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Magazine - Year 1971 - Version 2

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अन्तरिक्ष से लेकर वृक्ष वनस्पति तक फैली आत्मा

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एक जिज्ञासु ने प्रश्न किया - आचार्य प्रवर ! विद्या और अविद्या में भेद क्या है ?

श्वेताश्वतरोपनिषद् का आचार्य उत्तर देता है-

“क्षरं त्वविद्या ह्यमृतं तु विद्या ।”

हे तात ! नाशवान जड़ पदार्थ है वही अविद्या है तथा अविनाशी आत्मा ही विद्या रूप है ।

इसी उपनिषद् में अविनाशी आत्मा की व्याख्या करते हुए बताया गया है कि-

                                                           अंगुष्ठमात्रो रवितुल्यरूपः संकल्पाहंकार समन्वितो यः बुद्ध गुणेनात्मगुणेन चैव ।

आराग्र मात्रो ह्यपरोऽपि दृष्टः ॥

            बालाग्रशतभागस्य शतधा कल्पितस्य च ।

                                                                 भागो जीवः स विज्ञेयः स चानन्त्याय कल्पते ॥            -  श्वेता श्वतरोपनिषद ५/८-९

अर्थात्-तात ! वह अँगूठे जितना लघु होकर भी संकल्प-विकल्प युक्त (अर्थात् सोचता विचारता है) तथा अपनी बुद्धि के गुण से और श्रेष्ठ कर्मों के गुण से सुई के अग्रभाग जैसे आकार वाला हो गया है ऐसा सूर्य के समान तेजस्वी आत्मा भी ज्ञानियों ने देखा है । बाल के अग्रभाग के सौवें अंश से भी सौवें अंश परिमाण वाला भाग ही प्राणी का स्वरूप जानना चाहिये वह सूक्ष्मातिसूक्ष्म परिमाण वाला आत्मा असीम गुणों वाला हो जाता है ।

इन दो ऋचाओं में शास्त्रकार ने जीवन के विराट-दर्शन को सूत्र-रूप में पिरो दिया है । प्रकट है कि शरीर दो प्रकार के परमाणुओं से बनता है। एक होते हैं जड़ दूसरे चेतन। जड़ परमाणु चूँकि स्थूल है इसलिये वह दिखाई देते हैं किन्तु चेतना एक प्रकार की तरंग, शक्ति और प्रकाश रूप है और देह में इस प्रकार सोखी हुई है जिस प्रकार सूखी मिट्टी का ढेला जल को जज्ब (सोख लेता है) कर लेता है । उसके अस्तित्व का प्रमाण बुद्धि है- उसी के न रहने पर शरीर सोचने विचारने की क्रियायें बन्द कर देता है । इस शक्ति का सांसारिक प्रयोजनों में खर्च करते रहने से वह नष्ट होती रहती है और जीव छोटा से छोटा (शरीर से भी और योनियों से भी ) होता चला जाता है। अनेक कल्पित रूपों में व अनेक शरीरों में वह तब तक भ्रमण करता रहता है जब तक श्रेष्ठ कर्मों के गुण से वह फिर से शक्ति संचय करता हुआ सूर्य के समान असीम और तेजस्वी नहीं हो जाता । यह भी कहा है कि ज्ञानियों ने उसे देखा है- ज्ञानियों ! सम्बोधन का अर्थ ही है ज्ञान-अर्थात् वह ज्ञान से ही देखा जा सकता है । ज्ञान कोई पदार्थ नहीं है वह निरपेक्ष अवस्था है अर्थात् जिस समय पदार्थ, समय, गति और कारण सभी एकाकार हो जाते हैं, ध्यान की उसी अनुभूति का नाम ज्ञान है । ध्यान द्वारा ही वह आत्मा अपने प्रकाश रूप में दिखाई देता है ।

