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Magazine - Year 1971 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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अपनों से अपनी बात - हमारा कार्यभार और उसका चार भागों में विभाजन

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First 35 37 Last

यह अंक पाठकों के हाथों पहुँचने के बाद चार-पाँच सप्ताह ही हमारे सदा के लिए अज्ञातवास चले जाने के शेष रह जायेंगे। इसके बाद एक ही लेख हम अपनों से अपनी बात स्तम्भ के अंतर्गत अपनी कलम से और लिख सकेंगे। इसके बाद चिरकाल के लिये हमारी लेखनी एक प्रकार से विश्राम ही ले लेगी। यों भगवान् शंकर की जटाओं में से प्रवाहित होने वाली गंगा की तरह नवचेतना का प्रवाह भविष्य में भी गतिशील रहेगा। माता भगवती हमारे और परिजनों के बीच एक माध्यम का काम करेंगी। अब भी हम माध्यम मात्र हैं। जन जागरण के लिए जिस प्रकाश और स्फुरण को हम अग्रसर करते रहे हैं, वह वस्तुतः हमारा था नहीं। पुराणों के निर्माण संदर्भ में कहा जाता है कि उन्हें व्यासजी ने बोला और गणेश जी ने लिखा है। इस कथन में कितना तथ्य है यह कहना कठिन है पर हमारे सम्बन्ध में यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि एक अति उच्चकोटि की देव सता द्वारा हमारा मार्गदर्शन ही नहीं हुआ वरन् उंगली पकड़ कर छोटे बच्चे को चलाने वाली माता की तरह-कलम पकड़कर लिखना सिखाने वाले अध्यापक की तरह-वह सब कराया है जो हमने किया है, वही सब लिखाया गया है जो लिखा गया है। आगे भी यह क्रम जारी ही रहने वाला है। पाठकों को उस ज्ञान-गंगा के स्नान से वंचित न रहना पड़ेगा, जिसकी शीतलता और स्फुरणा से वे अब तक लाभान्वित होते रहे हैं। अखण्ड-ज्योति और युग-निर्माण पत्रिकायें इसी प्रकार निकलती रहेंगी। हमारे मार्गदर्शक का-हमारा-प्रकाश माताजी के माध्यम से सर्व साधारण को प्रेरणा देने के लिए भविष्य में भी उपलब्ध रहेगा ; पर उसकी स्थूल प्रक्रिया जो अब तक चलती रही है एक प्रकार से बन्द हो जायगी। जो शक्ति हमारे हाथों से काम कराती रही, वही अब माताजी तथा उनके सहायकों द्वारा, जिनमें चि0 बलराम सिंह परिहार प्रमुख है- इस मशाल को प्रज्वलित रखेंगे और और पाठकों को जो बौद्धिक भोजन मिलता रहा है, उससे कम स्तर का नहीं ऊंचे ही स्तर का पोषण सिंचन मिलता रहेगा। पिछले दिनों हमने स्वयं इतना अधिक लिखकर रख दिया है जिसके प्रकाशन की व्यवस्था बनाने का अभी अवसर ही नहीं आया, उसे छापने में हमारे उत्तराधिकारियों को अभी दस वर्ष और लग सकते हैं फिर भी स्थूलतः यह समझ जाना चाहिए कि हमारी लेखन प्रक्रिया का यह अन्तिम चरण है। इस मई अंक के बाद जून का अगला अंक ही चालू कलम से लिख पावेंगे। ‘अपनों से अपनी बात’ का स्तम्भ तो हमारे हाथ से अन्तिम रूप में लिखा जायगा। यों माताजी इस प्रकरण को आगे भी जारी रखेंगी।

