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Magazine - Year 1971 - Version 2

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अवांछनीय बन्धनों से मुक्त होने की आवश्यकता

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First 31 33 Last
‘बन्धनों से मुक्ति’ मानव जीवन का चरम लक्ष्य है। काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद-मत्सर के आन्तरिक षडरिपु हमें आन्तरिक अदृश्य बन्धनों में बाँधते हैं। ईर्ष्या, अहंता, घृणा, निष्ठुरता, कृपणता, संकीर्णता की षड् विधि माया दानवी ने हमारे अन्तः वर्चस्व रूपी स्वातंत्र्य का अपहरण कर लिया हैं। फलतः हम सर्व समर्थ होते हुए भी दुःख दारिद्रय और शोक-सन्ताप की व्यथा वेदनाएं सहते हुए पतित जीवन जी रहें हैं। यदि अपने स्वरूप, वर्चस्व और तद्नुरूप जीवन की रीति-नीति एवं विधि व्यवस्था का निर्धारण किया गया होता तो हेय और पतित परिस्थितियों में पड़ा हुआ मनुष्य किसी और ही उच्च भूमिका का सम्पादन कर रहा होता। तब वह न तो नर पशु होता न नर पिशाच बनता। सम्पादन रहा होता है। तब वह न तो पन पशु होता न नच पिशाच बनता। तब उसे नर-नारायण और पुरुष पुरुषोत्तम के रूप में महा मानव के रूप में ही देखा समझा जा रहा होता।

आन्तरिक शत्रुओं ने हमें निविड़ नागपाश में बाँधा है और सारे स्वत्व वर्चस्व का अपहरण करता रहता है। जी आता है तो उसका प्राण भी हरण कर लेता है और माँस खाल को बेचकर अपना स्वार्थ सिद्ध करता है। जीव की भी यही स्थिति है वह जिन आन्तरिक दुर्बलताओं के नागपाशों से जकड़ कर असहाय बना दिया गया है उनके रहते रोने कलपने के अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं। आनन्द और उल्लास केवल स्वतन्त्र परिस्थितियों में सम्भव है। प्रगति और वर्चस्व की संभावनाएं बन्धन मुक्ति की स्थिति प्राप्त किये बिना सम्भव नहीं। इस तथ्य को समझते हुए अध्यात्म के क्षेत्र में मुक्ति को सबसे बड़ा पुरुषार्थ माना गया है। ज्ञान योग, कर्मयोग, भक्तियोग का सारा ढाँचा इसी प्रयोजन के लिए खड़ा किया गया है कि मनुष्य भव-बन्धनों के नागपाश को काट कर अपनी स्वतन्त्र चेतना एवं प्रतिभा को विकसित होते देखकर आनन्द और उल्लास भरी चेतना के साथ पूर्णता का लक्ष्य प्राप्त करने के लिए अग्रसर हो सके। बन्धन बंधे रहने पर यह अवसर सर्वथा असम्भव है।

भौतिक जीवन में भी बन्धनों के विरुद्ध संघर्ष का क्रम चलता रहा है और चल रहा है। राजनैतिक पराधीनता भौतिक जीवन में सबसे बुरे और सबसे फूहड़ किस्म की है। कोई देश या वर्ग किसी दूसरे देश या वर्ग पर अपना आधिपत्य जमा कर उसे किस प्रकार शोषित और पतित करता है इसके रक्त रंजित और हृदय द्रावक इतिहास से विश्व के राजनैतिक इतिहास का पन्ना-पन्ना भरा पड़ा है। अभी का ताजा उदाहरण अपने पड़ोसी बंगला देश को ही देखिये। पंजाबियों ने बंगालियों को राजनैतिक गुलामी में जकड़ कर उन्हें किस प्रकार चूसा और सताया है इसे खुली आँखों से प्रत्यक्ष देखा जा रहा है। भूतकाल के इतिहास की कौन कहे। डाकुओं के गिरोह राजा और सामन्तों के रूप में बड़ी और सामूहिक डकैतियों के रूप में एक दूसरे के किले तो तोड़ते-एक दूसरे के राज्य को लूटते रहते थे। युवा नर-नारियों को पकड़ ले जाते थे और भेड़ बकरियों जैसा उनका उपयोग उपभोग करते थे। दास दासी प्रथा का ऐसा ही घिनौना इतिहास मध्य कालीन युग की कलंक कालिमा का अभी भी स्मरण दिलाता रहता है।

