
हम सोमरस पिएँ— अजर-अमर बनें
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वर्णन आता है देवता सोमपान करते हैं। ऋषि सोम पीते हैं। सोम का महत्त्व और माहात्म्य वैदिक साहित्य में विस्तारपूर्वक वर्णित है। यह सोम क्या है? इसका रहस्य जानना आवश्यक है।
यों सोमवल्ली नामक एक औषधि वल्लरी भी है, गिलोय की तरह उसे भी बहुत गुणवती माना जाता है और शारीरिक, मानसिक स्वास्थ्य के अभिवर्ध्दन में उसका भी प्रयोग किया जाता है। पर जिस सोम की असाधारण महिमा ऋषियों ने गाई है वह अप्रत्यक्ष, सूक्ष्म और दिव्य है।
मस्तिष्कीय चेतनाकेंद्र के प्रेरणात्मक एवं भावात्मक पक्ष को सोम कहते हैं। ब्रह्मरंध्र, सहस्रकमल, क्षीरसागर, कैलाश, महासूर्य, अमृतघट आदि अनेक नामों से इसी तत्त्व का वर्णन किया गया है।
स्थूलमस्तिष्क की चेतना— इच्छा, ज्ञान, क्रिया के तीन भागों में विभक्त है। उसका सूक्ष्मस्तर भावनात्मक है। इस भाव पक्ष को ही सोम कहते हैं। स्थूलमस्तिष्क प्रकृति से प्रभावित है। वातावरण का— वस्तुओं का व्यक्तियों का— इंद्रियों का— कामनाओं-वासनाओं और तृष्णाओं का उस पर प्रभाव पड़ता है। दूसरों का प्रभाव ग्रहण करता है और अपना दूसरों पर डालता है। सूक्ष्मशरीर का कलेवर भी यही है।
इसके अंतराल में भावात्मक चेतना-प्रवाह है, जिसे दिव्य-ज्योति, ब्रह्मसत्ता, एवं जीवईश्वर का मिलन-मंदिर कह सकते हैं। इसी केंद्र का उभार उत्पादन सोम है। इसी को द्युलोक— स्वर्गलोक— देवलोक आदि के नाम से पुकारते हैं। यहाँ झरने वाले दिव्य भावना और दिव्य प्रेरणा के अमृत को देवता और ऋषि पीते हैं और अमर हो जाते हैं। यहाँ किसी खाने-पीने की वस्तु की चर्चा नहीं; वरन अंतरात्मा को उस दिव्य भावात्मक प्रवाह में ओत-प्रोत कर लेना है जो ईश्वरीय सत्ता आत्मचेतना के कल्याणार्थ निरंतर बरसती रहती है और जिसे ग्रहण न कर पाने के कारण मनुष्य दीन-दुर्बल बना रहता है।
सोमं मन्यते पपिवान् यत् संपिषन्त्योष।
सोमं यं ब्रह्मणो विदुर्न तस्याश्नाति पार्थिवः॥
— अथर्ववेद 14।13
सोमरस जड़ी-बूँटी नहीं है। उसका आस्वादन तो ब्रह्मवेत्ता ही करते हैं और वे ही उसका तत्त्व जानते हैं।
सोमो राजा मस्तिष्कः।
—अथर्ववेद 9।7।2
यह सोम मस्तिष्क का राजा है।
सोमेन पूर्ण कलशं विभीर्षि।
— अथर्ववेद अथर्ववेद 9।4।6
सोम से भर शीर्ष-कलश इसी शरीर में है।
आत्सोम इन्द्रियो रसो।
—ऋग्वेद 9।47।3
यह सोम इंद्रियों का रस है।
यो वै विष्णुः सोमः स।
— शतपथ 3।6।3।9
जो विष्णु है वही सोम है।
दिवः पीयूषमुत्तमं सोमं।
— ऋग्वेद 9।51।2
