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Magazine - Year 1973 - Version 2

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विचार शक्ति की महिमा और गरिमा समझी जाय

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जिस प्रकार जलती हुई अग्नि अपने समीपवर्ती क्षेत्र को गर्म करती है, अपनी ताप किरणें दूर-दूर तक फैलाती है, उसी प्रकार मानव शरीर में होता है। यों ताप भी उस में रहता है, साँस के सहारे वह कुछ दूर गर्मी भी फैलाता है और देह के संपर्क में जो वस्त्र आदि आते हैं, वे भी गरम हो जाते हैं। यह गौण बात हुई। मनुष्य की सबसे महत्त्वपूर्ण शक्ति है विचार। उसकी प्रचण्डता देखते ही बनती है। मस्तिष्क में इच्छा शक्ति एवं विचार शक्ति का निर्माण होता है अथवा   इच्छा शक्ति की प्रबलता से मस्तिष्कीय क्षमता बढ़ती है। इस विवाद में इच्छा शक्ति का ही पलड़ा भारी बैठता है। मस्तिष्कीय उपचारों से कदाचित ही किन्हीं जड़-मति लोगों को बुद्धिमान बनाया जा सकता हो, पर इच्छा शक्ति की प्रेरणा से कालिदास, वरदराज जैसे अगणित मन्द मति उच्च श्रेणी के विचारवान विद्वान् बन सके हैं। अंतःप्रेरणा अविकसित मस्तिष्क को विकसित स्तर का बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका सम्पादित करती है।

मस्तिष्क क्या है? निश्चित रूप से उसे जादू का पिटारा कह सकते हैं। इन दिनों कम्प्यूटरों के कारण कठिन बौद्धिक कार्यों को जिस सरलता से सम्पादित कर दिया जाता है, उसके कारण उनकी बहुत चर्चा-प्रशंसा है। किन्तु यदि मस्तिष्कीय क्रिया-कलाप को देखा जाये तो उस पर अब तक के बने सम्पूर्ण कम्प्यूटरों के आविष्कार निछावर कर देने पड़ेंगे। यह एक ऐसा अद्भुत यन्त्र है जिसकी तुलना का दूसरा उपकरण खड़ा कर सकना मनुष्य की बुद्धि कल्पना से बाहर की चीज है। मस्तिष्क द्वारा शारीरिक क्रिया-कलापों का अनवरत् और सुव्यवस्थित संचालन किस खूबसूरती के साथ होता है। यदि इसका विवरण तैयार किया जा सके तो प्रतीत होगा कि उसकी क्षमता इतनी अद्भुत है कि मनुष्यकृत अद्यावधि सभी आविष्कार उसके सामने फीके पड़ जाते हैं।

मस्तिष्क केवल जीवन-यापन सम्बन्धी क्रिया-कलापों या सोच विचारों में लगा रहता हो और उतनी ही सीमा में उसकी शक्ति सीमित रहती हो, सो बात नहीं है। सूर्य जिस प्रकार निरन्तर अपना प्रकाश और ताप चारों ओर बाँटता रहता है, ठीक उसी प्रकार मानव मस्तिष्क से एक विशेष प्रकार की ऊर्जा की निःसृत होती रहती है। इसे विचार, संकल्प भावना, इच्छा आदि किसी भी नाम से अथवा उनके संयुक्त संमिश्रण के रूप में कह या पहचान सकते हैं। इस विकिरण के द्वारा एक व्यक्ति अपने समीपवर्ती लोगों को असामान्य रूप में अनजाने ही प्रभावित करता रहता है।

