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Magazine - Year 1973 - Version 2

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आत्मा उभयलिंगी है– नर भी और नारी भी

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आत्मा न नर है न नारी। एक दिव्य सत्ता भर है। समयानुसार– आवश्यकतानुसार वह तरह-तरह के रंग-बिरंगे परिधान पहनती-बदलती रहती है। इसी को लिंग व्यवस्था समझना चाहिए। सर्दी की ऋतु में गरम और भारी कपड़े पहनने की आवश्यकता अनुभव होती है और गर्मी में हलके वस्त्र पहनने या नंगे रहने की इच्छा होती है। नर-मादा रूपी दो आवरण दो ऋतुओं के लिए हैं। आत्मा की जब जैसी रुचि होती है, तब वह वैसे वस्त्र पहन लेती है। कभी गरम-भारी तो कभी ठंडे- झीने। कभी खट्टा स्वाद चखने की इच्छा होती है तो कभी मीठा।

मादा के जीवन का अपना आनन्द है और अपना स्तर। उसे देखे, समझे और अनुभव किये बिना आत्मा की तृप्ति नहीं होती। सो जब स्नेह, वात्सल्य, समर्पण, सेवा की प्रवृत्तियाँ उभारने की शिक्षा लेनी होती है, तो नारी के शरीर में प्रवेश करके उस तरह का अध्ययन, अनुभव, अभ्यास करना होता है और जब शौर्य, साहस, पुरुषार्थ, श्रम की कठोरता का शिक्षण आवश्यक होता है, तब उसे नर कलेवर पहनना पड़ता है।

मृदुलता और कठोरता के उभयपक्षीय समन्वय से जीवधारी की समग्र शिक्षा हो पाती है। यदि वह एक ही योनि में पड़ा रहे तो उसके आधे ही गुणों का विकास हो पायेगा और उस अपूर्णता के रहते सर्वांगीण पूर्णता का लक्ष्य प्राप्त न हो सकेगा। अस्तु भगवान ने यह व्यवस्था बना रखी है कि जीवधारी कभी मादा शरीर में रहा करे, कभी नर शरीर में। यह परिवर्तन धूप - छाँह जैसे उभयपक्षीय आनन्द की अनुभूति कराता है और जीवन के दोनों पहलुओं से परिचित ही नहीं, अभ्यस्त भी रखता है।

यह सोचना ठीक नहीं कि नर जन्म-जन्मान्तरों तक नर ही रहेगा और नारी को नारी ही रहना पड़ेगा। अभ्यास और रुचि परिपक्व हो जाय, तो एक ढर्रा भी कई जन्मों तक चलता रह सकता है, पर यदि तीव्र उत्सुकता-उत्कंठा हो, तो वह परिवर्तन अगले ही जन्म में हो सकता है। नर यदि नारी जैसी मनोभूमि और गतिविधियाँ अपनाकर उस तरह की उत्कंठा तीव्र करे, तो अगला जन्म उसे नारी के रूप में भी मिल सकता है। इसी प्रकार नारी के लिए यह सर्वथा सम्भव है कि वह पुरुषोचित गतिविधियाँ और मनोवृत्तियाँ अपनाकर अगला परिवर्तन अपनी अभिलाषा के अनुरूप कर ले। यों प्रकृति के नियमानुसार बिना किसी प्रयत्न के भी यह परिवर्तन होते रहते हैं।

शरीरशास्त्री यह तथ्य भली प्रकार जान गये हैं कि हर जीवधारी में नर और नारी की उभयपक्षीय सत्ता बीज रूप में विद्यमान् रहती है। उसका जो पहलू उभरा रहता है, उसी को समर्थ एवं सक्रिय रहने का अवसर मिलता है और दूसरा पक्ष प्रसुप्त स्थिति में पड़ा रहता है। यदि उभार दूसरी दिशा में बह निकले, तो सुप्त पक्ष जागृत हो सकता है और जागृत को सुषुप्ति में चला जाना पड़ता है।