यह सोम दयुलोक(मस्तिष्क) का अमृत है।
दिवि सोमो अधिश्रितः।
-— अथर्ववेद 14।1।1
यह सोम दयुलोक में रहता है।
एषस्य सोमो भतिभिः पुनानः।
-— ऋग्वेद 9।96।15
सोम को प्रज्ञा पवित्र करती है।
-— ऋग्वेद 9।63।20
प्रज्ञा द्वारा पवित्र सोम ब्रह्मपरायण को भावनाओं से भर देता है।
सोमोऽस्माकं ब्राह्मणानां राजा।
-— शतपथ 5।4।2।3
यह सोम ब्राह्मणों का राजा है।
सोमो भूत्वा रसात्मकः।
-— गीता रसात्मक तत्त्व सोम है। आत् सोम इन्द्रियो रसः। -— ऋग्वेद 9।47।3 इंद्रियों का रस सोम है। सोमरारन्धिनो हृदि। -— ऋग्वेद. 1।91।3 हे सोम! हमारे हृदय में रमण कीजिए। आ यद् योनिं हिरण्ययमाशुऋतस्य सीदति। जहाति अप्रचेतसः॥ -— ऋग्वेद. 9।61।20 ऋत की योनि मस्तिष्क है। यही हिरण्यकोश स्वर्ग है। जब यहाँ सोम प्रस्फुटित होता है तब अज्ञान-अंधकार से छुटकारा मिल जाता है। अग्नि और सोम का युग्म है। अग्नि को नारी और सोम को नर कहा है। दोनों के संयोग को आत्मरति कहते हैं। इस प्रयोग की उपलब्धियों को मादकता, कामुकता जैसे अलंकारों के साथ भी वर्णन किया जाता है। यत्ते पवित्रमर्चिष्यग्ने विततमन्तरा। ब्रह्म तेन पुनीहि नः । -— ऋग्वेद. 9। 67।23 हे अग्नि! तेरी ज्वालाओं द्वारा ही सोम पवित्र होता है। हमारे सोम को तू पवित्र कर दे। शिरो वै यज्ञस्यातथ्यम्। जनयन्ति वा एन— मेतद् यन्मन्थन्ति शीर्षतो वा अग्रे जायमानो जायते। शीर्षत एवैतदग्रे यज्ञं जनयत्यग्निर्वैसर्वा देवता अग्नौ हि सर्वाभ्योदेवताभ्यो जुह्वति शिरो वै यज्ञस्यातिथ्यम्। शीर्षत एवैतद् यज्ञ सर्वाभि र्देवताभिः समर्धयति तस्मादग्निं मन्थति। -— शतपथ. 3।4।1।19 सिर ही यज्ञ का आतिथ्य स्थल है। यहीं अग्नि का मंथन होता है। यहीं से अग्नि उत्पन्न होती और आगे बढ़ती है। अग्नि में ही सब देवताओं का निवास है। प्रदीप्त अग्नि सोमपान करती है। देवता हवि ग्रहण करते हैं। ब्रह्मतत्व, देवतत्व, यज्ञतत्व का जो सूक्ष्मस्वरूप चेतनाकेंद्र में अवस्थित है, उसे तत्त्वदर्शी सोम कहते हैं। उसे आत्मा में धारण करके ब्रह्मसाक्षात्कार एवं देव अनुग्रह प्राप्त करते हैं। इस देवसत्ता की प्रार्थना-स्तुति भी इसी प्रयोजन के लिए की जाती है। यो वै विष्णुः सोमः स हविर्वा एष देवानां भवति। -— शतपथ.3।6।3।29 यह सोम ही विष्णु है। वही देवताओं के हवि हैं। प्र त आश्विनीः पवमान धीजुवो दिव्याअसृग्रन् पयसा धरीमणि। प्रार्न्तऋषयः स्थाविरीरसृक्षत ये त्वा मृजन्त्यृषिषाण वेधसः -— ऋग्वेद.9।86।4 हे सोम! तेरी दिव्य धाराएंँ मस्तिष्क में दिव्यरस को प्रवाहित करती हैं। ऋषित्व को प्रदान करती हैं, जो उसे अपने में धारण कर लेता है वह निरंतर भाव-प्रवाहों से भरा रहता है। तमृ त्वा वाजिनं नरो धीभिर्विप्रा अवस्यवः। मृजन्ति देवतातये।
