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Magazine - Year 1973 - Version 2

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देव जीवन का अवसर और आयुष्य

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द्विजत्व का प्रतीक यज्ञोपवीत माना जाता है। आदर्श पूर्ण जीवन जीने का व्रत धारण करना- होश संभालते ही आवश्यकता हो जाता है। भारतीय धर्म परम्परा के अनुसार हर भावनाशील व्यक्ति को पेट प्रजनन के लिए नहीं, जीवन लक्ष्य की, ईश्वर की प्राप्ति के लिए जीना, चाहिए और इसके लिए जैसे ही बालक में थोड़ी विचारशीलता का उदय हो वैसे ही उसके कन्धे पर यह स्मृति- जिम्मेदारी लाद देनी चाहिए कि वह प्रलोभनों और आकर्षणों में भटक न जाय वरन् हर घड़ी यह ध्यान रखे कि उसे किसी विशेष प्रयोजन के लिए नरजन्म मिला है और उसकी पूर्ति के लिए सतत् जागरुकता अपनाये रहने की आवश्यकता है। यज्ञोपवीत संस्कार का यही उद्देश्य है। संसार में संव्याप्त अज्ञान से लड़ने वालों को ब्राह्मण, अशक्ति से लड़ने वालों को क्षत्रिय और अभावों को हटाने में प्रवृत्ति रखने वाले वैश्य कहलाते हैं। सोद्देश्य जीवन ही साँस्कृतिक गौरव गरिमा के उपयुक्त है। वासना-तृष्णा का लक्ष्य बना कर जीने वाले, पेट और प्रजनन से आगे की बात न सोचने वाले हेय अन्त्यज कहलाते हैं। ऐसे लोग न तो यज्ञोपवीत पहनने का साहस करते हैं और न ठूँस-ठाँस करके उन पर वह लादा ही जाता है।

बचपन में यज्ञोपवीत पहना भर दिया जाता है उसकी चरम परिणति का अवसर आता है पूर्वार्ध जीवन के बाद। यों ब्रह्मचारी और गृहस्थ में भी उच्च दृष्टिकोण ही रखा जाना चाहिए और व्यक्ति निर्माण तथा परिवार निर्माण की आवश्यकता उन दिनों भी पूरी की जानी चाहिए, पर प्रखर परमार्थ जीवन तो तभी दृष्टिगोचर होता है जब शरीर, मन और परिवार की परिधि से साहस पूर्वक आगे कदम बढ़ा कर लो मंगल की- विश्व मानव की- सेवा साधना में सर्वतोभावेन तत्पर होकर अनुकरणीय आदर्श उपस्थिति किया जाता है। यज्ञोपवीत धारण के समय ली गई परमार्थ परायणता की, इस जन्म में दूसरा जन्म लेने की- द्विजत्व प्रतिज्ञा बहुत समय तक छोटे पौधे के रूप में रहने के पश्चात् वानप्रस्थ स्थिति में ही फल−फूलों से लदती है। व्यावहारिक क्रियान्वित एवं प्रत्यक्ष मूर्तिमान हुई परिलक्षित होती है। असम में द्विजत्व के योग्य क्षमता ढलती आयु में ही उत्पन्न होती है।

प्रकृति प्रदत्त जन्म धारण सरल है इसमें प्राणी को स्वयं कुछ करना नहीं पड़ता। नियति का प्रवाह जन्म लेने-बढ़ने और मरने के लिए विवश करता है तो प्राणधारी के लिए इसी धारा में बहने के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं रहता। इसमें साहस की आवश्यकता नहीं पड़ती सब कुछ अपने क्रम से- अपने ढर्रे से होता चला जाता है। साहस की परीक्षा तब होती है जब मनुष्य अपने प्रचण्ड मनोबल को समेट कर प्रकृति प्रदत्त पशु जन्म की धारा उलट कर मनुष्य कृत जन्मान्तर उपस्थित करता है और अपनी भावनात्मक प्रखरता के आधार पर पशु योनि का परित्याग कर देवयोनि में प्रवेश करता है। वानप्रस्थ इसी परम पौरुष का- भावनात्मक दुस्साहस का- नाम है। इसे स्वेच्छा बलिदान कर कहते हैं।

