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Magazine - Year 1972 - Version 2

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मृदुलता और कठोरता से ओत-प्रोत मानवी काया

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शरीर-यंत्र देखने में मुलायम, लचीला, कमजोर, तुच्छ-सा प्रतीत होता है, पर वस्तुतः वह अद्भुत है। उसका प्रत्येक क्रियाकलाप ऐसा है; जिस पर यदि बारीकी से विचार किया जाए तो आश्चर्यचकित ही रह जाना पड़ता है। छोटे-छोटे अवयव किंतु काम उनके कितने विलक्षण— नन्हें-नन्हें से तंतुकोष देखने में कितने नगण्य ,पर उनकी क्रियापद्धति कितनी विलक्ष ब्रह्मांड की विलक्षणता, उसमें सन्निहित शक्तिपुंज का कर्तृत्त्व जितना अद्भुत है, उसमें कम इस मानवी पिंड की विलक्षणता भी नहीं है। इन्हीं सब विशेषताओं से भरी-पूरी काया में रहने वाला आत्मा कितना विलक्षण हो सकता है, तब प्रतीत होता है कि जादू के महल में रहने वाला यह बाजीगर स्वयं कितना अधिक गौरव-गरिमामय हो सकता है।

बाहर से दिखने वाली कोमलता, कमनीयता के मूल में वे सुस्थिर तथ्य काम करते हैं जिनकी तुलना धातुओं एवं खनिज पदार्थों से की जा सकती है। जीवन सरल और मृदुल मालूम भर पड़ता है पर वस्तुतः उसके मूल में कठोरता, सुदृढ़ता के वे आधार ही होते हैं जिन्हें चाहे तो अध्यात्म की भाषा में तप या संयम भी कह सकते हैं। विभूतियों की मृदुलता के पीछे यही धातुओं जैसी सहज सुदृढ़ स्थिरता ही काम करती रहती है।

जिसके अंतरंग में सुदृढ़ आस्था और सुव्यवस्थित गतिविधियाँ विद्यमान हैं। समझना चाहिए कि उसके पास सुरक्षा के, प्रगति के, सुस्थिरता के समस्त आधार विद्यमान हैं। शरीर में अस्थियाँ यों दिखाई नहीं पड़ती, ढंकीं रहती हैं। पर सही बात यह है कि काया का ढाँचा उन्हीं स्तंभों पर खड़ा हुआ है। सुदृढ़ नैतिक सिद्धांतो और उच्चस्तरीय आदर्शों को एक प्रकार से विकासोन्मुख जीवन की अस्थियों जैसी पृष्ठभूमि ही कहना चाहिए।

शरीर के अस्थि-पिंजर को सात भागों में विभक्त कर सकते हैं— (1) खोपड़ी (2) कंधे  के जोड़ की हड्डियाँ (3) पसलियों का पिंजरा (4) कूल्हे की हड्डियाँ (5) जाँघ की हड्डियाँ (6) घुटने के जोड़ की अस्थियाँ (7) एड़ी की हड्डियाँ ।

जन्म के समय 270 हड्डियाँ होती हैं। आयु बढ़ने पर उनमें से कुछ हड्डियाँ आपस में जुड़ने लगती हैं और उनकी संख्या घट जाती है और कुल 206 रह जाती हैं। रीढ़ की हड्डी छोटे-छोटे सिंघाड़े जैसे टुकड़ों से मिलकर बनी है।

हड्डियाँ आपस में 180 जोड़ों द्वारा जुड़ी हैं। इन्हीं के कारणशरीर का इधर-उधर, मुड़ना-तुड़ना संभव होता है। अस्थि-पिंजर की पाँच धुरी हैं; जिनके आधार पर यह रथ यथाक्रम चलता-लुढ़कता है। यह पाँच धुरी इस प्रकार जानी जा सकती हैं— (1) गर्दन का हिस्सा (2) पीठ के हिस्से की कशेरुकाएँ (3) कमर की हड्डियाँ (4) त्रिकम अस्थि (5) अनुत्रिक ।

