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Magazine - Year 1973 - Version 2

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वानप्रस्थ एक शास्त्र मर्यादा-धर्म मर्यादा

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वानप्रस्थ परम्परा की महत्ता शास्त्रकारों ने एक स्वर में गाई है ओर भावनाशील धर्मप्रेमियों को निर्देश दिया है कि वे ब्रह्मचर्य, और गृहस्थ के जीवन के पूर्वार्ध में पूरे कर ले। इसके उपरांत ढलती आयु को परमार्थ प्रयोजन के लिये समर्पित कर दे। उत्तरार्ध का श्रेष्ठतम सदुपयोग शास्त्रकारों ने यही बताया है कि उसे ज्ञान-साधना तपश्चर्या एवं लोकमंगल की परिव्राजक प्रक्रिया में लगते हुए आत्मकल्याण एवं विश्वकल्याण का प्रयोजन पूरा कर ले। परिवार के बचे हुए उत्तरदायित्व बड़े ओर स्वावलम्बी लड़कों को सौंपे जा सकें इसके लिये उन्हें पहले से ही प्रशिक्षित करना चाहिए। तभी वे इस भार को उचित रीति से वहन कर सकने की मनःस्थिति में हो सकेंगे।

वानप्रस्थ परम्परा के संबंध में शास्त्रकारों के कुछ निर्देश इस प्रकार है -

ब्रह्मचर्याश्रमं समाप्य गृही भूत्वा बनी भवेत्। बनी भूत्या प्रब्रजेत्। - शतपथ ब्राह्मण

ब्रह्मचर्य आश्रम पूरा होने पर गृहस्थ में प्रवेश करें। गृहस्थ की अवधि पूरी होने पर वानप्रस्थाश्रम में प्रवेश करे और धर्म प्रचार के लिए परिभ्रमण करें।

एवं गृहाश्रमे स्थित्वा विधिवत् स्नातको द्विजःबने बसेत् नियतो यथावत् विजितेन्द्रियः। -मनु.

विद्याध्ययन और गृहस्थ के उपरान्त इन्द्रियजयी हो कर वानप्रस्थ में प्रवेश करे।

गृहृस्थस्तु यदा पश्येत् वाली पलितमात्मनः अपत्यस्यैव चापत्यं तदारण्यं समाश्रयेत्। -मनु 912

जब गृहस्थ को यह दिखाई पड़े कि चमड़ी पर झुर्रियां पड़ने लगी-बाल सफेद होने लगे और पुत्र भी गृहस्थ वन गया तो उसे घर छोड़ कर वानप्रस्थ में प्रवेश करना चाहिए।

पुत्रे सर्व समासज्य वसेन् आग्रामास्य माश्रिताः। -मनु 41246

गृहस्थ उत्तरदायित्व पुत्र पर छोड़ कर ममता रहित होकर वनवास के लिए चले पड़े।

गृहस्थः सोमयाज्ञे पुत्रं पौत्रं च दृष्टवात पुत्रादीन गृहे संस्थाप्य मौयंडम कृत्वा। प्राजापत्यं कृच्छचरेत्। बसन्ते शुक्ल पक्षे पुण्यर्क्षो पलिया सार्धवनाज्ञम याति।

वैखानस गृहसूत्र 61219

धर्मकृत्यों में निरत गृहस्थ बिताने के बाद पुत्र के पुत्र हो जाने पर संतान को गृह भार सौंप कर मुण्डन प्रजापत्यकृच्छ करते हुए शुभ समय में वानप्रस्थ प्रवेश करें।

जीवनस्थ चतुर्थाराँ परभार्थे नियाजयेत्। वैराग्यं विषयात्कृत्वा लोभ मोहौ परित्यजेत्॥

जीवन का चतुर्थांश परार्थ में व्यतीत करे। विषय से वैराग्य की ओर अग्रसर होकर लोभ और मोह को त्याग दे।

अनासक्तेः सुकर्त्तव्ये ममता बन्धन। स्वयम्। कृत्वा परिणतं युक्तया स्वाध्याय निरत भवेत्॥

