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Magazine - Year 1971 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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मनुष्य देह में मेरा विलक्षणा-विराट

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बाई डाँगों अफ्रीका के गाँव मबाई तथा फ्रांस के ‘केन्ड्री’ स्थान में एक प्रकार का वृक्ष पाया जाता है जो वनस्पति विज्ञान के सभी नियमों का उल्लंघन कर एक ऐसा अपवाद बन गया है, जिसका हल कोई भी वनस्पति शास्त्री आज तक खोज नहीं पाया। इस वृक्ष की जड़ें एक ऐसी कील या चूल की तरह होती हैं जिसमें रखकर किसी यन्त्र को चारों ओर घुमाया जा सके । कभी-कभी तूफान आते हैं तो प्रदेश के छोटे-बड़े हजारों पेड़-पौधे धराशायी हो जाते हैं किन्तु तूफान जब इस पेड़ के समीप से गुजरता है तो वृक्ष चूल नुमा जड़ के सहारे चक्कर काटने लगता है जैसे कोई लट्टू नाचता है । जितनी देर तूफान-वृक्ष नाचता रहेगा, तूफान खतम-और नाच बन्द-पौधा अपनी विकास यात्रा प्रारम्भ कर देता है । जड़ें फिर अपना काम शुरू कर देती हैं। यह वृक्ष लोगों के लिये आश्चर्य का विषय बना हुआ है ।

मनुष्य देह में भी बहुत कुछ ऐसा है जिसके बारे में हम नहीं जानते पर वह इतना आश्चर्यजनक अद्वितीय क्षमताओं से परिपूर्ण है कि दुनिया भर के वैज्ञानिक उस जैसी मशीन आज तक बना नहीं पाये । अपनी विचार शक्ति को केन्द्रित कर भारतीय योगियों ने जब इस शरीर-गह्वर में प्रवेश कर उसका आद्योपान्त भ्रमण किया तो पाया कि जिसे हम शरीर कहते हैं वह तो विराट् ब्रह्मांड है; सात लोक और उन्हें धारण करने वाला विराट् आकाश इसी में छिपा बैठा है । बड़ी-बड़ी निहारिकाओं से लेकर आकाश गंगा और सौर मण्डल तक अपने-अपने ग्रह उपग्रह लिये इसमें चक्कर काट रहे हैं। मनुष्य शरीर दिखाई न दिया होता यदि इसमें पार्थिव कण विद्यमान न होते । स्थूल कणों की उपस्थिति स्वरूप अन्नमय कोश या प्रोटोप्लाज्मा की ईंटों से चुनाव की हुई इस बिल्डिंग में स्थूल भाग दृश्य है इसलिये यह नहीं मान लेना चाहिए कि शरीर केवल मात्र एक स्थूल पिण्ड है वरन् इसमें सूक्ष्म इतना है कि सारा आकाश ही अपने सम्पूर्ण घटकों के साथ छिपा बैठा है। इस सूक्ष्म शरीर को न जानने के कारण ही मनुष्य शारीरिक इन्द्रिय लिप्सा और भौतिक सुखों के आकर्षण में पड़ा जिन्दगी के दिन गँवाया करता है । एक दिन मृत्यु आती है और इस ईश्वर-प्रदत्त महान् सौभाग्य को नष्ट करके चली जाती है ।

मृत्यु के भय और अमरत्व की इच्छा ने भारतीय आचार्यों को विचार की एक नई दिशा दी-उन्होंने खोज की-

स्थूल शरीरं किम् ? पञ्चीकृत पञ्च महाभूतैः कृतं सत्कर्मजन्य सुख-दुःखादि भोगायतनं शरीरम् ।

                      अस्ति   जायते, वर्धते, विपरिणमते, अपक्षीयते   विनश्यतीति  षड्विकारवदेतत्स्थूल   शरीरम् ॥ (श्री शंकराचार्य कृत तत्त्वबोध)