हड्डियों में दो-तिहाई भाग कैल्शियम, फास्फोरस, मैग्नीज जैसे खनिज होते हैं। एक तिहाई भाग प्रोटीन तंतुओं का होता है। समय-समय पर रक्त को अतिरिक्त कैल्शियम की जरूरत पड़ती रहती है तब वह हड्डियों से उधार ले लेता है और अपना काम निकल जाने पर वापिस कर देता है।

बचपन में हड्डियाँ मुलायम होती हैं, पर आयु बढ़ने के साथ-साथ उनमें फास्फेट ,कैल्शियम आदि खनिजों की मात्रा बढ़ने लगती है जिससे वह अधिक कड़ी होती चली जाती है, वृद्धावस्था में उनका लचीलापन बहुत घट जाता है, इसलिए जरा-सी चोट लगने पर उनके टूटने का डर रहता है। वृद्धावस्था में टूटी हुई हड्डी जुड़ने में बहुत समय लेती है। बालकपन में उनमें प्रोटीन की मात्रा रहने से वे सहज टूटती नहीं, मुड़ भर जाती हैं और यदि टूट भी जाएँ तो जल्दी ही जुड़ जाती हैं।

अस्थियों में छोटे-छोटे छेद होते हैं और भीतर से पोली होती हैं। छोटे छिद्रों में होकर रक्तवाहनियाँ भीतर प्रवेश करती हैं और अस्थियों को आहार पहुंचाती हैं। सुरंग की तरह पोले स्थान में तीन प्रकार की कोशिकाएँ होती हैं । एक वे जो टूटने पर हड्डियों को जोड़ देती हैं। दूसरी वे जो हड्डियों की क्षमता बढ़ाती हैं और उनके कूड़े को साफ करती है। तीसरी वे रक्त द्वारा प्राप्त आहार से अस्थियों की पोषण-व्यवस्था जुटाती हैं। कैल्शियम तथा विटामिन डी की कमी पड़ जाए तो वे टेढ़ी कमजोर तथा अन्य कई प्रकार के रोगों से ग्रसित हो जाती हैं।

नर की अपेक्षा नारी की हड्डियाँ हलकी, कोमल तथा छोटी होती हैं। नारी की रीढ़ लगभग 4 इंच छोटी पाई जाती है। अब तक मिले अस्थि-पिंजरों के आधार पर संसार के भूतकालीन लंबे मनुष्यों में सबसे बड़ा ढाँचा लंदन म्यूजियम में रखा है। उससे अधिक से अधिक लंबाई 7 फुट 4 इंच सिद्ध होती है।

अस्थि संस्थान संबंदी इन तथ्यों पर विचार करने से प्रतीत होता है कि बाह्य सौंदर्य के पीछे भीतरी कठोरता का यह ढाँचा कुरूप दिखता भर है वस्तुतः उनके मुड़ने, तुलने, घूमने की अपनी जो विशेषताएँ हैं ,वे ऐसी हैं जिनका दृश्यमान न सही उपयोगितात्मक महत्व एवं सौंदर्य असाधारण है। कठोर दिखने वाली हड्डियों के भीतर मज्जा का बहुत ही कोमल पदार्थ भरा हुआ है। कर्कश, रूखी और निष्ठुर कठोरता तो हिंस्र पशुओं और दुष्ट दानवों में होती है। सहृदय, सज्जन अपने आदर्शों के प्रति तो निष्ठावान होते हैं,पर जहाँ तक दूसरों के प्रति सदव्यवहार का संबंद है वहाँ तक उनमें उदारता, करुणा, स्नेह, क्षोभ, सद्भाव का बाहुल्य ही अनुभव में आता है।