युद्ध मोर्चे पर शत्रु की संगीन से सीना छिदवान आसान है, क्योंकि उसमें सैनिक का उद्देश्य शत्रु का शिर काटना और विजय श्री का वरण करना रहता है- वह उमंगे और आशाएं इसी स्तर की लेकर चलता है। यह संयोग की ही बात है कि वह आकाँक्षा पूरी न हो सके और उलट कर अपना ही शिर कटना पड़े। आत्म बलिदानी की मनोदशा इससे कहीं अधिक साहसिक होती है। वह आरम्भ से ही अपने पन का- भौतिक महत्वकाँक्षाओं का परित्याग करके चलता है और अपनी समग्र सत्ता को प्रभु चरणों पर सर्वतोभावेन समर्पण करने की शपथ लेकर चलता है। अपने लिए नहीं भगवान के लिए जीता है। महज स्वभाव मिल सकने वाली सुविधाओं का भी स्वेच्छा से परित्याग करता है संयम की आग में अपने को तपाता गलाता है। उपभोग के लिए जो प्रस्तुत है उसकी और से मन को समेटता है और उपलब्धियों को दुःखी संसार के लिए छोड़ कर उदारमना स्थिति प्रज्ञ की- परमहंस अवधूत की भूमिका में प्रवेश करता है।

इस वैराग्य बलिदान के लिए कायर और कृपण स्तर का व्यक्ति तैयार नहीं हो सकता। यह तो शूर वीरों का- दुस्साहसियों का वीर बलिदानियों का मार्ग है जिस पर काँटे कुचलते हुए-पैरों को लहूलुहान बनाने की हिम्मत करने के लिए हिम्मत समेटने वाले ही चल सकते हैं। कल्पना जल्पना तो ऐसे उदात्त जीवन की कितने ही करते रहते हैं पर अग्नि परीक्षा की घड़ी देखकर हौसला किसी विरले से ही आगे बढ़ाने का बन पड़ता है। भारतीय धर्म की महान परम्परा यही रही है कि आदर्श जीवन की शपथ लेने वाले हर ब्रह्मचारी को उत्तरार्ध में वैसा साहस करना चाहिए। एक जन्म प्रकृति ने दिया सो ठीक है। दूसरा आदर्श वादी जन्म अपने साहस पुरुषार्थ को समेट कर लेना चाहिए। वानप्रस्थ इसी विद्या का नाम है।

वानप्रस्थ यों एक संस्कार भी है। षोडश संस्कार में पुँसवन, सीमान्त, जातकर्म, नामकरण, अन्न प्राशन, मुण्डन, विद्यारम्भ, उपनयन, आदि की गणना है, इसमें हर्षोत्सव मनाये जाते हैं। अमुक कर्मकाण्ड किये जाते हैं और बालक को कुछ दिशा शिक्षा देते हैं। जिस प्रकार अन्य संस्कार कराये जाते हैं इसी प्रकार वानप्रस्थ कृत्य की परम्परा भी निबाही जानी चाहिए साथ ही यह भी ध्यान रखना चाहिए कि उसके साथ ही कुछ महान कर्त्तव्य और उत्तरदायित्व कन्धे पर आते हैं। बचपन के संस्कार प्रशिक्षण स्तर के थे उनमें उद्बोधन और सम्भावनाओं की ही प्रधानता थी पर वाह संस्कार के साथ शिर पर महान उत्तरदायित्वों का बोझ आता है एक नये परिवार का श्री गणेश करना ही तो विवाह है। ठीक इसी प्रकार वानप्रस्थ के भी उत्तरदायित्व महान है इस प्रवेश द्वार में कदम रखने वाले को प्रभु समर्पित जीवन जीने का व्रत धारण करना पड़ता है और विश्व वसुधा को अपना घर परिवार मान कर सार्वजनीन सुख-शान्ति एवं समृद्धि प्रगति के लिए अपनी विभूतियों का समर्पण करना होता है। अपनी मानसिक और शारीरिक गति-विधियों उसी दिशा में प्रशिक्षित एवं अग्रसर करनी पड़ती है। निस्संदेह यह देव-जीव में प्रवेश कराने की अभिनव भूमिका है जिसका निर्वाह करने वाले के लिए मानवता शत-शत नमन करती रहती है।