अर्थात् -स्थूल शरीर किसे कहते हैं ? विश्लेषण से पाया गया कि पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश इन पाँचों महाभूतों से किए गए कर्मों के द्वारा उत्पन्न सुख-दुःख आदि के भोगने का प्रधान आश्रय यह शरीर उत्पत्ति, वृद्धि, घटना, बढ़ना, ढीला पड़ना और नाश हो जाने वाला इन छः विकारों से युक्त है। इसमें अति सूक्ष्म आकाश है। अर्थात् आकाश-तत्व से शरीर की रचना प्रारम्भ होती है । आकाश तत्त्व दो भागों में बँटकर रहता है। आधा तो वह अपने ज्यों के त्यों स्वरूप में रहता है। शेष आधे को वायु भाग में मिला देता है। इस सम्मिश्रित भाग का आधा भाग अग्नि तत्व से मिलकर तेज या प्राण के रूप में व्यक्त होता है । इस तेज का आधा भाग जल से मिलकर तरल भाग रक्त आदि का निर्माण करता है इसी जल वाले आधे भाग से पृथ्वी तत्व अर्थात् स्थूल शरीर का निर्माण होता है । इस दृष्टि से देखने पर पता चलता है कि भारी भरकम और स्थूल दिखाई देने वाले शरीर में सर्वाधिक अंश आकाश है जिसके बारे में आज का विज्ञान कुछ भी नहीं जानता । और भारतीय योगियों ने इस सम्बन्ध में इतना अधिक जाना कि इसी शरीर में मूल चेतना-ब्रह्म को प्राप्त कर लिया-अमरत्व प्राप्त कर लिया । वेद में कहा गया है-

यस्मिन्   भूमिरन्तरिक्षं   द्यौर्पस्मिन्न   ध्याहिता ।

यत्राग्निश्चन्द्रमाः  सूर्यो   वातस्तिष्ठ   न्त्यार्पिताः ॥

                            यस्य   त्रय   स्त्रिंशद्देवा  अंगे   सर्वे  समाहिताः ॥ -अथर्ववेद  10/ 7/ 12/ 13

अर्थात्-भूमि अन्तरिक्ष और द्युलोक इसी शरीर में ही है जिसमें अग्नि, चन्द्रमा, सूर्य और वायु रहते हैं। तैंतीस देवता भी इसी शरीर में रहते हैं ।

अष्टाचक्रा    नवद्वारा   देवानां   पूरयोध्या ।

अस्यां हिरण्ययः कोशः स्वर्गो ज्योतिषावृतः ।

 तस्मिन्   हिरण्यये  कोशे  त्र्यरे  त्रिप्रतिष्ठिते ।

                                 तस्मिन् यद्यक्षमात्मन्वत् तद्वै ब्रहृविदो विदुः ।  -अथर्ववेद 10/ 2/ 31-32

अर्थात्- यह देह देवताओं की पुरी अयोध्या है। इसमें ८ चक्र हैं, नौ द्वार हैं, सुनहरे कोशों से आच्छादित हृदय कमल है जो तेज से घिरे स्वर्ग के समान है । इस कोश में ही आत्मा विराजमान है उसे ब्रह्मज्ञानी ही जानते हैं ।

भारतीय दर्शन और जीवन पद्धति में स्थूलता को कम महत्व दिया गया और देव भाग को अधिक। यह यहाँ की सर्वोपरि विज्ञानवादिता थी । अब शरीर-विद्या विशारद भी इन मान्यताओं पर उतरने लगे हैं कि वस्तुतः शरीर का सारा संचालन अधिकांश इन देव शक्तियों-ग्रहों-उपग्रहों या सूक्ष्म आकाश भाग से ही होता है । “ओकाल्ट एनाटोमी एण्ड दि बाइबिल” पुस्तक में डॉ. कोराहन हेलिन ने-कोलम्बिया विश्व-विद्यालय के डॉ. लुहस वर्मन के निबन्ध-व्यक्तित्व को प्रभावित करने वाली ग्रन्थियाँ (ग्लैण्ड्स रेगुलेटिंग पर्सनालिटी) के हवाले से बताया है कि मनुष्य के शरीर में कुछ ऐसी ग्रन्थियाँ हैं जो देखने में छोटी होती हैं, पर उनका महत्व असाधारण है । पाचन क्रिया से लेकर मनोवेगों तक का सारा नियन्त्रण इन ग्रन्थियों से ही होता है। इन्हें वाहिनी हीन (डक्ट लेस) ग्रन्थियाँ (ग्लैण्ड्स) कहा जाता है। अंतःस्रावी हारमोन्स इन ग्रंथियों से ही स्रवित होकर शारीरिक उतार-चढ़ाव, घटना, बढ़ना, बुढ़ापा, मृत्यु आदि का कारण बनते हैं ।