राजनैतिक चेतना की अभिवृद्धि के साथ-साथ राजनैतिक स्वतन्त्रता की भी लहरें आईं और पिछली दो तीन शताब्दियों में इस सम्बन्ध में बहुत कुछ प्रगति भी हुई है। जहाँ उपनिवेशवादी प्रत्यक्ष पराधीनता के अवशेष विद्यमान हैं वहाँ संघर्ष भी चल रहे है। बन्धनों के विरुद्ध चेतना उत्पन्न हो जाने पर वे टूट कर रहते हैं। लगता है राजनैतिक पराधीनता के अवशेषों का भी उन्मूलन देर सवेर में होकर ही रहेगा।

बाँधने वाली पराधीनताओं में से एक राजनैतिक भी है। जो अधिक स्पष्ट और अधिक प्रत्यक्ष होने से सहज ही समझ में आ जाती है और उसका सम्बन्ध विदेशियों विजातियों को भगाने से होता है इसलिए प्रत्यक्ष संघर्ष के द्वारा प्रयोजन पूरा भी आसानी से हो जाता है पर इसके अतिरिक्त अनेक वे बन्धन शेष रह जाते हैं जो परोक्ष हैं और सहज ही समझ में नहीं आते। इनमें सामाजिक और मानसिक पराधीनताएं विलक्षण है। वे राजनैतिक पराधीनता से भी बुरी किस्म की हैं अपेक्षाकृत अधिक हानिकारक है। पर जीवन क्रम में घुल मिल जाने और स्वभाव का अंग बन जाने से उनकी बुराई समझ में भी नहीं आती और अभ्यस्त हो जाने के कारण उन्हें छोड़ने को जी भी नहीं करता।

अपनी सामाजिक पराधीनता को ही लें उसमें जाति-पाँति, ऊँच-नीच, लिंग भेद की मान्यताएं ऐसी हैं जिनने अपने किसी समय के अति गौरवशाली समाज को आज छिन्न-भिन्न अस्त-व्यस्त और दीन-हीन बनाकर रख दिया हैं हिन्दू समाज तथ्यतः एक होते हुए भी 1700 जातियों और हजारों उप जातियों में बंटा पड़ा है। एक समाज के भीतर यह हजारों समाज ऐसे हैं जो प्रथकता और भिन्नता की दीवारें दिन-दिन मजबूत करते जाते हैं और हम दिन-दिन विश्रृंखलित एवं दुर्बल होते जा रहे है। ऊँच-नीच की प्रवृत्ति ने करोड़ों उपेक्षित लोगों को विधर्मी बना दिया और वे प्रथक राष्ट्र के रूप में विभाजित हो गये शेष आगे प्रथक होने की तैयारी में लग रहे हैं। सवर्ण सवर्णों के बीच भी जो प्रथकता की दीवारें हैं उनने संगठन, प्रेम और एक्य की सम्भावनाओं को बुरी तरह खोखली कर दिया है। एक सीमित वर्ग में ही विवाह शादी हो सकने की मान्यता ने दहेज जैसी बुराइयों को पैदा किया और इस विवाहोन्माद के कुचक्र ने आर्थिक प्रगति की सारी सम्भावनाओं को नष्ट करके रख दिया विवाह शादियों के नाम पर उन्मादियों की तरह अपव्यय करने की जो प्रथा इन दिनों अपने समाज में प्रचलित है उनने हमें व्यापक रूप से बेईमान और दरिद्र रहने के लिए विवश कर दिया है। अनेकों सुयोग्य लड़कियों को उसी कुचक्र से लगभग वैधव्य जैसा जीवन जीना पड़ रहा है। कितनों के तो प्राणों पर ही बन आती है।