जिस कार्य को हम अब तक अकेले करते रहे उसका स्वरूप और विस्तार अब अनेक गुना हो गया है। इसलिए उसके भार, उत्तरदायित्व एवं कर्तृत्व का भी विभाजन किया जा रहा है। हम स्वयं ऐसी शक्ति उपार्जन करेंगे-जो सजग और सामर्थ्यवान आत्माओं में नव-निर्माण की दिशा में चलने योग्य कसक, उमंग एवं हिम्मत उत्पन्न कर सकें। कुसंस्कारी और ओछे स्तर के लोग पेट और प्रजनन के लिए जिये - वासना तृष्णा के लिए बहुमूल्य मानव-जीवन नष्ट करें तो उनकी उपेक्षा की जा सकती है। पर जिन्हें धर्म, अध्यात्म, परमार्थ और कर्तव्य का ज्ञान है, वे भी लोभ, मोह और कायरता के बंधनों में बँधे युग पुकार की अनसुनी करते रहे, युग परिवर्तन के महाभारत में गाण्डीव पटककर कायर बने बैठे रहें तो यह असह्य है। अगले 23 वर्ष विश्व के इतिहास में एक अभूतपूर्व परिवर्तन प्रस्तुत करने वाले आ रहे हैं। मानवीय भविष्य को विनाश के गर्त से निकाल कर उज्ज्वल बनाने का अति नाजुक समय सामने खड़ा है, इस वेला में हर जागृत एवं उत्कृष्ट आत्मा की लोभ, मोह की जंजीरें काटकर असुरता की लंका ढाने और संस्कृति की सीता वापिस लाने के लिए रीछ-बानरों की भूमिका सम्पादित करनी पड़ेगी। जिस मूर्छना के कारण वे बहुत सोचते हुए भी कर कुछ नहीं पा रहे हैं उस अवसाद को दूर करने और उन्हें कर्म क्षेत्र में उतारने के लिए एक विशिष्ट अनुदान की जरूरत पड़ेगी। अर्जुन को, हनुमान को जो अनुदान मिला था वही इस युग के उन महामानवों को देना होगा, जो समर्थता प्रसुप्त हो जाने के कारण कुछ कर नहीं पा रहे हैं। हमें स्वयं ऐसा ही अनुदान 15 वर्ष की आयु में मिला था। फलस्वरूप हम पेट और प्रजनन तक सीमित न रहकर कुछ ऐसी महत्वपूर्ण कार्यपद्धति अपनाने में साहसपूर्वक जुड़ सके जो अपने लिए ही नहीं असंख्य अन्यों के लिए भी श्रेयस्कर सिद्ध हुई। जो सौभाग्य हमने पाया वही अब अन्य असंख्यों को दे दे। अगले दिनों ऐसे कर्मठ लोकसेवी उत्पन्न होंगे जो त्याग और बलिदान के अस्त्र-शस्त्र लेकर नव निर्माण के महान अभियान का नेतृत्व कर सकने की ऐतिहासिक एवं अनुकरणीय भूमिका प्रस्तुत कर सके। जिस उग्र तपश्चर्या को करने हम जा रहे हैं, उसका मूल प्रयोजन संस्कारवान आत्माओं को महामानवों के रूप में परिणत हो सकने योग्य सामर्थ्य प्रदान करना है। हमारा सुनिश्चित विश्वास है कि जो कार्य पिछले सेवा काल में हम प्रत्यक्ष रहकर न कर सकें, उसे अगले दिनों परोक्ष रूप में रहकर कर सकेंगे। 24 वर्ष की हमारी तपश्चर्या ही थी जिसने विगत 20 वर्षों के सेवा काल में इतना कुछ कर दिखाया, जिसे अनुपम और अद्भुत कहना अत्युक्ति न होगी । अगले दिनों हमारे क्रिया-कलाप प्रत्यक्ष न दीखेंगे और उनका श्रेय हमें न मिलेगा पर इससे क्या ? तथ्य तो तथ्य ही रहेगा। इन दिनों सच्चे और कर्मठ लोक निर्माताओं का भारी अभाव है, जिनमें विश्व मानव के भविष्य निर्माण का साहस एवं उत्सर्ग उमड़ पड़ रहा हो ऐसे कर्मवीर कहीं दिखाई नहीं पड़ते सार्वजनिक क्षेत्र में धन, पद और यश के लोभी सिंह की खाल ओढ़े श्रृगाल भर विचरण कर रहें हैं। सच्ची लगन के थोड़े से भी कर्मवीर क्षेत्र में रहे होते तो विश्व का कायाकल्प हो सकना कठिन न रह जाता। इसी अभाव की पूर्ति करने के लिए हम अपने भीतर प्रचण्ड दावानल उत्पन्न करेंगे जिसकी ऊष्मा से जंगल वृक्ष के वृक्ष जलते दिखाई पड़ें और लोक निर्माण के लिए जिन साहसी सैनिकों का आज अभाव दीख रहा है उसकी कमी पूरी की जा सके। हम जिस अग्नि में अगले दिनों तपेंगे उसकी गर्मी असंख्य जागृत आत्मायें अनुभव करेंगी और लोभ मोह की कृपणता छोड़कर आज के एकमात्र ईश्वरीय निर्देश-भावनात्मक नवनिर्माण के, युग परिवर्तन के महान अभियान में अपना ऐतिहासिक योगदान करेगी। अगले दिनों बौद्धिक, नैतिक एवं सामाजिक क्रान्ति की त्रिवेणी किस तरह उद्भूत होती है उसे लोग आश्चर्य भरी आँखों से देखेंगे। भावी महाभारत का संचालन करने के लिए कितने कर्मनिष्ठ महामानव अपनी वर्तमान मूर्छना को छोड़कर आगे आते हैं।इस चमत्कार को अगले ही दिनों प्रत्यक्ष देखने के लिए सहज ही हर किसी को प्रतीक्षा करनी चाहिए। लोकसेवियों की एक ऐसी उत्कृष्ट चतुरंगिणी खड़ी कर देना जो असम्भव को संभव बना दे, नरक को स्वर्ग में परिणत कर दे, हमारे ज्वलन्त जीवन क्रम का अन्तिम चमत्कार होगा। अब तक के जिन छुटपुट कामों को देखकर लोग हमें सिद्ध पुरुष कहने लगे हैं, उन्हें अगले दिनों परोक्ष कर्तृत्त्व का लेखा-जोखा यदि सूझ पड़ें, तो वे इससे भी आगे बढ़कर न जाने क्या-क्या कह सकते हैं। निश्चित रूप से हमारी भावी परोक्ष साधना कुछ ऐसा अनुदान विश्व मानव के सम्मुख प्रस्तुत करेगी जो उसके भाग्य और भविष्य की दिशा ही मोड़ दे। सगर के साठ हजार पूत्रों को नरक की आग में जलने से बचाने के लिए गंगा का अवतरण सम्भव करने वाले भागीरथ की तरह ज्वलंत मानवीय समस्याओं का सृजनात्मक और ध्वंसात्मक हल प्रस्तुत करने के लिए हमें बहुत कुछ करना है। युग-संताप को बुझा सकने वाली ज्ञान-गंगा का अवतरण करने के लिये हमें उन्हीं पदचिह्नों का अनुगमन करना है जिन पर महाभाग भगीरथ ने प्रयाण किया था। हमारी भावी तपश्चर्या का मूल प्रयोजन यही है।

