
प्रतिविश्व— प्रतिपदार्थ— शक्ति का अजस्र स्रोत
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धूप के साथ छाया जुड़ी रहती है। ध्वनि की प्रति ध्वनि होती है, रबड़ की गेंद को दीवार पर मारने से लौटकर वह वापिस आती है। प्रकाश का प्रतिद्वंद्वी अंधकार मौजूद है। पेंडुलम एक ओर चला देने से उसके आगे-पीछे चलने की क्रिया अनायास ही चलने लगती है। हृदय की धड़कन, श्वास-प्रश्वास, आकुंचन-प्रकुंचन जैसे परस्पर जैसे परस्पर विरोधी क्रियाकलाप ही शरीर को जीवित रखते हैं। समुद्र में ज्वार-भाटे के कारण ही लहरों की तरंगशृंखला चलती है। ‘पिस्टन’ द्वारा गति तभी उत्पन्न होती है, जब वह आगे-पीछे चलने का क्रम अपनाता है। शक्ति-तरंगों के कंपन आगे-पीछे बढ़ने हटने की हलचल पर ही निर्भर है। क्रिया की प्रतिक्रिया पर ही इस विश्व का सारा क्रियाकलाप चल रहा है। पुण्य का प्रतिद्वंद्वी पाप, देव विरोधी-दानव, भगवान विरोधी-शैतान, सत् विरोधी-तम, स्वर्ग का प्रतिद्वंद्वी नरक इसी विरोध विपक्ष के आधार पर अध्यात्म जीवन की गतिविधियाँ कार्यांवित हो रही हैं।
अब पता चला है कि विश्व का प्रतिद्वंद्वी भी एक प्रतिविश्व है। जिसका अस्तित्व उस विश्व के समान ही मौजूद है, जिससे कि हमारा निरंतर काम पड़ता है और जिसकी शक्तियों से अवगत मानव समाज ने पदार्थ विज्ञान की शोध की है। उसी आधार पर विविध आविष्कारों के द्वारा अनेकों सुविधाओं की—"शक्ति और सामर्थ्य की"—"उपलब्धियाँ प्राप्त की जा सकी हैं।"
प्रतिविश्व का अंवेषण होना अभी बाकी है। उसकी शक्तियों को जानना, और उन्हें प्रयोग में लाने का श्रीगणेश अगले दिनों करना होगा; क्योंकि वर्तमान उपलब्धियाँ एकांगी एवं एकाकी हैं। उनकी अपूर्णता को पूर्णता में तभी परिणत किया जा सकेगा जब प्रतिविश्व की शक्तियों को प्राप्त कर लिया हो। फिर एक की कमी दूसरी से पूरी होगी और एक का ईंधन दूसरी से मिलेगा। तब विविध यंत्रों के संचालन के लिए तेल, कोयला, भाप, बिजली, एटम शक्तियों के द्वारा ईंधन प्राप्त करने की आवश्यकता न पड़ेगी। विश्व और प्रतिविश्व का परस्पर संतप्त समन्वय हो जाने से पदार्थ और प्रतिपदार्थ एकदूसरे का अभाव पूरा कर दिया करेंगे और लगभग सभी प्रयोजन स्वसंचालित पद्धति द्वारा पेंडुलम-प्रक्रिया की भाँति अपने आप चलते रहेंगे और जब जिस कार्य की आवश्यकता होगी उसे पदार्थ और प्रतिपदार्थ का तालमेल बिठा देने की प्रणाली संचालित कर देने मात्र से सब कुछ गतिशील हो जाया करेगा।
प्रतिविश्व की प्रतिपदार्थ की ओर जब से वैज्ञानिकों का ध्यान गया है, तब से एक नई हलचल, एक नई उमंग सर्वत्र दिखाई पड़ने लगी है। उसकी खोज के लिए सिद्धांत और आधार तलाश किए जा रहे हैं; क्योंकि जिन सिद्धांतों के आधार पर प्रस्तुत पदार्थ का ढाँचा खड़ा किया गया है, वे प्रतिपदार्थ के लिए लागू न किए जा सकेंगे; वरन उसमें लगभग उलटे आधारों का कहीं-कहीं तिरछे लहराते सिद्धांतों का प्रयोग करना पड़ेगा, जब उसकी रूपरेखा बन जाएगी, तब आशा की जाती है कि एक ऐसी प्रतिविद्युतशक्ति का आविष्कार किया जा सकेगा, जो उपलब्ध विद्युत से कहीं अधिक शक्तिशाली होगी। उसके माध्यम से प्रस्तुत विद्युत उत्पादन के लिए, जो साधन जुटाने पड़ते हैं उनमें से किसी की भी आवश्यकता न रहेगी। बटन दबाने भर की देर होगी कि आकाशव्यापी विघुत और प्रतिविघुत परस्पर मिलकर प्रचुर परिमाण में बिजली पैदा करने लगेंगी और यह क्रम तब तक चलता रहेगा, जब तक उन दोनों को पृथक न किया जाए।