स्त्री जाति के रूप में मनुष्य समाज का आधा अंग लुंज-पुंज, अपाहिज, कैदी और पद-दलित बना पड़ा है। घूँघट और पर्दे के बन्धनों में जकड़ी हुई भारतीय नारी एक छोटे से घर पिंजड़े में आगे की बात न सोच सकती है न व्यापक क्षेत्र की देहरी पर एक कदम धर सकती है। उसे दूसरे दर्जे का नागरिक माना जाता है। अविश्वस्त ओर संदिग्ध बनी हुई वह एक प्रकार से उस कैदी का ही जीवन जीती है जो बिना सिपाही के संरक्षण के कहीं एक कदम भी नहीं धर सकता। उसके मन और तन के स्वामी दूसरे लोग होते हैं और वे ही उसे सोचने तथा करने के लिए विवश करते हैं। प्रतिभा नाम की वस्तु पैदा ही नहीं होने दी जाती यदि हो भी जाये तो उसका उपयोग अपने मालिक को रिझाने के अतिरिक्त और किसी काम में नहीं कर सकती। इस पराधीनता ने नारी को मात्र कठपुतली बना कर रख दिया है और वह मात्र उपभोग्य बनकर रह गई है। इस सामाजिक पराधीनता को क्या कहा जाये जिसने आधे स्त्री समाज और एक चौथाई हरिजन इस तीन चौथाई जनसंख्या को एक चौथाई सवर्ण पुरुषों की इच्छानुसार जीवनयापन करने के निविड़ बन्धनों में जकड़ दिया है।

इसके अतिरिक्त न जाने कितने रीति-रिवाज, प्रथा परम्परा, भूत पलीत, देवी-देवता, साधु बाबा, कितना समय और धन बर्बाद करते हैं। धूर्तों का एक बड़ा वर्ग भोली जनता को मानसिक पराधीनता के जाल जंजाल में जकड़ कर उसे भ्रमित और शोषित करता रहता है। इसका लेखा-जोखा लिया जाये तो प्रतीत होगा कि देश की शासन व्यवस्था चलाने में जितनी धन शक्ति, जन शक्ति और विचार शक्ति लगती है उससे ज्यादा जन स्तर पर इस बौद्धिक गुलामी की बलिवेदी पर चढ़ाई जाती रहती है। सामाजिक गुलामी अपने ढंग की अनोखी है। राजनैतिक गुलामी की बुराई और हानि समझना समझाना आसार है उसके विरुद्ध असहयोग और संघर्ष करने के लिए भी लोग आसानी से तैयार हो जाते हैं। पर सामाजिक गुलामी को तो समझना और समझाना भी कठिन है। जो लोग निरन्तर उससे उत्पीड़ित हो रहे हैं यह आश्चर्य की ही बात है। सवर्ण जिस तरह हरिजनों को अछूत समझते हैं उसी तरह हरिजनों हरिजनों के बीच भी जाति बिरादरी के नाम पर यह ऊँच-नीच उतनी ही गहराई तक जमी बैठी है। एक चमार एक महतर से छूतछात न मानने के लिए राजी नहीं होता इसी प्रकार ब्राह्मण ब्राह्मण के बीच भी उपजातियों के कारण रोटी बेटी व्यवहार कहाँ हो पाता है ? दहेज और विवाह शादियों में मृत्यु भोजों में तथा दूसरे रीति-रिवाजों में जो धन की बर्बादी होती है उसे उचित न समझने वाले लोग भी समाज के दबाव या भय से स्वयं कार्यान्वित करते हैं और उसे छोड़ने का साहस नहीं करते इस सामाजिक गुलामी को क्या कहा जाये ?

मानसिक गुलामी ने जातिवाद, भाषावाद, सम्प्रदायवाद, क्षेत्रवाद के संकुचित दायरों में आदमी के मस्तिष्क को बुरी तरह जकड़ कर एक संकीर्णता के बन्दीगृह में सीमित कर दिया है। लोग विशाल और उदात्त दृष्टि से सोच ही नहीं पाते। समग्र विश्व की दृष्टि से कोई बात सोच सकना बन ही नहीं पड़ता। समान सत्य को समझने और उसके प्रकाश में अपने पूर्वाग्रहों को निरस्त करने का साहस कर सकना शूर-वीर और योद्धाओं के वश की भी बात नहीं दीखती। विद्वान, तार्किक, दार्शनिक भी इस चट्टान से टकराकर चूर-चूर हो जाते हैं। उसकी बौद्धिक प्रतिभा अपने संकीर्ण पूर्वाग्रही का समर्थन करने में ही आकाश पाताल के कुलावे मिलाती रहती है। यह देखकर बड़ी निराशा होती है कि आदमी तथाकथित विद्या, समझदारी, सूझ-बूझ, तार्किकता का धनी होते हुए भी अपनी सारी बौद्धिक प्रतिभा को अपने संकीर्ण पूर्वाग्रहों के समर्थन में ही नियोजित कर रहा है। शाश्वत सार्वभौम सत्य को समझने, समर्थन देने और अपनाने की उसकी हिम्मत ही नहीं पड़ रही है। गुलामी निस्सन्देह एक अभिशाप है। राजनैतिक ही नहीं-सामाजिक और मानसिक गुलामी की विभीषिकाएं और भी अधिक भयंकर हैं वे मानव जाति की शान्ति और प्रगति पर ग्रहण बनकर छाई हुई है।