आज की परिस्थितियों में आत्म-साधना किस स्तर के व्यक्ति के लिए किस प्रकार उपयोगी हो सकती है। यह आज का नया शोध कार्य है। प्राचीन काल में जो शारीरिक, मानसिक, भौतिक एवं तात्त्विक परिस्थितियाँ थीं वे अब बदल गईं। साधना तपश्चर्या का जो क्रम भूतकाल में अपनाया जाता रहा है, वह आज की परिस्थितियों से मेल नहीं खाता। अब वे प्रयोग-प्रयोजन एवं साधन-क्रम सफल नहीं हो सकते, जो प्राचीनकाल की परिस्थितियों में तो उपयुक्त थे, पर आज उन्हें निष्फल और निरर्थक ही कहा जा सकता है। आत्मबल बढ़ाने के लिये आत्म-साधना का अवलम्बन आवश्यक है। पर युग साधन का प्रस्तुतीकरण न होने से उस मार्ग के पथिकों को बहुत श्रम करने पर भी कुछ हाथ नहीं लग रहा है। आवश्यकता इस बात की है कि आज की परिस्थितियों में सफल सिद्ध हो सकने वाली साधन पद्धति को खोज निकाला जाय। इसके लिये वैज्ञानिक प्रयोग करने पड़ेंगे। गत 60 वर्षों के व्यवस्थित जीवन-क्रम ने अपनी काया और चेतना को इस योग्य बना दिया है कि उसे प्रयोगशाला के रूप में उपयोग किया जा सके। हम अपने ऊपर अनेक अध्यात्मिक प्रयोग करेंगे और उसने परिणामों का इस मार्ग के पथिकों के सम्मुख प्रस्तुत करेंगे। हम दूर और अप्रत्यक्ष रहेंगे पर हमारे प्रयोगों का परिणाम माताजी के माध्यम से अखण्ड-ज्योति की पंक्तियों द्वारा सर्वसाधारण को विदित होता रहेगा। हमारा विश्वास है कि भौतिक विज्ञान के उत्साहवर्धक प्रशिक्षण की तरह आत्म-विज्ञान की सफल शिक्षा का द्वार भी अगले दिनों खुल ही जायगा और उसका ऐसा लाभ उपलब्ध हो सकेगा जिसके आधार पर मनुष्य में देवत्व के उदय और धरती पर स्वर्ग के अवतरण का स्वप्न साकार किया जा सके। इस शोध कार्य के उत्तरदायित्व को अपने कंधे पर लेकर जाते हुए हमें इन वियोग की दर्द भरी घड़ियों में भी संतोष एवं गर्व का अनुभव हो रहा है।