सत्संगे चात्मसंलग्नो भवेत् सार्थक जीवनः। गृहस्योत्तरदायित्वयं प्रहृष्टमनसा श्रियेत्॥

ममता के बन्धन को अनासक्त कर्त्तव्य में परिणत कण स्वयं स्वाध्याय, सत्संग, उसी प्रकार आत्मचिन्तन है संलग्न होवे। यह वानप्रस्थ आश्रम की रीति-नीति है।

स्कन्धरोरुत्तरे स्वस्य योग्याधिकारिणः शनैः। मनसः वामना तृष्णे द्वेष दुर्भावने तथा॥

दूरी कृत्य भवल्लग्नः साधनोपा सनादिषु। निरतो लोक सेवायाँ स्वेन्द्रियाणि नियन्त्रयेत्॥

घर का उत्तरदायित्व प्रसन्नचित से अपने योग्य उत्तराधिकारी के कंधों पर डाल दे। वह वानप्रस्थ में प्रवेश करें।

मन से वासना, तृष्णा, द्वेष, दुर्भाव दूर कर अपनी साधना उपासना आदि में संलग्न होवे। लोक सो में तत्पर होता हुआ अपनी इंद्रियों का नियन्त्रण करे।

सदाध्यात्मिक सम्पतिः संचयेल्लोक सेवया। समयस्य विशिष्टाँशं शुभकार्ये नियोजयेत्॥

विश्वं मत्वाऽऽत्मरुपं यत् शिक्षक वद् गृहाद्धहिः। जीवनस्यास्य साफल्यं वैराग्योपरितिष्ठति॥

वानप्रस्थ सदैव आध्यात्मिक सम्पत्ति को लोक सेवा से संचित करे। विश्व को आत्मस्वरूप मानकर शिक्षक की भाँति घर से बाहर समय का विशिष्टाश शुभ कार्य में लगावे क्योंकि इस जीवन की सफलता निस्वार्थ भाव पर निर्भर है।

निवृत्ति प्रधान वानप्रस्थ को स्वार्थ मुक्ति तथा दूसरी अध्यात्म विभूतियों का केन्द्र विन्दु माना गया इस संदर्भ में महर्षि चरक का मन्तव्य माननीय है।

निवृत्त्किपवर्गस्तत्पकं तत्प्रशात्तं तदत्रकं तद् ब्रह्म समीक्षः तत्रमुमुक्षूणाँमुदयनानि व्याख्यास्यामः। चरक श. 5190

निवृत्ति ही अपवर्ग है यही अपवर्ग श्रेष्ठ है यही शान्त है यही कभी कष्ट न होने वाला अक्षर है यही ब्रह्म है यही मोक्ष है इसी में मुमुक्षु, आत्माओं के लिए अभीष्ट प्राप्ति का मार्ग है।

वानप्रस्थ जीवन का क्रिया-कलाप, उद्देश्य ओर आचार व्यवहार क्यों हो? इस प्रश्न का उत्तर अनेक धर्म शास्त्रों में विस्तार पूर्वक बताया गया है।

विमुक्तादार संयौगे विमुक्ताः सर्व संकर्रः। विमुक्ता सर्व पापैश्च चरन्ति मुनयो बने।

महाभारत अनुशासन पर्व काम सेवन को छोड़ कर, पापोँ का प्रायश्चित कर के-वानप्रस्थ बन प्रदेश में निवास करे और परिभ्रमण करता रहे।

एतासाँ ऋषि वनस्थानामूर्चीणामिक सागरात्। विविधानाँ विचित्राणाँ लतानमिव माधवे। भव्य जितमनोमोहा, दृष्ट लौक परावराः। जीवनमुक्ता भ्रमन्तीह प्रबुद्धावा उदुम्वराः।

सागर में उत्पन्न हुई लहरों की भाँति उद्यान में उत्पन्न हुई लताओं की भाँति-वानप्रस्थ ऋषि जीवन मुक्त बन कर रहते हैं और जगत का कल्याण के लिए भ्रमण करते हैं।

