
शांति बाहर नहीं— भीतर खोजनी पड़ेगी
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
शांति को खोजना हो तो उसे अपने भीतर ही खोजना चाहिए। बाहर तलाश करने में कितना ही श्रम किया जाए, कितना ही भटका जाए, वह मिलने वाली नहीं है। कस्तूरी वाला मृग उस दिव्य सुगंध को प्राप्त करने के लिए हर दिशा में भागता है, पर हर छलांग के बाद वह और आगे ही बढ़ जाती है। जब तक वह न जाने कि इस गंध का स्त्रोत मेरी नाभि है तब तक उसे चैन नहीं पड़ता।
जनसंकुल कोलाहलपूर्ण स्थानों में लोग अशांति अनुभव करते हैं और उसे छोड़कर ऐसे एकांत स्थान में जाना चाहते हैं, जहाँ शांति मिल सके। एकांत में जाकर रहने पर भी वह लक्ष्य पूरा नहीं होता क्योंकि वहाँ दूसरी तरह का कोलाहल शुरू हो जाता है। नदी, पर्वत, वन भी अपवाद नहीं हैं; वहाँ भी अशांति के लक्षण यथावत विद्यमान मिलते हैं। अंतर केवल तौर-तरीकों का पड़ता है।
ध्वनि-कोलाहल शहर-नगरों में यातायात वाहनों का, कल-कारखानों का, मनुष्यों की भीड़ का रहता है। वन प्रदेश में नदियों की कर्कश ध्वनि विचित्र ही प्रकार की होती है। चट्टानों से टकराती हुई जल-धाराएँ बेतरह दहाड़ती हैं और कानों के पर्दे विक्षुब्ध करती हैं। रात्रि को झींगुर-झिल्ली हिंस्र पशु अलग से चित्र-विचित्र बोलियाँ बोलते हैं। नगर में दुष्ट दुरात्मा चैन नहीं लेने देते हैं। वन में सर्प, बिच्छू, कांतर, कानखजूरा, गोह, सेही से लेकर रीछ, व्याघ्र, चीते, तेंदुए प्राण लेने के लिए घूमते रहते हैं। वहाँ प्रकाश का चकाचौंध बुरा लगता है यहाँ घोर अंधकार में डर लगता है। वहाँ एक प्रकार के अभाव थे यहाँ दूसरी तरह के। गुजारे के लिए वहाँ नौकरी-दुकानदारी करनी पड़ती है। यहाँ ईंधन, शाकपात खाने को, बाँस, फूस, झोपड़ी को तलाश करने पड़ते है। जलपात्र लिए एक झरने से दूसरे झरने तक फिरना पड़ता है। सारा दिन यहाँ भी पेट और शरीर के धंधे में ही बीत जाता है।
पाप और बुराइयाँ इस वन प्रदेश में भी कम कहाँ हैं। दुष्ट बगुले दिन भर मछलियाँ खाते हैं। अजगर मेंढकों को जिंदा नहीं रहने देते, चिड़ियाँ कीट-पतंगों की जान लेती रहती हैं। बाघ-चीतों से बचने के लिए हिरन-खरगोश शरण ताकते फिरते हैं, हिंसा और पाप से यह प्रदेश भी अछूता नहीं। यदि यहाँ शांति होती तो वनवासी बार-बार नमक, शक्कर, तेल, दिया, सलाई, कपड़े, जूते खरीदने हाट बाजार को क्यों भागते। शहर की दृष्टि से वन में शांति है। वनवासी को शहर सुंदर लगते हैं। जो जिसके लिए प्राप्य है वही उसके लिए सुंदर कैसे है। यह विचित्र विडंबना है, गृहस्थ को साधु सुखी दीखता है और साधु को गृहस्थ लोग आनंद से रहते दीखते हैं। कार्य संलन्न सोचता है विश्राम में आनंद है। बैठा ठाला उस स्थिति से ऊब जाता है और काम न करके अपनी शक्तियों के कुँठित होने का खतरा देखता है। निःसन्तानों को पुत्र-पौत्रों वाले भाग्यवान लगते हैं और संतान वाले सोचते हैं, इस नरक से बचे हुए संतानहीन ही सुखी है।
वस्तुतः स्थान और परिस्थितियों के बदलने से शांति का लक्ष्य प्राप्त नहीं होता जो वस्तु जहाँ है ही नहीं वह वहाँ मिलेगी कैसे? शांति न एकांत में है न जनसंकुल में और वह दोनों ही जगह मौजूद है। भीतर छिपी हुई शांति को खोज निकाला जाए, तो उसके प्रकाश में हर जगह शांति दिखाई देगी और अंतर में अशांति जल रही हो तो जहाँ भी जाया जाए वहाँ विग्रह, उपद्रव, दिखाई देगा।
निवास या देश-परिवर्तन इसलिए नहीं करना चाहिए कि ऐसा करने से शांति मिल सकेगी। साधु और गृहस्थ नगरनिवासी और वनवासी समान रूप से खिन्न-उद्विग्न रहते हैं। जब तक अंतर अशांत है तब तक बेचैनी के अतिरिक्त और कुछ कहीं भी नहीं मिलेगा, पर जब अंतःकरण में सदाशयता भर जाने से अंतरात्मा का समाधान हो जाता है, जहाँ भी रहें अखंड शांति का अनुभव होगा।