शरीर में पाए जाने वाले खनिज पदार्थों के संबंद में भी यही बात लागू होती है। कोमल अवयवों म—रक्त में यह खनिज द्रव्य ही शक्ति-संचार की धुरी का काम करते हैं। सामान्य कार्यों के पीछे लगन, स्फूर्ति, व्यवस्था, निष्ठा, उत्साह, तत्परता जैसी विशिष्टताओं का वही महत्त्व है, जो शरीर में खनिज पदार्थों का। यदि मनुष्य के पास योग्यता, शिक्षा, सुविधा, साधन आदि का बाहुल्य हो, किंतु इन विशेषताओं की कमी हो तो समझना चाहिए कि सरल कार्य भी कठिन ही सिद्ध होगा, और सुगम प्रतीत होने वाली सफलता भी जटिल होती चली जाएगी। शरीर में खनिज पदार्थों की थोड़ी सी कमी पड़ जाने पर रक्त, मंश का सारा ढांचा सही होने पर भी स्वास्थ्य-संतुलन बिगड़ जाता है इसी प्रकार छोटे दिखने वाले मानवी सद्गुण यदि कम पड़ते है, तो वह कमी प्रगति की समस्त संभावनाओं को ही लड़खड़ा देती है।

शरीर को खनिज पदार्थों की एक खान कह सकते हैं। अन्य रासायनिक पदार्थों की तरह उसमें खनिज भी कम नहीं हैं। जो हैं वे ऐसी भूमिका प्रस्तुत करते हैं मानों जीवन की स्थिरता में उनका ही महत्त्वपूर्ण योगदान हो। धातुओं और खनिज पदार्थों के बिना संसार का काम नहीं चल सकता। लोहा, जस्ता आदि धातुएँ न हों तो सारी प्रगति ही रुक जाए। नमक, गंधक आदि न हो तो कितनी असुविधा खड़ी हो जाए। ठीक उसी प्रकार शरीररूपी संसार में खनिज पदार्थों की उपयोगिता है।

आर्सनिक, क्रोमाइड, कैल्शियम, क्लोरीन, कोबाल्ट, तांबा, फ्लोरीन, लोहा, मैग्नेशियम, फास्फोरस, पोटेशियम, सिलकन, सोडियम, गन्धक, जस्ता, एल्युमिनियम, आयोडीन, खनिजों में से कोई थोड़ी मात्रा में तनिक-सी कमी पड़ जाने से देह का ढांचा ही लड़खड़ाने लगता है।

कुल मिलाकर शरीर में लगभग 6। पोंड खनिज पदार्थ होते हैं। आयोडीन संपूर्ण शरीर में एक राई की बराबर होगी, पर व्यक्तित्व के विकास और मानसिक वृद्धि में उसकी सहायता से ही गाड़ी चलती है। एल्युमिनियम की जो थोड़ी सी ही मात्रा रहती है मस्तिष्क की क्षमता को उतने से ही बड़ी गति मिलती है।

लोहा 1/10 ओंस है पर रक्त के लाल-कण हीमोग्लोबिन उपलब्ध करते हैं। वे ऑक्सीजन ग्रहण करके संपूर्ण शरीर में पहुँचाने और वापिस कार्बनडाईऑक्साइड लेकर फेफड़ों तक पहुँचाने का कार्य लाल रक्त-कण इस लोहे की उपयुक्त मात्रा होने पर ही ठीक तरह कर पाते हैं। प्रायः हर रोज जीवन-संग्राम में 6 लाख रक्ताणु का लोहा खेत रहते हैं, नई पौध इन मृतरक्ताणुओं को विरासत में मिल जाता है। एक वर्ग मिली मीटर जगह में लाल रक्ताणुओं की संख्या 50 लाख रहनी चाहिए। यदि यह संख्या घट जाए तो शारीरिक और मानसिक थकान घेर लेगी और चेहरा पीला पड़ जाएगा ।

इस संकट से बचाने में यह थोड़ा-सा लोहा ही गजब करता है। जन्म के समय छह महीने तक के खर्च के लिए बालक लोहा अपने साथ लेकर आता है। पीछे वह उसकी मात्रा खुराक से पूरी करने लगता है।

