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Magazine - Year 1971 - Version 2

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प्राणिमात्र से यथायोग्य व्यवहार करें

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स्वर्ण को किसी रूप में क्यों न परिवर्तित किया जाये, किसी भी साँचे में ढाला जाये-सोना अन्ततः सोना ही रहेगा ‘अतः प्रवृत्ति भूतानाम्’-का अन्य कोई तात्पर्य नहीं है। इसका केवल यही तात्पर्य है कि यह चराचरमय सारी सृष्टि परमात्म रूप ही है। इसका उद्भव परमात्मा से हुआ है। इसका अस्तित्व परमात्मा से ही है और अन्त में यह परमात्मा में ही मिल जायेगी। परमात्मा से पृथक उसकी कोई कल्पना नहीं है। जल स्वयं ही बादल बनता है। स्वयं ही बूँद, बुद-बुद तथा सरिता एवं सागर का रूप धारण करता है। स्वयं ही हिम एवं निर्झर बनता है। स्थान स्थिति और स्वरूप के अनुसार नाम भिन्न-भिन्न होने पर भी तत्वतः सब है जल ही।

बीज में केवल एक तरह का एक ही पदार्थ होता है। उसमें मूल, फूल, पत्ते तथा शाखा प्रशाखा नहीं होतीं। किन्तु जब वह अंकुरित होकर बढ़ता है तब एक ही पदार्थ-गूदा-विभिन्न रूपों में स्फुरित होकर सर्वांग वृक्ष का रूप धारण कर लेता है। इसी प्रकार मूल परमात्म तत्त्व एक ही है। वह स्वयं ही विविध प्रकार से विकसित होकर विश्व-वैचित्र्य के रूप में दृष्टिगोचर होता है।

परमात्मा से भिन्न सृष्टि की कल्पना की ही नहीं जा सकती। जो कुछ हमें दिखाई दे रहा है, जिसे हम अनुभव कर रहे हैं अथवा जिसकी भावना कर सकते हैं वह सब परमात्म तत्व ही है। यह सारा जगत् परमात्मा से उत्पन्न हुआ है, उसी से उसी में व्याप्त है और एक दिन उसी में लीन हो जायेगा। न तो कुछ परमात्मा से पृथक है, और न परमात्मा किसी से भिन्न है। माता-पिता, स्त्री-पुरुष पति-पत्नी, भाई-बहिन, शत्रु-मित्र, भला-बुरा जो हमारे मन में आता है वह सब परमात्मा ही है और जो कुछ व्यवहार हम करते हैं, ईश्वर की आज्ञा से ईश्वर के प्रति ही हम करते हैं।

इस न्याय के अनुसार यह शंका की जा सकती है कि जब संसार का प्रत्येक प्राणी ईश्वर स्वरुप है, तब किसी से यथायोग्य व्यवहार किस प्रकार किया जा सकता है। सांसारिक मर्यादा के अनुसार किसी से समानता का, किसी से श्रेष्ठता का या कनिष्ठता का व्यवहार करना पड़ता है। इतना ही क्यों कभी-कभी ऐसे अनिवार्य अवसर आ पड़ते हैं जबकि किसी को बुरा-भला कहने अथवा दण्ड देने दिलाने की आवश्यकता हो जाती है। तब यदि किसी से कठोर व्यवहार किया जायेगा तो यह एक प्रकार से ईश्वर के प्रति ही अशिष्टता होगी। क्या इस प्रकार का व्यवहार करना किसी विचारशील व्यक्ति के योग्य होगा?

साधारण रूप से सोचने पर यह शंका ठीक ही मालूम होती है कि-"जब स्त्री पुत्र से लेकर चोर-चाण्डाल तक सब ईश्वर के ही स्वरूप हैं, तब भला उनसे यथायोग्य कनिष्ठता अथवा कठोरता का व्यवहार किस प्रकार किया जा सकता है ? ईश्वर मानते हुये बच्चे को ताड़ना देना अथवा चोर डाकू को दण्ड दिलवाना भी तो पाप ही होगा? और यदि ऐसा नहीं किया जाता है तो सामाजिक व्यवस्था में व्यवधान आता है। संसार में कुविचारों तथा कुप्रवृत्तियों की वृद्धि होती है?”