बनेषुच विहृत्यैव तृतीय भाग मायुष। चतुर्थमानुषो भागं त्यक्त्वा संगात्परिव्रजेन्।

आयु के तीसरे भाग का आरम्भ होने पर वानप्रस्थ ग्रहण करे। आत्म-ज्ञान के लिए यह सुअवसर अभ्यास के उपयुक्त ही है।

वानप्रस्थ ग्रहण करते समय जो प्रतिज्ञा की जाती है उस संकल्प में उस आश्रम के उद्देश्य प्रयोजन एवं कार्यक्रम का स्पष्ट निर्देश है-

न्यायं बदामि उभयलोका हतं गदामि। लाकौ अतीत्य परमार्थ युज्ञ स्वतीमि॥

शंसामि यम्ननु निर्देज्ञन आर्या मेव। गृहपवीत हृष्ट हृदयाः तप अर्थार्य वर्याः।

मैं न्याय का अनुसरण करते हुए भाषण करूंगा। लोक और परलोक सुधारने वाले प्रवचन करूंगा। आत्मकल्याण और समाज कल्याण में निरत रहूँगा। समष्टि के श्रेय साधन में लगूँगा। यज्ञादि सत्कर्मों का उत्थान करूंगा। उत्साह पूर्वक आर्य-धर्म का विस्तार करूंगा।

आनये तमारभस्व सुकृताँ लोकमपि गच्छतु प्रजानन्। तीर्त्वा तमाँसि बहुधा महान्त्यजो नाकमाक्रमताँ तृतीयाम्। अथर्व 615124

ब्रह्मचर्य आश्रम में बल बुद्धि-गृहस्थ आश्रम में परिवार निर्माण के उपरान्त तीसरे वानप्रस्थ आश्रम में प्रवेश करता हूँ। तपश्चर्या और ज्ञानार्जन सहित परमार्थ साधन करूंगा।

पुरुषों की तरह ही महिलायें भी वानप्रस्थ में प्रवेश कर सकती है। पति पत्नी दोनों साथ इस पुण्य प्रयोजन में संलग्न हो सके तो उसकी शास्त्रकारों ने पूरी छूट दी है। यो पत्नी से कष्टसाध्य तपस्वी जीवन के लिए आवश्यक तितीक्षा न हो- शिक्षा, योग्यता और भावना के अभाव में उस महान व्रत धारण में कठिनाई अनुभव हो तो घर रहना भी अच्छा है। पति को एकाकी जीवन साधना करने में सुविधा हो तो उन्हें वैसा करने देना चाहिए।

वैरवनसा नाम पत्नी वाऽपत्नी वा शुभे क्षणे तीव्रेण तपसा युक्ता दीप्ति मन्त स्वतेजसा। -वैखानस गृह्यसूत्र

वैखानस- वानप्रस्थ- पत्नी सहित अथवा वनवास निवास करते हैं। तीव्र तपश्चर्या करते हैं और आत्म-तेज को करते हैं।

संत्यज्य ग्राम्य माहारं सर्व चैव परिच्छदम् पुत्रेषु भार्या निक्षिप्य बन गच्छेत्सहैववा। मनु 913

रजोगुणी आहार बिहार छोड़ कर वानप्रस्थी जीवन में प्रवेश करे। पुत्रों पर पत्नी की जिम्मेदारी सौंप दे अथवा उसे भी साथ ले जाय।

विधवाएं और कुमारियाँ भी उपयुक्त अवसर पर वानप्रस्थ ले सकती हैं। कुन्ती विधवा थी, किन्तु अपने जेठ जिठानी धृतराष्ट्र और गान्धारी के वानप्रस्थ लेने पर वे स्वयं भी वानप्रस्थी बन गई और उनका सहयोग करने के लिए स्वयं भी उनके साथ रही। इसकी तैयारी करते हुये उन्होंने अपने पुत्र युधिष्ठिर को अपना वानप्रस्थ संकल्प व्यक्त करते हुए कहा -