अपना विशाल परिवार जिसे हम अत्यधिक प्यार करते हैं-चर्म चक्षुओं के सामने से विलग हो रहा है, इसका एक दुर्बल-मन मानव प्राणी की तरह हमें भी बहुत दुख है। वियोग की कसक जो कि बार-बार बेचैन कर देती है, जब यह सोचते हैं कि शुरू में आन्तरिक अभिव्यक्ति प्रकट न करते हुए भी जिन स्वजनों को हम प्राणप्रिय मानते हैं उन्हें देखना भविष्य में हमारे लिये कभी सम्भव न होगा। उनके साथ हँसने-बोलने, अपनी कहने उनकी सुनने का अवसर न मिलेगा, तो जी बहुत टूटता है और आँखें सजल हो जाती हैं और जी बहुत उदास हो जाता है । प्राणप्रियों के विछोह और महाप्रयाण के समय मनुष्य को कितनी व्यथा हो सकती है इसका पिछला अनुभव हमें नहीं है । अब उसका अनुभव हो रहा है तो लगता है हमारे जैसे कोमल अंतरंग वाला व्यक्ति इस दर्द और कसक को कितनी कठिनाई से सहन कर पाता होगा । अपने को इन दिनों सम्भालते बहुत है, बाहर से हँसने और निश्चिन्त दिखने का उपक्रम भी बहुत बनाते हैं पर वह बनावट भी ठीक तरह बन नहीं पाती । जरा से गहरे प्रसंग आ जाते हैं तो दर्द उभर पड़ता है और बेबसी आँखों में से टपक पड़ती है। अपने को उपहासास्पद न बनने देने के लिए हमें इन दिनों जो बनावट बनानी पड़ रही है उसे सम्भालना भी एक मुसीबत बन गया है । पुत्र शोक में कातर वेश्या को राज सभा में नाचने के लिये जिस तरह दुहरे उपक्रम करने पड़ते हैं, उसी तरह इस वर्ष अनेक सम्मेलनों, यज्ञों, आयोजनों, परामर्शों में सम्मिलित रहते हुए हमें करने पड़ते हैं। एक वर्ष से यह व्यथा अधिक उभरी है । इसकी अन्तिम परीक्षा 17,18,19,20 जून को होने वाला विदाई समारोह है। उस अवसर पर कहना बहुत है पर रुँधा हुआ गला न जाने कुछ कहने भी देगा या नहीं। यह आशंका इन दिनों बुरी तरह मन पर सवार है। जो हो इतने दिन निकल गए , वह समय भी पार होगा। हमारी आन्तरिक इच्छा इस अंतिम अवसर पर अपने प्राणप्रिय स्वजनों को एक बार फिर जी भर कर देख लेने की है; सो हमने पत्रिका की पंक्तियों में निमन्त्रण छाप देने के अतिरिक्त आत्मिक-अप्रत्यक्ष रूप से भी आह्वान-प्रेरित किया है । हमें आशा है कि हमारे प्रायः सभी घनिष्ठ परिजन इस अवसर पर प्रस्तुत होंगे । हमारे प्रगाढ़ आमंत्रण को ठुकराना किसी बहुत ही कठोर व्यक्ति के बस की बात हो सकती है । अन्यथा जीवन में अमिट स्मृति की तरह छाये रहने वाले इस अनुपम सुअवसर को छोड़ सकना किसी भी स्वजन के लिये सम्भव न होगा । इसी मान्यता के आधार पर सम्मेलन की तैयारी कर रहे हैं। इस अन्तिम मिलन से हमारा जी बहुत कुछ हलका हो जायेगा। चार दिन का समय कम ही है पर उसमें भी हम अपनी वैखरी, मध्यमा, परा और पश्यंती वाणियों को प्रयोग करके स्वजनों से इतना कुछ कह सुन लेंगे जितना चिरकाल के सान्निध्य में भी कदाचित सम्भव नहीं हो पाता ।

20 जून को हम चले जायेंगे । 10 दिन माताजी की व्यवस्था शान्तिकुञ्ज में बनाकर अपने गंतव्य स्थान को प्रयाण कर देंगे । ये प्रत्यक्ष मिलन का उपक्रम समाप्त हो ही जायेगा पर परोक्ष रूप से हमारा हर घनिष्ठ परिजन यह अनुभव करेगा कि हम छाया की तरह उसके साथ चलते हैं और प्राणवायु की तरह उसके अंतरंग का मृदुल एवं समर्थ स्पर्श करते हैं । भाव भरे अन्तःकरणों का मूल्य हमारी दृष्टि से समुद्र की रत्नराशि से अधिक है । उनके प्रति हमारा सम्मान सद्भाव और ममत्व यथावत् ही नहीं बना रहेगा वरन् और भी अधिक बढ़ता रहेगा । हमें विश्वास है इतनी सघन आत्मीयता, प्रतिक्रियारहित नहीं हो सकती। सो परिजनों को भी हमारे प्रति वैसा ही स्नेह सद्भाव बनाये रहने को विवश होना पड़ेगा - जैसा कि इन दिनों रखा करते हैं । हम किसी आत्मीय को भूलने वाले नहीं हैं, सो हमें भी भुला सकना किसी के लिए आसान न होगा । प्रत्यक्ष का संपर्क नियति ने तोड़ दिया तो क्या, अप्रत्यक्ष संबंधों की मृदुल सरसता का अनुभव करने से किसी को कोई नहीं रोक सकता । इस स्नेह सूत्र में तो हम अपने परिवार के साथ आगे भी चिरकाल तक घनिष्ठता के साथ बँधे रहेंगे । और कुछ किसी के लिये कर सकना, दे सकना सम्भव होगा, सो उनके प्रयत्न सामर्थ्यभर करते रहेंगे । प्रेरणाओं को क्रियान्वित करने की विवशता परिजनों को भी प्रेरित करती रहेगी। सो आदान-प्रदान का क्रम हम लोगों के बीच अभी टूटने वाला नहीं है । अप्रत्यक्ष समीपता आज की ही जितनी नहीं वरन् उससे भी अधिक उपयोगी अगले दिनों बनी रहेगी ।