सृष्टि में ऐसे अगणित जीवधारी विद्यमान् है, जिसमें नर और नारी के दोनों पक्ष समान रूप से सक्रिय होते हैं। वे एक ही जीवन में कभी नर और कभी मादा बनते रहते हैं। जब उनका जी आता है, अपने संकल्प बल से नर बन जाते हैं और जब उमंग उठती है, नारी। स्वभाव ही नहीं, बिना किसी कठिनाई के नारी अंगों का भी विकास अधूरा नहीं होता, वरन् इस सीमा तक प्रखर होता है कि सन्तानोत्पादन भी भली प्रकार से हो सके। आज का नर कल नारी बनकर अपने पेट में गर्भ धारण करेगा और परसों बच्चे जनेगा। यह बात विचित्र लगती है, पर है सर्वथा सत्य। कितने जीवों में यही प्रवृत्ति है और वे एक ही जीवन में इस प्रकार के उभय-पक्षीय आनन्द की अनुभूतियाँ लेते रहते हैं। उनके जीवन समुद्र में कभी नर का ज्वार आता है, तो कभी नारी का भाटा। प्रकृति ने उन्हें इच्छानुसार आवरण बदलने की जो सुविधा दी है, वैसी ही यदि मनुष्यों को भी मिली होती, तो वे भी इस प्रकार का आनन्द-लाभ प्राप्त करते। इतना ही नहीं, नर और नारी के बीच असमानता की जो खाई बन गई है, उसके बनने का कोई कारण न रहता। फिर न कोई छोटा समझा जाता, न कोई बड़ा। किसी को किसी पर आधिपत्य जमाने की खुराफात भी न सूझती।

गोल्ड इस्मिट, रोश, हैरीसन आदि प्राणिवेत्ताओं ने तितलियों की कलम एक दूसरे को लगाकर उनका लिंग परिवर्तन कृत्रिम रूप से सम्भव बनाकर दिखाया है। विज्ञानी डबल्यू. हीरम्स ने मछलियों की कई जातियाँ उभयलिंगी पाई है और कुछ प्रयोगों में छोटे आपरेशन करके उन्हें परिवर्तित लिंग का बनाया है। पक्षियों में भी लिंग परिवर्तन के आपरेशन बड़ी मात्रा में सफल हुये हैं।

कुछ कीड़े होते हैं,जो एक ही शरीर में बार-बार उभयलिंगी परिवर्तन करते रहते हैं। वे कभी नर बन जाते हैं, कभी मादा। कीट विज्ञानी प्रो. ओरटन ने ऐसे जीवों की खोज की थी, जो एक ही जन्म में कभी नर रहते हैं, कभी नारी। ओइस्टर ऐसे जन्तुओं में अग्रणी हैं। वे मादा की तरह अण्डे देने के बाद एक मास बाद ही नर बन जाते हैं और उभयपक्षीय लिंग में रहने वाली विभिन्नताओं का आनन्द लूटते हैं। आस्ट्रिना, गिवासा, स्लग लाइयेकस जाति के जलचर भी उभयलिंगी रसास्वादन का क्रम परिवर्तन करते रहते हैं। लिमेष्ट्रिया पतंगा भी इसी स्तर का है। वह कभी नारी होता है, तो कभी नर।

आयस्टर वर्ग-जाति का “मोलस्क” घोंघा अपना लिंग परिवर्तन करता रहता है। कभी वह मादा होता है, तो कभी नर। 40 साल की पूरी आयु यदि वः जी सके, तो प्रायः एक दर्जन बार वह अपना लिंग परिवर्तन करता है।

सृष्टि में ऐसे जीव-जन्तुओं की संख्या कम नहीं, जो उभयलिंगी होते हैं। एक ही शरीर में शुक्र और डिम्ब उत्पन्न करने वाली ग्रन्थियाँ होती है। जब उनमें प्रौढ़ता आती है, तो प्रजनन स्राव अपने आप प्रवाहित होते हैं और रक्त संचार के सहारे उनको आत्मरति का आनन्द, प्रजनन का लाभ मिल जाता है। ड्रोसोफिला मक्खी, हैब्रो व्रेकन ततैये, सिल्क व्रम मोथ, वैक्स मोथ, जिप्सी मोथ, ओलोकेसपिस, जैसे अनेक पतंगे उभयलिंगी होते हैं।

समझा जाता है कि नर और मादा का संयोग होना सन्तानोत्पत्ति के लिए आवश्यक है, पर यह मान्यता बड़े आकार वाले विकसित जीवों पर ही एक सीमा तक लागू होती है। छोटे जीवों में अगणित जातियाँ ऐसी हैं, जिनमें प्रजनन के लिए साथी की सहायता लेने की आवश्यकता नहीं पड़ती। अपने शरीर में रहने वाली उभय योनियाँ समयानुसार आप ही संयोग बना लेती हैं और उस आत्मरति से ही प्रजनन का अध्याय पूरा हो जाता है।