एनाटोमी मेडिकल कालेज कर्नेल विश्वविद्यालय के प्रोफेसर डॉ. चार्ल्स आर स्टार्क यार्ड ने इन ग्रन्थियों के आधार पर मनुष्य जीवन की एक नई धारणा प्रस्तुत की है, जो भारतीय आध्यात्मिक शोधों से शत-प्रतिशत मेल खाती है । षट्चक्रों की भारतीय खोज और जीव-शास्त्रियों द्वारा वर्णित सात ग्रन्थियों के क्रिया विज्ञान में कितना साम्य है। इसे कभी फिर लिखेंगे तो पाठक आश्चर्य करंगे। जिन बातों को विज्ञान ने अत्यन्त कुशल मशीनों द्वारा जाना, भारतीयों ने योग-साधनाओं द्वारा उससे भी अधिक आगे बढ़कर किस तरह प्राप्त कर लिया । डॉ. स्टाकर्ड लिखते हैं कि आन्तरिक स्राव वाली ग्रन्थियाँ एक महान् शासक के रूप में गर्भधारण से लेकर मृत्यु तक स्त्रियों पुरुषों तथा समस्त रीढ़ की हड्डी वाले जीवों तक का नियन्त्रण करती है। “फिजियोलॉजी” तथा सोशलॉजी की मान्यतायें भी अब “अन्तराकाश” के अस्तित्व और उसके प्रचण्ड प्रभाव को स्वीकार करने लगे हैं। “ग्लैण्ड्स ऑफ डेस्टिनी” के लेखक डॉ. ईबो गैकी काव ने तो यहाँ तक मान लिया है कि अन्तःस्रावी ग्रन्थियों (इन्डोक्राइन ग्लैण्ड्स) पर नियन्त्रण रखने वाले लोगों ने ही इतिहास पर अधिकार रखा है और जमाने को कहाँ से कहाँ बदल दिया है । नैपोलियन बोनापार्ट का उदाहरण देते हुये उन्होंने लिखा है कि यदि वाटरलू के युद्ध के समय नैपोलियन बोनापार्ट की “पिचुट्री ग्लैण्ड” (पीयूष ग्रन्थि) में खराबी नहीं आ जाती तो वह हारता नहीं। जो नैपोलियन अत्यन्त दूरदर्शी निर्णय भी तुरन्त ले लेने की क्षमता रखता था उसकी विवेक बुद्धि बुरी तरह लड़खड़ा गई । जिस समय वह एल्वा में निर्वासित था, उस समय उसकी लेगर्ड ग्रन्थि लड़खड़ा गई । यह सारी बातें तब प्रकाश में आई जब सेंट हेलेना में उसके शव की अन्त्य परीक्षा (पोस्ट मार्टम) की गई । जब तक उसने इन ग्रन्थियों पर नियन्त्रण रखा, जब तक उसकी अंतःस्रावी ग्रन्थियाँ सशक्त रहीं, वह नैपोलियन सारी दुनिया को जीतता रहा पर जैसे ही वह इन शक्तियों से वंचित हुआ वह नष्ट ही हो गया ।

योग साधनायें इन देव-शक्तियों के विकास का ही वैज्ञानिक उपक्रम है । आने वाले दिनों में जबकि अंतःस्रावी ग्रन्थियों के पदार्थ (मैटर) की खोज होगी और उसकी तुलना ग्रहों के पदार्थ से की जायेगी तो लोग आश्चर्य करेंगे कि मनुष्य शरीर में आकाश तत्व किस विलक्षणता के साथ उपस्थित है और कितने आश्चर्यजनक ढंग से मनुष्य को अपनी इच्छा से बाँधें हुए है ।

“ओकाल्ट एनाटोमी एण्ड दि बाइबिल” पुस्तक के वैज्ञानिक लेखक ने उस तरह का तुलनात्मक अध्ययन, जिस तरह “कुण्डलिनी तन्त्र” में भारतीय योगियों ने किया है वैसा तो नहीं किया पर उसने माना है कि इन ग्रन्थियों का सम्बन्ध निश्चित रूप से नक्षत्रों (स्टार्स) से है । उन्होंने इन्हें “आन्तर्नक्षत्र” (इन्टीरियर स्टार्स) लिखा है और बताया है कि सूर्य और हरिग्रह पीनियल ग्लैण्ड से सम्बन्ध रखते हैं इसे तृतीय नेत्र ग्रन्थि भी कहा जाता है। उससे भ्रू-मध्य में “आज्ञा-चक्र” का ही स्पष्ट प्रमाण मिलता है आज्ञा-चक्र जागृत करने वाला “ऊँ” ध्वनि सुन सकता है । सब तरफ की दूरवर्ती घटनायें देख सुन सकता है । यह सूर्य शक्ति का प्रभाव है । वरुण और चन्द्र का सम्बन्ध ‘पिचुट्री ग्रन्थि’ से है । चन्द्रमा के उतार चढ़ाव से मन पर उतार चढ़ाव होता है। यह इन दोनों तत्त्वों की एकता का प्रमाण है। बृहस्पति का प्रभाव उपवृक्क (एड्रिलन) पर, मंगल का प्रभाव प्रजनन ग्रन्थि (गोनाड्स) पर, बुद्ध का प्रभाव गल ग्रन्थि (थायराइड्स) पर है। सूर्य का पैरा थायराइड्स (उपगल ग्रन्थि) से सम्बन्ध है। इन ग्रहों के उतार चढ़ाव इन ग्रन्थियों को प्रभावित करते हैं। रामायण में कहा गया है कि-

