
बुद्धि के सुन्दरतम उपयोग ही-धर्म
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मनुष्य और अन्य जीव-जन्तुओं की शारीरिक रचना में कोई बहुत बड़ा अन्तर नहीं है । दो हाथ, दो पाँव मनुष्य के भी होते हैं पशुओं के भी । नाक के दो नथुने, दो आँखें, दो कान, एक मुँह, दाँत, जीभ, पेट, अस्थि पिंजर, पीठ, चमड़ी, बाल, जननेन्द्रियाँ मनुष्य के अतिरिक्त जीव-जन्तुओं और पक्षियों में भी पाये जाते हैं । अन्तर बहुत थोड़ा है । इन समानताओं के आधार पर ही मनुष्य को सामाजिक पशु (मैन इज दी सोशल ऐनीमल) कहा जाता है । कुछ साधारण अपवादों को छोड़कर मनुष्य और पशु-पक्षियों की शारीरिक रचना में कोई बड़ा अन्तर नहीं है । मनुष्य जिस कारण भिन्न श्रेणी का पशु है वह उसकी “बुद्धिशीलता” है । यों बुद्धि, और जीवों को भी मिली है पर दूरदर्शी निष्कर्ष केवल मनुष्य ही निकाल सकता है । गृहस्थ-सम्बन्ध पशु-पक्षी भी स्थापित कर लेते हैं, अंडे, बच्चे देना उन्हें भी आता है, कारीगरी नहीं जानते तो न सही पर मकान बनाने की आवश्यकता से वे भी अनभिज्ञ नहीं । बया पक्षी का घोंसला तो इंजीनियरों की बुद्धि को भी मात देता है । मकड़ी अपना मकान ऐसा व्यवस्थित बनाती है कि कुशल भवन निर्माता भी दाँतों तले उँगली दबाते हैं । मकड़ी किसी ऊँची दीवाल, वृक्ष या बिजली के खम्भे पर चढ़ती है और देखती है हवा किधर चल रही है । फिर उधर ही बिना माध्यम के उड़कर चलती हुई दो ऐसे उपयुक्त स्थानों को जोड़कर ऐसा आलीशान बँगला तैयार कर लेती है जैसा हवाई बँगला मनुष्य आज तक नहीं तैयार कर पाया । किन्तु मनुष्येतर प्राणियों की यह सारी सूझ-बूझ थोड़े समय के घिराव में ही होती है । उन्हें यह पता नहीं होता कि वृद्धावस्था के लिये एक निष्ठावान् साथी आवश्यक है; इसलिये विवाह करके रहना चाहिये । उन्हें मौसम का ज्ञान नहीं होता इसलिये अच्छे-अच्छे मकान भी आये दिन गिराने पड़ते हैं । उन्हें धर्म और संस्कृति की, समानता, एकता और संगठन की महत्ता मालूम नहीं; इसलिये बच्चा सयाना होते ही कहीं दूर चला जाता है और वे असहाय सा जीवन बिताते रहते हैं । दूर का निर्णय लेने की योग्यता केवल मनुष्य में ही है । जीवों के रहन-सहन और इतिहास के लम्बे अनुभवों के आधार पर दूरगामी निष्कर्ष निकल लेने की क्षमता के आधार पर ही मनुष्य एक सर्वांगपूर्ण जीवन पद्धति विकसित कर सका । विवेकपूर्ण भूत और भविष्य को वर्तमान के केन्द्रबिन्दु पर एकाकार करने की क्षमता के कारण ही मनुष्य सृष्टि का सर्वश्रेष्ठ प्राणी सिद्ध हुआ हाथी, घोड़े, बैल, भैंस जैसे बलवान् जीवों को भी वह अपने नियन्त्रण में रखने लगा । बहुत दूर तक सोचने-विचारने और तदनुरूप आचरण करने की इसी क्षमता का नाम धर्म है । उसमें तत्त्वदर्शन भी आता है और सांस्कृतिक आचार संहिताएँ भी । कोलम्बस का समुद्री जहाज जब सबसे पहले अमेरिका पहुँचा, वहाँ के आदिवासियों ने जहाज को बड़े कौतूहल के साथ देखा । उनके लिये वह बिलकुल नई वस्तु थी । उन्होंने कोलम्बस से जहाज कैसे चलता है, कितने लोग बैठ सकते हैं, आँधी-तूफान से उसे कैसे बचाया जा सकता है यही प्रश्न नहीं पूछे वरन् यह भी पूछा कि जहाज आया कहाँ से, उसे किन-किन वस्तुओं से कैसे-कैसे बनाया गया ? ऐसे यह सृष्टि क्या है, उसे किसने बनाया, मनुष्य क्या है, मृत्यु के बाद वह कहाँ चला जाता है आदि दार्शनिक जिज्ञासायें और उनकी जानकारियाँ भी धर्म है पर उनका सम्पूर्ण आधार बुद्धि का समुचित उपयोग भी है । ज्ञान के रूप में, विवेक और विचार के रूप में मिली मनुष्य की यह संपत्ति रहस्यपूर्ण तो है पर बड़े महत्त्व की है । उन सम्पूर्ण रहस्यों को खोजा भी इसी से जा सकता है और मनुष्य