
हम ईश्वर के होकर रहें— उसी के लिए जिएँ।
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परमेश्वर को अपनी इच्छानुसार चलाने के लिए विवश न करें; वरन उसकी इच्छापूर्ति के निर्मित स्वयं बनें । अब तक के उपलब्ध अनुदान कम नहीं, उन पर संतोष करना चाहिए और यदि अधिक की अपेक्षा है, तो बुद्धि और पुरुषार्थ के मूल्य पर उसके लिए प्रयत्न करना चाहिए।
इच्छाओं और कामनाओं की पूर्ति के लिए भगवान के सम्मुख गिड़गिड़ाना अशोभनीय है। जो मिला है उसी का सदुपयोग कहाँ कर सके जो और अधिक माँगने की हिम्मत करें। कर्मफल भोगने के लिए हमें साहसी और ईमानदार व्यक्ति की तरह तैयार रहना चाहिए। गलती कर्ण्व में कभी जो दुस्साहस दिखाया था, आज उसका एक अंश प्रस्तुत कर्मफल को भोगते समय भी दिखाना चाहिए। विशेषत तब जबकि कर्मफल अनिवार्य है। उस विधान से कोई छूट नहीं सकता। स्वयं भगवान तक नहीं बच सके। तो हम क्यों साहस खोकर दीनता प्रकट करें। जो सहना ही ठहरा— "उसे हँसते हुए बहादुरी के साथ क्यों न सहें।"
कर्मफल से छुटकारे के लिए, पात्रता से अधिक उपलब्धियों के लिए प्रायः लोग ईश्वर का दरवाजा खटखटाते हैं और पूजा-परिचर्या की व्यवस्था बनाते हैं। यह भक्ति नहीं है। न इसमें श्रद्धा का पुट है। ऐसी ओछी दृष्टि से की गई उपासना से आत्मकल्याण का पथप्रशस्त नहीं होता और न वह परमेश्वर को ही प्रभावित करती है।
ईश्वर को अपना आज्ञानुवर्ती बनाने की अपेक्षा यह उचित है कि हम ईश्वर के आज्ञानुवर्ती बनें। ईश्वर को अपनी इच्छानुसार चलाने और अपनी नियम-व्यवस्था बिगाड़ देने के लिए कहने की अपेक्षा, यह उचित है कि हम ईश्वर की इच्छानुसार चलें और अपनी वासना, तृष्णाओं का ताना-बाना समेट लें। ईश्वर को अपना अनुचर बनाने की अपेक्षा यही उचित है कि हम उसके अनुचर बनें। मालिक की तरह ईश्वर पर हुक्म चलाना उचित नहीं। उपयुक्त यह है कि हम उसके आदेशों को समझें और तदनुरूप अपनी गतिविधियों का पुनःनिर्माण— "पुनर्निर्धारण करें।"
आस्तिकता का अर्थ केवल ईश्वर के अस्तित्व पर विश्वास करना ही नहीं, वरन यह भी है कि उसके निर्देशों का पालन यथावत किया जाए, उपासना का अर्थ समृद्धि और सुविधा के लिए गिड़-गिड़ाना नहीं; वरन यह है कि हमारा वह शौर्य सजग हो; जिसमें अंधकार में भटकते लोगों का अनुसरण छोड़कर ईश्वर के पीछे एकाकी चल सकें।
अच्छा हो हम ईश्वर के लिए जियें -उसके बनकर रहें और उसकी प्रेरणाओं का अनुसरण करें। उपासना का अर्थ है- पास बैठना। पास बैठें और बिठायें। जीवन के उद्देश्य और सदुपयोग का मार्ग पूछें और उस पर चलने की अपनी तत्परता बनायें। बैठने की दूरी क्रमशः घटनी चाहिए और निकटता इतनी बढ़नी चाहिए कि अपना आपा— "परमेश्वर में तल्लीन हो जाए और उस परम ज्योति से अपना कण-कण जगमगाने लगे।ठ
अपनी आकांक्षाओं में ईश्वरीय आकांक्षा घुली रहे। हम वही चाहना करें— "वही सोचें जो ईश्वर प्रेरणा-प्रवाह के अनुकूल हो। हम व्ही करें,जो ईश्वर को अपेक्षित है। मन का शासन अस्वीकार करके— ईश्वर के हाथों अपने को सौंप दें और उसी के संकेतों पर अपने चिंतन और कर्तृत्त्व की दिशा का निर्धारण करें।"
अपने लिए नहीं हम ईश्वर के लिए जिएँ। यह घाटे का नहीं सबसे अधिक लाभ का कदम है। यह निश्चित है कि जो ईश्वर का होकर रहता है, ईश्वर भी उसी का हो जाता है।