“उमादारु योषित की नाईं, सबहिं नचावत राम गोसाईं”

हे गोरी ! जिस प्रकार डोरी उँगलियों में बाँधकर कलाकार कठपुतली को नचाता है परमात्मा उसी प्रकार सारी सृष्टि को । उसमें इसी तथ्य का प्रतिपादन है । मनुष्य इस आकाशीय प्रक्रिया से बँधा हुआ नाचता रहता है ; पर जो लोग अपने इस सूक्ष्म शरीर को विकसित करके अपनी चेतना का उत्तरोत्तर विकास कर विराट् पुरुष से जोड़े देते हैं वे इन ग्रन्थियों पर, शरीर यन्त्र पर  उसी तरह नियन्त्रण कर सकते हैं, जिस तरह कोई अत्यन्त सुदूरवर्ती केन्द्रस्थ विराट तारा समस्त ब्रह्मांड का नियंत्रण करता है ।  आने वाली खोजें बतायेंगी कि सिद्ध योगी और ब्रह्मांड की-महाशक्ति में कोई अन्तर नहीं होता । पैरासेल्स ने भी इसी तथ्य की पुष्टि की है ।

कुछ समय पूर्व फ्राँस के क्लरमान्ट में ऐसी वर्षा हुई जिसे आज भी लोग लाल वर्षा या रक्त वर्षा के नाम से याद करते हैं । इस वर्षा में जो जल बरसा वह लाल रक्त के समान था । वैज्ञानिक आज तक इसका रहस्योद्घाटन नहीं कर पाये कि उसका कारण क्या था, किसी किसी का कहना था सहारा रेगिस्तान में लाल पत्थरों के महीन कण हवा में उड़ते हैं वह कण ही भाप के साथ मिल गये होंगे-उसी से यह वर्षा हुई । इस निष्कर्ष से लोग संतुष्ट नहीं हुये ; तथापि पदार्थ विज्ञान के अनुसार कोई न कोई दूरवर्ती कारण तो है ही जिसके कारण यह घटना घटी । मनुष्य जीवन में घटने वाली  शारीरिक, बौद्धिक घटनायें और विलक्षणतायें जो समझ में नहीं आतीं वे भी ऐसी ही सूक्ष्म हैं जो हमारे शरीर से प्रभावित होने पर भी समझ में नहीं आतीं । उन्हें तो तभी जाना - समझा जा सकता है, जबकि हमारी मनश्चेतना अत्यन्त सूक्ष्म और निर्मल होती हो । योग साधनाओं में मन को ही सूक्ष्म प्रखर और प्रकाश पूर्ण बनाया जाता है जिससे वह शरीर के अंग-प्रत्यंग का भेदन कर वहाँ की सूक्ष्म गतिविधियों का पता पा सके । शरीर में ब्रह्मांड का अस्तित्व इसी विज्ञान के द्वारा जाना जा सका है । इन योग साधनाओं की वैज्ञानिक जाँच की जा सके तो मनुष्य जाति उन सूक्ष्म सत्यों से भी लाभान्वित हो सकती है, जिन्हें देववाद कहकर या भावनावाद कहकर ठुकरा दिया जाता है पर उनका महत्व इतना अधिक है कि मनुष्य का सारे का सारा जीवन ही इन्हीं के सहारे संचालित होता है ।

जिस तरह वह अफ्रीकन पौधा अपवाद है, मनुष्य का शरीर भी अपवाद और ईश्वरीय विलक्षणता से ओत-प्रोत है । इसमें ब्रह्मांड ही उतरा हुआ है । जो लोग इसे जान लेते हैं वह मुक्त हो जाते हैं, समर्थ हो जाते हैं । शरीर के नाश हो जाने पर भी उनका नाश नहीं होता । वे विराट् हो जाते हैं ।


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