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Magazine - Year 1973 - Version 2

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युग निर्माण परिवार के वानप्रस्थ क्या करेंगे?

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धर्ममंच के माध्यम से लोक-शिक्षण से ही रचनात्मक एवं संघर्षात्मक कार्यक्रमों का भी संचालन हो सकता है। इसका प्रत्यक्ष परिचय युग निर्माण परिवार की चार हजार शाखाओं के क्रियाकलाप को देखकर सहज ही समझा देखा जा सकता है पर्व-संस्कार, जन्म दिन, विवाह दिन, गायत्री यज्ञ, सत्यनारायण कथा, रामायण कथा, रामायण कथा, गीता कथा, नवरात्रि जप अनुष्ठान, प्रभृति, कार्यक्रमों में उपस्थित होने वाली जनता को व्यक्ति निर्माण परिवार निर्माण एवं समाज निर्माण की विविध विधि प्रेरणायें दी जाती है। उस प्रोत्साहन में लोग अपनी अवाँछनीय विचार धाराओं एवं प्रवृत्तियों को बदलते हैं। धर्म-शिक्षण के साथ-साथ दिये गये दिशा निर्देश से क्रमशः जीवन के मोड़ में परिवर्तन होते हैं और उन बदले हुए व्यक्तित्वों द्वारा विभिन्न स्तर की लोकोपयोगी गतिविधियों का सृजन अभिवर्धन सामने आता है।

युग-निर्माण योजना का लक्ष्य बौद्धिक-क्रान्ति, नैतिकक्रान्ति एवं सामाजिक क्रान्ति के त्रिविधि परिष्कार प्रस्तुत करते हुये इसी धरती पर स्वर्ग के अवतरण एवं मनुष्य में देवत्व का उदय करना है। इस प्रयोजन की पूर्ति के लिये आयोजनों की- प्रवचन उद्बोधन की आवश्यकता पूर्ति के लिए छोटे-बड़े धर्मानुष्ठानों एवं सम्मेलन, आयोजनों की व्यवस्था की जाती है। इसके अतिरिक्त साहित्य का भी आधार ज्ञानयज्ञ की लपटें ऊर्ध्वगामी बनाने के लिए पूरे उत्साह के साथ लिया जाता है। कहना न होगा कि इस प्रयोजन की पूर्ति के लिए युग-निर्माण योजना ने अभूतपूर्व एवं अनुपम साहित्य का सृजन एवं प्रकाशन किया है। लगभग 100 दो रुपये मूल्य की 200 पच्चीस पैसा मूल्य की ओर लगभग 100 चालीस पैसा मूल्य की छोटी-बड़ी सर्वांग सुन्दर पुस्तकें छापी है इन 400 पुस्तकों में त्रिविधि क्रान्ति के व्यक्ति निर्माण परिवार निर्माण एवं समाज निर्माण के समस्त बीजाँकुर लहलहाते हुए देखे जा सकते हैं।

युग निर्माण परिवार के सदस्य दस पैसा नित्य अपने निजी घरेलू पुस्तकालय के लिए बचाते हैं उससे सहज ही परिजनों के घर-घर में ज्ञान मन्दि पुस्तकालय बन जाते हैं। एक घण्टा समय दान इन सभी सदस्यों को ज्ञानयज्ञ के लिए देना पड़ता है। इसमें वे झोला पुस्तकालय चलाते हैं अपने परिचय एवं संपर्क-क्षेत्र में घर-घर जाकर यह पुस्तकें पढ़ाने ओर वापस लाने में प्रतिदिन लाखों मनुष्यों को इस सत्साहित्य के पढ़ने का लाभ बिना कुछ खर्च किये मिलता रहता है। इस संदर्भ में कई भाषाओं में प्रकाशित होने वाली अपनी सात पत्रिकाएं भी महत्वपूर्ण कार्य करती है ये लगभग एक लाख छपती है। पर उनके पाठक चार-पाँच लाख से कम नहीं। हर पत्रिका कम से कम पाँच व्यक्तियों द्वारा तो चावपूर्वक पढ़ी ही जाती है।

