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Magazine - Year 1973 - Version 2

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उत्तम मध्यम और कनिष्ठ स्तर का वानप्रस्थ

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वानप्रस्थ एक महान जीवन दर्शन की व्यवहार प्रक्रिया में प्रत्यक्ष परिणति है। चिन्तन और दर्शन प्रायः मस्तिष्कीय विलासिता तक-बौद्धिक ऊहापोह तक सीमित होकर रहते देखे गये हैं। उच्च स्तरीय चिन्तन को आदर्शवादी रीति नीति में अपनाना कष्ट साध्य होता है, उसमें सुविधायें छिनती हैं और ऐसी प्रयत्न चेष्टा बढ़ती है जिसमें दूसरों की सूख शाँति की बढ़ती होकर अपना प्रत्यक्ष एवं भौतिक लाभ नहीं के बराबर ही दृष्टिगोचर होता है।

आदर्शवादी विद्या व्यक्तित्व को महान एवं श्रद्धास्पद बनाती है, उससे आन्तरिक सन्तोष मिला है, आत्म-कल्याण की पृष्ठभूमि बनती है- समाज को समुन्नत बनाने का अवसर मिलता है तो सब ठीक है, पर प्रत्यक्ष सुख सुविधायें तो घटती ही हैं। स्थूल दृष्टिकोण वालों लिए प्रत्यक्ष ही सब कुछ है- भौतिक लाभ ही लाभ है- इन्हें यह समझना और समझाना कठिन है कि लौकिक वैभव को घटा कर परमार्थ प्रयोजन में संलग्न होना बुद्धिमत्ता है। दुनियादार आदमी को यह समझाना बहुत कठिन है कि अपने शरीर मन और परिवार से आगे बढ़ कर अन्य किसी के हितसाधन की बात भी सोची जा सकती है। प्रत्यक्ष लाभ का उत्सर्ग परोक्ष परमार्थ के लिए छोड़ा जा सकता है। इन दिनों आदर्शों की बात बढ़-चढ़ कर होती है पर उस तर्क वितर्क में संलग्न व्यक्ति भी इसे वाक् विलास भर मानत हैं। आदर्शों को व्यवहार में उतारना भी सम्भव हो सकता है। इस पर कोई विरले ही विश्वास करते हैं। दूसरों को त्याग बलिदान की नसीहत देना सरल है पर जब अपने लिए वैसा करने की बात सामने आती है तो सहज ही बोलती बन्द हो जाती है।

वानप्रस्थ को, आदर्श के व्यवहार में परिणत करने का महान उत्तरदायित्व बहन करना पड़ता है। इसलिए उसे यथार्थ ब्रह्मवेत्ता कहा जाये तो अत्युक्ति न होगी। सच्चे अर्थों में उपदेशक, वक्ता, व्यास और प्रचारक भी वहीं है। क्योंकि वक्तृताएं मात्र जानकारी बढ़ा सकती है-गुदगुदी उत्पन्न कर सकती है पर प्रेरणा तो अनुकरणीय आदर्श सामने उपस्थित देखने पर ही मिलती है। नीचे गिराने का काम तो वाणी से लेखनी से भी सध सकता है पर ऊँचा उठाने में सफल वही हो सकता है जो स्वयं ऊँचाई तक चढ़ सकता है। जो स्वयं डूब रहा है वह दूसरे डूबने वाले को क्या उबारेगा, जो स्वयं मलीनता ग्रसित है वह दूसरों को स्वच्छ कैसे करेगा। वानप्रस्थ की लोक कल्याण साधना का शुभारम्भ अपने आप से आरम्भ होता है। वह सर्वसाधारण के सामने अपना आदर्श उपस्थित करते हुए यह सिद्ध करता है कि त्याग और सेवा की बात मात्र बकझक नहीं है वह ऐसी व्यावहारिकता भी है जिसे प्रत्यक्ष करके दिखाया जा सकता है दैनिक जीवन में घोला और घुलाया जा सकता है।