इस शंका का साधारण का समाधान यह है कि भगवान् जिस समय जिस रूप में अपने सामने उपस्थित हों उस समय उनसे यथायोग्य व्यवहार करना ही उनका आदर करना है। कटु, कठोर अथवा असत् व्यवहार तो क्या, बड़े और क्या छोटे, किसी से किया ही नहीं जाना चाहिए। बच्चे के हित में उसे ताड़ना देते समय भी हृदय में क्रोध का भाव नहीं होना चाहिये अथवा किसी अपराधी को दण्ड दिलाते समय प्रतिशोध की भावना होना एक पाप ही है। अपराधी को दण्ड दिलाते समय भी यही भाव होना चाहिये कि उसकी ताड़ना का प्रबन्ध करना उसके सुधार तथा सामाजिक शान्ति के लिये आवश्यक है। इसलिए ऐसा करना हमारा पुनीत कर्तव्य है। इससे हमारा कोई व्यक्तिगत द्वेष नहीं है।

क्रोध, आवेश, उद्वेग अथवा प्रतिशोध के वशीभूत होकर किसी से कटु व्यवहार करना आध्यात्मिक क्षेत्र में पाप ही है और सामाजिक सीमा में असज्जनता है।

वेश अथवा स्वरूप के अनुसार ही यथायोग्य व्यवहार करना ईश्वर की आज्ञा का ही पालन है! शर शैय्या पर पड़े भीष्म पितामह द्वारा उपाधान माँगे जाने पर अर्जुन का उनके मस्तक को बेध कर बाणों का तकिया बना दिया जाना देखने में कितना क्रूर कर्म है। किन्तु पितामह भीष्म को उस समय उसी प्रकार का उपाधान योग्य था। इसीलिये ही तो उन्होंने कौरवों द्वारा लाये गये रेशमी उपाधानों को अस्वीकार करके अर्जुन को इस कठोर कर्म के लिए भी विजय का आशीर्वाद दिया था। यह भीष्म पितामह के वेश के योग्य व्यवहार था। उस समय अर्जुन की करुणा भीष्म वेश के प्रतिकूल होती और यदि वे वैसा करने से इनकार कर देते तो अपने कर्तव्य से गिर जाने और पितामह के आशीर्वादपूर्ण प्रसन्नता से वंचित रह जाते।

इसी प्रकार बच्चे के रूप में आये हुये भगवान् के स्वरूप का ध्यान न करके यदि उसके साथ श्रद्धा भक्ति, पूजा अर्चा का व्यवहार किया जाये तो यह अयुक्त होगा, जिससे भगवान् प्रसन्न होने के स्थान पर रुष्ट ही हो जायेंगे। भगवान राम समझ कर चोर अथवा चाण्डाल की चाटुकारी करना भी उस वेश में आये भगवान् का अपमान करना ही है। भगवान् की प्रसन्नता स्वरूप के प्रति शास्त्रोक्त व्यवहार करने में ही है। वेश के अनुरूप व्यवहार न करना ही वास्तव में अनुचित है।

जिस प्रकार नाटक में कभी-कभी गुरुजन भी अधीनों का अभिनय किया करते हैं। ऐसे समय में यदि लघुजन यह सोचकर कि यह तो मेरे गुरुजन हैं -नाटक के अनुरूप बड़प्पन का अभिनय न करें तो नाटक ही बिगड़ जाये और उक्त भावुक अभिनेता उसकी असफलता का अपराधी बने। गुरुजन के अभिनय के अनुसार बड़प्पन का नाटकीय व्यवहार करने से वे किसी भी दशा में रुष्ट नहीं हो सकते। उस समय का वह व्यवहार उनकी प्रसन्नता तथा उत्साह का ही हेतु बनेगा। गुरुजन ही नहीं, संसार के प्राणी मात्र को ईश्वर का स्वरुप समझ कर उनके प्रति आदर एक स्थायी भाव होना चाहिए; साथ ही संसार लीला में रस तथा रोचकता लाने के लिये वेश के अनुसार यथायोग्य व्यवहार करना उक्त स्थायी भाव के गिर्द घूमने वाला संचारी होना चाहिए। छोटा हो अथवा बड़ा, किसी के भी प्रति अनादर का स्थायी भाव रखना एक पाप ही है संसार का प्रत्येक प्राणी उस परम पिता परमात्मा का ही स्वरूप है।

माता-पिता अथवा गुरुजन के वेश में आये हुये भगवान् हमारी पूजा के अधिकारी हैं। जबकि स्त्री, पुत्र के रूप में आये हुए भगवान् से आदर पाना हमारे योग्य है। इस व्यवहार में व्यतिक्रमण होने से भगवान् की शाश्त्रोक्त आज्ञा का उल्लंघन होगा। भगवान् कदापि इस बात को स्वीकार नहीं कर सकते कि स्त्री-पुत्र अथवा नौकर-चाकर के वेश में आने पर उनसे सेवा लेने के स्थान पर सेवा की जाये। कनिष्ठ के वेश में आने पर उनका मन्तव्य होता है कि उन्हें आत्म प्रसन्नता, आत्मलीला तथा अभिनय के लिये सेवा करने का अवसर दिया जाये।