अनन्त आकाश की पोल में ईथर तत्त्व भरा पड़ा है। ढेला फेंकने पर तालाब में जिस तरह लहरें उठने लगती हैं, उसी तरह विश्वव्यापी 'ईथर' महासागर में हमारे विचार अपने स्तर के प्रहार करते हैं और उनसे प्रकाश ध्वनि से भी अधिक ऊँची एवं सूक्ष्म स्तर की, किन्तु लगभग उसी प्रकार की तरंगें उठती हैं। वे कुछ दूर जाकर ही समाप्त नहीं हो जातीं, वरन् अनन्त आकाश में भ्रमण करने निकल जाती हैं। स्पष्ट है कि किसी गोलक पर सीधी यात्रा आरम्भ करने पर उसका अन्त आरम्भ किये जाने वाले स्थान पर ही होगा। इसी प्रकार किसी व्यक्ति के मस्तिष्क से निकलने वाली विचार तरंगें अपनी सुदूर यात्रा करती हुई अन्ततः अपने उद्गम स्रोत पर-विचार के मस्तिष्क पर वापिस लौट आती हैं। इस क्रिया-प्रक्रिया का दुहरा प्रभाव होता है। अनेकों उसी स्तर की विचार बुद्धि वाले उन कम्पनों से बल तथा प्रोत्साहन पाते हैं और जब वे वापिस लौटते हैं, तो अपने इस उत्पादन को नये आहार के रूप में पाकर सृजेता मस्तिष्क को भी लाभ मिलता है।

किसान अपनी फसल का लाभ स्वयं भी उठाता है और उससे अन्य अनेकों को आहार मिलता है। विचारोत्पादन भी इसी प्रकार का कृषि कर्म है। पशु अपनी-अपनी शरीर यात्रा संबंधी सोच-विचारों में ही लगे रहते हैं; इसलिए उनका चिन्तन थोड़ा और विचार प्रवाह अत्यन्त क्षीण होता है। किन्तु मनुष्य में भावना, इच्छा, संकल्प, आदर्श आदि की बड़ी शक्तिशाली प्रेरणाएँ चिन्तन क्षेत्र को घेरे रहती हैं। अस्तु उनसे विचार तरंगें भी बहुत शक्तिशाली उत्पन्न होती हैं। यों जिनका चिन्तन शरीर की परिधि में ही एक ढर्रे पर घूमता रहता है, उनकी भी विचार तरंगें बहुत दुर्बल होती हैं। प्रखरता तब आती है जब उनमें किन्हीं विशेष भावनाओं का उभार सम्मिलित रह रहा हो।

स्पष्ट है आदर्शवादी उच्च स्तर का चिन्तन करने वाले चरित्रवान एवं सेवाभावी लोग अपनी विचार तरंगों के माध्यम से समस्त विश्व को अपनी प्रखर प्रेरणाओं से लाभान्वित करते हैं, भले ही उनका वह अनुदान दूसरों को प्रत्यक्ष दिखाई न पड़ता हो। यह बात दुष्ट दुरात्माओं के बारे में भी लागू होती है। वे मन ही मन दुरभि संधियों के कुचक्र रचते रहते हैं और इस प्रकार की भयानक विचार तरंगें छोड़ते हैं, जिनके कारण अगणित दुर्बल मनोभूमि के लोग उसी प्रकार का चिन्तन आरम्भ कर दें और कुमार्ग गामिता के कदम बढ़ायें।

समान विचारों के लोगों को अपने स्तर के नये विचार आकाश से मिलते रहें तो उनका बल बढ़ेगा। सजातीयता का आकर्षण प्रकृति का सर्वविदित नियम है। धातुओं के कण धूल में बिखरे रहते हैं। पर जिधर इन धातुओं की खान होती है उधर वे धीरे-धीरे सहज ही खिसकते जाते हैं। समुद्र की दिशा में ही समस्त नदियाँ बहती हैं। नदियों की तरफ नाले दौड़ते हैं। विचार भी अपने सजातियों की तरफ अधिक तेजी से बढ़ते हैं और वहाँ अपना रंग जमाते हैं। चोर, लवार, जुआरी, व्यभिचारी अपनी जमात जोड़ लेते हैं। सन्त-सज्जनों के सत्संग भी जमे ही रहते हैं। यह समान स्वभाव का आकर्षण ही है।