वानप्रस्थ का चरम लक्ष्य उत्कृष्ट चिन्तन और आदर्श कर्तृत्त्व को दैनिक जीवन में उतारते हुए जहाँ जीवनोद्देश्य की पूर्ति के लिए साहसपूर्ण कदम बढ़ाना है वहाँ सर्वसाधारण को यह विश्वास दिलाना भी ही उच्च आदर्शों में व्यवहारिक जीवन में उतारना न केवल सरल है वरन् सुखद और शान्तिदायक भी है। लोकशिक्षा का यही प्रभावशाली तरीका है। समग्र पुनरुत्थान और अभिनव निर्माण के लिए जन साधारण को कुछ कष्ट उठाना, त्याग करना और अनुदान प्रस्तुत करना ही पड़ेगा। इसी पूँजी से ही प्रगति का भवन बनेगा। लोगों को आदर्शों की बातें तो सुहाती हैं पर उस दिशा में बढ़ने के लिए जो अनुदान प्रस्तुत करना पड़ता है, उसके लिए कोई साहस नहीं करता फलतः लम्बी-चौड़ी योजनाओं को दीमक चाटती रहती है। जनता को सृजन प्रयोजन के लिए अपना योग-दान देने के लिए रजामन्द करना हर किसी का काम नहीं है, उसे प्रभावशाली ढंग से वही कर सकता है जिसने स्वयं वैसा कदम उठाकर दिखाया है। वानप्रस्थ अपनी भूमिका द्वारा वह अधिकार प्राप्त करे जिसके बलबूते लोगों को देश, धर्म, समाज संस्कृति के लिए कुछ अनुदान प्रस्तुत करने के लिए कहा और मनाया जा सके। ऐसे ही नेतृत्व की सदा से आवश्यकता रही है। सफलता उसे ही मिली है- अनुगमन उसी का किया गया है। भौतिक लाभ कमाने में निरत नेता के मुख से त्याग बलिदान के उपदेश शैतान के मुँह बाइबिल वाचन की तरह अटपटे ही लगते हैं- उपहासास्पद ही बनते हैं। युग-नेतृत्व की महती आवश्यकता वानप्रस्थ ही पूरी करता रहा है उसे ही करने का अधिकार भी है।

प्राचीन काल के संन्यास को अब वानप्रस्थ में ही विलीन होना पड़ेगा। उस वेष में अवाँछनीय व्यक्ति इतने अधिक घुस पड़े हैं कि संचित प्रतिष्ठा को समाप्त प्राय करके रख दिया। फिर इन दिनों संन्यास के साथ अकर्मण्यता मुफ्तखोरी-सेवाधर्म से विमुखता और आडम्बर अन्धविश्वासों के विस्तार की विडम्बना ने स्थिति सर्वथा बदल दी है। भिक्षा व्यवसाय अब जन आक्रोश का केन्द्र बनने जा रहा है। वस्त्र रंगने मात्र से राजसी निर्वाह प्राप्त करने के लिए अधिकार को अगले दिनों कड़ी चुनौती का सामना करना पड़ेगा और धर्म परम्परा की दुहाई देने से भी चमड़ी को बचाया न जा सकेगा। अस्तु संन्यास को वानप्रस्थ में विलीन करके एक सहज सुलभ परमार्थ जीवन प्रक्रिया को अपनाने से ही काम चलेगा। वही इस युग के अनुकूल है और उपयुक्त भी।

वानप्रस्थ का सामान्य स्वरूप यह है- व्यक्तिगत सुख-सुविधाओं को जीवन-निर्वाह के सादगी पूर्ण बिन्दु तक सीमित करके संयमी और मितव्ययी जीवन जिया जाय। संतानोत्पादन न किया जाय। आन्तरिक स्तर को परिष्कृत करने के लिए सद्ज्ञान संचय एवं तप−साधना का आश्रय लिया जाय। इसके अतिरिक्त जन-मानस में युगान्तरकारी परिवर्तन लाने के लिये ज्ञान-यज्ञ की ज्वालायें प्रचण्ड बनाने की सेवा साधना में अनवरत रूप से तत्पर रह जाय। यही है वानप्रस्थी जीवन दर्शन। उपरोक्त उद्देश्यों की पूर्ति के लिए अपनी शक्तियों को अधिकाधिक मात्रा में लगाना आवश्यक हो जाता है, अतः एवं यह आवश्यक है कि पारिवारिक उत्तरदायित्वों का भार या तो बिल्कुल ही न हो- यदि हो तो यह इतना कम हो कि परमार्थ प्रयोजन की विधि व्यवस्था के लिए अवकाश और मनोयोग की कहने लायक मात्रा हाथ में रह सके।

