारण क्रिया कृत्यों की जो क्षमता साधना विज्ञान द्वारा विकसित की जाती है उसे शरीरगत अपरा प्रकृति का विकास ही समझना चाहिए और उस निर्झर का मूल उद्गम-जननेन्द्रिय मूल-कुण्ड कुण्डलिनी को ही जानना चाहिए। इसी प्रकार व्यक्तित्व में गुण, कर्म, स्वभाव, संस्कार, दृष्टिकोण, विवेक प्रभाव, प्रतिभा, मनोबल, आत्मबल आदि की जो विशेषतायें दृष्टिगोचर होती हैं उन्हें चेतना तत्व से-भाव संवेदन की उपलब्धि माननी चाहिए। इसका केन्द्र मस्तिष्क स्थित ज्ञान केन्द्र सहस्रार कमल है। कालाग्नि यही शिव स्वरूप विद्यमान है। आत्म विद्या के दो लाभ बताये जा चुके है 1. व्यक्तित्व की भावनात्मक चेतनात्मक प्रखरता 2. शरीर की असामान्य क्रियाशीलता। इन्हीं को विभूतियाँ और सिद्धियाँ कहते हैं। विभूतियाँ मस्तिष्क केन्द्र से-ज्ञान संस्थान से-भाव ब्रह्म से प्रसृत होती हैं और सिद्धियाँ काम केन्द्र से-शक्ति निर्झर से-कुण्ड कुण्डलिनी से प्रादुर्भूत होती हैं। इन दोनों शक्ति केन्द्रों को मानवीय अस्तित्व के दो ध्रुव मानना चाहिए। पृथ्वी के दो सिरों पर उत्तरी दक्षिणी दो ध्रुव हैं ठीक इसी प्रकार मनुष्य का मस्तिष्क केन्द्र उत्तरी ध्रुव और काम केन्द्र दक्षिणी ध्रुव कहा जा सकता है। उन दोनों की असीम एवं अनन्त जानकारी प्राप्त करने और उन सामर्थ्यों को जीवन विकास के अन्तरंग और बहिरंग क्षेत्रों में ठीक तरह प्रयोग कर सकने की विद्या का नाम ही कुण्डलिनी विज्ञान है। साधना के अनेक स्वरूप, साधन और मार्ग हो सकते हैं। पर उन्हें बाह्य प्रतीकों का अन्तर ही समझना चाहिए। समस्त साधनाओं का उद्देश्य वही है जो कुण्डलिनी में देखा जाता है। शरीर को ऋतु प्रभाव से बचाना वस्त्र धारण का उद्देश्य है। संसार में विभिन्न डिजाइनों के आकार प्रकार के कपड़े इसी प्रयोजन के लिए बनाये और सिये जाते हैं। विभिन्न सम्प्रदायों में प्रचलित अनेक अध्यात्मिक मान्यताओं और साधनाओं को इसी दृष्टि से देखा जाना चाहिए। उनमें बाह्य भिन्नता दीखने पड़ने पर भी मूल प्रयोजन में कुछ विशेष अन्तर नहीं है। भारतीय अध्यात्म विद्या में इस विज्ञान को बिना अधिक लाग लपेट के सीधे साधे यथावत् मूल स्वरूप से प्रस्तुत कर दिया गया है। इससे समझने में सुविधा होती है और मंजिल को पार करना-लक्ष्य तक पहुँचना अपेक्षाकृत अधिक सरल हो जाता है। कुण्डलिनी साधना की यही विशेषता है। उसमें दोनों तत्वों का आवश्यक समन्वय है। जगद्गुरु आद्य शंकराचार्य का साधनात्मक और भावनात्मक विश्लेषण गत दो अंकों में ‘सौंदर्य लहरी’ के कुछ श्लोकों के रूप में सामने आ चुका है। साधना एकाँगी नहीं सग्र-समन्वित और उभयपक्षीय होनी चाहिए सफलता का योग तभी बनता है। श्री आद्य शंकराचार्य का वेदान्त परक ज्ञान योग प्रख्यात है। पर