जहाँ दस सदस्य होते हैं वहाँ शाखा संगठन स्थापित हो जाता है। संगठन अपने सदस्यों में घनिष्ठता उत्पन्न करने-सद्भावना एवं सत्प्रवृत्तियाँ बढ़ाने का प्रयत्न करता है और इस देव समाज को कुछ रचनात्मक कार्य आरम्भ करने के लिए प्रोत्साहित करता है। आम तौर से इस शाखा संगठन के पास एक धकेल गाड़ी होती है। जिस पर लादकर चल-पुस्तकालय घर-घर ले जाया जाता है पुस्तकें पढ़ाने और वापिस लेने का क्रम चलता है। कोई खरीदना चाहे तो इन पुस्तकों को खरीद भी सकता है। दूसरा कार्य हर शाखा में संध्याकालीन 2 घण्टे का युग-निर्माण विद्यालय चलता है, जिसमें मिशन का विचार-पद्धति और कार्य पद्धति से शिक्षार्थियों को अवगत कराया जाता है। शाखाएं ही अपने क्षेत्र में पर्व आयोजन तथा दूसरे प्रकार के समारोह सम्मेलन एवं विचार गोष्ठियों का क्रम चलाती है। व्यक्तिगत एवं सामूहिक उपासना का उत्साह एवं वातावरण उत्पन्न करती है।

प्रचार साहित्य के अंतर्गत 100 विज्ञाप्तियाँ छपी है ओर 40 पोस्टर प्रकाशित किये गये है। विज्ञप्तियाँ मुफ्त बाटी जाती है और पोस्टर उपयुक्त स्थानों पर चिपकाये जाते हैं। अपरिचित लोगों को मिशन की प्रेरणाओं में परिचित कराने के लिए यह दोनों ही माध्यम बहुत ही प्रेरक एवं आकर्षक सिद्ध हुए है। इस अत्यन्त सस्ते प्रचर साहित्य हो लाग उदारता ओर भावनापूर्वक मँगाते एवं वितरित करते हैं। इस आधार पर हर महीने लाखों नये लोगों को प्रेरणा प्राप्त होती है। दीवारों पर आदर्श वाक्य लिखने की उमंग में शाखाओं ने समीपवर्ती ग्रामों की दीवारों को बोलती पुस्तकों के रूप में परिणत कर दिया है यह प्रचार-प्रक्रिया निरर्थक नहीं जाती, वरन् जन साधारण को विदित होता है कि नवनिर्माण का कोई प्रचण्ड अभियान चल रहा है सुधार ओर पुनर्निर्माण की भावना, आकाँक्षा रखने वाले वर्गों को कही कोई समुचित आधार विद्यमान है, यह जानकारी मिलती है-तद्नुसार से स्वयं तलाश करते हैं और मिशन के साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर प्रगति के पथ को ओर भी अधिक प्रशस्त करते हैं।

जिन शाखाओं के साधन अधिक विकसित हो गये है उन्हें समर्थ स्तर की माना जाता है वे स्थानीय उत्तर दायित्व तक सीमित न रहकर समीपवर्ती क्षेत्र को संभालती है इनके पास लाउडस्पीकर, टेपरिकार्डर, रिकार्डप्लेयर, स्लाइड प्रोजेक्टर आदि प्रचार यन्त्र होते हैं यज्ञ आयोजनों युग-निर्माण सम्मेलनों के लिए आवश्यक साधन उपकरण पण्डाल, बिछावन, गैसबत्ती, जुलूस-पोस्टर आदि साधन रहते हैं जिससे छुट-पुट प्रचार समारोह आये दिन सम्पन्न होते रहते हैं और उस क्षेत्र में जागृति बनी रहती है। समर्थ शाखाओं अपने निजी भवन ज्ञान मन्दिर नाम से बनाने आरम्भ कर दिये है उनमें पूजा वेदी पर गायत्री का चित्र अथवा लाल मशाल की प्रतिष्ठापना रहती है इस भावन, पुस्तकालय, वाचनालय, प्रौढ़ पाठशाला, सत्संग आदि के लिए काम आता है।