आत्मिक गुलामी का रोना तो ऋषि मुनियों से लेकर आज के धर्म और अध्यात्म क्षेत्र के प्रवक्ताओं तक समान रूप से रोया जाता रहा है। व्यक्ति अपनी कुत्साओं और कुण्ठाओं के-वासनाओं और तृष्णाओं के-अविद्या और माया के-जंजाल में बुरी तरह जकड़ा हुआ अपनी उज्ज्वल सम्भावनाओं को नष्ट कर रहा है यही तो रोज-रोज कथा, सत्संगों में हमें सुनने को मिलता है। बन्ध मुक्ति के लिए विविध विध ज्ञान कर्म के प्रस्ताव सामने प्रस्तुत किये जाते रहते हैं। बताया जाता है भव-बन्धनों में बंधे रहने तक जीवन को शोक सन्तप्त एवं व्यथा व्यथित ही रहना पड़ेगा इसलिए उसे मुक्ति के लिए पुरुषार्थ करना चाहिए। इस बन्धन और मुक्ति का जो स्वरूप और निवारण बताया जाता है उसमें भारी मतभेद और सन्देह की गुंजाइश है पर यह तथ्य सही और सर्वमान्य है कि मनुष्य की अपनी बौद्धिक भावनात्मक और चारित्रिक दुर्बलताएं ही उसकी सुख शान्ति, सर्वांगीण प्रगति और महानता की उपलब्धि में सबसे बड़ी बाधाएं है; उन्हें दूर किया जा सके तो निस्सन्देह तुच्छ स्थिति में पड़ा हुआ व्यक्ति महानता के चरम लक्ष्य तक पहुँच सकता है। पर इस अभागी आत्मिक गुलामी को क्या कहा जाये जिसने प्रगति के सारे ही द्वार अवरुद्ध कर रखे है।

‘समग्र मुक्ति का युग-निर्माण आन्दोलन’ बन्धनों के प्रति विद्रोह का पांचजन्य बजाते हुए अग्रगामी हो रहा है। उसकी लाल मशाल उस स्तर का प्रकाश उत्पन्न कर रही है से पग-पग पर बाधित करने वाले अज्ञानान्धकार को हर कोने में से हटाया और मिटाया जा सके। आत्मिक दुर्बलताओं से संघर्ष करने के लिए संघर्ष करने के लिए साधन समर की चर्चा देवासुर संग्राम से लेकर लंका काण्ड और महाभारत तक के प्रत्यक्ष युद्धों के माध्यम से यही सिखाया जाता रहा है कि अन्तरंग में भी ऐसी ही परिस्थितियाँ हैं और उन्हें विद्रोह एवं संघर्ष से ही मिटाया जा सकता है। सामाजिक क्षेत्र में फैले हुए नागपाश काटने के लिए दश अवतारों और देवदूतों का समय-समय सृजन हुआ है। किसी विशेष व्यक्ति या विशेष परिस्थिति को अपने संघर्ष का निमित्त उन्होंने बनाया हो यह प्रत्यक्ष बात दूसरी है पर बारीकी से देखा जाये तो पता चलेगा कि उस समय की सामाजिक और मानसिक पराधीनता का निवारण करने के लिए ही उनका जीवन-क्रम नियोजित रहा है। तत्वदर्शी विद्वानों और मनीषियों ने भी इसी स्तर का जन नेतृत्व किया उन्होंने तत्कालीन बुद्धि भ्रम और लोक विग्रह को अपने ढंग से अपनी सुविधा और परिस्थिति के अनुसार सुधारने का प्रयत्न किया, यह प्रयत्न जन आन्दोलन के रूप में ही सफल और सम्भव हुआ है तथा होता रहेगा।

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