उतने भर से भी काम कहाँ चला ? शक्ति की आवश्यकता उन्हें भी रही, सो कुण्डलिनी जागरण की शक्ति प्रक्रिया उन्हें भी अपनानी पड़ी। समग्र अध्यात्म का स्वरूप समन्वयात्मक ही है। उसमें परा और अपरा प्रकृति के-ज्ञान और कर्म के समन्वय की ही व्यवस्था है। जीवाग्नि का काम बीज ओर ब्रह्माग्नि का ज्ञान बीज दोनों को अध्यात्म अलंकार में नर-नारी जैसे संयोग संभाग के रूप में-रज और वीर्य के रूप चित्रित करते हुए यही कहा गया है कि इनका मिलन ही सफलताओं का स्त्रोत है। कुण्डलिनी तत्व ज्ञान एवं साधना विज्ञान की समन्वयात्मक साधना विद्या में इसी तथ्य का पूरी तरह समावेश हुआ है। इसलिए उसकी सरलता, यथार्थता ओर सफलता भी असंदिग्ध होती है। कुण्डलिनी साधना से व्यक्तित्व की प्रखरता और कर्तृत्व की विशिष्टता के दोनों ही प्रयोजन पूरे होते हैं। अन्तरंग और बहिरंग दोनों में असाधारण उत्कर्ष एवं उल्लास का पथ प्रशस्त होता है। शिव और शक्ति दोनों का ही अध्यात्म शास्त्र में अग्नि के रूप में उल्लेख किया है यह अग्नि चूल्हे में जलने वाली आग नहीं वरन् जीवन अग्नि ही समझी जानी चाहिए। नीचे की अग्नि जीवाग्नि को चन्द्राग्नि कहते हैं। क्योंकि चन्द्रमा में जो ज्योति दिखाई देती है वस्तुतः वह सूर्य का ही प्रतिबिम्ब है। मस्तिष्क में अवस्थित शिव रूप सूर्याग्नि ही प्रकारांतर से कुण्डलिनी की अग्नि बनकर चमकती है। इसी को सोम और अमृत का नाम भी दिया जाता है। नाम रूप जो भी हो - शिव और शक्ति का कुण्डलिनी और ब्रह्मरन्ध्र को अग्नि के अलंकार के साथ सम्बोधित करते हुए उसका संकेत जीवन अग्नि के इन दो शक्ति स्रोतों -ध्रुवों और सूर्य चन्द्र युग्मों से ही है। साधना ग्रन्थों में इसकी चर्चा इस प्रकार मिलती है। तस्य सर्व्वजगन्मूर्त्तिः शक्तिर्मायेति विश्रुता।
स कालाग्निर्हरो देवो गीयते वेदवादिभिः॥ -कूर्म पुराण वे शिव कालाग्नि रूप हैं ऐसा वेद वादियों ने कहा है। उनकी शक्ति -काली विश्वमूर्ति है। तस्य मध्ये महानयग्निर्विश्वाचिर्विश्वतोमुखः।
तस्य मध्ये वहिंनशिखा अणीयोर्ध्वा व्यवस्थिता।
तस्याः शिखया मध्ये परमात्मा व्यवस्थिता॥ -चतुर्वेदोपनिषद् - 5
उसके बीच प्रचण्ड अग्नि की ज्वालायें चारों ओर धधकती है। उन लपटों के मध्य एक अग्नि शिखा-अणु शक्ति है। उसी के बीच परमात्मा की स्थिति है। ज्चालामालासहस्त्राढ्यं कालानलशतोपमम्।
दृष्ट्राकरालंदुर्द्धर्षं जटामण्डलमण्डितम्॥ -कूर्म पुराण
ज्वालाओं की सहस्रों ही मालाओं से समन्वित तथा सैकड़ों कालानल के समान था। कराल दृष्टाओं से युक्त अत्यन्त दुर्धर्ष एवं जटाओं के मण्डल से स्वरूप था। योग कालेन न मरुता साग्निना बोधिता सती।
स्फुरिता हृदयाकाशे नागरुपा महोज्ज्वला॥ -त्रिशिखि ब्राह्मणोपनिषद्।