भारतीय संस्कृति के अनुसार जीवन का उत्तरार्ध देव भाग है उसका उपयोग देव प्रयोजनों के लिए ही होना चाहिए। पूर्वार्ध को भौतिक अल्हड़पन की तृप्ति में लगाया गया सो ठीक है। दुस्तर उभारों में उतना भाग लग गया सो ठीक है। उन दिनों इन्द्रियों के घोड़े और मन के मयूर अपनी मस्ती में होते हैं। आगा पीछा देखते सोचते नहीं। नियन्त्रण कठिन पड़ता है ऐसा दशा में बाढ़ का उफान तर जाने तक की प्रतीक्षा में बैठे रहना बुरा नहीं है। फिर व्यक्ति निर्माण और परिवार निर्माण के काम भी कम महत्वपूर्ण नहीं हैं। यौवन आने से पूर्व की अवधि इसी के उपयुक्त है कि कठिन जीवन की परीक्षा में उत्तीर्ण हो सकने योग्य साधन जुटाये जायं। शिक्षा प्राप्त न हो सकी तो अशिक्षित रहने के पग-पग पर ठोकर खानी पड़ेगी। संयम व्यायाम से शरीर पुष्ट न किया गया अनुभव अनुशासन न सीखा गया तो गृहस्थ जीवन में उपार्जन तथा अन्य प्रकार के उत्तरदायित्वों का निर्वाह कैसे होगा?

परिवार संस्था का संचालन एक उन्नयन किसी पूरे राष्ट्र समाज को संभालने सुधारने की एक छोटी प्रतिकृति है। उसे चाहें तो गृहस्थ का निर्वाह लोकसेवा की छोटी प्रयोगशाला कह सकते हैं। महत्वकांक्षाएं कई बार बड़ी प्रबल होती है। उन पर नियन्त्रण करना साधारणतया कठिन होता है। स्वप्नों में बहुत सुन्दर और आकर्षक दीखने वाली ललकें और लिप्साएं प्रायः स्वर्ण परी सी लगती है और उन्हें पाने भोगने के लिए अल्हड़मन बेतरह मचलता है। पर जब वे निकटवर्ती अनुभव में आती हैं तो स्पष्ट जा जाता है कि वे दूर से देखने में ही आकर्षक थीं। निकट आने पर तो उनमें जलन और निराशा के अतिरिक्त और कुछ है ही नहीं।

वित्तैषणा- पुत्रेषणा और लोकेषणा के पीछे आदमी रावण जैसा फिरता है। वन लिप्सा- इंद्रियभोग और अहंकार की पूर्ति के लिए मचलने वाला मन जब उन विष कण्टकों के संपर्क में आता है तो नशा उतर जाता है- भ्रम टूट जाता है- और तथ्य स्पष्ट हो जाता है कि मृग-तृष्णा के अतिरिक्त इस जाल जंजाल में कुछ पा नहीं। दूसरों के बताने समझाने से यह यथार्थता गले नहीं उतरती, ठोकर खाकर जब अनुभव हो जाता है तब कहीं मन मानता है और वानप्रस्थ के लिए उपयुक्त मनोभूमि बन जाती है।

यों वानप्रस्थ का समय ढलती आयु के साथ जोड़ा गया है। पर वस्तुतः उसका सीधा संबन्ध ढलती मनोभूमि के साथ है। नशों की खुमारी जब भी उतर जाय तभी इस परम शुभ सदुद्देश्य को अपनाने का शुभ मुहूर्त हो सकता है। आयु का पैमाना मोटेतौर पर ही निर्धारित किया गया है। प्राचीन काल में सौ वर्ष की सहज आयुष्य थी। तब पूर्वार्ध पचास वर्ष का होता था। पच्चीस वर्ष ब्रह्मचर्य-पच्चीस वर्ष गृहस्थ के लिए नियत थे। पचास वर्ष वाद वानप्रस्थ ले लिया जाता था। अब वैसी स्थिति नहीं रही। सौ वर्ष कान जीता है। पचहत्तर तक भी कोई विरले पहुँचते हैं। इसे ही परम आयु अब माना जाना चाहिए। इसका आधा तो सैंतीस वर्ष ही हुआ। पुराने अनुपात में अब यही उत्तरार्ध है- इसी को ढलती आयु कह सकते हैं। इसी अवधि तक पारिवारिक उत्तरदायित्वों से निवृत्ति मिलना कठिन समझा जाय तो उत्तरार्ध में से भी और कटौती की ला सकती हैं। आधे के स्थान पर एक तिहाई से भी संतोष किया जा सकता है।

