
हमारे जीवन का सूर्य अस्त तो होगा ही
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आमतौर से लोग सदा जीवित रहने भर की बात सोचते हैं, मरण तो एक प्रकार से विस्मृत ही हो जाता है। यदि जीवन इकाई के दोनों सिरे ध्यान में रहें, तो ही मध्यवर्ती भाग का श्रेष्ठतम सदुपयोग करने की बात को महत्त्व दिया जाता रहेगा और ऐसा कुछ किया जाता रहेगा, जिसके आधार पर मनुष्य जन्म जैसी महान् उपलब्धि को सार्थक बनाया जा सके।
हम समर्थ हों, स्वस्थ हों, सो ठीक है, पर कल नहीं परसों मृत्यु का वरण तो करना ही पड़ेगा। सूर्य जैसी समर्थ सत्ता के भी मरण की रूपरेखा विज्ञों ने बनाकर रख दी है, फिर हमारी तो हस्ती ही क्या है?
अपने सूर्य का भूत, वर्तमान और भविष्य जानने के लिए खगोलवेत्ताओं ने गहरे अनुसन्धान किए हैं। इस संदर्भ में जार्ज गेमो, एडिंगटन, फीडलर, हेनबेधे, फान वित्सकर के निष्कर्षों को अधिक प्रामाणिक माना गया है।
उन खगोलवेत्ताओं के अनुसार सूर्य में हाइड्रोजन का विशाल भण्डार है। उसके भीतरी भाग में जो जटिल हलचलें हो रही हैं, उनके कारण प्लाज्मा स्थिति के अंतर्गत प्रोटीन कणों की मात्रा बढ़ रही है। वे ही प्रकाश और ऊर्जा के रूप में धरती पर पहुँचते हैं, सूर्य में भरा हाइड्रोजन धीरे-धीरे हीलियम में बदलता जा रहा है।
सूर्य की आयु लगभग 500 करोड़ वर्ष है। उसमें जो परिवर्तन हुए हैं, उससे धरती की स्थिति में भारी परिवर्तन हुए हैं। वे शीत, ताप, वर्षा, वनस्पति एवं प्राणियों की स्थिति से ही सम्बन्धित नहीं है, वरन् प्राणियों के विशेषतया मनुष्यों के मानसिक स्तर को भी उसने बहुत प्रभावित किया है। मनुष्य के चिन्तन एवं उत्साह का विस्तार ही नहीं, स्तर भी सौर हलचलों से प्रभावित हुआ है। ठंडे होते चलने पर नक्षत्रों का रंग प्रायः लाल हो जाता है। अपना सूर्य भी भविष्य में लाल दानव की तरह अत्यन्त भयावह दिखाई देगा। इसके बाद बूढ़ा सूर्य समझना आरंभ करेगा। वृद्ध मनुष्य जिस तरह कुरूप कंकाल भर रह जाते हैं, वही दुर्गति सूर्य की होगी। वह एक कठोर प्लाज्मा पिण्ड की शक्ल में जा पहुँचेगा। उसका घनत्व हमारे पानी की तुलना में पच्चीस लाख गुना अधिक होगा। सिकुड़ते-सिकुड़ते वह पृथ्वी से भी छोटा रह जायेगा। ऐसी स्थिति में उसकी गणना ब्रह्माण्ड के एक नगण्य पिण्ड की स्थिति में बहुत समय तक भले ही बनी रहे, किन्तु उसका कुछ मान-महत्त्व न रह जायेगा। उस स्थिति में पृथ्वी निरन्तर ठंडी होते-होते शून्य में 325 डिग्री फारनहाइट से नीची स्थिति में चली जायेगी। तब सूर्य और पृथ्वी पर नीरवता भरी मृत्यु का साम्राज्य छाया रहेगा।
यों मनुष्य को शतायु कहा गया है, पर वर्तमान परिस्थितियों में कौन उतने समय तक जी पाता है। आमतौर से लोग आधी पौनि आयु ही भोग पाते हैं। इस बहुमूल्य अवसर का सदुपयोग करने के लिए यह दृष्टिकोण सजग रहना चाहिए कि जीवनकाल तेजी से समाप्त हो रहा है और मरण तेजी से निकट दौड़ता चला आता है। जो समय बीत गया, सो गया, उसके लिए पछताने से कुछ लाभ नहीं। जो शेष है, उसी के सदुपयोग पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए। यह सम्भव तभी है, जब हम सूर्य के मरण की जैसी मरण कुण्डली दैवज्ञों ने बनाई है, उसी तरह अपने मरण को भी मूर्तिमान् देखें और जो समय बचा है, उसके सदुपयोग के लिए आतुरता उत्पन्न करें।