जीवन के उद्देश्य को भी इसी से प्राप्त किया जा सकता है । बुद्धि का उपयोग करना न आता होता तो मनुष्य उस भेड़िये बालक रामू की तरह होता जो शरीर से तो मनुष्य था पर भेड़ियों के साथ रहने के कारण उसकी विचार क्षमतायें पशुवत् हो गई थीं और वह अपने बारे में भी कुछ सही निर्णय नहीं ले सकता था । जब तक मनुष्य जाति इस ज्ञान की - बुद्धि और विवेक की शक्ति की महत्ता समझती रही, उसका उपयोग और विकास करती रही, तब तक यह संसार बड़ा सुखी रहा । दूरदर्शी परिणामों को दृष्टि में ला सकने के कारण वह उन सभी पशु प्रवृत्तियों से बचा रहा जो जीवन का सुख, सुरक्षा और शांति भंग करती थी । पर धीरे-धीरे उसकी बुद्धि ने पलटा खाया । वह ज्ञान की अपेक्षा पदार्थ में अधिक सुख अनुभव करने लगा । उसे दूरवर्ती परिणाम सोचने में कुछ, अटपट दिखाई दी ; इसलिये तात्कालिक सुखों की स्पर्द्धा हुई । उसके लिये यन्त्रों पर यन्त्रों का, मशीनों पर मशीनों का विकास हुआ । सुख को ज्ञान और भावनाओं में ढूँढ़ने की अपेक्षा भौतिक साधनों में ढूँढ़ने के कारण उसकी वही बुद्धि साधनों के अम्बार लगाती चली गई, जो अब तक मनुष्य को आत्मा से परमात्मा तक, ससीम से असीम, अणु से विभु तक पहुँचा दिया करती थी । जैसे-जैसे मनुष्य प्रकृति में सुख ढूंढने लगा, वह पदार्थों की जड़ता के बन्धन में पड़ने लगा । ईर्ष्या-द्वेष, दम्भ-पाखण्ड, स्वच्छन्दतावाद सामन्तवाद आदि बुराइयों में जकड़ता गया । कहने को आज का संसार बहुत चतुर और बुद्धिशील है पर वह दुःखी और अशान्त भी उतना ही है इसका कारण अपनी बुद्धि का दूरदर्शी उपयोग न करना ही था । अमेरिका के एक द्वीप (आइलैंड) के लोग अपने आपको संसार का सबसे सभ्य एवं सुसंस्कृत मानते हैं । यहाँ लोगों ने कामुकता को जीवन का सुख माना । उन बन्धनों, मर्यादाओं को तोड़ दिया जो इस मार्ग में आड़े पड़ रही थी । वहाँ के लोग वस्त्र तक नहीं पहनते यौन विषय उन्हें अनिवार्यतः पढ़ाये जाते हैं । यौन सदाचार की कोई मर्यादा उन्होंने नहीं रखी । हार्वर्ड विश्वविद्यालय के मनोविज्ञान के अध्यक्ष डॉ. ग्राहम ब्लेन ने इन परिस्थितियों के विस्तृत अध्ययन के बाद बताया कि परिवर्तित दृष्टिकोण का एक परिणाम यह हुआ कि सन्तति निरोध की प्रभावशाली विधियों में वृद्धि के बावजूद भी आजकल अमरीका में अठारह में से एक बच्चा ऐसा होता है जिसे जन्म देने वाले माता-पिता विवाहित नहीं होते । 1953 में किये गये सर्वेक्षण के अनुसार ऐसी युवतियों की संख्या 50 प्रतिशत थी जबकि युवकों की 67 प्रतिशत । इस बात को वहाँ का प्रत्येक नागरिक समझता है । इसलिये विवाह के बाद पति-पत्नी कभी विश्वास का जीवन नहीं जी पाते। उनमें आये दिन छोटी-छोटी बातों में झगड़े और तलाक होते हैं । हम मानते हैं यौन-सदाचार के मामले में हमारा संकट बुद्धि के गलत उपयोग के कारण बढ़ा है । यह एक छोटा सा उदाहरण है जो यह बताता है कि बुद्धि जैसी बहुमूल्य संपत्ति पाकर भी मनुष्य में अपने तरह से दूरगामी विचार करने की क्षमता का नितान्त अभाव होने के कारण मनुष्य के आचार-विचार और पशुओं की जीवन-पद्धति में कोई विशेष अन्तर नहीं गया है। पशुओं से भिन्न कोटि का एक विचारशील प्राणी होने की संविद् हम तभी कर सकते हैं जबकि हमारे सोचने विचारने की पद्धति दूरवर्ती और विराट् बने व हमारे व्यवहार में भी वह निष्कर्ष उभर कर आगे आये। आहार-बिहार, रहन-सहन, वाणिज्य व्यापार, बोली-भाषा, न्याय-नीति आदि सामाजिकता के जितने भी वर्गीकरण है उन्हें सर्वप्रथम एक सार्वभौमिक पद्धति पर परखने की प्रणाली प्रारम्भ करनी पड़ेगी । तभी हम अपने आपको पशुओं से भिन्न सृष्टि का सर्वश्रेष्ठ प्राणी सिद्ध कर सकेंगे ।