-— ऋग्वेद.9।17।7 हे सोम! आत्मरक्षा के इच्छुक, देवत्व की वृद्धि के इच्छुक, नेतृत्व की क्षमता के इच्छुक, ब्रह्म परायण लोग तुम्हें प्रज्ञा द्वारा पवित्र करते हैं। तमांसि सोम योध्या। तानि पुनान जंड्घन। -— ऋग्वेद. 9।9।7 सोम, अज्ञान-अंधकार को नष्टकर पवित्रता प्रदान करता है। ब्रह्मांडव्यापी सोम ब्रह्म ही है। उसका आत्मा से अवतरण यज्ञ है। विश्व में संव्याप्त देवशक्तियाँ उस ब्रह्मांडव्यापी सोम की ही किरणें है, देवता और ऋषि इन्हीं को प्राप्त कर दिव्यता से ओत-प्रोत होते हैं, विश्व-वसुधा का शोभा-सौंदर्य इसी से विकसित होता है। ऊर्ध्वमिमं यज्ञं देवलोकं नयतम्। — शतपथ 3।5।3।17 यह मस्तिष्क यज्ञभूमि है। यही देवलोक है। शिर एवास्य हविर्धानम वैष्णवं देवतयाथ यद- स्मिन्त्सोमो भवति हविर्वे देवानां सोमस्त- स्माद्धविर्धानं नाम। — शतपथ. 3।5।3।2 यह मस्तिष्क ही देवलोक है। जहाँ इंद्रियों के रूप में देवता विराजमान हैं। यहीं सोम को हवि दी जाती है और यहीं देवता सोमपान करते हैं। ऋषिमना य ऋषिकृन्स्वर्षाः । — ऋग्वेद. 9।96।18 सोम ऋषि है। सोम पायी को ऋषि बनाता है। एह गमन्नृषयः सोमशिताः। — ऋग्वेद. 10।108।8 ऋषि अपने में सोम द्वारा तीक्ष्णता प्राप्त करते हैं। सोमः पवते जनिता मतीनाँ जनिता दिवो जनिता पृथिव्या। जनिताग्नेर्जनिता सूर्यस्य जनितेन्द्रस्य जनितोत विष्णोः॥ — ऋग्वेद.9।96।5 यह सोम पवित्र है। समस्त बुद्धियों को पवित्र करता है। पृथ्वी और स्वर्ग का सृजेता है। अग्नि, सूर्य, इंद्र और विष्णु का उत्पादक वही है। दिविस्पृथिथ्वा अभिभव। — ऋग्वेद.. 9।31।2 हे सोम! द्युलोक में पृथ्वी पर उतरो। ते नो वृष्टिं दिवस्परि पवन्तामा सुवीर्यम्। — ऋग्वेद. 9।65।24 यह सोम, दयुलोक से पृथ्वी पर तेज बनकर बरसता है। स विश्वा दाशुषे वसु सोमो दिव्यानि पार्थिवा। पवतामान्तरिक्ष्या॥
— ऋग्वेद.9।36।5 सोम के प्रवाह से ही पृथ्वी आदि तीनों लोकों में अमृत बरसता है और उदात्त मनुष्य उससे पवित्र होते हैं। सहस्र वृदियं भूमिः। परं व्योम सहस्रवृत्। — तै.आ.1।10 यह भूमि सहस्रों प्राणों से भरी है और यह द्युलोक सहस्रों देवों से भरा है। शरीर में यह सोम ‘ओजस्’ एवं रेतस में दीप्तिवान है। वीर्य जों एक शारीरिक रस है, पर उसका जो सूक्ष्मततत्व ओजस् बनकर मस्तिष्क में विद्यमान रहता है, उसे भी सोम कहते हैं और ब्रह्मचर्य-साधना को भी सोमपान का नाम देते हैं। ओजः सोमत्मकं स्निग्धं शुक्लं शीतं स्थिरं सरम्। — सु.