यह ब्रह्मांड अणुगठित पदार्थ से भरा है— "जिसे मैटर कहते हैं। पंचतत्त्व और उनसे बने अनेक जड़-चेतन इस पदार्थ वर्ग में ही आते हैं। प्रकाश-किरणें, रेडियो-किरणें, विद्युत-किरणें, ध्वनि-किरणें अणुकंपनी सहित पदार्थ जन्म क्रियाकलाप में गिनी जाती हैं।" जो शून्य या रिक्त दिखाई पड़ता है उस पोले भाग में वायु, ईथर आदि आँख से न दीखने वाले भरे पड़े हैं। यहाँ खाली कुछ नहीं है। विज्ञान की पिछली मान्यता यही रही है।
पर अब विज्ञान ने एक और तत्व खोज निकाला है। प्रतिपदार्थ अर्थात् पदार्थ का प्रतिद्वन्द्वी। जैसे क्रिया की प्रतिक्रिया होती है, ध्वनि की प्रतिध्वनि इसी प्रकार पदार्थ का प्रतिद्वंद्वी एक प्रतिपदार्थ भी है जो सामर्थ्य में कम नहीं; वरन अधिक ही बैठता है।
जब कैंब्रिज विश्वविद्यालय के गणित प्राध्यापक डिराक ने ब्रिटेन की रायल सोसायटी के सम्मुख अपना एक निबंध सुनाते हुए यह तथ्य प्रतिपादित किया तो उस गोष्ठी में उपस्थित संसार भर के वैज्ञानिक अवाक् रह गये। डिराक ने क्वाँटम भौतिकी, सापेक्षतावाद, के सिद्धान्तों पर अणु के प्रतिद्वन्द्वी प्रति अणु का प्रतिपादन जिन अकाट्य तथ्यों के आधार पर किया था, उसे झुठलाया भी नहीं जा सकता है। जिस प्रकार ईश्वर का प्रतिद्वन्द्वी शैतान, धर्म का विरोधी पाप, देवता का प्रतिपक्षी असुर है उसी प्रकार यह प्रति अणु प्रति पदार्थ न केवल अस्तित्व ही सिद्ध करता है वरन् प्रति-पक्षी होने के कारण सामर्थ्यवान भी अधिक बैठता है। कितने आश्चर्य की बात है यह विश्व अपने साथ एक प्रतिविश्व भी सँजोये हुए है। पदार्थ के साथ-साथ प्रति पदार्थ भी अपना काम कर रहा है।
बहुत दिनों से विज्ञान क्षेत्र में परमाणु की जानकारी थी, पीछे वह भी एक इकाई नहीं रहा। वरन् इलेक्ट्रान, प्रोट्रॉन, न्यूट्रॉन आदि का समूह माना गया। पीछे उसके भीतर और भी ऐलीक्वेन्टरी पार्टिकल मेसान, न्यूट्रिनों आदि मिले। यह सभी अपने-अपने ढंग से गतिशील हैं। पर गति करने को तो जगह चाहिए खाली जगह न हो तो गति कहाँ और कैसे होगी— "यह खाली जगह ही प्रति पदार्थ है।"
यदि एक डिब्बे में खचाखच गोलियाँ भर दी जाए, तो फिर न तो वह हिल-डुल सकेंगी और न गिनी जा सकेंगी। इसी प्रकार यदि विश्व में अणु खचाखच भरे हों तो वे वैसी गति नहीं कर सकते जैसी कि अब करते हैं; और न उनका अस्तित्व ही अनुभव किया जा सकेगा। गतिशीलअणु और उसके साथ जुड़ा हुआ अवकाश दोनों के परस्पर संयोग-वियोग का जो क्रम निरंतर चलता है; उसी से शक्ति उत्पन्न होती है और चुंबकत्त्व भरी ऊर्जा का जो प्रवाह सर्वत्र दृष्टिगोचर होता है, वह उसी उद्गम से प्रादुर्भूत होता है इसका जितना श्रेय अणु को है उतना ही उसे गतिशील रहने का अवसर देने वाले प्रतिअणु को। दोनों में से एक का अस्तित्व यदि समाप्त हो जाय तो विश्व में फिर किसी प्रकार की कोई हलचल दिखाई न पड़ेगी। तब अणु गतिशील न रहकर स्थिर बने बैठे होंगे। इलेक्ट्रॉन के इस प्रतिद्वंद्वी को ऐन्टीइलेक्ट्रान या पाजिट्रान कहते हैं।
डिराक के इस प्रतिपादन के आधार पर यह सोचा गया है कि अणु के प्रत्येक अवयव का प्रतिद्वंद्वी हो सकता है। प्रकृति के प्रत्येक भौतिक पदार्थ का— "तत्त्व का"— "प्रतिद्वंद्वी यह है, तो फिर सचमुच ही पदार्थ की तुलना में एक उतना ही सशक्त प्रतिपदार्थ भी मानना पड़ेगा। इस शोध की वैज्ञानिकों ने जोर-शोर से खोज आरंभ की और आइरीन, फेडरिक, क्यूरी दंपत्ति, ने उसे एक वास्तविकता के रूप में पाया। एंडरसन ने ब्रह्मांड किरण संबंधी अपने अनुसंधान में इसी आधार पर सफलता प्राप्त की।"