प्रजनन क्रिया के लिए यौन संयोग के अतिरिक्त एक और भी तरीका है। अपने विकसित स्वरूप को विघटित कर देना। यह क्रिया वनस्पति जगत में ही निरन्तर होती है। बीज गलकर अंकुर और पत्र-पल्लवों के रूप में विकसित होता है और एक से अनेक बनने का क्रम अपनाकर कालान्तर में वही पुष्ट पौधा बनकर कितने ही नये बीज हर साल उत्पन्न करता है। यह अमैथुनी प्रजनन क्रिया वनस्पति जगत की सर्वविदित परिपाटी है।

गन्ना, गुलाब आदि अगणित पौधे, जिनके टुकड़े करके गाढ़ देने पर अलग-अलग पौधे बन जाते हैं। बट, गूलर जैसे वृक्षों की बड़ी डालियाँ भी नये पेड़ का रूप धारण करती हैं। विकसित पुष्पों के पराग हवा में उड़कर एक से दूसरे तक पहुँचते हैं। मक्खियाँ और तितलियाँ भी उनका स्थानान्तर करती रहती हैं। इस प्रकार पराग युगल परस्पर योग-संयोग मिलाकर बिना रति क्रिया के अपनी वंश वृद्धि करते रहते हैं।

छोटे जीवों में भी वह गुण होता है कि वे अपने शरीर से अपने ही सरीखी नई संतति उत्पन्न कर सकें। यों दूसरी जाति की उत्पत्ति तो सहज ही हो जाती है। पेट में सड़ा अन्न मलकृमि बनकर विष्ठा के साथ निकलता है। शरीर पर चिपका हुआ मैल जुएं, चीलर बनता है। जीवित या मृत शरीर का सड़ा हुआ मांस आँख से देखे जा सकने वाले कीड़ों के रूप में अनायास ही बदल जाता है। सड़े हुए फल और तरकारियों में भी उसी रंग-रूप के कीड़े रेंगते देखे जा सकते हैं। यह प्रजनन ही है। सड़न को रति-क्रिया तो नहीं कह सकते और न उससे सहधर्मी जीव उत्पन्न होता है, फिर भी इसे जीव उत्पादन तो कह ही सकते हैं। कीचड़ और गन्दगी में मक्खी, मच्छरों और रेंगने वाले कृमियों का उत्पन्न होना इसी स्तर का प्रजनन है।

जिनकी गणना जीवधारियों में की जाती है, ऐसे प्राणी भी अपने शरीर के ही टुकड़े बिखेरकर, अपनी जाति के नये प्राणी को जन्म देकर, विधिवत् वंश वृद्धि करते रहते हैं। इसलिए उन्हें जोड़ी ढूँढते या रति-क्रिया का सहारा लेने की जरूरत नहीं पड़ती। अपना शरीर ही इसके लिये पर्याप्त होता है और उसी से उभयपक्षीय मिलन संयोग से लेकर प्रजनन तक की सारी आवश्यकतायें सुचारु रूप से सम्पन्न होती रहती हैं। 'अमीबा' और 'डायटम' जीव इसी स्तर के है। उनमें जब प्रौढ़ता आती है, तो अपने ही शरीर को फुलाकर उसका आधा भाग अलग छिटका देते हैं और एक-एक स्वतन्त्र प्राणी बनकर अपनी अलग वंश परम्परा का संचालन करते हैं।

जीवित कहे जाने वाले प्रत्येक जीवधारी या जीवाणु में मेटाबोलिज्म-उपापच्य, प्रजनन शक्ति होती है। सृष्टि में जीवधारियों का उत्पादन-अभिवर्धन कैसे उत्पन्न हुआ ? इसका युक्ति संगत एक मात्र उत्तर यही हो सकता है, कि आदि जीवाणुओं में अपने आपको विखण्डित करके सन्तानोत्पादन करने की सरलतम योग्यता विद्यमान् थी। उसी के आधार पर जीवधारियों की संख्या बढ़ी और परिस्थितियों के अनुरूप उनने अपनी काया तथा चेतना का विकास- परिष्कार किया। रति-क्रिया का प्रचलन तो बहुत बाद में– तब हुआ– जब प्राणधारी एक लिंगी न रहकर द्विलिंगी बन गये और उन नर-मादा की जननेन्द्रियाँ स्पष्ट उभरीं तथा गर्भ धारण के योग्य हो गईं। इससे पूर्व अपने शरीर से विखण्डित होकर ही पीढ़ियाँ बढ़ाने का प्रचलन था। इसके आगे– मध्यकाल में– उभयलिंगी अन्तःस्राव मात्र उभय और पुष्प-पराग की तरह जीवधारी नर-मादा परस्पर स्नेह-आलिंगन का क्रिया-कलाप गन्ध मादकता के आधार पर करने लगे थे। उतने से ही उनमें प्रजनन उपयोगी हलचलें उठ खड़ी होती थीं और सन्तान होने लगती थी। यौन संसर्ग तो बहुत बाद की प्रगतिशीलता है।