आज का विज्ञान यों आत्मा के अस्तित्व तक पहुँच गया है पर इसी ध्यान और अनुभूति (ज्ञान) के अभाव में वह इस तत्व को मानने को तैयार नहीं होता । मनुष्य शरीर जिन छोटी-छोटी प्रोटोप्लाज्मा की ईंटों से बना है वह दो भागों में विभक्त है-(1) नाभिक (न्यूक्लियस) (2) साइटोप्लाज्म, इसके अंतर्गत जल, कार्बन, नाइट्रोजन, आकाश आदि सभी पंच भौतिक ठोस द्रव तथा गैस अवस्था वाले पदार्थ पाये जाते हैं। विभिन्न प्राणधारियों के यहाँ तक कि मनुष्य-मनुष्य के साइटोप्लाज्म में भी फर्क होता है । यह वंशानुगत कारणों आहार पद्धति और जलवायु आदि पर आधारित है और परिवर्तनशील भी है । आहार के नियमों तथा एक स्थान से दूसरी जलवायु वाले स्थान में परिवर्तन के फलस्वरूप हमारे शरीरों के स्थूल भाग में अन्तर आ सकता है पर अभी तक चेतन की अर्थात् नाभिक की क्रियाओं पर विज्ञान कोई नियंत्रण नहीं पा सका अलबत्ता वैज्ञानिक शोधों से यह सिद्ध हो चुका है कि नाभिक में ही मनुष्य की सारी बौद्धिक चेतना काम करती है । उसमें न केवल अमर व अविनाशी गुणसूत्र विद्यमान हैं वरन् वह सूत्र सारे ब्रह्मांड को नाप सकने की क्षमता से परिपूर्ण है । सारे शरीर में यह चैतन्य तत्व एक शक्ति, एक तरंग की भाँति विद्यमान है । उसी के न रहने पर शरीर नहीं रहता ।

यह चेतना ही है जो मनुष्य शरीर से लेकर सृष्टि के स्थूल कणों तक में व्याप्त हो रही है । जहाँ तक चेतना का अंश प्राकृतिक परमाणुओं से शक्तिशाली होता है वहाँ तक तो जड़ और चेतन का अन्तर स्पष्ट प्रतीत होता रहता है पर एक अवस्था ऐसी आती है जब जड़ता चेतनता का पूरी तरह घटाटोप हो जाती है ।यह वही अवस्था है जब चेतना पूर्ण रूप से जड़ गुणों वाली अर्थात् कंकड़-पत्थर जैसी स्थिति में चला जाता है । मुख्य रूप से सृष्टि की चेतना एक ही है पर वह गुणों का द्वारा क्रमशः जड़ होती चली गई है। जो जितना जड़ हो गया वह उतना ही उपभोग्य हो गया ; पर जिसने अपनी चेतना का जितना अधिक विकास किया, वही उतना उपभोक्ता होता चला जाता है ।

विकास शास्त्रियों ने मनुष्य को अन्यान्य जीवों का विकसित रूप बताया है । कहा नहीं जा सकता यह सिद्धांत कितना सच है किन्तु उन्होंने एक शरीर से दूसरे शरीर में विकास की जो कड़ियाँ बैठाई है वह दरअसल सराहनीय और परिश्रम का काम था । इसी सिद्धान्त से आज यह भी पुष्ट किया जा सकता है कि यह आत्मा ही जड़ व चेतन सर्वत्र गतिशील है । पेड़, पौधों को जड़ और चेतन के बीच की नीचे की कड़ी कहा जा सकता है और जीवित-ग्रहों को उच्च कड़ी । यह प्रतिपादन ही जड़ता से असीम चेतनता के विकास का प्रमाण माना जा सकता है ।