योग साधना से प्राणस प्रयोग द्वारा, प्रज्वलित अग्नि के समाज इस कुण्डलिनी शक्ति को जागृत किया जाता है। वह हृदयाकाश में सर्प की गति से बिजली जैसी चमकती है। तथेति स होवाच- आधारे ब्रह्मचक्रं त्रिरावृत्तभगिंमण्डलाकारं तत्र मूलकंदे शक्तिः पावकाकार ध्यायेत् तत्रैव कामरुपपीठं र्वकामप्रदं भवति इत्याधारचक्रम्॥ तृतीय नाभिचक्रं पंचावर्तं सर्पपुटिलाकारं तन्मध्ये कुण्डलिनीं बालार्ककोटिप्रभाँ तटित्सनिभाँ ध्यायेत् सामर्थ्यशक्तिः सर्वसिद्धिप्रदा भवति मणिपूरकचक्रम्॥ -सौभाग्य लक्ष्युपनिषद् 3 / 1-3 उनने कहा-मूलाधार में योनि के आकार का तीन घेरे वाला ब्रह्म चक्र है। वहाँ सुप्त सर्पिणी की तरह कुण्डलिनी शक्ति का निवास है। जब तक वह जागृत न हो तब तक उस स्थान पर प्रचण्ड अग्नि की धधकती हुई ज्वाला का ध्यान करें ॥ 1 ॥ प्रातःकाल के अरुण सूर्य की तरह आभावती बिजली की तरह चमकती हुई, इस कुण्डलिनी को ध्यान द्वारा जागृत करते हैं। जागृत होने पर यह अनन्त सामर्थ्यवान् बना देती है और समस्त सिद्धियाँ प्रदान करती है। ॥ 3 ॥ जाताँ तदानीं सुरसिद्धसंधा दृष्टवा भयाद्दुद्रुवरग्निकल्पाम्। कालींगरालंकृतकालकंठीमुपेंद्रपद्योउगशक्रमुख्याः॥ -लिंग पुराण महाविष से समलंकृत कण्ठ वाली अग्नि के सदृश्य स्वरूप वाली उस अवतीर्ण भगवती काली को देखकर ब्रह्मा, विष्णु और इन्द्र आदि समस्त देवगण भय से भागने लगे थे। मूलाधाराभिधं चक्रं प्रथमं समूदीरितम्।
तत ध्येयं स्वरुपं तु पावकाकारमुच्यते॥ स्वाधिष्ठानाभिधं चक्रं द्वितीयं चोपरिस्थितिम्। प्रवालाकुँर तुल्यं तु तत्र ध्येयं निगद्यते॥ तृतीयं नाभिचक्रेतु ध्येयं रुपं तडिन्निभम्।
तुर्ये हृदयचक्रे ते ज्योतिलिंगाँकृतीर्यते॥ पंचमे कण्ठचक्रेतु सुषुम्ना श्वेतवर्णिनी।
ध्येयं षष्ठे तालुचक्रे शून्यचित्तलयार्थकम्॥ भ्रुचक्रे सप्तमे ध्येयं दीपागुँष्टप्रमाणकम्।
आज्ञाचक्रेष्टमे ध्येयं रुपं धूम्रशिखाकृतिः॥ आकाशचक्रे नवमे परशुः स्वोर्ऋ्व शक्तिकः।
एवं क्रमेण चक्राणि ध्येयरुपाणि विद्धि च॥ अखण्डैकरसत्वेन ध्येयस्यैक्यअप्युपाधितः। आकारा विविधायुक्ता नोपाधिश्चेतरः स्वतः॥ विद्याशक्ति विलासेन पावकात् विस्फुलिंगवत्।
अकस्मात् ब्रह्मणोअखण्डात् विविधाकृतयोअभवन्॥ -महायोग विज्ञान
मूलाधार चक्र में आत्म ज्योति अग्नि रूप दीखती है। स्वाधिष्ठान चक्र में वह प्रवाल अंकुर सी प्रतीत होती है। मणिपुर में विद्युत जैसी चमकती है। नाभि चक्र में वह लिंग आकृति की प्रतीत होती है। कंठ चक्र में वह श्वेत वर्ण, तालु चक्र में शून्यकार एकरस अनुभव में आती है। भ्रू चक्र में अंगूठे के प्रमाण जलती हुई दीप शिखा जैसी भासती है। आज्ञा चक्र में धूम्रशिखा जैसी और सहस्रार चक्र में चमकते हुए परशु जैसी दीखती है। यह सभी ज्योतियाँ एक ही है। सभी आत्म ज्योति हैं। सभी परम आनन्ददायिनी है। विद्या शक्ति कुण्डलिनी की क्रीड़ा से एक ही अग्नि की अनेक चिनगारियों की तरह यह अनेक तरह की प्रतीत होती है। अपाने चोर्ध्यवगे याते संप्राप्त वहिगमण्डले।