श्वश्रू श्वशुरयोः कृत्वा श्रुश्रूषाँ वन वसिनोः तपसा शोषयिष्यामि युधिष्ठर कलेवरम्। -महाभारत

हे युधिष्ठिर, अब मैं वनवासी सार-ससुरवत (जैठ-जिटानी की सेवा करके तपस्वी जीवन व्यतीत करूंगी। उनने भी वनवास में ही अपना जीवन तप पूर्वक बिताया।

कुमारी कन्यायें भी परिपक्व आयु में वानप्रस्थ ले सकती है तपस्विनी सुलभ का उदाहरण इस आर्ष पद्धति की स्पष्ट कर देता है।

तपस्विनी सुलभ ने राजा जनक को अपना परिचय देते हुए कहा-

साहं तस्मिन् केलेजाता भर्तर्यसति याद् विधे विनोतावान प्रस्थेषु चरार्भ्यका मुनिव्रतम्। -महाभारत

मैं कुलीन जन्मी। योग्य पति न मिलने से विवाह न हो सकता। तब मैंने वानप्रस्थ की दीक्षा लेली। अब मैं मुनिव्रत धारण करके परिव्राजक बन कर विचरण करती हूँ।

वानप्रस्थ को एकान्त नदी तट, पुण्य-तीर्थ नगर ग्राम के न अति समीप न अति दूर प्राकृतिक वातावरण में तप साधना करने के लिए निर्देश किया है। सुयोग्य विद्वान तपस्वियों से अभीष्ट मार्ग-दर्शन, प्रशिक्षण प्राप्त करना चाहिए। इस शास्त्र निर्देश के अनुरूप एवं उपयुक्त स्थान पर ही शांतिकुंज बना है। हिमालय की गोद, गंगा तट, सप्त ऋषियों की तपोभूमि प्रमुख तीर्थ होने के साथ-साथ एकान्त एवं प्राकृतिक वातावरण भी वहाँ तपश्चर्या एवं ज्ञान साधना की दृष्टि से भी अभीष्ट सुविधायें यहाँ सहज ही उपलब्ध है वानप्रस्थी साधना के लिए उपयुक्त स्थान चुनने के संदर्भ में शास्त्रकारों का अभिमत इस प्रकार है-

स्व आश्रम वानप्रस्थोक्त सदाचार विद्वच्छिक्षतः फलमूलोकान्वित तपोवनं प्राप्यरम्यदेशे ब्रह्मघोष समन्वित...... नदी तीर्थे ग्रामेनगरे नातिदूरे वापि सुशोभन कृत्वा। शाँडिल्योपनिषद्

वानप्रस्थ के उपयुक्त आचार व्यवहार को जाने। विद्वानों के आश्रय में ज्ञान साधना करे। फल, मूल, पुष्प, जल की सुविधा वाले नदी तट, तीर्थ आदि पवित्र स्थान में निवास करे। स्थान ग्राम नगर से अति दूर न हो। प्राकृतिक उपयुक्त हो।

सज्जनोचित जीवन यापन करने की प्रक्रिया यही है कि वह अपनी क्षमताओं ओर प्रतिभा को तपश्चर्या में आत्मशोधन आत्म विकास में- लगावें। इस तपश्चर्या से शान्ति सन्तुलन प्रतिभा ओर महत्ता प्राप्त करे। स्वयं बंधनों से छूटे ओर दूसरों को बन्धनों से छुड़ाये। यह सारे प्रयोजन जीवन के क्रमिक विकास को वानप्रस्थ स्तर तक पहुँचाते हुए सहज ही प्राप्त हो सकता है। शास्त्रकारों ने उसी पर जोर दिया है उसी के लिए आग्रह किया है।

सज्जनः तपसोभूयात् तापसः शान्ति माप्नुयात् शान्तिमुच्येत् बन्धेभ्यो मुक्तश्चान्यान् विमोचयेतु। -महाभारत

सज्जन तपस्वी बने तपस्वी शान्ति पावे। शान्त लोग भवबंधनों से मुक्त हों। जीवन मुक्त दूसरों को भवबन्धनों से मुक्त करें।

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