युग-निर्माण आन्दोलन का कार्यक्षेत्र प्रधानतया देहात है है शहरों में पहले से ही इतने ज्यादा संगठन और आन्दोलन खड़े कर लिए गये है कि इस जंजाल से जनता भ्रमग्रस्त होकर इन कार्यों में अरुचि एवं उपेक्षा प्रदर्शित करने लगी है। अप्रामाणिक वक्ताओं की बकवास से अब प्रचार-तन्त्र शहरों में भी प्रभावशाली नहीं रहा वरन् लोगों को मूर्ख बनाने वाला स्टन्ट कहकर उसे उपहासास्पद ठहराया जा रहा है। सौभाग्य यह है कि यह बीमारी देहातों में नहीं पहुँची। पहुँच भी नहीं सकती थी क्योंकि वहाँ यातायात के साधन, शानदार स्वागत समारोह के उपकरण, सहज ही चन्दा इकट्ठा कर लेने का माध्यम नहीं है देहाती मस्तिष्क में घुस सकने लायक उनके पास कुछ कहने जैसी बात है भी नहीं। ऐसी दशा में तथा -कथित आंदोलनों और संगठनों में देहातें प्रायः अछूती ही पड़ी है। युग-निर्माण आन्दोलन ने अपना कार्यक्षेत्र इसी अछूते किन्तु असली भारत की बनाया है। देहातों में ही उसकी गतिविधियाँ बिखरी हुई दिखाई पड़ेगी। शहरों में तो कदाचित ही कही उसकी चर्चा देखने सुनने को मिले। शहरी अखबारों में भी योजना के प्रचार समाचार छपने की आवश्यकता नहीं समझी जाती। क्योंकि जहाँ उनका प्रचार है वहाँ अपना कार्य क्षेत्र नहीं। जहाँ अपना कार्य क्षेत्र है वहाँ वे अखबार नहीं पहुँचते। अस्तु शहरी चर्चा में नव निर्माण अभियान का वर्णन विस्तार न होना स्वाभाविक ही है। फिर उसकी आवश्यकता भी क्या है? उससे प्रयोजन भी क्या सिद्ध होता है?

देहातों में प्रवचन की अपेक्षा स्वभावतः संगीत अधिक लोकप्रिय होता है इसके लिए पुरानी संगत मंडलियों को नये गीतों का अभ्यास कराकर इस योग्य बना दिया गया है कि वे अपने क्षेत्र में क्षेत्रीय भाषा में नव निर्माण की उमंगे उत्पन्न कर सके। इस दिशा में एक कार्य यह भी है कि स्कूली छात्र-छात्राओं में से जिनके कंठ मधुर हैं, उन्हें प्रेरक कविताएँ याद करा दी गई है।

जहाँ कहीं भी अपने आयोजन होते हैं वहां यह छात्र वर्ग-अध्यापक वर्ग कविता सम्मेलनों का ऐसा आकर्ष उपस्थित कर देते हैं जिससे बिना किसी खर्च के सुनने वालों को मन्त्रमुग्ध रखा जा सके। संगीत विद्यालय जहाँ तहाँ चल रहे है। एकांकी नाटकों का प्रचलन बढ़ रहा है। ऊँचे पेड़ों पर लाउडस्पीकर बाँध कर रिकार्डप्लेयर के रिकार्डों से तथा गायकों द्वारा प्रभातकाल में जो गीत दूर-दूर तक सुने जाते हैं उनसे नई उमंगे उत्पन्न होती है।

यह प्रचारात्मक क्रिया-कलाप हुए रचनात्मक कार्यों में- शाक उत्पादन, वृक्षारोपण, श्रमदान, स्वच्छता, पाठशालाएँ, व्यायामशालाएँ, कुटीर उद्योग जैसे कितने ही कार्य हाथ में लिए गये है ओर आगे बढ़ाये गये है। संघर्षात्मक आन्दोलनों में नशा-निवारण, माँसाहार, निषेध, मृतक-भोज, भूत-पलीत, शकुन-मुहूर्त जैसे कार्य हाथ में लिये गये है। विवाह-शादियों के नाम पर होने वाले भारी अपव्यय, धूमधाम एवं देन-दहेज की प्रथा का उन्मूलन करने के लिए जी तोड़ प्रयत्न किये जा रहे है। सामूहिक विवाहों के उमंग भरे आयोजनों में सम्मिलित होकर लोग एक स्थान पर अनेकों विवाह बिना किसी देन दहेज के करते हैं तो दर्शकों का भी हौसला बढ़ता है और वे बिना खर्च आदर्श विवाह आयोजनों की व्यवस्था अपने-अपने ढंग से बिठाते हैं। कुपात्रों को भिक्षा देने का निषेध करके भिक्षा व्यवसाय के प्रति मुफ्तखोरी का आकर्षण घटा है और वे मेहनत मजदूरी करके पेट पालने के लिए विवश हुए है।