जहाँ पिता के रूप में भगवान् हमारी श्रद्धा-भक्ति के अधिकारी हैं वहाँ स्त्री, पुत्र तथा कनिष्ठ जनों के रूप में हमारे स्नेह प्रेम तथा करुणा दया के पात्र हैं, एवं अन्य के रूप में ताड़ना के। इस यथायोग्य व्यवहार के मूल में ममता-कामना अथवा अहंकार सक्रिय न होना चाहिए। यदि यह व्यवहार कर्तव्य के स्थान पर मनोविकारों से प्रेरित हो जाते हैं तो निश्चय ही किसी भी वेश के अंतिम स्वरूप भगवान् का अनादर करना होगा। परम रूप में सबको भगवान् का स्वरूप समझकर यथायोग्य व्यवहार ही सच्चा कर्म-योग है। ममता, मत्सरता, स्वार्थ अथवा अहंकार से प्रेरित कोई भी काम अयोग्य कर्म हैं।

यथायोग्य व्यवहार से भगवान की पूजा करते रहना एक बड़ी और ऊँची उपासना है। उपासना का तात्पर्य भगवान को प्रसन्न करना ही होता है। एकान्त में बैठ कर जप-तप द्वारा वे उतने प्रसन्न नहीं होते जितने कि वेश के अनुसार यथायोग्य व्यवहार किये जाने से, कारण स्पष्ट है कि यदि उन्हें लीलापरक संसार अभीष्ट न होता तो वे इसकी रचना इतने वैचित्र्यमय ढंग से नहीं करते और न माता-पिता, पुत्र-पुत्री, पति-पत्नी, स्वामी-सेवक, भले-बुरे और अपने- पराये के अभिनय ही करते। इस विचित्रता के मूल में उनका एकमात्र तात्पर्य यही है कि लोग प्रत्येक में उनका स्थायी भाव रखते हुए यथायोग्य व्यवहार करते हुए इस संसार नाटक को सरस तथा सफल बनाएँ। संसार की इस सक्रिय लीला से मुख मोड़ कर जो व्यक्ति एकान्त में बैठकर उसकी उपासना किया करते हैं, वे उनकी प्रीति के उतने सत्य पात्र नहीं बन पाते, जितने कि संसार के रंग-मंच पर सच्चाई के साथ अपना अभिनय अदा करते हैं।

सच्चे भक्त तथा यथार्थ दार्शनिक सचराचर जगत को परम पिता का ही स्वरूप समझकर निर्भय एवं निर्द्वन्द्व होकर यथायोग्य व्यवहार द्वारा ही भगवान का पूजन किया करते हैं। इस स्थिति में वे पारिवारिक, सामाजिक तथा सांसारिक होते हुये भी सच्चे भागवत् एवं सच्चे आत्मलीन बने रहते हैं। व्यवहार पूजा एकान्त पूजा से कहीं अधिक सरल एवं सरस होती है। इसमें कोई भी भक्त सब प्रकार से वर्तते हुए भी, सब प्रकार की अनुभूतियों का रसता हुआ भी-बंधन मुक्त रहा करता है।

सामाजिक अथवा पारिवारिक व्यवस्था में शास्त्रोक्त व्यवहार की अवहेलना करने से भगवान की आज्ञा का उल्लंघन होगा- उनके नाटक में विकृति अथवा विकार उत्पन्न होगा-जो कि उस लीलाधर भगवान को किसी प्रकार भी वांछनीय न होगा। सर्वत्र सब में भगवान की भावना रखने वाला व्यक्ति अवसर स्थिति तथा स्वरूप के अनुसार शास्त्रोक्त व्यवहार करने वाला ही सच्चा भक्त है। सब में भगवान् का स्वरूप देखने वाला यदि देशकाल के अनुसार किसी से क्रोध भी करेगा तो वह भी उसका अभिनय ही होगा। यथार्थ में क्रोध न होने से वह उसके दोष का भागी न बनेगा। स्त्री-पुरुष, बालक-वृद्ध, पशु-पक्षी, कीट-पतंग, यहाँ तक कि समग्र जड़-चेतन सृष्टि उस एक परमात्मा का ही स्वरूप है और उसके साथ यथायोग्य व्यवहार किया जाना ही उसकी सच्ची उपासना है-ऐसी निष्ठा रखने वाला कर्म योगी, कर्मों के बंधनों में न बँधकर संसार सागर से मुक्त हो जाता है ऐसा ध्रुव सत्य, सत्य है इसमें शंका न करना सबसे बड़ी आस्तिकता है; सर्वोपरि भक्ति है।


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