विचारों के क्षेत्र में भी यही होता है। जहाँ जिस स्तर के विचार उठ रहे होंगे, वहाँ उसी स्तर की अन्य लोगों द्वारा छोड़ी गई विचार तरंगें भी उड़ती हुई आयेंगी और अपना अड्डा जमा लेंगी। यही कारण है कि हर भले-बुरे विचारकर्ता को नई-नई सूझ-बूझ सहज ही मिलती चली जाती है। इसे अन्य सजातीय लोगों द्वारा छोड़े गये सजातीय विचारों का अनुग्रह-अनुदान भी कहा जा सकता है। प्रोत्साहनकारी और मार्गदर्शक विचारों की इस दुनिया में कमी नहीं। जिसे जो कुछ पसंद हो, इस विचार बाज़ार में से मनचाही वस्तु, मनमानी मात्रा में, बिना मूल्य और बिना रोक, खरीद सकता है।

हमारा रेडियो उन्हीं प्रसारणों को पकड़ता है, जिन पर उसकी सुई अड़ी होती है। उसी समय अन्य रेडियो स्टेशनों से अन्य प्रसारण भी होते रहते हैं, पर हम केवल अपनी रुचि का स्टेशन और प्रोग्राम ही सुनते हैं। अन्य प्रसारण अपनी राह चले जाते हैं। हमसे सम्पर्क उन्हीं का होता है, जिन्हें अपना रेडियो पकड़ता है। विचार तरंगों को भी रेडियो तरंगों का सहधर्मी-सहकर्मी माना जा सकता है। वे उठती उमड़ती है और स्पर्श भी सभी को करती है। अत्यन्त सूक्ष्म प्रभाव वे सभी पर छोड़ती है, पर विशेष प्रभाव सजातीय पर ही डालती है। सज्जनों का मस्तिष्कीय चुम्बकत्व प्रायः उन्हीं को आकर्षित करता है जिनमें सज्जनता के अंकुर पहले से ही मौजूद हैं। यह बात दुर्जनों के सम्बन्ध में लागू नहीं होती है।

यह बात सज्जन-दुर्जनों तक ही सीमित नहीं है; दर्शन, कला और विज्ञान जैसे विषयों में भी इस तथ्य का चमत्कार देखा जा सकता है। ठीक एक ही समय में, एक ही वैज्ञानिक शोध पर, एक ही स्तर की खोज-बीन करते हैं, वे अपने प्रयोगों की पूर्णता प्राप्त न होने तक छिपाते भी हैं। पर देखा गया है कि उनमें एक ही स्तर का चिंतन, एक ही क्रम से, ऐसे ढंग से चला, मानो एक ने दूसरे की नकलची परीक्षार्थियों की तरह नकल टीप या चोरी की हो। वस्तुतः यह विशेष मनोयोगपूर्वक निःसृत विचारधारा का ही चमत्कार होता है, जिसे एक स्थान से दूसरे स्थान तक दौड़ जाने से रोका नहीं जा सकता।

शारीरिक पुण्य-पापों की तरह मानसिक पुण्य-पापों की चर्चा भी धर्म पुस्तकों में मिलती है और अनेक भले-बुरे परिणाम भुगतने पड़ते हैं, ऐसा कहा गया है। इस प्रतिपादन में ठोस तथ्य है। हमारा चिन्तन समस्त विश्व को प्रभावित करता है। ऐसी दशा में हमारे क्रिया द्वारा न सही, विचारों द्वारा ही सही, कुछ क्षति पहुँचाई गई अथवा सेवा सहायता की गई है, तो उसका भला-बुरा परिणाम हमें मिलना ही चाहिए। शारीरिक पुण्य-पापों का अपना महत्त्व है, पर मानसिक पुण्य-पापों को भी काल्पनिक-नगण्य, निरर्थक या विनोद कहकर झुठलाया नहीं जा सकता। जब उनका प्रभाव होता ही है, तो क्या परिणाम नहीं मिलेगा?