रिश्वत, भ्रष्टाचार, चोरबाजारी, जमाखोरी, खाद्यपदार्थों में मिलावट, भावताव में छल-प्रपंच भरी घिसघिस के विरुद्ध उग्र वातावरण बनाया जा रहा है। राजनैतिक भ्रष्टाचार को रोकने के लिए वोटरों को प्रशिक्षित किया जा रहा है कि वे चरित्रवान, आदर्शवादी और परखे हुये लोगों को ही बोट दिया करे। बाल-विवाह, अनमेल-विवाह के विरुद्ध अपने ढंग के प्रचार एवं संघर्ष चल रहे है। अस्तु इस प्रकार के प्रचलन अब तेजी से घटते-मिटते जा रहे हैं। जन्मजाति के आधार पर बरती जाने वाली ऊँच-नीच और छूत-छात की मान्यता पर करारे प्रहार किये गये है महिलाओं को पुरुषों के समतुल्य स्थिति तक पहुँचाने तक और उन्हें मानवोचित नागरिक अधिकार दिलाने के लिये प्रबल प्रयत्न हो रहे है कन्या पाठशालाओं से लेकर प्रौढ़ महिलाओँ की शिक्षा व्यवस्था के लिए शिक्षण संस्थान प्रायः सभी समर्थ शाखाओं से चला रखे है महिला मंडल अपने अपने क्षेत्र में नवजागरण का ऐसा शंख फूँक रहे है कि नारी को अपने पिछड़ेपन पर स्वयं असन्तोष उत्पन्न हो और वह सुधार प्रयासों में प्रचण्ड उत्साह लेकर स्वयं ही अग्रसर होती दिखाई पड़ने लगे।

पिछड़े लोगों के लिए बालकों के लिए अनेक रचनात्मक कार्य जहाँ-जहाँ चल रहे है ओर अपनों को काम मिल सके, वे वाधिक स्थिति में भी कुछ कमा सकें, ऐसे साधन खड़े हो रहे हैं। गो संवर्धन के- गोरस उपयोग के लाभों की सर्वसाधारण को जानकारी कराई गई है और जनता को इस उपयोगी कार्य में अधिक उत्साह दिखाने के लिए प्रेरित किया गया है। गोबर जलाया न जाय उसे खाद के लिये ही काम में लाया जाय यह तथ्य कृषक वर्ग द्वारा सर्वत्र स्वीकार कर लिया गया है।

यह सामान्य परिचय है - युग निर्माण शाखाओं में चल रहे क्रिया-कलाप का। कर्मठ कार्यकर्त्ताओं ओर सक्रिय सदस्यों की एक बड़ी सृजन सेना देश भर में नवनिर्माण का पुण्य प्रयोजन पूरा करने में लगी है। सृजन के लिए आरम्भिक प्रयास लोक-शिक्षण के रूप में किया जाता है, पर जैसे-जैसे उसकी जड़े मजबूत होती है, वैसे-वैसे नये रचनात्मक एवं संघर्षात्मक क्रिया-कलापों का विस्तार हर क्षेत्र में दृष्टिगोचर होता चला जाता है।

इतने पर भी एक बड़ी कठिनाई यह है कि शाखाओं एवं कार्यकर्त्ताओं को जो कुछ करना पड़ता है अपने ही पैरों पर खड़े होकर करना पड़ता है। बाहर से उत्साह उत्पन्न करने एवं मार्गदर्शन करने के लिए कोई प्रतिभावान व्यक्ति उन तक नहीं पहुंचते। फलतः उत्साह कभी बढ़ता है कभी शिथिल पड़ता है ओर कभी कभी तो बुरी तरह समाप्त हो जाता है। जो शाखाएँ आज पूरे जोश से काम कर रही है वे भविष्य में भी वैसी ही बनी रहेगी इसका कुछ निश्चय नहीं रहता। जोश ज्वार-भाटे की तरह चढ़ता रहता है उसमें स्थिरता लाने के लिये आवश्यक है। कि प्रभावशाली मार्ग दर्शक केन्द्र से जाते रहे और सक्रिय सदस्यों एवं कर्मठ कार्यकर्त्ताओं को साथ लेकर कन्धे से कन्धा भिड़ाकर काम करें- कदम से कदम मिलाकर चलने का उपक्रम बनाकर शिथिलता के वातावरण का उमंग भरे उत्साह में परिवर्तन करें। यदि ऐसी प्रेरणा वृष्टि होती रहे तो न कोई शाखा मुरझाने पाये और न किसी सृजन सेना के अदम्य उत्साह शिथिलता आये। यह कार्य वानप्रस्थों को निबाहना चाहिए। सक्रिय शाखाओं में जाकर कुछ महीने डेरा डाला। हर सृजन सैनिक से व्यक्तिगत संपर्क स्थापित कर और उसकी शिथिलता का निराकरण करके सक्रियता उत्पन्न करें।

