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Magazine - Year 1973 - Version 2

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Language: HINDI
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पवित्र धन जो मिल ही न सका

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महर्षि अगस्त की पत्नी लोपामुद्रा ने एक बार अपने पतिदेव के सम्मुख इच्छा व्यक्त की कि मेरा मन रत्नजड़ित स्वर्ण आभूषण पहनने का है, सो आप अपने सम्पन्न शिष्यों में से किसी से धन याचना करके मेरी अभिलाषा पूरी करें।

महर्षि बहुत दिन तक आना-कानी करते रहे, पर जब पत्नी का आग्रह बहुत अधिक बढ़ गया तो वे इस शर्त पर याचना पर जाने के लिए सहमत हुए कि जो धन दूसरों को दुःख न देकर नीतिपूर्वक कमाया हुआ हो और उचित व्यय करने के बाद शेष रहा हो, उसी को वे स्वीकार करेंगे। लोपामुद्रा ने भी कहा - अनीति उपार्जित और उचित व्यय रोक कर दिये गए धन से तो मैं भी आभूषण नहीं पहनना चाहती।

महर्षि अगस्त अपने सुसम्पन्न शिष्यों के यहाँ याचना के लिए चल पड़े। जहाँ भी गये वहीं भाव भरा स्वागत हुआ। शिष्यों ने अपने गृह गुरुदेव को आया देखकर श्रद्धा के पलक बिछा दिए और अनुरोध किया कि वे ऐसा आदेश करें, जिसे पालन करते हुए वे अपने को धन्य मानें। हर शिष्य के यहाँ उनने उनके आय-व्यय का हिसाब माँगा, उन्हें सहर्ष थमा दिया गया।

श्रेष्ठ श्रुतर्ण के बही खाते ने बताया - 'धन बहुत आया। सभी न्यायोपार्जित था। साथ ही जो कमाया गया, वह लोकोपकारी कार्यों में खर्च हो गया। निजी व्यय तो सादगी के निर्वाह जितना ही किया गया था। बचत शून्य थी।

महर्षि ने कोष पुस्तकें देखकर वापिस कर दीं और अपनी कुछ इच्छा व्यक्त किए बिना ही आशीर्वाद देकर अन्य शिष्यों के पास गये। क्रमशः वे राजा बघ्नश्व के, राजा त्रसद्दसु के पास पहुँचे। इन दोनों के ही धनाधिय (धनाढ्य) होने की बहुत ख्याति थी। महर्षि के आगमन पर वे भी फूले न समाये और कुछ आदेश करने का आग्रह करने लगे। उनसे भी हिसाब माँगा गया, जिसे प्रसन्नतापूर्वक देखा गया। ऋषि ने पाया - वे दोनों उपार्जन पूरे मनोयोग से करते हैं, पर साथ ही बचाते कुछ नहीं। कमाई के साथ ही वे श्रेष्ठ कर्मों में तत्काल व्यय करते रहते हैं। अपने लिए तो वे तन ढकने और पेट भरने भर को राशि लेते हैं।

अन्त में अगस्त मुनि अपने शिष्य इल्बल दैत्य के यहाँ पहुँचे। उसके भण्डार रत्न राशि से भरे पड़ें थे। आदेश करने पर वह सारी सम्पदा ऋषि को दे सकता था। पर जब हिसाब देखा गया, तो मिला कि उसकी सम्पदा अनीति उपार्जित है। उसमें से सत्कर्मों के लिए कुछ भी खर्च नहीं हुआ। जो खर्चा गया है, वह व्यसनों और कुकर्मों पर ही लगा है।

ऐसे धन को लेकर वे क्या करते! इस राशि के आभूषण लोपामुद्रा भी क्यों पहनती! निराश महर्षि अगस्त सारी पृथ्वी पर धनी शिष्यों का लेखा-जोखा प्राप्त करके घर वापिस लौट आए।

खाली हाथ लौटा देखकर लोपामुद्रा ने इसका कारण पूछा। महर्षि अगस्त ने बताया - जहाँ न्यायोपार्जित आजीविका थी वहाँ सत्कर्मों से सदुपयोग करने का उत्साह भी कम न था। ऐसे व्यक्ति कुछ बचा ही नहीं पाये, तो उनसे माँगे कैसे?

लोपामुद्रा ने एक नये तथ्य को समझा। अनीति का उपार्जन ही अविवेकपूर्वक संग्रहित होता रहता है और न्यायोपार्जन पर विश्वास रखने वाले उदार चित्त प्रायः खाली हाथ ही रहते हैं। ऐसी स्थिति में ऋषि पत्नी ने यही उचित समझा कि आभूषणों का मोह उसे छोड़ ही देना चाहिए।


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