पचहत्तर वर्ष का दो तिहाई धर परिवार में गुजारा जाये तो कम से कम पचास से पचहत्तर तक के पच्चीस वर्ष तो वानप्रस्थ संन्यास की मिली जुली प्रक्रिया में लगाये जाने चाहिए। यह अन्तिम अवधि मानी जानी चाहिए। जिनके लिए इससे पहले ही साहसिक कदम बढ़ाया जाना संभव है उन्हें इस दिशा में रुकने झिझकने की कोई बात नहीं। पचहत्तर का आयुष्य भी ध्रुव सत्य नहीं। मौत तो कभी भी सामने आ खड़ी हो सकती है और पल भर में गर्दन मरोड़ कर रख सकती है। आये दिन नौजवानों की लाशें मचलती मचकती आँखों के आगे से निकलती है और श्मशान में शरण पाती दिखाई देती रहती है। अपने लिए पचहत्तर की आयु को लक्ष्मण रेखा मान बैठना यथार्थ चिन्तन नहीं है। इस दृष्टि से उस विभाजन अवधि को पहले की ओर तो कितना ही खिसकाया जा सकता है। प्रयत्न यह होना चाहिए कि यथा सम्भव पीछे नहीं ही हटानी पड़े। कितने ही छोटे बच्चे पालन पोषण के लिए शेष हों और पूरा समय उनके लिए उपार्जन करने में संलग्न रहे बिना काम न चलता होती बात दूसरी है।

आयुष्य की दृष्टि से पचास वर्ष की आयु मोटे तौर पर ही निर्धारित की गई है। मन के उफानों पर यदि इससे पहले ही अंकुश स्थापित कर लिया जाय, तृष्णाएं और वासनाएं सिमट सकने की स्थिति बन जाय, परिवार के आर्थिक उत्तरदायित्व से पूर्व संचित सम्पत्ति के आधार पर अथवा घर के दूसरे लोगों के सहारे उपयुक्त व्यवस्था बन जाय, आश्रितों के भरण पोषण का क्रम यथावत् चलता रह सके उतना ही उत्तम है। मनुष्य जन्म की एक-एक बड़ी एक-एक साँस-हीरे मोतियों से तोलने लायक है, इसकी बहुमूल्य सम्पदा में से पेट प्रजनन जैसे पशु कर्मों के लिए जितना अंश कम बर्बाद हो उतना ही उत्तम है।

यों परमार्थ परायणता हर आश्रम में-हर आयु में- हर स्थिति में किसी प्रकार- किसी स्तर पर चलती रह सकती है। पर उसमें समग्र संलग्नता की स्थिति जब बन सके तो उसे वानप्रस्थ कह सकते हैं। यह अविवाहित जीवन के पश्चात् गृहस्थ का उल्लंघन करके भी हो सकता है। किन्तु एक बार गृहस्थ में प्रवेश कर लेने के बाद पत्नी तथा बच्चों की शारीरिक मानसिक सुव्यवस्था बनाये बिना-उन्हें अनाथ निराश्रित छोड़ कर भावावेश में भाग निकलना अनुचित है। यदि गृहस्थ में प्रवेश कर लिया गया है तो तब तक प्रतीक्षा करनी ही पड़ेगी जब तक यह संतोष न हो जाय कि परिवार व्यवस्था यथा क्रम चलती रहेगी। अच्छा तो यही है कि अपने बालकों के शिक्षा, आजीविका और विवाह के तीनों उत्तरदायित्वों से समय रहते स्वयं ही छुटकारा प्राप्त कर लिया जाय इसके लिए पूर्ण तैयारी यही होनी चाहिए कि प्राचीनकाल की भाँति तीस पैंतीस वर्ष की आयु के उपरान्त बच्चे पैदा करना बन्द कर दिया जाय। और पचास पचपन तक रिटायर होते-होते उन सभी को स्वावलम्बी बना दिया जाय। संतोष पूर्ण निश्चिन्तता समय से पूर्व तैयारी करने वालों को ही मिलती है।

