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Magazine - Year 1973 - Version 2

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त्रिविधि साधना पद्धति का अधिक स्पष्टीकरण

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वानप्रस्थ जीवन के नित्य-कम में ब्रह्मविद्या के तत्व दर्शन का स्वाध्याय अनिवार्य रूप से जुड़ा रहना चाहिए। साथ ही योगाभ्यासी तपश्चर्या का क्रम भी स्नान, भोजन, शयन की तरह प्रभातकालीन आवश्यक क्रिया-कलाप में सम्मिलित रहना चाहिए। आत्मिक प्रखरता बनाये रहने और बढ़ाते रहने के लिए यह दोनों प्रयोग सामान्य स्वास्थ्य रक्षा के लिये आहार और विहार की सुव्यवस्था बनाये रहने की भाँति ही आवश्यक माने जाने चाहिये, वातावरण में अनैतिक और अवाँछनीय विषाक्तता की मात्रा इतनी बढ़ गई है कि यदि उसका नित्य निवारण परिशोधन न किया जाय तो किसी भली चंगी मनोभूमि का ढलान पतनोन्मुख दिशा में चल पड़ेगा। प्रवाह की धार काटने के लिये मल्लाह अपने डाँड़े मुस्तैदी के साथ लाते रहते हैं तब कहीं नाव इस पार से चल कर उस पार तक पहुँचती है। प्रमाद बरतें तो नाव कहीं से कहीं जा पहुँचेगी। स्वाध्याय द्वारा विचारणा में सहज ही घुस पड़ने वाली विषाक्तता का समाधान होते रहने पर ही सामान्य मानसिक स्वास्थ्य की सुरक्षा स्थिर रखी जानी सम्भव है।

स्वाध्याय को तप कहा गया है। तप की ऊष्मा मलीनताओं के जलाती है। आत्म-चिंतन आत्मसुधार, आत्मनिर्माण और आत्मविकास के क्षेत्रों में प्रखरता उत्पन्न करने के लिए स्वाध्याय से बढ़ कर और कोई सहायक साधन कदाचित ही होगा। इसके लिए ऐसी पुस्तकों का सहारा लेना चाहिए जो उपरोक्त प्रयोजन सही रूप से पूरा कर सकने की क्षमता से पूर्ण हों। प्राचीन ग्रन्थों का कथा पुराणों का पृष्ठपेषण लकीर पीटने की तरह करते रहें तो उससे समय तो बहुत नष्ट होगा पर हाथ कुछ न लगेगा। भाषा संस्कृत हो या हिन्दी, मराठी। पुस्तक पुराने जमाने की लिखी हुई यो या अब की, इससे कुछ बनता बिगड़ता नहीं। अध्यात्म तथ्यों को सही रूप में प्रस्तुत करने की क्षमता जिस भी साहित्य में हो वह स्वाध्याय के लिए उपयुक्त माना जाना चाहिए।

अधिकारी मार्गदर्शकों के सान्निध्य में क्रमबद्ध शिक्षण यों अधिक अग्रगामी रहता है पर वैसी सुविधा उन श्रेय साधकों को निरन्तर नहीं मिल सकती जिन्हें लोकमंगल की सेवासाधना के संदर्भ में परिव्राजक क्रम-व्यवस्था अपनानी है। आज यहाँ ता कल वहाँ, हर जगह अधिकारी मार्ग दर्शक कहाँ हैं? ऐसी दशा में सद्ग्रन्थों का , स्वाध्याय ही सत्संग की- तत्वदर्शी प्रशिक्षण की आवश्यकता पूरी कर सकता है। एकान्त अवकाश के समय मनन चिन्तन भी इसी प्रयोजन की पूर्ति करता है। जो पढ़ा समझा गया हे उस पर गंभीरता पूर्वक विचार करना-मान्य आदर्शों का जीवन में उतारने की विधि-व्यवस्था सोचना, यही है मनन चिन्तन का स्वरूप। स्वाध्याय, सत्संग, मनन, चिंतन के चार चरण ब्रह्मविद्या की उपलब्धि के आधार माने गये हैं। इन्हें साधना परायण जीवन क्षेत्र में प्रवेश करने वाले स्वयमेव भी अपने में तो साधना की आवश्यकता पूरी करते रह सकते है।

योगाभ्यास की दृष्टि से गायत्री महामन्त्र की साधना सर्वोत्तम है। इन चौबीस अक्षरों के शब्द गुँथन में एक से एक बढ़ कर उच्चस्तरीय शक्ति केन्द्रों का समावेश है। भावना और विचारणा के परिशोधन का उद्देश्य यह महामन्त्र आश्चर्यजनक रीति से सम्पन्न करता है। यों साधारण उपासना में इस महामंत्र का जप और परम तेजस्वी सविता-देवता का ध्यान-रोम-रोम में ज्योति किरणों का अवतरण, समावेश की अनुभूति के साथ किया जाता रहे तो उससे भी आत्मिक प्रगति में बड़ी सहायता मिलती है।