सू. 15।21।4 सोम ओज है। स्निग्ध, शुक्त, शीत, स्थिर है। रयिं कृण्वन्त्ति चेतनम्। — ऋग्वेद.9।31।1 यह सोम प्रजननशक्ति को चैतन्य करता है। सोमं सन्तं विष्णुमिति यजति तद् यदेवेदं क्रीतो विशतीव तदुहैवास्य वैष्णवं रूपम्। — शा.ब्रा.8।2 ऊर्ध्व रेता के मस्तिष्क में स्थित वीर्य, विष्णु देवता है और वह क्षेत्र विष्णुलोक । रेताे वै सोमः। — को.श.तै. वीर्य ही सोम है। वर्चः सोमः। — शतपथ वर्च ही सोम है। रसः सोम। — शतपथ
आनंद सोम है। शुक्रः सोमः। — ताण्ड्य वीर्य ही सोम है। सोमो वै ब्राह्मणः।
— ताण्ड्य ब्राह्मण ही सोम है। ब्राह्मणानां स (सोमः) यक्षः।
— ऐत ब्राह्मण का आहार सोम है । रेतः सोमः। — कौ. ब्रा.13।7 — तै. ब्रा. 2।7।4।1
— शतपथ 3।3।2।1 रेतो वै सोमः।
— शतपथ 1।9।2। 9 2।5।1। 9 3।8।5।2 लगता है, अंग्रेजी भाषा में सोम का अपभ्रंश होकर सीमन (Semen) शब्द बना है, जो वीर्य के अर्थ में प्रयुक्त होता है। वीर्य में जो सारभूत तत्त्व ओजस् है उसे बुद्धिमान नष्ट नहीं करते, उससे अपना ब्रह्मवर्चस् बढ़ाते और सोमपान का आनंद लेते हैं। मूर्ख उसे हास-परिहास क्रीड़ा-कल्लोल एवं इंद्रिय-लिप्सा में खर्च करके खोखले बनते हैं और अंततः दुःख पाते हैं। अभि वेना अनूषतेयक्षन्ति प्रचेतसः। मज्जन्त्यविचेतसः — ऋग्वेद. 9।64।21 आत्मदर्शी सोम के गीत गाते हैं, विवेकी सोम का भजन करते हैं, मूर्ख सोम को नष्ट करते हैं, और स्वयं नष्ट हो जाते हैं।
-— गीता रसात्मक तत्त्व सोम है। आत् सोम इन्द्रियो रसः। -— ऋग्वेद 9।47।3 इंद्रियों का रस सोम है। सोमरारन्धिनो हृदि। -— ऋग्वेद. 1।91।3 हे सोम! हमारे हृदय में रमण कीजिए। आ यद् योनिं हिरण्ययमाशुऋतस्य सीदति। जहाति अप्रचेतसः॥ -— ऋग्वेद. 9।61।20 ऋत की योनि मस्तिष्क है। यही हिरण्यकोश स्वर्ग है। जब यहाँ सोम प्रस्फुटित होता है तब अज्ञान-अंधकार से छुटकारा मिल जाता है। अग्नि और सोम का युग्म है। अग्नि को नारी और सोम को नर कहा है। दोनों के संयोग को आत्मरति कहते हैं। इस प्रयोग की उपलब्धियों को मादकता, कामुकता जैसे अलंकारों के साथ भी वर्णन किया जाता है। यत्ते पवित्रमर्चिष्यग्ने विततमन्तरा। ब्रह्म तेन पुनीहि नः । -— ऋग्वेद. 9। 67।23 हे अग्नि! तेरी ज्वालाओं द्वारा ही सोम पवित्र होता है। हमारे सोम को तू पवित्र कर दे। शिरो वै यज्ञस्यातथ्यम्। जनयन्ति वा एन— मेतद् यन्मन्थन्ति शीर्षतो वा अग्रे जायमानो जायते। शीर्षत एवैतदग्रे यज्ञं जनयत्यग्निर्वैसर्वा देवता अग्नौ हि सर्वाभ्योदेवताभ्यो जुह्वति शिरो वै यज्ञस्यातिथ्यम्। शीर्षत एवैतद् यज्ञ सर्वाभि र्देवताभिः समर्धयति तस्मादग्निं मन्थति। -— शतपथ. 3।