प्रति पदार्थ कणों के बारे में एक बात ध्यान रखने योग्य है कि वे अकेले अपना अस्तित्व बनाए नहीं रह सकते, उत्पन्न होते हैं और अन्य कणों के साथ संयोग करके स्वयं विलुप्त हो जाते हैं। उनकी इस आँखमिचौनी के कारण ही विद्युत चुंबकीय विकरण की ऊर्जा इस विश्व को प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हो रही है। अब ब्रह्माण्ड का प्रतिद्वंद्वी प्रतिब्रह्माण्ड— "एन्टी युनिवर्स के सम्बन्ध में खोजें चल रही हैं। इस संदर्भ में यह जानकारी भी मिली है कि ‘साइग्लेस’ और ‘विर्गो’ नीहारिकाओं में पदार्थ और प्रतिपदार्थ के बीच युद्ध चल रहा है। संभव है यह अपना ब्रह्मांड भी अपने प्रतिद्वंद्वी के साथ संघर्ष में निरत हो।"
अध्यात्म जगत में दक्षिण मार्ग और वाममार्ग-योग और तन्त्र की द्विविध परस्पर विरोधी आत्मबल उत्पादक साधना पद्धतियाँ प्रचलित हैं। दोनों ही विद्याएँ अपने-अपने स्थान पर महत्त्वपूर्ण हैं। तंत्र की प्रत्यक्ष शक्तियोग से अधिक है इसीलिए असुर वर्ग उसे अपनाता रहेगा। जहाँ तक शक्ति उत्पादन का संबंध है वहाँ तक तंत्र अधिक क्षमता संपंन और जल्दी परिणाम उत्पन्न करने वाला है, पर उसमें दोष एक ही है कि योग संबंधित सतोगुण का सर्वथा प्रतिकूल तमोगुण उत्पन्न होता है। पाप वृत्तियाँ भड़कती हैं और उपलब्धियों को असुर कर्मों में लगा देने का क्रम चल पड़ता है। इसीलिए विचारशील लोगों ने उसे विष मिश्रित मक्खन की तरह हेय ठहराया है।
परमात्मा और जीव को पदार्थ— "प्रतिपदार्थ का युग्म कह सकते हैं। दोनों जब मिल जाते हैं, तो परस्पर पूरक होते हैं। एक के अभाव की पूर्ति दूसरे से होती है।" और जीव अपने में स्वसंचालित शक्ति-प्रवाह का स्रोत उमड़ता देखता है; ऐसा स्रोत जो न तो कभी समाप्त होता है और न जिसकी क्षतिपूर्ति के लिये कुछ साधन जुटाने की आवश्यकता होती है।
सामान्यतया रति और प्राण की एकांगी स्थिति की पूर्ति प्रतिपक्षी लिंग वाले जीव के सान्निध्य से पूरी होती है। पति-पत्नी मिलन से न केवल भावनात्मक अभाव और इंद्रियजन्य अतृप्ति तृप्त होती है; वरन प्रजनन प्रक्रिया से संबंधित वंशवृद्धि का क्रम भी चलता है। यह प्रचलित एकपक्षीय पदार्थक्रम है। शक्ति उत्पादन के लिए ईंधन चाहिए। इस ईंधन की पूर्ति नर के लिए मादा से और मादा के लिए नर से पूरी होती है। रयि को चेतनाप्राण से और प्राण की तृप्ति रति से होती है। प्रचलित स्थूलक्रम यही है।
अगले दिनों पदार्थ और प्रतिपदार्थ की परस्पर पूरक उपलब्धि एक ही शरीर से पूरी हो जाया करेगी। प्राचीनकाल में यह विज्ञान कुंडलिनीयोग के नाम से प्रचलित था; उसमें एक ही शरीर को अवस्थित रयि और प्राण को उभारकर आत्मरयि का उच्चस्तरीय आनंद लिया जाता है। इतना ही नहीं आत्मा और प्रतिआत्मा के संयोग से वे सभी उपलब्धियाँ मिल जाती हैं; जिन्हें ऋद्धि-सिद्धि के नाम से पुकारा जाता है। भारतीय आत्मविज्ञानी चेतना विश्व में पदार्थ और प्रतिपदार्थ के आधार-सिद्धांतों से न केवल परिचित ही रहे हैं; वरन उनका प्रयोग भी करते रहे हैं। यदि इस संदर्भ में सुविस्तृत शोध की जाए, तो भौतिक विज्ञान और आत्मिक विज्ञान के क्षेत्र में इतनी बडी उपलब्धियाँ हाथ लग सकती हैं जिनके आधार पर मनुष्य को धरती का देवता कहा जा सकेगा।