ततोअनलशिखा दीर्घा वर्धते वायुना हत्ता॥ ततो यातौ वहयपानौ प्राणमुष्णस्वरुपकम्।
तेनात्यन्तप्रदीप्तेन ज्वलनो देहजस्तथा॥ तेन कुण्डलिनी सुप्ता संतप्ता संप्रबुध्यते।
दन्डाहतभुजंगीव निश्वस्य ऋजुताँ व्रजेत्॥ -योग कुण्डल्यूपनिषद् 1। 43,44,45
उस अग्नि मंडल में जब अपान प्राण जाकर मिलता है तो अग्नि की लपटें और तीव्र हो जाती है। उस अग्नि से गरम होने पर सोई हुई कुण्डलिनी जागती है और लाठी से छेड़ने पर सर्पिणी जिस प्रकार फुंसकार कर उठती है वैसे ही यह कुण्डलिनी भी जागृत होती है। प्राणस्थानं ततो वहिनः प्राणापानौ च सत्वरम्।
मिलित्वा कुण्डलीं यति प्रसुप्ता कुण्डलाकृतिः॥ तेनाग्निना च सतप्ता पवनेनैव चालिता।
प्रसाय स्वशरीरं तु सुषुम्नाबदनान्तरे॥ -योग कुँडल्यूपनिषद 1।65,66
अग्नि स्थान में प्राण के पहुँचने से उष्णता से संतप्त कुण्डलिनी अपनी कुण्डली छोड़कर सीधी हो जाती है और सुषुम्ना के मुख में प्रवेश करती है। चित्रों में शिव को जमीन पर लेटा हुआ और शक्ति को उनकी छाती पर खड़ा हुआ चित्रित किया जाता है। वह कुण्डलिनी जागरण के अवसर पर मूलाधार स्थिति प्राणाग्नि का सुष्ज्ञुप्ति अवस्था त्यागकर ब्रह्मरंध्र शिव संस्थान में जा पहुँचना और सहस्र कमल स्थिति सोम अमृत के मूलाधार की ओर स्रवित होने की साधना विज्ञान सम्मत प्रक्रिया का ही दिग्दर्शन है। दश देवियों के चित्रों में विपरीत रति के उल्लेख है। उस समागम में शिव को नीचे और शक्ति को ऊपर बताया जाता है। जागृत अवस्था में कुण्डलिनी की समर्थता और प्रमुखता का जीवन के हर क्षेत्र में छा जाना-यह इस चित्रण का संकेत है। वृहज्जावालोपनिषद् में इसकी चर्चा इस प्रकार है- अग्नीषोत्मकं विश्वमित्याग्निराचक्षते।
सो शक्त्यामृतमयः शक्तिकरी तनूः॥ अमृतं यत्प्रतिष्ठा सा तेजो विद्याकला स्वयम्।
स्थूलसूक्ष्मेषु भूतेशु स एवं रसतेजसि (सी)॥ वैद्युदादिमयं तेजो मधुरादिमयो रसः।
तेजो रसविभेदैस्तु वृत्तमेतच्चराचरम्॥ अग्नेरमृतनिष्पत्तिरमृतेनाग्निरेधते।
अतएव हविः क्लृप्तमग्निषोमात्मक जगत्॥ अग्ने (अग्नि) रुर्ध्वं भवत्येषा (ष) यावत्सौम्यं परामृतम्।
यावदग्न्यात्मकं सौम्यममृतं विसृजत्यधः॥ अतएव हि कालाग्निरधस्ताच्छक्रिर्ध्वगा।
यावदादहनश्चीर्ध्बमघस्तात्पवनं भवेत्॥ -वृहज्जावलोपनिषद् ब्राह्मण 2
