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Magazine - Year 1972 - Version 2

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Language: HINDI
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पृथ्वी का ओर-छोर बनाम जीवन का आदि अंत

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जीवन का ओर-छोर कहा है ? यों मोटे तौर पर यह उत्तर दिया जा सकता है कि जन्मदिन उसका आरंभ होता है और मरणदिन पर इतिश्री हो जाती है। पर यह स्थूलउत्तर है। सूक्ष्मउत्तर के रूप में कहा जाना चाहिए कि जिस दिन ईश्वरीय महातेज में जीवरूप स्फुल्लिंग प्रकट हुआ, वह उसका जन्मदिन है। योनियों के चक्र में भ्रमण करते हुए उसका यात्राक्रम चल रहा है। वर्तमान मनुष्य जीवन उस जन्मांतरण के महाग्रंथ का एक पृष्ठमात्र है। उसका अंत तब होगा जब महाप्रलय में ब्रह्म अपने सारे प्रस्तार को अपने आप में समेटकर केंद्रीभूत कर लेगा।

पृथ्वी का आदि-अंत कहाँ है? इस प्रश्न का उत्तर साधारणतया उसका व्यास 8000 मील बताकर अध्यापक लोग दे देते हैं, पर यह तो केवल धरती की ठोस सीमा हुई। धरती का जीवन उसका वायुमंडल है। वायु न हो तो जीवन-संचार ही संभव न हो। शब्दों का बोलना, सुनना ही शक्य न रहे। बादल वर्षा आदि की कोई व्यवस्था न बने। यह वायु भी धरती का वैसा ही अंग है जैसा कि ठोस पदार्थ। यह वायु का घेरा उसका अपना है। जिस तरह किसी देश की सीमा उसके समीपवर्ती समुद्र में भी उतनी घुसी रहती है; जितनी में कि उसका यातायात एवं सुरक्षा निर्भर है। ठीक इसी प्रकार धरती की सीमा भी वहाँ तक जाएगी, जहाँ तक कि उसका अपना वायुमण्डल संव्याप्त है। यह अत्यंत मोटी परिभाषा है जितनी गहरी शोध धरती के अस्तित्व के बारे में है उतने ही नए तथ्यों का अनावरण होता चला गया है। पिछली मान्यताएँ झुठलाई जाती रही हैं और नई स्थापना होती रही है। इस उलट-पुलट का अंत कब और कहाँ होगा यह बताया जा सकना आज की स्थिति में संभव नहीं।

अब से पचास वर्ष पूर्व धरती का वायुमंडल 7-8 मील की ऊंचाई तक माना जाता था। पीछे कहा जाने लगा कि वह 100-150 मील है। वैज्ञानिक अनुसंधान आगे बढ़े और यह परिधि 250-300 मील बताई जाने लगी, इसे आयनोस्फियर कहते हैं। इससे भी ऊँची लहराती, झूमती, घूमती, रंगीन ज्योतियाँ देखी गई जिन्हें वैज्ञानिकों की भाषा में आऊरोकल लाइट्स— "मेरु ज्योतियाँ कहा जाता है।" इनका अस्तित्व वायुमंडल के बिना संभव नहीं। अस्तु, वायुमंडल की सीमा 700 मील ऊँचाई तक मानी गई। इस प्रकार पृथ्वी की परिधि पहले की अपेक्षा अब और आगे खिसक गई।

रूस का प्रथम उपग्रह पृथ्वी के इर्द-गिर्द चक्कर काटने के लिए जब भेजा गया था, तो अनुमान था कि 500-600 मील ऊँचाई पर हवा नाममात्र की होगी। उपग्रह को उससे कोई बाधा न पड़ेगी और वह 6 महीने अपना काम जारी रख सकेगा। पर वह अनुमान गलत निकला। इतनी ऊँचाई पर भी दबाव का काफी दबाव था। उसकी रगड़ से यान की गति धीमी होती गई और उसे दो महीने में ही वापिस लौटना पड़ा।