हमारे भावी कार्यक्रमों में

(1) नव-निर्माण के लिए महानुभावों का सृजन,

(2) आत्मबल सम्पन्न बनने की युग साधना की शोध  तथा

(3) परिजनों का मृदुल एवं समर्थ स्नेह-सहयोग

यह तीन ही प्रयोजन मुख्य हैं।

समय, स्थान, कार्य-पद्धति आदि के बारे में हमें जानने की इच्छा भी नहीं हुई । जाना भी नहीं । क्योंकि हमारा समर्थ मार्गदर्शन हमारी उतनी चिन्ता तथा व्यवस्था करता है, जितनी हम स्वयं भी नहीं कर सकते । ऐसे मार्गदर्शक को पाकर भी यदि हम पूछ-ताछ, उखाड़-पछाड़ करते हैं, तो यह एक प्रकार से अपनी अश्रद्धा ही होगी । जिसके हाथों अपना वर्तमान और भविष्य बेच दिया, जिसके चरणों पर अपना तन, मन, धन सर्वस्व अर्पण कर दिया, उसकी इच्छा और प्रसन्नता में अपने अस्तित्व को घुला कर ही समर्पण योग की साधना पूरी होनी है । उससे हमारा न तो कोई अनुरोध है, न आग्रह, न इनकार, न संशोधन। छाया तो काया के पीछे ही चलती है चाहे सरल मार्ग पर चलना पड़े या ऊबड़ - खाबड़ पर। सो हम चलते ही आये हैं, चलेंगे भी। जब आदेश का पालन भर अपना धर्म रह गया तो फिर पूछ-ताछ की जरूरत भी क्या पड़े ? क्यों पड़े ? जहाँ रखा जायेगा रहेंगे । जो कराया जायगा करेंगे, उपरोक्त विविध कार्यक्रम भी उसी की इच्छा मात्र है। हम तो पोली बाँसुरी भर हैं। इसमें से क्या राग निकले, कब क्या स्वर लहरे, यह उसी का काम है, जिसके अधरों से अपने को सटाकर ही हम धन्य हो गये हैं। वह इस पोली बाँसुरी में से क्या स्वर निकालता है। इसे सुनने वाले स्वयं समय-समय पर सुनते रहेंगे । हमारी भावी कार्य-पद्धति एवं स्थिति की भावी रूप रेखा का परिचय इतना ही हमें मालूम है सो बता दिया ।

कार्य विभाजन में दूसरी जिम्मेदारी माताजी के ऊपर डाली गई है । यों वे रिश्ते में हमारी धर्म-पत्नी लगती हैं, पर वस्तुतः वे अन्य सभी की तरह हमें भी माता की भाँति दुलारती रही हैं । उनमें मातृत्व की इतनी उदात्त गरिमा भरी पड़ी है कि अपने वर्तमान परिवार को भरपूर स्नेह दे सके । हमारा अभाव किसी आत्मीयजन को खटकने न पायें । स्नेह के अभाव में कोई पौधा सूखने कुम्हलाने न पाये यह भार उन्हीं के कंधों पर डाल दिया गया है । बाप के मर जाने पर माँ, मेहनत मजदूरी करके भी बच्चों को पाल लेती है, पर माँ के न रहने पर बाप के लिये वह भार कठिन हो जाता है । हमारा न रहना परिजनों को कुछ ही समय अखरेगा । पीछे वे अपने आपको अभावग्रस्त या असुरक्षित अनुभव न करेंगे । माताजी का प्यार और प्रकाश उन्हें समुचित मात्रा में मिलता रहेगा युग-निर्माण आन्दोलन का संचालन वे स्वयं करेंगी । अखण्ड-ज्योति और युग-निर्माण हिन्दी पत्रिकाओं को हम जिस तरह संभालते थे उसी प्रकार वे उन्हें सम्भालेगी । इस कार्य के लिये उन्हें कुछ सहायकों की जरूरत पड़ेगी सो हमने व्यवस्था जमा ली है । अभियान का दिशा निर्धारण माताजी ठीक तरह करती रहेंगी । उन्हें हमारी तरह अधिक बातें करना नहीं आता पर आत्मिक गुणों की दृष्टि से वे हमसे कुछ आगे ही है पीछे नहीं । परिवार को प्यार और प्रकाश देने की जिम्मेदारी उन पर छोड़ कर हम एक प्रकार से निश्चिंत है । हमें रत्ती भर भी यह भय नहीं है कि आन्दोलन या संगठन हमारे जाने के पीछे लड़खड़ा जायगा । सच तो यह है कि हमने कुछ किया ही नहीं । एक दिव्य शक्ति ही बाजीगर की तरह हमें कठपुतली की तरह नचाती रही है और उसी की उंगलियों में बँधे धागे के सहारे उछल कूद करते रहे है । लोग जिसे हमारा कर्तृत्व पुरुषार्थ समझते हैं, उसकी असलियत हमीं जानते हैं । दिव्य सत्ता स्वयं हमें निमित्त बनाकर काम कर रही है । हमें तो व्यर्थ ही लोग श्रेय देते और लज्जित करते हैं । जिस शक्ति के सहारे यह प्रबल प्रयास अब तक चलता रहा है वह आगे भी स्वयं ही उसे चलायेगी । माताजी माध्यम रहें तो भी उनके पीछे वही समर्थ सत्ता रहेगी जो हमारे पीछे है । आन्दोलन घटने की आशंका होती तो काम बढ़ने और उसके वर्ग विभाजित करने की जरूरत ही क्यों पड़ती । हमें काम को अधूरा छोड़ने - चलती गाड़ी को ठप्प करने की सूझ क्यों सूझती ? हर किसी को यह परिपूर्ण विश्वास रखना चाहिये कि अगले दिनों अभियान की गति और अधिक बढ़ जायगी ओर वह मानवीय भविष्य के निर्माण की अपनी भूमिका अब की अपेक्षा अगले दिनों हजार गुनी तेजी के साथ सम्पन्न करता चला जायगा ।