शरीर और परिवार की सज्जा व्यवस्था में संलग्न क्षमता एवं उत्कंठा को समेट कर ही परमार्थ प्रयोजन में लगाया जा सकता है। यदि पूर्व पक्ष में मनोयोग जुटा जकड़ा रहे तो क्षमता का महत्वपूर्ण अंश उसी में खप जायेगा, तब परमार्थ की बात अत्यन्त स्वल्प मात्रा में ही सम्भव हो सकेगी। वस्तुतः वानप्रस्थ का उत्तरदायित्व गृहस्थ जीवन की अपेक्षा कई गुना भारी और विशाल है। इसलिए उसमें शक्ति एवं साधनों का भी अत्यधिक मात्रा में लगाना अभीष्ट है। यह बचत तभी हो सकती है जब लोभ और मोह की भावनात्मक दुर्बलताओं से पिण्ड छूटे और घर परिवार की जिम्मेदारियों का छकड़ा खींचने से दम मारने लायक राहत मिल सके। इसलिए वानप्रस्थ की पात्रता में सबसे महत्वपूर्ण पक्ष यह है कि व्यक्ति के पारिवारिक उत्तरदायित्व हलके हुए कि नहीं, परमार्थ प्रयोजन के लिए समय और मन का महत्वपूर्ण अंश बचा सकता है या नहीं। यह गुत्थी सुलझाये बिना वानप्रस्थ की बात बनती नहीं यह आदर्शवादी छलाँग लगाना उन्हीं के लिए सम्भव है जिन्होंने अपने लौकिक उत्तरदायित्वों को हलका करने की स्थिति प्राप्त कर ली है।

वानप्रस्थ का संस्कार कृत्य सरल है। यज्ञ, देव-पूजन, सम्भ्रान्त सज्जनों की उपस्थिति, व्रत धारण कोपीन एवं दण्ड धारण, पीत परिधान, जल कलशों का अभिषेक, मंगल ऋचाओं का उच्चारण, विवेचन, प्रवचन, प्रभृति क्रिया-कृत्यों के साथ का यह संस्कार एक दो घण्टे में सम्पन्न हो जाता है। प्रतीकात्मक कम से कम एक अथवा सभी सुविधानुसार पीले वस्त्र धारण करना उपयुक्त माना गया है। अपने आपको उद्बोधन और जनता को उस व्यक्ति के स्तर का परिचय पीत वस्त्रों के आधार पर होता है इसलिए उनकी उपयोगिता से इन्कार नहीं किया जा सकता। प्राचीनकाल में वानप्रस्थ में पत्नी तो साथ रखी जा सकती थी- पत्नी के साथ रहा जा सकता था पर ब्रह्मचर्य धारण करना अनिवार्य था। समय की स्थिति को देखते हुये इन दिनों सन्तानोत्पादन पर ही प्रतिबन्ध रहना चाहिए। वीर्य रक्षा की उपयोगिता उन्हें स्वयं समझनी माननी चाहिये पर इस पर अनिवार्यता का बन्धन न रहे तो अधिक उत्तम है, उससे उन्हें समय कुसमय होने पर व्रत भंग करने का पश्चाताप न करना पड़ेगा। ब्रह्मा-दृष्टि से इतना ही व्रत धारण एवं कर्म-काण्ड पर्याप्त है। मूल बात गतिविधि परक है- परमार्थ प्रयोजनों में समय एवं मनोयोग की मात्रा बढ़ानी ही पड़ती है। यह कटौती घर परिवार की व्यस्तता में से- मन को तृष्णा, लालसा में से ही तो करनी पड़ेगी। इसलिए वानप्रस्थ का मूल-भूत परिवर्तन यहीं से आरम्भ होगा। इसी केन्द्र बिन्दु से दिशा बदलेगी।

वानप्रस्थ के परमार्थ पथ प्रदेश को तीन स्तरों में विभक्त किया जा सकता है। उत्तम, मध्यम और कनिष्ठ। सर्वोत्तम, अधिक श्रेष्ठ, एवं श्रेष्ठ के उतार चढ़ाव इस महान प्रक्रिया में भी हो सकते हैं।

सर्वोत्तम वह स्थिति हे जिसमें पारिवारिक उत्तरदायित्वों को अन्य विश्वस्त एवं निष्ठावान परिजनों पर छोड़ कर स्वयं पूरा समय परमार्थ प्रयोजन में लगाने के लिए तत्पर हो जायें। कुछ समय इस अभिनव जीवन प्रणाली की विधि व्यवस्था का तात्विक अध्ययन और व्यावहारिक अनुभव प्राप्त करें और फिर विश्व-मानव की सेवा साधना में जुट जायें। दिनचर्या का ऐसा निर्धारण होना चाहिए जिसमें स्वाध्याय और योग साधना तपश्चर्या के लिए भी समुचित स्थान रहे और शेष समय सेवा-कार्यों में लगा रह। कहने की आवश्यकता नहीं कि इस युग की महानतम आवश्यकता और विश्व-मानव की सेवा साधना एक ही है, जनमानस का भावनात्मक नवनिर्माण। इसके लिए ज्ञान यज्ञ की की विचार-क्रान्ति शृंखला इन दिनों चल रही है। इस केन्द्र पर ही प्रत्येक विचारशील का ध्यान केन्द्रित होना चाहिए। इस चरण को पूरा करने के बाद ही, शिल्प, चिकित्सालय,मन्दिर, धर्मशाला, प्याऊ, सदावर्त आदि कितने ही लोकोपयोगी कार्य हो सकते हैं पर वानप्रस्थ को ही लक्ष्य सामने रखना चाहिए- विचार-क्रान्ति, बौद्धिक परिष्कार भावनात्मक नवनिर्माण। इसी से संबद्ध सेवा कार्य हाथ में लिए जाएं। यह कार्य प्रत्यक्ष में नहीं देखा जाता और उसका परिणाम इमारतों की तरह आँखों के सामने नहीं आता इसलिए उथली तबियत के लोग उस दिशा में उदासीन देखे जाते हैं और ऐसे कार्य पकड़ते हैं जिन्हें आँखों से देखा-जाना जा सके। इस संकटकाल में आपत्ति धर्म की तरह हमें केवल ज्ञान-यज्ञ की महान प्रक्रिया को ही सामने रखना चाहिए। वानप्रस्थ की सेवा साधना का प्रत्येक कदम इसी दिशा में उठना चाहिए।