जिन्हें समय रहते समझ नहीं और देर तक बच्चे जनते रहे, उनकी संख्या बढ़ाते रहे उनके लिए, कुछ अपवाद ही शेष रह जाते हैं। पूर्व संचित सम्पत्ति से बच्चों के स्वावलम्बन तक का काम चल सके तो भी निवृत्ति मिल सकती है- यह एक मार्ग है। दूसरा यह है कि बड़ी सन्तान को आरम्भ से ही यह शिक्षा दी जाय कि वह मातृ ऋण और पितृऋण से अपने छोटे भाई बहिनों के लालन पालन का उत्तरदायित्व वहन करते हुए उऋण होने के आदर्श पर आस्था रख सके। आज के स्वार्थी वातावरण में प्रायः बड़े बच्चे माता पिता का आर्थिक शोषण करने के उपरान्त जैसे ही स्वावलम्बी बनते हैं वैसे ही अपनी नव वधू को लेकर अलग हो जाते हैं और गुलछर्रे उड़ाने की चाल चलते हैं। पितृ ऋण चुकाने की बात वे कभी स्वप्न में भी नहीं सोचते वरन् जो कुछ उनके पास और बचा खुचा है उसे भी किसी न किसी बहाने हड़प लेने के लिए घात लगाते रहते हैं। छोटे भाई बहिनों की ओर उनकी तनिक भी ममता नहीं होती। उत्तराधिकार सम्पदा में हिस्सेदार होने के कारण वे उन्हें काँटे की तरह खटकते हैं। ऐसी सन्तान मनुष्य के उस हेय अज्ञान का दारुण दण्ड ही है जिसके कारण उन्हें उठती उम्र में संतान का मुख देखे बिना चैन ही नहीं पड़ता था और उस उपार्जन के बिना सब कुछ सूना जैसा अनुभव करते थे। लोग यह समझ ही नहीं पाते कि इस घोर कलियुग में संतानों की संख्या बढ़ाना अपने गले में एक से एक कड़ा फाँसी का फन्दा लगाने की बराबर कष्ट कर ही हो सकता है।

वे सौभाग्यशाली हैं जिनके बच्चे मातृऋण और पितृऋण चुकाने के लिए छोटे भाई बहिनों के स्वावलम्बन का उत्तरदायित्व श्रद्धा पूर्वक निबाहें और अपनी पत्नी को इसके लिए सहमत करे। अपनी संतानें बढ़ाने में जल्दबाजी न करें और भाई बहिनों की सेवा सहायता से निवृत्त होकर ही संतान बढ़ाने के नये खर्च बढ़ाने की बात सोचें। जो हो, यदि किन्हीं को पितृऋण चुकाने के लिए तत्पर संतान मिले और वे स्वावलम्बी होकर अपने भई बहिनों को संभाले तो भी वानप्रस्थ के परमार्थ जीवन का सुअवसर किन्हीं सौभाग्यवानों को मिल सकता है। यह है तो आज के वातावरण में कठिन-फिर भी असम्भव नहीं है।

पूर्व तैयारी का एक तीसरा तरीका यह हो सकता है कि पत्नी को सुशिक्षित और स्वावलम्बी बनाया जाय। वह अध्यापिका आदि कार्य अपना कर आजीविका कमाने लगे तो वह भी बड़े बेटे की तरह अपने पति को निश्चित होकर परमार्थ जीवन का सौभाग्य लेने के लिए अवसर दे सकती है। पर यह सम्भव तभी है जब उस पर न्यूनतम संतान संख्या का भार पड़ा हो। बहुत बच्चों की अनेक समस्याओं का तो वह भी अकेली निर्वाह नहीं कर सकती। आखिर पेट भरना ही तो काफी नहीं होता बच्चों के लिए और भी बहुत कुछ करना सहना पड़ता है उसमें पति के योगदान की आवश्यकता झुठलाई नहीं जा सकती।

पारमार्थिक जीवन जीने के लिए व्रत धारण करने वाले नर नारी ऐसा भी कर सकते हैं कि विवाह तो करें पर सन्तानोत्पादन के झंझट से बचे रहें। ऐसी स्थिति में भी वे सुविधा पूर्वक किसी भी आयु में वानप्रस्थ में प्रवेश कर सकते हैं। जिन्हें संयोग वश संतान ही नहीं मिली है उनके सौभाग्य की हजार मुख प्रशंसा की जानी चाहिए और यह माना जाना चाहिए कि उन्हें ईश्वर की ऐसी अतिरिक्त अनुकम्पा प्राप्त हुई जिसके आधार पर वे चाहें तो अत्यन्त सरलता पूर्वक देव जीवन का परिपूर्ण आनन्द लाभ ले सकते हैं।

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