माता भगवती देवी 20 जून के बाद हरिद्वार - ऋषिकेश के बीच सात ऋषियों की तपस्थली, जहाँ गंगा की सात धारायें प्रवाहित हुई हैं - अपने छोटे से ‘शान्ति कुञ्ज ’ नामक आश्रम में निवास करेंगी । जिस प्रकार हमने 24 लाख के 24 महापुरश्चरण सम्पन्न किये थे, उसी प्रकार वे भी करेंगी। अखण्ड घृत-दीप मथुरा से उन्हीं के पास चला जायगा । आश्रम में फल और शाक उगाने की व्यवस्था बना दी गई है । एक गाय रहेगी जिसका घी दीपक में और छाछ दूसरों के लिये प्रयुक्त होती रहेगी । सम्पादन, पत्र व्यवहार आदि में सहयोग देने के लिये एक दो व्यक्ति उनके पास रहेंगे । आगन्तुकों को 24 घंटे से अधिक उनके पास ठहरने पर प्रतिबन्ध रहेगा । अपनी तपश्चर्या की उपलब्धियों से वे लोगों के दुख-कष्ट निवारण के उस क्रम को जारी रखेंगी, जिसे हम जीवन भर निबाहते रहे हैं। मनुष्य के पास धन, बल, बुद्धि, प्रतिभा आदि की जो भी विभूति हो उसका न्यूनतम भाग अपने लिये रखकर शेष को अपने से पिछड़े हुओं की सेवा सहायता में लगाना चाहिये । यही मानवीय धर्म हमने जीवन भर निबाहा। हमारे पास जो कुछ भौतिक था, वह समाज को देते रहे । तपश्चर्या की कमाई हुई उसे भी अपने लिए - स्वर्ग मुक्ति, सिद्धि आदि के लिये नहीं रखा, वरन् पीड़ितों की व्यथा निवारण और पिछड़े हुओं की उन्नति के लिए रत्ती-रत्ती खर्च करते रहे। सो स्वभावतः अनेक व्यक्ति अब भी वैसी ही आशा हमसे रखेंगे । हमारे चले जाने पर अपने को असहाय समझेंगे । इस अपने बाल परिवार की साज-सम्भाल करने के लिए हम माताजी को छोड़े जाते हैं । वे अपनी तपश्चर्या इसी प्रयोजन में लगाती, खर्च करती हमारी परम्परा को जीवित रखे रहेंगी ।

(1) नवनिर्माण अभियान का प्रत्यक्ष मार्ग-दर्शन, नीति निर्धारण,

(2) हमारी बौद्धिक एवं साधनात्मक उपलब्धियों से सर्वसाधारण को अवगत कराते रहने का माध्यम  और

(3) अखण्ड दीपक एवं गायत्री पुरश्चरण श्रृंखला को गतिशील रखकर कष्टपीड़ितों की सहायता एवं परिजनों को प्यार - प्रकाश का अनुदान।

यह तीन काम माताजी के जिम्मे है। हमारी अब तक की कार्य पद्धति का इतना अंश माताजी के जिम्मे छोड़ दिया गया है ।