अग्नि और सोम इन दोनों के संयोग से यह जगत बना है। सोम में अमृत शक्ति भरी है। अग्नि में विद्या का निवास है। सोम और अग्नि का तेज सब प्राणियों में विद्यमान है। अग्नि जब ऊपर आती है जब सोम को ग्रहण करती है । तब सोम अग्नि के रूप में परिवर्तित होकर नीचे की ओर चलता है । इस प्रकार रुद्र नीचे होते हैं और शक्ति ऊपर। ज्ञान शक्ति को शिव और क्रिया शक्ति को कुण्डलिनी कहते हैं । इन दोनों का समन्वय सम्मिलन जब जीवन अग्नि को प्रदीप्त ज्वालाओं की तरह आलोकित होता है तो मन-मलीन, असफल और अस्त-व्यस्त जीवन क्रम एक अभिनव उत्कर्ष और उल्लास की परिस्थितियों से भर जाता है। ज्वलन्त शक्ति से अप्रभावित व्यक्ति का कोई भी दृश्य-अदृश्य काम शेष नहीं रहता। समस्त विश्व में संव्याप्त इस महा अग्नि का कुण्डलिनी साधना द्वारा एक अंश जब व्यक्तिगत जीवन में उपलब्ध कर लिया जाता है तो प्रगति की अनेक सम्भावना अप्रत्याशित रूप में सामने आ उपस्थित होती है-इसी अनुभव के आधार पर साधना विज्ञान के अनुभवी मनीषियों ने कुण्डलिनी जागरण की चर्चा करते हुए लिखा है- शक्ति कुण्डलिनोति विश्वजननव्यापारबद्धोद्यमा।
ज्ञात्वेथं न तनुर्विशन्ति जननागर्भेअर्भकत्वंनराः॥ -शक्ति तन्त्र
कुण्डलिनी महाशक्ति के प्रयत्न से ही संसार का सारा व्यापार चल रहा है। जो इस तथ्य को जान लेता है वह क्षोभ-संताप भरे बन्धनों में नहीं बंधा रहता।
कूजन्ती कुलकुण्डली च मधुरं मत्तालिमालास्फुटं,
वाचः कोमलकाव्यवन्धरचनाभेदातिभेदक्रमैः। श्वासोच्छ्वासविभजंनेन जगताँ जीवो यया धार्यते।
सा मूलाम्बुजगहरे विलसति प्रोद्दमादीप्त्यावलिः॥ -षट्चक्र निरुपणम्12
कुण्डलिनी शक्ति के जागृत होने पर वाणी में मधुरता आ जाती है। काव्य कला और साहित्य कला और साहित्य में प्रगति होती है। यह मूलाधार चक्र में दीप शिखा जैसी चन्द्र ज्योति जैसी प्रकाशित है, प्राण वायु द्वारा यह धारण की जाती है।12
मूलाधारे आत्मशक्तिः कुण्डलिनी परदेवता।
शायित भुजगाकारा सार्द्धत्रय बलयान्विता॥ यावत्सा निद्रिता देहे तावज्जीवः पशुर्यथा।
ज्ञान। न जायते तावत् कोटियोगविधेरपि॥ आधार शक्ति निद्रायाँ विश्वं भवति निद्रया।
तस्याँ शक्तिप्रबोधेन त्रैलोक्यं प्रति बुध्यते॥ -महायोग विज्ञान
आत्म शक्ति कुण्डलिनी मूलाधार चक्र में साँड तीन कुण्डलिनी लगाये हुए सर्पिणी की तरह शयन करती है। जब तक वह सोती रहती है तब तक जीव पशुवत् बना रहता है। बहुत प्रयत्न करने पर भी तब तक उसे ज्ञान नहीं हो पाता। जिसकी यह आधार शक्ति सो रही है उसका सारा संसार ही सो रहा है। पर जब वह जागती है तो उसका भाग्य और संसार जाग पड़ता है। मनुष्य को चाहिये कि झूठ से कामना सिद्ध न करें। निन्दा, स्तुति तथा भय से भी झूठ न बोले और न लोभवश। चाहे राज्य भी मिलता हो झूठ अधर्म को न अपनावे। भोजन, जीविका बिना भी चाहे प्राण जाते हों तो भी धर्म का त्याग न करें क्योंकि जीव और धर्म नित्य हैं। वे मनुष्य धन्य है जो धर्म को किसी भी भाव नहीं बेचते। -श्रीराम शर्मा आचार्य