सेलों के भीतर भरे न्यूक्लिक एसिड के माध्यम से पूर्वजों की शारीरिक, मानसिक विशेषताएँ सन्तान में हस्तान्तरित होती हैं। एडमोसिन फास्टेट रसायन का होना प्रजनन योग्यता के लिए आवश्यक है। इन तत्त्वों को यदि प्राणियों में घटाया - बढ़ाया जा सके, तो उनकी प्रजनन क्षमता का स्तर भी बदल सकता है। यह असंभव नहीं कि क्षुद्र -जीव अनभ्यस्त रति-क्रिया अपनाने लगे और सुविकसित प्राणी, जिनमें मनुष्य भी सम्मिलित हैं, अकेला, बिना सहचर के, बिना रति-क्रिया के, सुयोग्य सन्तान का उत्पादन कर सकें।

पेप्टाइड रसायन का यह विदित गुण है कि गरम करने पर वह पानी में घुलता है। और ठंडा होने पर छोटे पिण्ड की शकल धारण कर लेता है। बाहर से उपयुक्त रासायनिक भोजन मिले और उपयुक्त ऊर्जा का वातावरण मिले, तो उनमें विभाजन की प्रजनन प्रक्रिया आरम्भ हो जाती है। इसी आधार पर जीवशास्त्री कृत्रिम जीवाणु उत्पन्न करने और उनसे वंश-वृद्धि का उपक्रम आरम्भ कराने के लिए प्रयत्नशील हैं।

आये दिन ऐसी घटनाएँ सामने आती रहती हैं, जिनमें नर के भीतर नारी के अथवा नारी के भीतर नर के यौन-चिह्न विकसित होते चले गये और स्थिति यहाँ तक जा पहुँची कि आपरेशन करके उनका लिंग परिवर्तन करना पड़ा। यह परिवर्तन इतना सफल रहा कि उन्होंने जोड़ा बनाया और सफल दाम्पत्य जीते हुए सन्तानोत्पत्ति भी की।

मनोविज्ञान और अध्यात्म-विज्ञान के आधार पर यह सिद्धान्त मान्यता प्राप्त है कि लिंग परिवर्तन के लिए मानवी प्रयत्न बहुत हद तक सफल हो सकते हैं। बहुत कुछ परिवर्तन तो इस जन्म में भी हो सकता है। अन्यथा अगले जन्म में तो वह सम्भावना शत-प्रतिशत साकार हो सकती है। पुराणों में इस प्रकार के अगणित उदाहरण भरे पड़े हैं, जिनमें व्यक्तियों ने अपने संकल्प-बल एवं साधना-उपक्रम के द्वारा लिंग परिवर्तन में सफलता प्राप्त की हैं। इन दिनों भले ही वे उपचार विस्मृत-विलुप्त हो गये हों– इससे क्या– तथ्य तो जहाँ के तहाँ ही रहेंगे। आत्मा के संकल्प सुदृढ़ और प्रयत्न यदि प्रखर होवे, तो किसी भी आत्मा के लिए अपना वर्तमान लिंग बदल लेने की पूरी-पूरी सम्भावना हो सकती है।

कभी-कभी किन्हीं पुरुषों में नारी प्रकृति और नारियों में पुरुष प्रकृति पाई जाती है। उनके हाव-भाव, स्वभाव एवं आचरण में इस प्रकार का अन्तर स्पष्ट दिखाई पड़ता है। इसका एक मात्र कारण यह है कि पिछले दिनों उनकी मन्द इच्छा लिंग परिवर्तन की तो रही, पर उनमें प्रौढ़ता-प्रखरता नहीं आई। यदि उनका संकल्प बल और प्रयत्न बलशाली रहा होता, तो उन्हें इस प्रकार के आधे-अधूरे परिवर्तन का सामना न करना पड़ता। इतने पर भी उनका प्रकृति परिवर्तन की दिशा में ही मन चलता रहे, तो यह आशा की जा सकती है कि इस विराम के उपरान्त वे अपनी अभीष्ट मनोवांछा के अनुरूप लिंग परिवर्तन का लक्ष्य अगले जन्म तक पूरा कर लेंगे।