हमारा तीसरा प्रत्यक्ष आन्दोलनात्मक, प्रकाशात्मक, संगठनात्मक, सृजनात्मक एवं संघर्षात्मक कार्यक्रम गायत्री तपोभूमि से चलेगा। वहाँ कार्यकर्त्ताओं की एक बहुत अच्छी टीम इकट्ठी हो गई है जो निस्पृह भाव से लोक-मंगल एवं जन-कल्याण के प्रयोजन को पूरा करने में त्याग और बलिदान की भावना से निरत हैं। कभी फोड़े - फुन्सी उठते रहते हैं, सो मानव स्वभाव है, उनका कतर बोनट पहले भी होता रहा है और आगे भी होता रहेगा। सब मिलाकर यह टीम ऐसी है जिसके कन्धे पर हम तपोभूमि में चल रही गतिविधियों तथा क्षेत्र में विस्तृत आन्दोलना का उत्तरदायित्व संतोष पूर्वक छोड़ सकते हैं। अभी लगभग एक दर्जन कर्मठ कार्यकर्त्ता तपोभूमि में रह रहे हैं, आगे और भी नये आने वाले हैं। देशव्यापी कार्य को देखते हुए कार्यकर्त्ताओं की संख्या बढ़ने ही वाली है। आशा है आगे यह संख्या बहुत बढ़ जायगी। इस टीम को अहंकार या लोलुपता पैदा न होने पाये, इसके लिए कड़े नियम बना दिये गये हैं। इनमें से कोई गुरु बनने, पैर पुजाने, व्यक्तिगत रूप में दान-दक्षिणा लेने का प्रयास न करे, ऐसी सख्त मनाही कर दी है। अपने पीछे के सभी लोग लोकसेवी, कार्यकर्त्ता मात्र रहेंगे। वही उनका स्तर होगा। अलग-अलग संस्थाएँ बनाने, किसी क्षेत्र का अलग संगठन करके, उसके अलग महन्त बन बैठने और केन्द्र को कमजोर करने तथा उसके साथ प्रतिद्वंद्विता उभारने की भी अपने किसी भी अनुयायी उत्तराधिकारी को रोके जा रहे है। यश, लोलुप और व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं से ग्रस्त व्यक्ति ही अक्सर ऐसे उपद्रव खड़े करते हैं, जिससे सेवा का आदर्श भूलकर व्यक्ति अपनी व्यक्तिगत अहंता बढ़ाने लगता है। सार्वजनिक जीवन का यही अभिशाप है और इसी चट्टान से टकराकर अनेक महत्वपूर्ण संगठन टूटे हैं, टूट रहे हैं। सो हमने अपने देश भर में फैले उत्तराधिकारियों को - खासतौर से गायत्री तपोभूमि के निवासियों को ऐसे कुकृत्य न करने का बहुत आग्रह और अनुरोधपूर्वक रोक दिया है। अब हम अपने पीछे सृजनात्मक और संघर्षात्मक कार्यक्रमों को चलाते रहने के लिए एक टीम गायत्री तपोभूमि में छोड़े जा रहे हैं। जो किसी से पैर छुआने के लिए सहमत न होगी, पर दूसरों के पैर छूकर अपनी नम्रता का परिचय देती है और सार्वजनिक जीवन की पवित्रता को अक्षुण्ण रखे रहेगी।

गायत्री तपोभूमि की कार्यकर्ता टीम का नेतृत्त्व करने के लिए हमने श्री लीलापति शर्मा को नियुक्त कर दिया है। तपोभूमि की व्यवस्था, शाखाओं संगठनों तथा क्षेत्रीय कार्यक्रमों को भी वे ही संभालेंगे। उन्हें हमारा प्रतिनिधि माना जाय। यह फैसला हमने बहुत सोच समझ कर किया है। हमें आशा है कि उन्हें सर्वत्र बड़े भाई की तरह, हमारे संगठनात्मक उत्तराधिकारी की तरह ही स्वीकार किया जायगा और व्यवस्थात्मक अनुशासन रखा जायगा।

गायत्री तपोभूमि में युग-निर्माण विद्यालय, हिन्दी तथा विभिन्न भाषाओं की युग-निर्माण पत्रिकाओं का संचालन, पुस्तकें, विज्ञप्तियाँ, पोस्टर आदि का प्रकाशन, कला-भारती आदि के कार्यक्रम भी दैनिक यज्ञ एवं निवासियों के अनिवार्य गायत्री साधना के साथ-साथ चलते रहेंगे। संगठन का मार्गदर्शन मथुरा से होगा।

अभी ज्ञान-यज्ञ का प्रथम चरण ही चल रहा है। इस आधार पर प्रभाव क्षेत्र बढ़ाने और कार्यकर्ता सहयोगी उत्पन्न करने का आरम्भिक प्रयोजन पूरा किया जा रहा है। थोड़ी मजबूती आते ही दूसरे रचनात्मक और संघर्षात्मक कार्य हाथ में लिये जावेंगे। अगले वर्ष 240 युगनिर्माण सम्मेलन किये जाने हैं। जिनके साथ 9 कुण्डी छोटे गायत्री यज्ञ भी जुड़े रहेंगे। इनका मुख्य प्रयोजन शाखा के साधनों को अधिक विस्तृत और प्रभावी बनाना है। इसकी एक विस्तृत रूप-रेखा बना ली गई है। इन सम्मेलनों को सफल बनाने के लिए मथुरा से संगीत मंडलियाँ तथा प्रकाश चित्र-यन्त्र (स्लाइडर प्रोजेक्ट) भेजे जाते हैं। इसके लिये कुछ जीपें भी खरीदी जा रही हैं। इस सारी योजना का संचालन गायत्री तपोभूमि से ही होगा और देश-व्यापी हमारे सभी परिजन उसका पूरा-पूरा सहयोग करेंगे। हम यह आशा और विश्वास लेकर तथा सर्वसाधारण को आश्वासन देकर जा रहे हैं कि अगले दिनों नव-निर्माण का पुण्य प्रयास घटेगा नहीं बढ़ेगा ही। गायत्री तपोभूमि स्थित युग-निर्माण योजना का केंद्र हमारी जलाई मशाल को भविष्य में हमसे अच्छी तरह जलाये रहने में समर्थ होगा। इस ईश्वरीय प्रयोजन के पीछे भगवान का , हमारे गुरुदेव का, हमारा तथा उत्तराधिकारियों के भाव भरे पुरुषार्थ का जो प्रचण्ड बल है वह उसे गिरने या घटने न देगा। अभियान गतिशील होगा और विश्व मानव के भविष्य को उज्ज्वल बनाने में ऐतिहासिक भूमिका प्रस्तुत करेगा।