4।1।19 सिर ही यज्ञ का आतिथ्य स्थल है। यहीं अग्नि का मंथन होता है। यहीं से अग्नि उत्पन्न होती और आगे बढ़ती है। अग्नि में ही सब देवताओं का निवास है। प्रदीप्त अग्नि सोमपान करती है। देवता हवि ग्रहण करते हैं। ब्रह्मतत्व, देवतत्व, यज्ञतत्व का जो सूक्ष्मस्वरूप चेतनाकेंद्र में अवस्थित है, उसे तत्त्वदर्शी सोम कहते हैं। उसे आत्मा में धारण करके ब्रह्मसाक्षात्कार एवं देव अनुग्रह प्राप्त करते हैं। इस देवसत्ता की प्रार्थना-स्तुति भी इसी प्रयोजन के लिए की जाती है। यो वै विष्णुः सोमः स हविर्वा एष देवानां भवति। -— शतपथ.3।6।3।29 यह सोम ही विष्णु है। वही देवताओं के हवि हैं। प्र त आश्विनीः पवमान धीजुवो दिव्याअसृग्रन् पयसा धरीमणि। प्रार्न्तऋषयः स्थाविरीरसृक्षत ये त्वा मृजन्त्यृषिषाण वेधसः -— ऋग्वेद.9।86।4 हे सोम! तेरी दिव्य धाराएंँ मस्तिष्क में दिव्यरस को प्रवाहित करती हैं। ऋषित्व को प्रदान करती हैं, जो उसे अपने में धारण कर लेता है वह निरंतर भाव-प्रवाहों से भरा रहता है। तमृ त्वा वाजिनं नरो धीभिर्विप्रा अवस्यवः। मृजन्ति देवतातये।
-— ऋग्वेद.9।17।7 हे सोम! आत्मरक्षा के इच्छुक, देवत्व की वृद्धि के इच्छुक, नेतृत्व की क्षमता के इच्छुक, ब्रह्म परायण लोग तुम्हें प्रज्ञा द्वारा पवित्र करते हैं। तमांसि सोम योध्या। तानि पुनान जंड्घन। -— ऋग्वेद. 9।9।7 सोम, अज्ञान-अंधकार को नष्टकर पवित्रता प्रदान करता है। ब्रह्मांडव्यापी सोम ब्रह्म ही है। उसका आत्मा से अवतरण यज्ञ है। विश्व में संव्याप्त देवशक्तियाँ उस ब्रह्मांडव्यापी सोम की ही किरणें है, देवता और ऋषि इन्हीं को प्राप्त कर दिव्यता से ओत-प्रोत होते हैं, विश्व-वसुधा का शोभा-सौंदर्य इसी से विकसित होता है। ऊर्ध्वमिमं यज्ञं देवलोकं नयतम्। — शतपथ 3।5।3।17 यह मस्तिष्क यज्ञभूमि है। यही देवलोक है। शिर एवास्य हविर्धानम वैष्णवं देवतयाथ यद- स्मिन्त्सोमो भवति हविर्वे देवानां सोमस्त- स्माद्धविर्धानं नाम। — शतपथ. 3।5।3।2 यह मस्तिष्क ही देवलोक है। जहाँ इंद्रियों के रूप में देवता विराजमान हैं। यहीं सोम को हवि दी जाती है और यहीं देवता सोमपान करते हैं। ऋषिमना य ऋषिकृन्स्वर्षाः । — ऋग्वेद. 9।96।18 सोम ऋषि है। सोम पायी को ऋषि बनाता है। एह गमन्नृषयः सोमशिताः। — ऋग्वेद. 10।108।8 ऋषि अपने में सोम द्वारा तीक्ष्णता प्राप्त करते हैं। सोमः पवते जनिता मतीनाँ जनिता दिवो जनिता पृथिव्या। जनिताग्नेर्जनिता सूर्यस्य जनितेन्द्रस्य जनितोत विष्णोः॥ — ऋग्वेद.9।96।5 यह सोम पवित्र है। समस्त बुद्धियों को पवित्र करता है। पृथ्वी और स्वर्ग का सृजेता है। अग्नि, सूर्य, इंद्र और विष्णु का उत्पादक वही है। दिविस्पृथिथ्वा अभिभव। — ऋग्वेद.. 9।31।2 हे सोम! द्युलोक में पृथ्वी पर उतरो। ते नो वृष्टिं दिवस्परि पवन्तामा सुवीर्यम्। — ऋग्वेद. 9।65।24 यह सोम, दयुलोक से पृथ्वी पर तेज बनकर बरसता है। स विश्वा दाशुषे वसु सोमो दिव्यानि पार्थिवा। पवतामान्तरिक्ष्या॥
— ऋग्वेद.9।36।5 सोम के प्रवाह से ही पृथ्वी आदि तीनों लोकों में अमृत बरसता है और उदात्त मनुष्य उससे पवित्र होते हैं। सहस्र वृदियं भूमिः। परं व्योम सहस्रवृत्। — तै.आ.1।10 यह भूमि सहस्रों प्राणों से भरी है और यह द्युलोक सहस्रों देवों से भरा है। शरीर में यह सोम ‘ओजस्’ एवं रेतस में दीप्तिवान है। वीर्य जों एक शारीरिक रस है, पर उसका जो सूक्ष्मततत्व ओजस् बनकर मस्तिष्क में विद्यमान रहता है, उसे भी सोम कहते हैं और ब्रह्मचर्य-साधना को भी सोमपान का नाम देते हैं। ओजः सोमत्मकं स्निग्धं शुक्लं शीतं स्थिरं सरम्। — सु.सू. 15।21।4 सोम ओज है। स्निग्ध, शुक्त, शीत, स्थिर है। रयिं कृण्वन्त्ति चेतनम्। — ऋग्वेद.9।31।1 यह सोम प्रजननशक्ति को चैतन्य करता है। सोमं सन्तं विष्णुमिति यजति तद् यदेवेदं क्रीतो विशतीव तदुहैवास्य वैष्णवं रूपम्। — शा.ब्रा.8।2 ऊर्ध्व रेता के मस्तिष्क में स्थित वीर्य, विष्णु देवता है और वह क्षेत्र विष्णुलोक । रेताे वै सोमः। — को.श.तै. वीर्य ही सोम है। वर्चः सोमः। — शतपथ वर्च ही सोम है। रसः सोम। — शतपथ
आनंद सोम है। शुक्रः सोमः। — ताण्ड्य वीर्य ही सोम है। सोमो वै ब्राह्मणः।
— ताण्ड्य ब्राह्मण ही सोम है। ब्राह्मणानां स (सोमः) यक्षः।
— ऐत ब्राह्मण का आहार सोम है । रेतः सोमः। — कौ. ब्रा.13।7 — तै. ब्रा. 2।7।4।1
— शतपथ 3।3।2।1 रेतो वै सोमः।
— शतपथ 1।9।2। 9 2।5।1। 9 3।8।5।2 लगता है, अंग्रेजी भाषा में सोम का अपभ्रंश होकर सीमन (Semen) शब्द बना है, जो वीर्य के अर्थ में प्रयुक्त होता है। वीर्य में जो सारभूत तत्त्व ओजस् है उसे बुद्धिमान नष्ट नहीं करते, उससे अपना ब्रह्मवर्चस् बढ़ाते और सोमपान का आनंद लेते हैं। मूर्ख उसे हास-परिहास क्रीड़ा-कल्लोल एवं इंद्रिय-लिप्सा में खर्च करके खोखले बनते हैं और अंततः दुःख पाते हैं। अभि वेना अनूषतेयक्षन्ति प्रचेतसः। मज्जन्त्यविचेतसः — ऋग्वेद. 9।64।21 आत्मदर्शी सोम के गीत गाते हैं, विवेकी सोम का भजन करते हैं, मूर्ख सोम को नष्ट करते हैं, और स्वयं नष्ट हो जाते हैं।