कभी-कभी ऐसी घटनाएँ भी सामने आई हैं, जिनमें पुरुष के शरीर से भी बच्चों का जन्म हुआ है। भले ही वे भ्रूण अविकसित रहे हों और भले ही वे जुड़वा भाई समझे जा सकते हों, पर उत्पत्ति तो नर शरीर से हो ही गई। इन उदाहरणों से यह तो सिद्ध होता ही है कि मात्र नारी के शरीर में ही नहीं– नर कलेवर में भी यह क्षमता मौजूद है कि गर्भ धारण करने से लेकर गर्भ-पोषण तक की क्रिया सम्पादन कर सके। अवसर मिले, तो इस सम्भावना का अधिक विकास भी हो सकता है और नारी की तरह ही नर भी प्रजनन कर्म कर सकने में समर्थ हो सकते हैं।

फ्रांस के एक 17 वर्षीय लड़के जीन जैक्यूस लोरेन्ट को छाती के दर्द की शिकायत थी। डाक्टरों ने फेफड़े का ट्यूमर पाया और उसका आपरेशन किया। डाक्टरों के आश्चर्य का ठिकाना न रहा, जब उन्होंने ट्यूमर के स्थान पर 3 पौण्ड 15 ओंस वजन का एक विकसित अंडों वाला बच्चा निकाला।

ब्रिटिश पैथोलोजिस्ट ऐसोसिएशन ने एक भ्रूण को लड़के का जुड़वा भाई बताया है, जो गर्भकाल में किसी प्रकार उसके शरीर में प्रवेश कर गया और वहीं बढ़ता- पलता रहा।

इसी प्रकार की एक घटना बरेली (उ.प्र.) के जिला अस्पताल में हुई। बदायूँ निवासी एक दो वर्ष के बालक का आपरेशन पेट का ट्यूमर समझकर किया गया। पेट खोलने पर उसमें एक विकसित भ्रूण पाया गया, जिसे अधिक अन्वेषण के लिए सुरक्षित रख लिया गया।

नर के शरीर से बच्चे की उत्पत्ति की अनेकों घटनायें बहुचर्चित हैं और उनके विवरण पत्र-पत्रिकाओं में विस्तारपूर्वक छपे हैं। सन् 1956 में टोक्यो अस्पताल में एक किशोर लड़के के पेट का आपरेशन करके उसमें से 11 ओंस का अपरिपक्व बच्चा निकाला गया था। बच्चे की टाँगें, बाल एवं शरीर के अन्य भाग स्पष्ट थे। उसी साल सन् 1956 में उत्तर वियतनाम के हनोई अस्पताल में एक पुरुष का आपरेशन करके बच्चा निकाला गया था, जो जन्मते समय रोया भी था।

सन् 1954 में पाकिस्तान में बहावलपुर नगर के विक्टोरिया अस्पताल में डाक्टरों ने एक पुरुष का पेट चीरकर बच्चा निकाला था।

इन तथ्यों पर गहराई से विचार किया जाय, तो इस निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ता है कि नर और नारी के कलेवर करती और बदलती रहने पर भी, आत्मा की स्थिति दोनों से ऊपर है अथवा उभयपक्षीय सम्भावनाओं से भरपूर है। जो आज नर है, कल नारी बनना पड़ सकता है। इसी प्रकार नारी को नर की भूमिका सम्पादित करने का अवसर भी मिलता है। जब यह आवरण सामयिक है, तो नर और नारी के बीच ऐसी दीवारें क्यों खड़ी किये जायें, जिनमें अधिकार और कर्तव्य की खाई खड़ी की जाय। किसी को छोटा, किसी को बड़ा माना जाय। दोनों को मिल-जुलकर ऐसी समाज-व्यवस्था बनानी चाहिए, जिससे बदलते रहने वाली लिंगीय परिस्थिति में किसी आत्मा को असुविधा अथवा अन्याय का अनुभव न करना पड़े। 


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