अपने, माताजी के, लीलापति जी के नेतृत्व में एकजुट होकर कार्यरत गायत्री तपोभूमि की टीम के कार्य विभाजन की चर्चा की जा चुकी । अब चौथा उत्तरदायित्व परिजनों का रह जाता है। उनमें से प्रत्येक को एक घण्टा समय और दस पैसा रोज ज्ञान-यज्ञ के लिए देने की बात भूल नहीं जानी है वरन् हमारा सौंपा हुआ एक अति पवित्र उत्तरदायित्व समझना है। दस पैसा वाली धनराशि केवल घर में झोला पुस्तकालय रखने के लिए ही खर्च की जानी है। हम ऐसी व्यवस्था बनाकर जा रहे हैं कि जन-मानस को प्रेरणा देने वाला अति उत्कृष्ट साहित्य भविष्य में भी तपोभूमि से प्रकाशित होता रहे। कहा जा चुका है कि हम अपना हस्तलिखित साहित्य इतना अधिक छोड़े जा रहे हैं। जो लगातार दस वर्ष तक छपता रहे तब कहीं पूरा हो पावेगा। यह प्रस्तुत साहित्य से अधिक ऊँचे स्तर का होगा, सो उसे परिजनों के घरों में रहना ही चाहिये और उसे संपर्क क्षेत्र में पढ़ाने के लिये-सुनाने के लिए-समय लगाया जाना ही चाहिए। यह प्रक्रिया ठीक से चलती रही तो अपना ज्ञान-यज्ञ अखण्ड बना रहेगा और उसकी चिनगारियाँ आज के व्यापक अनाचार को अन्धकार को मिटाने के लिए समर्थ परिवर्तन प्रस्तुत कर सकने में सफल होगी। इस प्रयास में कहीं किसी की कमी नहीं आने देनी चाहिए। अपने कार्य की सूचना मथुरा नियमित रूप से भेजते रहना चाहिए ताकि वे माताजी तक और पीछे हम तक पहुँचती रहें। हमने सारा जीवन, समय तथा वैभव लोक-मंगल के लिए उत्सर्ग करके परिजनों के सामने एक पुण्य परम्परा प्रस्तुत की है। जो हमसे, हमारे निशान से, प्यार करते हैं, उन्हें कम से कम इतना तो करते ही रहना चाहिये कि एक घण्टा समय और दस पैसा ज्ञान-यज्ञ के लिए नियमित रूप से देते रहने का जो छोटा-सा त्याग, बलिदान अनिवार्य रूप से निबाहते रहने के लिए कहा गया है, उसे निष्ठा- पूर्वक निबाहते रहें। जो इतना निबाह लेगा उसी से यह आशा की जायगी कि कुछ और बढ़े-चढ़े कदम उठाकर सृजनात्मक और संघर्षात्मक भावी प्रक्रिया में कुछ कहने लायक योगदान दे सके। नव-निर्माण प्रयोजन की कर्मठता के लिए उपरोक्त अनिवार्य शर्त जो पूरा कर सकेंगे उन्हें आरम्भिक कसौटी पर कसा जाने पर खरा माना जायगा और उन उत्तरदायित्वों को सौंपा जायगा जो महामानवों के हाथों ही सम्पन्न किये जा सकने सम्भव हैं।

यों हम जा ही रहे हैं, पर अपने अतिरिक्त अन्य तीन घनिष्ठ सहयोगियों

(1) शान्ति कुञ्ज स्थित तपस्विनी माताजी,

(2) लीलापत जी के नेतृत्व में ज्ञान-यज्ञ एवं संगठन सँभालने वाली गायत्री तपोभूमि स्थित कार्यवाहिनी टीम  और

(3) नित्य का अनुदान देने वाले कर्मठ परिजन

(इन तीनों की) ही पूरी-पूरी देखभाल और साज-सँभाल करते रहेंगे। अपने ईश्वर प्रदत्त उत्तरदायित्व को इन तीन साथियों में बाँटते हुए हम यह आशा लेकर जा रहे है कि वे सभी अपनी जिम्मेदारी पूरी ईमानदारी तथा तत्परता के साथ वहन करेंगे। इन तीन वर्गों के अलावा भी हमारे अनेक स्नेही स्वजन रह जाते हैं। उन्हें भी प्यार और प्रकाश देने में कंजूसी नहीं करेंगे। स्थूल शरीर भर से हम जा रहे है। पर हमारा सूक्ष्म अस्तित्व अब की अपेक्षा अनेक गुना प्रखर हो जाने के कारण सम्बद्ध लोगों को अपने समीप बहुत कुछ कहने और देने के लिए उपस्थित ही अनुभव होता रहेगा।


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