इससे आगे बढ़कर पाँच कोशों की साधना है। लययोग-प्राणयोग- विन्दुयोग-नादयोग-ऋजुयोग के आधार पर ऐसा अतिरिक्त साधनाक्रम भी बनाया जा सकता है जो क्रमिक रूप से चक्रबेधन, कोशों के अनावरण की दिव्य सम्भावनाओं का मूर्तिमान करता रहें यह गायत्री महाशक्ति की उच्चस्तरीय साधना ही है जिसे पौराणिक भाषा में पंचमुखी वेदमाता की पंचदेव साधना कहते हैं। भवानी, गणेश, ब्रह्मा, विष्णु, महेश को पाँच देव माना है तात्विक दृष्टि से उन्हें सर्वसमर्थता, प्रज्ञा प्रतिष्ठा, सृजन, अभिवर्धन और विवर्तन का प्रचण्ड क्षमता-सम्पन्न आत्मबल भी कह सकते हैं।

उपनिषदों की भाषा में गायत्री की उच्चस्तरीय साधना ही यम द्वारा नचिकेता को बताई गई रहस्य पूर्ण पँचाग्निविद्या है। पाँच अग्नियाँ अनन्य शक्ति के ऊर्ध्व लोकों तक फैली हुई ज्योतिर्मयी ऊर्जा ही है। उन्हें ब्रह्मतेजस् के रूप में साधना परायण लोग धारण करते हैं और आत्मा में परमात्मा का अवतरण सम्भव एवं प्रत्यक्ष बनाते हैं। यह साधनाएं हर साधक के लिए उसके स्तर के अनुरूप थोड़ी हर-फेर जैसी होनी स्वाभाविक है। उनकी आरंभिक शिक्षा प्राप्त कर लेने के पश्चात् परिव्राजक साधक उस विधान को स्वयमेव अग्रगामी बनाते रह सकते हैं।

प्रातः ब्रह्ममुहूर्त में उठकर योगसाधन का क्रम एक घंटा क्रमबद्ध रूप से चलता रह सके तो सामान्यतया पर्याप्त कहा जा सकता है। स्वाध्याय के लिए अवकाश का कोई एक घण्टा दिनचर्या में सम्मिलित रहना चाहिए। इन्द्रियों का दमा और मनोगत लिप्साओं का शमन करते हुए संयम, सादगी और तितीक्षा भरी जीवनचर्या नियमित निर्धारित करली जाय तो उसे सामान्यतया उपयोगी तपश्चर्या कहा जा सकता है। आलय और प्रमाद को-असंयम और असंतुलन को निरस्त करके स्वभाव एवं अभ्यास को परमार्थ परायण जीवन के उपयुक्त विनिर्मित करना यही तो तपश्चर्या का मूल भूत उद्देश्य है। किसे, किस प्रकार की कितनी, तपश्चर्या किस स्थिति में कैसे करनी चाहिए। इसमें भी शारीरिक, मानसिक एवं क्रियाकलाप संबन्धी परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए भिन्नता रहेगी। इस तप संदर्भ में भी योगाभ्यास की तरह ही निर्धारण करते समय किसी अनुभवी मार्गदर्शक से परामर्श कर लिया जाय तो अधिक सही अधिक उपयुक्त क्रम व्यवस्था बन सकती हैं।

स्वाध्याय और योगाभ्यास में सामान्यतया एक एक घण्टा लगाने के उपरान्त शेष समय उस युग के वानप्रस्थ को लोक मंगल की सेवासाधना में लगाना चाहिए। विश्वमानव का भावनात्मक स्तर ऊँचा उठाने के लिये किये गये प्रयासों को विशुद्ध रूप से पूजा आराधना में ही सम्मिलित किया जाना चाहिये। संसार में उत्कृष्टता का अभिवर्धन ऐसा कर्मयोग है जिसे साधना क्षेत्र में प्रचलित किसी भी क्रिया कलाप से हलके स्तर का नहीं गिना जा सकता। वरन् सच तो यह है कि युग धर्म के अनुरूप यही सर्वोत्तम तपश्चर्या है। जप तप से तो अकेले अपना ही कल्याण होता है किन्तु लोकमंगल में निरत ब्रह्मपरायण महामानव तो अपनी यह पुण्य साधना भी पद दलित मानवता के उत्कर्ष में समर्पित कर देते हैं। उदारता को देखते हुए लोकसेवकों को किसी ज्ञानसाधक, योगी तपस्वी, भगवद् भक्त से कम नहीं वरन् बहुत अधिक ऊँचा ठहराया जायगा जो अपने प्रयास का लाभ स्वयं न उठा कर विश्व कल्याण के लिए समर्पित करता है उसकी आन्तरिक महानता निश्चित रूप से अधिक और अति प्रशंसनीय कही जायगी।