रक्तवाहिनी, बड़ी और छोटी शिराएँ संपूर्ण शरीर में 70 हजार मील जितनी लंबीहैं। रक्त को इतनी बड़ी परिक्रमा निरंतर करनी पड़ती है। इतनी दौड़-धूप, सफाई और पोषणकर सकने का कार्य इस लौहांश के आधार पर ही रक्त पूरा करता है। स्त्रियों को पुरुषों की अपेक्षा अधिक लोहे की जरूरत पड़ती है; क्योंकि मासिक-धर्म में उनका वह तत्त्व बाहर भी निकलता रहता है।

लोहे को 'हीमोग्लोबिन' के रूप में परिणत करने में मुख्य सहायक ताँबा ही है। जीवनकोष और स्नायुमंडल के ठीक तरह कार्यरत रहने के लिए, यह प्रक्रिया आवश्यक है। तांबे की मात्रा थोड़ी-सी होते हुए भी यह कार्य संपादिक करती है।

हड्डियों का ढाँचा कैल्शियम  और फास्फोरस पर खड़ा है। कैल्शियम की मात्रा लगभग 3 पौंड हैै। यह 99 प्रतिशत हड्डियों में रहता हैैै। एक प्रतिशत रक्त में रहकर हृदय-संचालन की गति ठीक रखता है। शरीर के समस्त कोष इस कैल्शियम के सिमेंट से ही परस्पर जुड़े हुए हैं, मांस पेशियों को और स्नायुओं में यदि उसकी निर्धारित मात्रा घट जाए तो वे जकड़ जाएगी। कमी पड़ने पर हड्डियों में से निकलकर उस आवश्यकता की पूर्ति करता है, किंतु ऐसी दशा में हड्डियाँ कमजोर हो जाती हैं और जरा-सी चोट लगने पर उनके टूटने का खतरा उत्पंन हो जाता है।

फास्फोरस लगभग दो पौंड होता है। हड्डियों में तो वह मिश्रित है ही। फास्फेट कंपाउंड के रूप में वह अन्यत्र भी विद्यमान रहता है। हर कोष में प्रोटोप्लाज्म (जीवन रस) और न्यूक्लियस (नाभिक) रहता है उनमें फास्फोरस रहता है। प्रोटीन और चर्बी में भी उसका मिश्रण है।

आयोडीन का महत्त्वपूर्ण कार्य थाइराइड ग्रंथियों को पोषण प्रदान करना है, सोडियम और क्लोरीन के रूप में पाया जाता है। गंधक की मात्रा पर बाल और नाखून सही सलामत रहते हैं। कोबाल्ट रक्त बनाने की प्रणाली में आवश्यक रहता है। चमड़ी की कोमलता सिलक्रिन पर निर्भर है। दांतों के सफेद और चमकदार होने में क्लोरीन की उपस्थिति रहती है।

यह खनिज हमें भोजनों में मिलते हैं। भोजन में सब खनिज न भी हों तो भी हमारे पाचक रस उन्हें परिवर्तित करके इस योग्य बना लेते हैं कि अभीष्ट मात्रा में उपरोक्त खनिजों की आवश्यकता पूरी होती रहे।

यह आवश्यक नहीं कि दूसरे लोग हमें सन्मार्ग की प्रगति की शिक्षा दें तो ही काम चले। यह आवश्यक नहीं कि साधनों के सहारे ही ऊँचा उठा जाए। अपनी भीतरी विशेषताएँ अपने आप में इतनी महान और स्वसंचालित हैं कि यदि उनका उपयोग किया जा सके तो सामान्य परिस्थितियों में सामान्य वातावरण से भी अभीष्ट प्रकाश प्राप्त किया जा सकता है। खनिज पदार्थ बाहर से आहार द्वारा ही मिलें, यह आवश्यक नहीं। शरीर की क्रियापद्धति उन पदार्थों में से भी ऐसे खनिज उत्पन्न कर लेती है; जिनमें कि वे वस्तुतः होते ही नहीं। मनुष्य भी यदि चाहे तो व्यक्तियों तथा परिस्थितियों में जिन विशेषताओं की कमी है, उनमें भी अपने प्रखर प्रभाव के कारण उत्पन्न कर सकता है।

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