पृथ्वी के चारों ओर तीस मील तक फैला हुआ सघन वायुमंडल, सूर्य के अल्ट्रावायलेट किरणों का विवरण, व्यूहाणुओं से संबद्ध गैस क्षेत्र, दृश्यमान, प्रकाश, अदृश्य ब्रह्मांड किरणें, रेडियो तरंगें, चुंबकीय परतें, लोकांतरों से आने वाला प्रभाव आदि अनेक तथ्य ऐसे हैं, जो खुली आँखों से दीख नहीं पड़ते फिर भी वे अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं। उनका अपनी धरती के साथ अविच्छिन्न संबंध है। मोटे तौर से ऋतु-प्रभाव के साथ धरती के साथ जुड़े हुए अंतरिक्ष-संबंध से ही हम परिचित हैं, पर जो इससे आगे की अनदेखी बाते हैं वे और भी अधिक प्रभावशील हैं। दूसरे शब्दों में यों कहना चाहिए कि भूगर्भ में जो कुछ है उससे असंख्य गुना पदार्थ और प्रभाव अंतरिक्ष में भरा पड़ा है। उससे अपरिचित रहे तो हमें अज्ञानियों की संज्ञा में ही गिना जाएगा।

अब तक समुद्रतट पर हवा का दबाव देखकर यह हिसाब लगाया जाता था कि ऊँचाई पर वह परत अमुक क्रम से घटती जाएगी और अंत में एक स्थान पर जाकर हवा बिलकुल समाप्त हो जाएगी। पर वह अनुमान गलत निकला। वायुमंडल गर्मी को पाकर फैलता ही जाता है वह इतना हलका हो सकता है कि उसे जाना न जा सके पर रहता वह बहुत आगे तक है।

31 जनवरी 1958 को अमेरिकी कृत्रिम उपग्रह ‘एक्स-फ्लोरा’ - ‘प्रथम’ अंतरिक्ष में उड़ाया गया। बाद में रूसी और अमेरिकन उपग्रह और भी उड़े। उनसे नई सूचना मिली कि पृथ्वी की भूमध्य-रेखा के चारों ओर दो मोटे-मोटे कवच हैं। मानो धरती ने अपनी कमर में दो मेखलाएं पहन रखी हैं। इनमें एक विचित्र प्रकार का वायुमण्डल और इनमें से एक की ऊँचाई दो हजार मील और दूसरी के बीस हजार मील के लगभग है। इस प्रकार धरती की सीमा अब और आगे बढ़ गई।

यह मेखला कवच किसी एक नई वस्तु के बने हैं, जिसे वैज्ञानिक भाषा में ‘प्लाज़्मा’ कहा जाता है। अब तक यही पढ़ा सुना जाता रहा है कि पदार्थ तीन रूपों में पाया जाता है (1) ठोस, (2) तरल, (3.) वायव्य पर अब यह चौथी वस्तु और सामने आई प्लाज़्मा। यह वायु से भी विरल एक ऐसी गैसीय स्थिति है जिसमें परमाणुओं का भी विघटन हो जाता है।

पुराना अनुमान यह था कि आकाश सर्वथा शून्य एवं रिक्त है। पर अब यह स्पष्ट हो गया है कि वह क्षेत्र निस्तब्ध नहीं है। उसमें विद्युन्मय और चैतन्य तत्त्व भरे पड़े हैं। उसमें भी अपनी दुनिया की तरह ही हलचलों की भरमार है। समझना चाहिए इस शून्य आकाश-सागर में ही लहरें, ध्वनियाँ, उथल-पुथल, जीव-जंतु जैसे अपने ढंग के अतिरिक्त पदार्थों की भरमार है। न वहाँ निःस्पंदन है न निश्चल स्थिति।

पृथ्वी में एकदूसरे किस्म का वायुमंडल भी है जिसे आकर्षण-चुंबकत्व अथवा ग्रेविटी के नाम से पुकारते हैं। यह चुंबकत्व प्लाज्मा को प्रभावित करता है और उसकी प्रतिक्रिया लौटकर फिर पृथ्वी पर आती है। इस प्रकार का आदान-प्रदान और भी विस्तृत क्षेत्र पर अधिकार जमाता है। इस चुंबकीय प्रत्यावर्तन को संपंन करने वाला वायुमंडल की तरह का ही एक चुंबकमंडल भी है। यह भी पृथ्वी का ही विस्तार है, इसे उसी का आधार-साधन अथवा अधिकार-क्षेत्र कह सकते हैं। इस प्लाज्मा प्रवाह के कारण ही सूर्य की शक्ति का धरती तक नियन्त्रित रूप से आना संभव होता है और अन्य ग्रहों से उसका संपर्क बनता है। इसलिए धरती की परिधि नापनी हो तो उसकी गणना वायुमंडल को आधार मानकर नहीं; वरन् चुंबकमंडल की परिधि के आधार पर नापनी चाहिए।