यही चेतना जड़ में भी जाती है इसका प्रमाण है वृक्ष। वृक्ष को शास्त्रों में जड़ चेतन की संधि योनि माना गया है । यलोस्टोन  नेशनल पार्क (अमरीका) में जहाँ उबलता पानी पृथ्वी से निकलता है वहाँ पर चारों ओर लाल रंग वैज्ञानिकों को हैरान किये रहा । ऐसा किन्हीं जलाशयों के किनारे नहीं मिलता। फिर इस लाल रंग का रहस्य क्या है यह जानने के लिये शोध प्रारम्भ हुई। तब पता चला कि यह काई न होकर जीवित पदार्थ है । इतनी तेज गर्मी में जहाँ कि मनुष्य का हाथ झुलस जाता है जीवन का अस्तित्व वैज्ञानिकों के लिये आश्चर्य की बात थी।  इस आश्चर्य में एक और भी आश्चर्य बाद में समझ में आया। वह यह था कि इस जीवित पदार्थ में जीवन और निर्जीवन दोनों के गुण विद्यमान हैं। यह फालयम स्यानोफाइटा वर्ग की एक “अलगी” है। सामान्यतः “अलगी” में नीला हरा-सा रंगीन द्रव (पिगमेंट) क्लोरोफिल के साथ रहता है पर कुछ में लाल रंग का भी द्रव होता है ।

फायलम यूग्लेनो फाइटा में भी पौधे व जन्तुओं दोनों के गुण पाये जाते हैं। इसमें “क्लोरोफ्लास्ट” (इसी में क्लोरोफिल नाम का हरा द्रव्य होता है जो मुख्यतः वृक्षों का गुण है) रहता है। यह इसके पौधा होने का प्रमाण है; लेकिन जिस प्रकार पौधों के कोशों (सेल्स) में दीवार (सेलवाल) होती है, उस तरह की दीवार इनमें नहीं होती वरन् इनके चारों ओर पहुँचा भोजन एन्जाइम्स के द्वारा पचाया जाता है । एन्जाइम्स ये स्वयं निकालते हैं । यह भोजन अन्धेरे में पचा सकते हैं। इनकी वृद्धि भी एक कोश से दूसरे कोश में होती है। कोशीय भित्ति (सेलवाल) के स्थान पर इनमें लचीली कोशीय झिल्ली होती है। वह ठोस भूमि पर संकुचित होती और फैलती है तो इस क्रिया द्वारा वह चल भी लेती है इनमें “आई स्पाट” भी होता है, जिससे यह विश्वास किया जाता है कि यह देखते भी हैं । इसके ही पास में एक छिद्रवाहिनी (वेक्यूल) होती है, वह पानी व भोजन चूसने तथा निकालने का भी काम करती है। वेक्यूल ज्यादातर एक कोशीय जन्तुओं में होता है। इनमें एक जीवधारी के पोषण (न्यूट्रिशन), ग्रहण पचाना (हालिजिक) तथा लैंगिक प्रजनन (सैक्सुअल रिप्रोडक्शन) गुण भी होते हैं । इन सभी उदाहरणों से यह विदित होता है कि जिसे वनस्पति घटक माना जाता है वह भी एक जीव की ही कोई अवस्था है । इसी प्रकार जीव धीरे-धीरे अपनी चेतनता के रहे-सहे अंश को छोड़ता हुआ एक दिन पूर्ण जड़ स्थिति में चला जाता है ।