योग साधनाओं में तीन ही प्रधान हैं। देव समुदाय में ब्रह्मा-विष्णु, महेश की जिस प्रकार प्रधानता है उसी प्रकार भावयोगों में तीन ही प्रमुख है। (1) ज्ञानयोग (2) भक्तियोग (3) कर्मयोग। वानप्रस्थ साधना में इन तीनों का समुचित समावेश होना चाहिये। ब्रह्मविद्या परायण होकर स्वाध्याय, सत्संग, मनन चिन्तन के माध्यम से अपनी विचारणा को उत्कृष्टतम स्तर कर उठाना ज्ञानयोग है। योगाभ्यास और तपश्चर्या को गायत्री शक्ति स्रोतों पर अवलम्बित साधना क्रम को भक्तियोग करना चाहिए। लोकमंगल में सहृदय किन्तु साहसी शूर-वीरों की तरह प्राणपण से जुट पड़ने वाली कर्मनिष्ठा को श्रेष्ठतम कर्म योग कहा जा सकता है। इस प्रकार वानप्रस्थ जीवन में तीनों प्रधान योगों में निरन्तर संलग्न रहने की विधि व्यवस्था है। आहार, निद्रा, स्नान जैसे अनिवार्य शरीर धर्म का पालन करने के उपरान्त जो समय बचता है उसे परमार्थ प्रयोजनों में लगाने वाला साधन अनवरत रूप से भगवद्भक्ति में निरत कहा जा सकता है। उसे सच्चा वैरागी, योगी, तपस्वी, भक्त अथवा ऋषिकल्प जो भी कहा जाय, सार्थक कथन ही होगा।

लोकमंगल की साधना की यों असंख्य धारा दिशाएं हो सकती हैं। जनता की आर्थिक समृद्धि, स्वास्थ्य संवर्धन जल व्यवस्था, धर्मशाला, मन्दिर, तालाब, प्याऊ, अस्पताल जैसे कितने ही उपयोगी कार्य भी लोककल्याण कारक ही कहे जायेंगे पर आज की आपत्तिकालीन स्थिति में हमारा पूरा ध्यान उन्हीं प्रयासों पर केन्द्रित होना चाहिए जो विचारों के झकझोरने-भ्रान्त-धारणाओं और विकृत मान्यताओं एवं निकृष्ट अभिरुचियों से जनमानस को विरत कर सकने में समर्थ हो सकें।

हमें यह हजार बार सोचना और समझना चाहिए कि चिन्तन को उत्कृष्टता की दिशा न मिली तो बढ़ी हुई सम्पत्ति का परिणाम विपत्ति के अतिरिक्त और कुछ न होगा। बढ़ा हुआ शरीर-बल गुण्डागर्दी की, बढ़ा हुआ धन व्यसन-व्यभिचार की, बढ़ा हुआ बुद्धिबल-उपद्रव उत्पातों की अभिवृद्धि करेगा। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण हम आज के शरीरबल सम्पन्न धनी मानी, सत्ताधारी और सुशिक्षितों की गतिविधियों को देखकर सहज ही प्राप्त कर सकते हैं। सद्भाव संवर्धन के लिए प्रयास न किये जाने का ही यह परिणाम है जो सम्पत्तिवानों और विभूतिवानों द्वारा अपनाई गई विघातक दुरभि संधियों के रूप में सामने प्रस्तुत है। वैभव और वर्चस्व का दुरुपयोग देख कर कई बार खीज में यह कहना पड़ता है कि इन बलवानों धनवानों और विद्यावानों की अपेक्षा रुग्ण, निर्धन एवं अनपढ़, समाज के लिये कम हानिकारक है।

लोक सेवा के नाम पर आज सरकारी और गैर सरकारी प्रयत्न भौतिक सुविधाओं के अभिवर्धन में ही पूरे जोर-शोर से लगे हुए हैं। विचार परिष्कार की महती और प्रधान आवश्यकता की ओर किसी का भी ध्यान नहीं है। इस स्थिति में वानप्रस्थों की सेवा साधना की दिशा, मात्र एक ही दिशा में चलनी चाहिए-विचार शोधन, भाव परिष्कार-विवेक संवर्धन, विचार क्रान्ति एवं ज्ञानयज्ञ का यही लक्ष्य हैं। उन्हें इसके अतिरिक्त इधर नहीं देखना चाहिए और इमारतों रूप में दीख पड़ने वाली विज्ञापन बाजी के आकर्षण बनते हुए मानवता की ठोस सेवा में प्रवृत्ति होना चाहिए। भले ही उस सेवा साधना का दृश्य रूप सामने न आने के कारण लोकेषणा से वंचित रहने का त्याग ही क्यों न करना पड़ता हो। जब घन और कामुकता की वित्तैषणा और पुत्रेषणा छोड़ दी तो वानप्रस्थों की लोकेषणा के लिए दृश्यमान भौतिक सुविधा संवर्धक कार्यों से ललचाकर ज्ञानयज्ञ से विमुख होने का उथलापन क्यों अपनाना चाहिए।

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