स्थानीय शाखायें अपने ढंग से कार्य करती रहती है। अनुभवी वानप्रस्थ उन्हें कठिनाइयों का निवारण और प्रत्येक का पथ प्रदर्शन भलीभांति करा सकते हैं समीपवर्ती शाखा सदस्यों के लिये प्रशिक्षण शिविर जैसी व्यवस्था जुटा सकते हैं। प्रचारात्मक, रचनात्मक ओर संघर्षात्मक कार्यों के साथ रहकर व्यावहारिक ज्ञान करा सकते हैं। इस प्रकार शाखा संगठनों को आवश्यक प्रशिक्षण से लाभान्वित करने का बहुत बड़ा काम अनुभवी वानप्रस्थों द्वारा हो सकता है। आवश्यक अवधि तक एक समर्थ शाखा में रहकर फिर अन्य शाखाओं में उसी क्रिया-कलाप को अग्रगामी बनाने के लिए जा सकते हैं। इस प्रकार एक दूसरी शाखा में जाते रहने की प्रक्रिया वानप्रस्थों के लिए और शाखा संगठनों के लिए हर दृष्टि से उत्साह वर्धक सिद्ध होगी। एक वानप्रस्थ के चले जाने के उपरान्त उस स्थान की पूर्ति के लिए नए वानप्रस्थ पहुँचते रहे तो नवीनता में नवीन व्यक्तित्वों से शाखाओं को अधिक प्रकाश मिलता रह सकता है।

ये युग-निर्माण भी बनाने पड़ेंगे। जन सागर का मन्थन करके चौदह नहीं चौदह कोटि उत्कृष्ट चिन्तन और कर्तृत्व में निरत लोक सेवी धर्मक्षेत्र, कुरुक्षेत्र, में खड़े किये जा सकें तभी धरती पर स्वर्ग के वातावरण प्रस्तुत करने वाले नवयुग का अवतरण सम्भव होगा। इस प्रयोजन की पूर्ति के लिए वाणी और लेखनी के माध्यमों की आवश्यकता से इनकार नहीं किया जा सकता पर उससे भी बड़ी आवश्यकता उन व्यक्तियों की है जो अपने तप त्याग से परिष्कृत और आदर्शानुयायी व्यक्तित्व की छाया दूसरों पर छोड़ कर उन्हें महामानव नर-रत्न स्तर का बनने के लिए उत्साहित कर सके। यह कार्य वानप्रस्थ क्षेत्र में प्रविष्ट हुये लोग ही अधिक अच्छी तरह सम्पन्न कर सकते हैं।

रेल के संचालन में इंजन की प्रथम आवश्यकता है। डिब्बों में यदि कुछ में खराबी आ जाय तो उन्हें हटाकर भी रेलगाड़ी चलती रह सकती है। पटरी भी ठोक पीटकर दूसरी लगाई जा सकती है। पर इंजन की आवश्यकता को प्रथम प्रश्रय ही देना पड़ेगा। वह खराब हो जाय तो फिर सारा कार्य ठप्प ही पड़ जायगा। वानप्रस्थ स्तर के प्रबुद्ध और परिपक्व नेतृत्व में ही जन मानस को प्रेरणाप्रद दिशा मिली है और अन्धकार को चीरकर प्रकाश उत्पन्न कर सकने वाले लोग उभर कर ऊपर आये है।

भारत के कौने-कौन से ऐसे प्रखर नेतृत्व की माँग है जो स्टेज पर बैठकर बन्दरों जैसा अभिनय करने को अपनी लोकेषणा तृप्त करके सन्तुष्ट नहीं रहे वरन् कार्यक्षेत्र में उतरकर बच्चे-बच्चे को साथ लेकर चले। उन्हें कन्धे से कन्धा भिड़ाकर कदम से कदम मिला कर चलना सिखाये। निरहंकारी, लोकेषणा से विमुक्त वानप्रस्थों से यह आशा सहज ही की जा सकती है कि वे आदर्शवादी व्यक्तियों के मणि मुक्तक तलाशे को ही नहीं उन्हें अपनी खराद पर तराश छील कर पहलदार हीरों की तरह इस स्तर का बना सके जिसे देखकर हर किसी का मन मुग्ध हो जाय। जौहरियों जैसा धन्धा अपनाने वाले- नर-रत्नों के उत्पादक और उन्नायक वानप्रस्थ विश्व मानव की अत्यन्त महत्वपूर्ण आवश्यकता पूरी कर सकते हैं। यह सुनिश्चित और सुस्पष्ट है।

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