
संसार में त्रिविधि कष्ट और उनका निवारण
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दुःखों से निराकरण का उपायमात्र अभावों और कठिनाईयों का निराकरण ही नहीं निषेधात्मक दृष्टिकोण का परिष्कार भी है। इसके बिना न चिंता से छुटकारा मिलता है न उद्विग्नता से। शोक-संताप छाए ही रहते हैं। एक से छुटकारा मिल नहीं पाता कि दूसरा सामने आ खड़ा होता है।
कुछ दुख ऐसे हैं जो शरीर से संबंध रखते हैं— "कुछ ऐसे हैं; जिन्हें मन से संबंधित माना जाना चाहिए। भूख, प्यास, सर्दी-गर्मी, हारी-बीमारी जैसे कष्ट शरीर को होते हैं, उन अभावों और कष्टों को दूर करने के लिए साधन जुटाना आवश्यक है।" प्रयत्न पुरुषार्थ से, "सूझबूझ से", एक दूसरों के सहयोग से, इस प्रकार के कष्टों को दूर किया जाना चाहिए। जब तक हल न निकल आए उतने बेवसी के क्षणों को धौर्यपूर्ण संतुलन बनाए रहकर सहना चाहिए, ऐसे कष्ट स्थायी नहीं होते। कभी-कभी अकस्मात ही आ जाते हैं। पूर्व असावधानी भी उसका कारण होती है। आवश्यक सतर्कता रखी जाए, तो उनकी संभावना और कम रहती है। आ ही जाए तो देर तक ठहरती नहीं। दूसरे कष्ट मानसिक हैं। कुछ ऐसे हैं जो अपने से अधिक साधनसंपन लोगों की स्थिति में बहुत जल्दी पहुंचने की तीव्र अभिलाषा से उत्पन्न होते हैं। पड़ौसी की जितनी अमीरी अपने पास भी हो— "सुंदरस्त्री अमुक की है"— "अपनी तो हैं नहीं, उनके कई बच्चे हैं अपना कोई बच्चा नहीं। यह सोचकर कितने ही व्यक्ति बहुत दुखी रहते हैं। भाग्य को दोष देते हैं और साधनासंपंन लोगों से ईर्ष्या करते हैं। कई तो वैसी उपलब्धियों के लिये कुकर्म करने से भी नहीं चूकते।"
इस प्रकार के दुख अवास्तविक और काल्पनिक हैं। ऐसे लोग यदि अपने से गई गुजरी और अभावग्रस्त स्थिति के लोगों के साथ अपनी तुलना करें, तो प्रतीत होगा कि वर्तमान स्थिति भी ऐसी है, जिस पर पहुँचने के लिए लाखों-करोड़ों तरसते हैं। ऐसी तुलना संतोष देती है कि हजार से बुरे हैं, तो हजार से अच्छे भी हैं। तुलना करने की भ्राँत मनःस्थिति के कारण जो तृष्णा जन्य कष्ट होते हैं, उन्हें विवेक द्वारा दूर किया जा सकता है।
प्रयत्न करने पर अभीष्ट परिणाम न मिलने पर कई बार निराशा उपजती है और कष्ट होता है। ऐसा अवसर न आए इसलिए, फल के लिए अत्यधिक लालायित न होकर अपने प्रयत्नों की प्रखरता पर संतोष केंद्रित करने की मनःस्थिति रखनी चाहिए। यह ठीक है कि हर काम किसी सफलता के लक्ष्य को लेकर ही किया जाता है, पर यह भी ठीक है कि उसमें पुरुषार्थ ही एकमात्र कारण नहीं होता परिस्थिति भी कारण रहती है। यदि परिस्थितियाँ प्रतिकूल पड़ें तो देर लग सकती है और असफलता मिल सकती है। इसके लिए पहले से ही तैयार रहना चाहिए। अच्छी से अच्छी की आशा जरूर करें, पर बुरी से बुरी परिस्थिति के लिए तैयार भी रहें। तभी असफलता जन्य निराशा से बचा जा सकता है और कर्म की तत्परता में प्रसन्नता अनुभव करते हुए अगली बार और भी अधिक तत्परता के साथ सफलता की दिशा में आगे बढ़ा जा सकता है। निराशा जन्य कष्टों से बचाव इसी स्तर की मनःस्थिति का निर्माण करने से हो सकता है।
सामाजिककष्ट दुष्टों द्वारा मिलते हैं। आक्रमणकारी, अनाचारी,अवाँछनीय तत्त्वों की इस संसार में कमी नहीं। वे अपनी घात वहाँ लगाते हैं; जहाँ प्रतिरोध की संभावना कम होती है। सज्जन लोग दूसरों को भी सज्जन समझते हैं और अक्सर धूर्तों से ठगे जाते हैं। कई बार उन्हें सताकर, डराकर 'अपना उल्लू सीधा' करना चाहते हैं। इस प्रकार के आघात प्रायः सज्जनों को अधिक सहने पड़ते हैं।
जो केवल सज्जन तो होते हैं, पर सतर्क नहीं होते उन्हें प्रायः आक्रमणकारियों के द्वारा त्रास सहने पड़ते हैं। सतर्कता और समर्थता का संचय ऐसे कष्टों से भी बचा सकता है।