Magazine - Year 1971 - Version 2
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Language: HINDI
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सत्य में ही सर्वस्व सन्निहित
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महाराज ! शान्तनु, मृगया से लौटकर अभी अपने राज महल में प्रवेश कर ही रहे थे कि उन्होंने एक दिव्याभूषण जटित सुन्दरी को प्रवेश द्वारा से बाहर निकलते देखा। महाराज ने सौम्य वाणी में प्रश्न किया भद्रे ! राज प्रसाद का परित्याग कर जाने वाली दिव्य लोचन तुम कौन हो ? “लक्ष्मी” - दिव्याकृति बोली - महाराज आज तक मैं आपके पास रही। किन्तु मैं देखती हूँ कि आप दिनोंदिन जीव हिंसा का पाप कमाकर अधर्म को प्रश्रय दे रहे हैं। जहाँ अधर्म रहता है वहाँ मैं नहीं रह सकती - इसी लिए आज तुम्हारा यह भव्य प्रसाद छोड़कर जा रही हूँ। महाराज कुछ चिन्तित मुद्रा में आगे बढ़े किन्तु अभी वह प्रवेश द्वार पार ही कर पाये थे कि एक और दिव्याकृति बाहर आती दिखाई दी। समीप आने पर सम्राट श्री ने प्रश्न किया - प्रदीप्त मुख मंडल वाले आप श्रीमन्त को देखकर मेरा हृदय प्रफुल्लित हो रहा है किन्तु इस बात का कौतूहल भी हो रहा है कि आप कौन हैं और यहाँ से क्यों जा रहे है। ‘मै दान हूँ ! राजन !’ देव पुरुष ने बताया - महाराज ! जहाँ लक्ष्मीजी का निवास होता है मैं वहीं रहता हूँ आपके राज्य में अधर्म ने आश्रय पा लिया है अस्तु लक्ष्मीजी ने विदा ले ली है, लक्ष्मीजी के न रहने पर मेरा रहना भी सम्भव नहीं है। महाराज ने कोई उत्तर नहीं दिया। वे अभी कुछ विचार कर रहे थे तभी उन्हें एक और भद्र पुरुष की दिव्य छाया बाहर द्वार की ओर जाती दिखाई दी। उन्होंने उससे भी वही प्रश्न किया आप कौन है ? और इस राजमहल का परित्याग क्यों कर रह है ? आकृति बोली - राजन् ! मेरा नाम सदाचार। जहाँ दान होता है मेरा निवास भी वहीं रहता है। दान के न रहने से परमार्थ और परोपकार वृत्ति के नष्ट हो जाने से स्वाभाविक ही है कि मेरा जीवन आधार नष्ट हो जाये अतएव अब मेरा भी यहाँ रहना सम्भव नहीं है। सदाचार को विदा हुये अभी दो क्षण ही बीते थे कि एक और परम तेजस्वी देवा पुरुष वहाँ आ उपस्थित हुये। महाराज ने उनसे भी परिचय पूछा! उन देव पुरुष ने बताया-महाराज मैं तुम्हारा सत्य हूं आज तक आपके समीप रहा पर अब जब कि यहाँ लक्ष्मी नहीं रहीं, दान ने भी स्थान-परिवर्तन कर लिया, सदाचार भी यहाँ से चला गया तब मेरा भी यहाँ रह सकना सम्भव नहीं। महाराज के मुख-मण्डल पर उस समय उदासी और चिन्ता के लक्षण स्पष्ट देखे जा सकते थे। उन्होंने विनीत शब्दों में प्रार्थना की देव! लक्ष्मीजी के जाने का मुझे उतना दुःख नहीं हुआ-प्रतिभावान् पुरुष आध्यात्मिकता को सर्वोपरि महत्व देते हैं उसके लिए धन की आवश्यकता है तो पर ऐसा नहीं कि उसके बिना काम न चले। ‘दान’ रहित होने का भी मुझे दुःख नहीं क्योंकि जिस व्यक्ति के पास ज्ञान की सम्पत्ति हो वह कुछ न होने पर अपने ज्ञान दान से ही अक्षय पुण्य कमा सकता है। सदाचार चला गया इसमें भी मुझे दुःख नहीं क्योंकि उससे लोगों को ईश्वरीय व्यवस्था की सच्चाई और कठोरता का पता तो चलता है। किन्तु आप ‘सत्य’ को त्याग कर तो मैं एक क्षण भी रह सकता। बन्धु-बान्धवों से प्रेम-व्यवहार, प्रजा का पालन, साधना और उपासना इन सब में तो सत्य ही आधार है सो मैं आपको नहीं जाने दे सकता। सत्य रुक गये और कुछ ही देर में सदाचार, दान और लक्ष्मी भी लौट आये। राजन् फिर धर्मपूर्वक आनन्द से रहने लगे।