पृथ्वी से सूर्य की दूरी 9,30,00,000 मील है। चूँकि यह सूर्य भी पृथ्वी की परिधि है और वायु की तरह उसकी गर्मी रोशनी भी पृथ्वी के लिए जीवन आधार है। मछली का आधार पानी होता है। किसान का आधार खेत। इसी प्रकार पृथ्वी जिस खेत या समुद्र से अपना काम चलाती है उसका नाम हुआ सूर्य। यह सूर्य भी एक प्रकार से उसी की संपत्ति है और वायुमंडल की तरह वह भी उसी का अधिकार-क्षेत्र है। दूसरे ग्रहों का भी सूर्य से संबंध है— हो न बना रहे। इससे अपना क्या बनता बिगड़ता है। किसान का खेत होता है उसमें चूहे, दीमक, कीड़े, पतंगे भी पलते रहते हैं। चूँकि दूसरे ग्रह भी सूर्य से लाभ उठाते हैं इसलिए धरती का अधिकार उस पर से कम नहीं हो जाता। पृथ्वी की असली परिधि नापनी हो तो उसकी लपेट के भीतर सूर्य को भी लेना पड़ेगा।

क्या अनंत अंतरिक्ष का अंत कहीं है, इस प्रश्न के उत्तर में विश्वप्रसिद्ध वैज्ञानिक आइन्स्टीन एवं मिन्कोवस्की ने ‘है’ के रूप में दिया है। वे कहते हैं सीधी चलते हुए भी कोई वस्तु अंततः अपने मूल उद्गम पर घूमकर आ जाती है। इस गणित सिद्धांत के आधार पर अंतरिक्ष का अंत भी वहीं होना चाहिए। जहाँ से उसका आरंभ होता है; अर्थात अनादि और अनंत कहे जाने वाले अंतरिक्ष का किसी एक बिंदु पर मिलन अवश्य होता है भले ही कितना ही दूरवर्ती क्यों न हो।

‘अनंत के अंत’ की बात उन्होंने सीधेपन की घुमाव-प्रक्रिया के साथ जोड़ी है। यूक्लिड के रेखा गणित सिद्धाँत के अनुसार एक सीधी रेखा लंबाई में असीमित होने के बावजूद अपने उद्गम पर आ पहुँचेगी और मिल जाएगी। गणितज्ञ कहते हैं कि इस रेखा के मिलन घुमावक्रम में पचास खरब प्रकाश वर्ष लग सकते हैं पर अंततः वह मिल जरूर जाएगी। ग्रह-नक्षत्र सीधे ही दौड़ते हैं पर वह ‘सीध’ भी सीधी न रहकर आखिर गोलाई में ही घूम जाती है और हर पिंड को अपनी कक्ष निर्धारित करके उसी में चक्र की तरह घूमते रहना पड़ता है। गति कितनी ही सीधी या तीव्र क्यों न हो उसे झुकाव या घुमाव के प्रकृति बंधनों को स्वीकार ही करना पड़ेगा। यह सिद्धांत अंतरिक्ष पर भी लागू होता है, उसे भी गोल होना चाहिए और जहाँ भी उसका आरंभ बिंदु माना जाए उसी से जुड़ा हुआ उसका अंत भी जानना चाहिए।

पृथ्वी की तरह ही जीवन की ओर-छोर कहाँ है—  "इस प्रश्न के उत्तर में यदि गहरे मंथन पर उतरें तो प्रतीत होगा। यह मोटी मान्यता सर्वथा अपूर्ण है कि हम जन्मदिन पर जन्में हैं मरणदिन पर अपना अस्तित्व गंवा देंगे।"

वस्तुतः जीवन का दायरा बहुत बड़ा है। हम महान से जन्में है और महान की ओर चल रहे हैं। मृत्यु न हमारा अंत है और न जन्म आदि। यह एक दिन के प्रभात और दिनांत जैसा उपक्रम है। इस स्थूलपरिधि की ही हम सब कुछ न मानें; वरन् यह मानकर चलें कि सूर्य की परिधि तथा फैली हुई पृथ्वी की सीमाएँ जिस तरह अत्यंत विस्तीर्ण हैं, उसी तरह जीवन एक शरीर में दृश्यमान होते हुए भी उसका विस्तार समस्त जड़-चेतन की परिधि तक व्यापक है। सीम को असीम तक फैला देखना यही तत्त्वज्ञान है। पृथ्वी के ओर-छोर और जीवन के आदि-अंत का सही उत्तर इसी तथ्य के आधार पर उपलब्ध किया जा सकता है।

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