जीवात्मा के उच्च श्रेणी विकास का प्रमाण है जीवित ग्रहों में “प्लाज्मा” की उपस्थिति। पृथ्वी के सभी जीवधारियों के शरीर ठोस और द्रव पदार्थों से बने हैं।  इन्हीं की एक अवस्था है गैस । एक पदार्थ का आयतन जितना सघन होगा वस्तु उतनी ही ठोस होगी पर जितना-जितना वह द्रव तथा गैस रूप में आती जायेगी उसका आयतन बढ़ता जायेगा । ठोस की शक्ति से गैस की शक्ति बड़ी होती है पर गुणों की दृष्टि से गैस में भी ठोस के गुण रहते हैं । वैज्ञानिक अब यह भी मानने लगे है कि जीवन केवल ठोस स्थिति में ही नहीं, द्रव व गैस की अवस्था में भी रह सकता है । वैज्ञानिकों को ऐसे प्रमाण मिले हैं कि जब पृथ्वी तप्त तवे के समान जल रही थी, तब भी एक कोषीय जीव पृथ्वी पर उपलब्ध थे । और अब एक नई शक्ति “प्लाज्मा” के ज्ञान ने यह भी सिद्ध कर दिया है कि यदि गैस स्थिति में जीवन रह सकता है तो प्लाज्मा में भी रह सकता है। प्लाज्मा “प्राण शक्ति” का वैज्ञानिक नाम है। इसे सूक्ष्म शरीर या प्रकाश शरीर कहा जाता है । विज्ञान के अनुसार प्लाज्मा कोई विशिष्ट वस्तु न होकर ठोस-द्रव तथा गैस की तरह ही पदार्थ की चौथी अवस्था है (हिन्दी डाइजेस्ट सन् 1962 अप्रैल अंक पेज 69) आकाश में चमकते हुये तारे प्लाज्मा ही है । यह प्लाज्मा एक प्रकार का ईंधन या आहार ही है। तारागण उसे किस प्रकार ग्रहण करके अपना जीवन धारण किये हुये हैं। अभी तक वैज्ञानिक यह जानने में समर्थ नहीं हो पाये पर विशिष्ट तत्वों से प्लाज्मा का निर्माण करके उन्होंने यह सिद्ध अवश्य कर दिया है कि जिस प्रकार हमारे शरीरों में नाभिकीय द्रव्य की उपस्थिति से ही साइटोप्लाज्मा का निर्माण होता है, उसी प्रकार हमारे सितारों में भी नाभिकीय गुण होने चाहिये। यदि ऐसा है तो फिर उन्हें भी जीवधारी ही मानना चाहिये जैसा कि भारतीय आर्ष-ग्रन्थों में सूर्य को आत्मा,  चन्द्रमा पृथ्वी आदि को भी देवता कहा है।

प्लाज्मा अत्यन्त सूक्ष्म होने पर भी अत्यन्त शक्तिशाली पदार्थ है। एक पौण्ड नाइट्रोजन के प्लाज्मा से एक इंजिन पूरे एक वर्ष तक चल सकता है । गैस को अत्यधिक गर्म करने से इलेक्ट्रान तीव्र गति करते हैं और एक परमाणु का इलेक्ट्रान टूट कर अलग हो जाता है व अन्य परमाणु आयन बन जाता है । यह आयनी भूत गैस ही प्लाज्मा कहलाती है । आजकल विद्युत तारों द्वारा एक स्थान से दूसरे स्थानों पर ले जाई जाती है पर प्लाज्मा के बारे में ज्ञान से वैज्ञानिक यह मानने लगे हैं  कि यह विज्ञान जब पूरी तरह विकसित हो जायेगा तो तारों के झंझट से मुक्ति मिल जायेगी। तब केवल चुम्बकीय आकर्षण द्वारा कहीं भी शक्ति पैदा कर ली जा सकेगी ।

प्लाज्मा एक प्रकार का प्रकाश और तापयुक्त प्राण ही है । मनुष्य शरीर से लेकर अन्य चेतन धारियों में वही शक्ति जीवन का आधार है। इसी शक्ति के पतन से मनुष्य लघुतम बनता है तो इसी के विकास से वह सूर्य जैसी महान् गुणों वाली चेतना में अपना विकास करके विराट् बन जाता है । इसी का नाम विद्या है। इस विद्या की प्राप्ति के लिये ही भारतीय आचार्यों ने अनेक साधनायें विकसित की हैं। प्लाज्मा की शक्ति से ही अनुमान किया जा सकता है कि आत्म-शक्ति के सूक्ष्म या प्रकाशीय विकास द्वारा मनुष्य कितना समर्थ व शक्तिशाली बन सकता है । जबकि आज का विज्ञान केवल जड़ की व्याख्या और उसी के याँत्रिक नियंत्रण में लगा है। यही अविद्या है । अविद्या को हटाकर विद्या की प्राप्ति कर सकें तो शास्त्रकार के कथन के अनुसार अंगुष्ठ मात्र प्राणी सूर्य जैसा विराट् बन सकता है ।


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