बैठे ठाले जब चाहे, जैसी कल्पनायें करते रहने में, हम स्वतन्त्र तो हैं, पर यह नहीं समझ बैठना चाहिए कि यह कोई निरर्थक मनोविनोद मात्र था। विचारों की शक्ति आग या बिजली की तरह है। उसके साथ मखौलबाजी करना खतरनाक है। दुष्टता और दुराचार की कल्पना भर करते रहें, योजना भर बनाते रहें, तो भी उसी स्तर के सजातीय विचार चारों ओर से दौड़ पड़ेंगे और मस्तिष्क पर हावी हो जायेंगे। इसका परिणाम यह होगा कि हमारे प्रादुर्भूत विचार अनेक गुनी शक्ति सामर्थ्य से भर जायेंगे और अनेक भले-बुरे प्रभाव-परिणाम सामने आ उपस्थित होंगे। यदि हम बुरे विचारों में निमग्न हैं, तो स्वभावतः उस बुराई की अगणित प्रेरणाएँ योजनाएँ सामने आती चली जायेंगी और क्रमशः इसी दुर्गुण के लिए अपना मन प्रशिक्षित हो जायेगा। विनोद मात्र के लिए निरर्थक कल्पना समझ कर जिन उड़ानों में हम उड़ रहे थे, वे ही अपने लिए गले का फन्दा बन जायेंगी और एक दिन हमें उसी जाल-जंजाल में बेतरह डुबोकर रख देंगी। यदि कल्पना करना हो तो केवल शुभ कल्पनायें करनी चाहिए, ताकि उस मार्ग पर चलने के लिये प्रोत्साहन और बल मिलता चला जाय और समयानुसार हम उसी प्रकार की अपनी क्षमताएँ विकसित करते हुए उत्साहवर्धक प्रगति भी कर सकें।

विचार शक्ति को विद्युत शक्ति जैसी, अणु शक्ति जैसी प्रचण्ड सामर्थ्य माना जाना चाहिए और प्रत्येक वयस्क व्यक्ति को इस बात का पूरा-पूरा ध्यान रखना चाहिए कि उसका सही सदुपयोग क्या हो सकता है। धन-सम्पत्ति अपने पास हो तो उसका ऐसे ही अपव्यय नहीं किया जाता है। धन की बर्बादी करने से लोग क्षतिग्रस्त होते और उपहासास्पद बनते हैं। यही तथ्य विचारों की सम्पदा पर भी लागू होना चाहिए।

फालतू समय में कुछ भी, किसी भी प्रकार के विचार में प्रवेश करते रहें, तो मोटे तौर पर उससे कुछ प्रत्यक्ष हानि होती दिखाई नहीं पड़ती, पर यदि गम्भीरतापूर्वक देखा जाय तो प्रतीत होगा कि मस्तिष्क में उमड़ने-घुमड़ने वाले विचार मस्तिष्क को उसी अपने ही स्तर का विनिर्मित एवं प्रशिक्षित करते हैं। कुछ समय रुचिपूर्वक जिन विचारों को मस्तिष्क में स्थान दिया जायेगा, वे फिर वहाँ अपना अड्डा जमा लेंगे और उसी स्तर की अभ्यस्त विचारधारा चिन्तन के क्षेत्र में बिना बुलाये ही उमड़ने-घुमड़ने लगेगी। यह सब ऐसे ही उमड़-घुमड़, ऐसे ही समाप्त नहीं हो जाती, वरन् रुचि, रुझान और प्रवृत्तियों का निर्माण करती है। यह तथ्य है कि देर तक जिन विचारों को अपनाया गया है, वे प्रेरणाप्रद बनते हैं और अन्ततः अपनी ही दिशा में काम करने के लिए क्रिया-शक्ति को सहमत-तत्पर कर लेते हैं।

अवांछनीय विचारों को मस्तिष्क में स्थान देने और उन्हें वहाँ जड़-जमाने का अवसर देने का अर्थ है, भविष्य में हम उसी स्तर का जीवन जीने की तैयारी कर रहे हैं। भले ही यह सब अनायास या अनपेक्षित रीति से हो रहा है, पर उसका परिणाम तो होगा ही। उचित यही है कि हम उपयुक्त और रचनात्मक विचारों को ही मस्तिष्क में प्रवेश करने दें। यदि उपयोगी और विधेयात्मक विचारों का आह्वान करने और अपनाने का स्वभाव बना लिया जाय तो निस्सन्देह प्रगति पथ पर बढ़ चलने की सम्भावनाएँ आश्चर्यजनक गति से विकसित हो सकती है।


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