सर्वोत्तम स्तर के वानप्रस्थ-परिव्राजक स्तर की जीवन चर्या अपनाते हैं। वे आश्रम बनाकर नहीं बैठते वरन् जहाँ भी सत्प्रवृत्तियों के अंकुर उगे हुए है उन्हें सींचने के लिये यत्र-तत्र भ्रमण करते हैं। लोग आरम्भिक उत्साह में कई तरह की सत्प्रवृत्तियाँ आरम्भ करते हैं। पीछे जोश ढीला पड़ते ही वे मुरझाने लगते हैं। यही बात व्यक्तिगत उत्साह पर लागू होती है। कितने ही व्यक्ति आवेश पूर्वक परमार्थ पथ पर चलने के लिए अग्रसर होते हैं, पीछे भी ढील हो जाते हैं। इस प्रकार व्यक्तियों का- सत्प्रवृत्तियों का मुरझाना आरंभ हो जाता है। आकाँक्षा रहते हुए भी शिथिलता कुछ करने नहीं देती। ऐसी प्रवृत्तियों और ऐसे व्यक्तियों से संपर्क बनाकर उनमें उत्साह उत्पन्न करना और पुनः जागृति करने के लिए उपदेश करना ही नहीं कन्धे के कन्धा कदम से कदम मिलाना भी आवश्यक होता है। यहीं कार्य वानप्रस्थी को निरन्तर करना पड़ता है। नये क्षेत्रों में जागृति पैदा करना भी उचित है पर पहली आवश्यकता उन पौधों को है जो उगे तो सही पर खाद पानी के अभाव में मुरझाते, झुलसते चले जाते हैं। नये आरोपण की अपेक्षा इन मुरझाये हुओं को सींचना आवश्यक है। वानप्रस्थ की परिव्रज्या तपस्वी जीवन का अनिवार्य अंग थी। उससे पूर्वकाल के साधू-ब्राह्मण और वानप्रस्थ इसी के लिये अपने को तत्पर समर्पित करते रहे हैं। बादल जहाँ-तहाँ जाकर बरसते हैं वानप्रस्थ की परिव्रज्या भी बादलों को वर्षा रूप में बदल कर अपने अस्तित्व का श्रेष्ठतम समापन करने के रूप में ही अपना आदर्श उपस्थित करती है। घर परिवार की चिन्ताओं से निवृत्त होकर दीर्घकालीन एवं निश्चित परिव्रज्या को निकल पड़ना-लगभग उसी स्तर का है जिस प्रकार भूत-काल में शत्रु की विशाल सेना से निपटने के लिए थोड़ से सैनिक ‘जुहार’ प्रथा के अनुसार किले से शिर पर कफ़न बाँध कर निकलते थे और लड़ते-लड़ते इसी शत्रु सेना में अपने को खपा देते थे। दसों दिशाओं में संव्याप्त असुरता के विरुद्ध वानप्रस्थी सेना को उसी महान परम्परा का अनुसरण करना पड़ता है॥ विचार-क्रान्ति की तलवार चलाते हुए उनके सिर कटे, रुण्ड भी उठ-उठ कर लड़ते हैं।

मध्य स्तर के वानप्रस्थी वे हैं जिनके लिए अपने घर परिवार के बीच रहते हुए-अपने समीपवर्ती क्षेत्र में काम करना अधिक सुविधा जनक पड़ता है। इसमें वे परिवार को मार्ग-दर्शन, परामर्श नियन्त्रण और सहयोग का लाभ भी यथासम्भव देते रहते हैं। सुविधाजनक जीवन यापन का सुयोग भी मिलता रहता है और समीपवर्ती परिचित क्षेत्र में अपना काम भी करते रहते हैं। मुख्य काम वे परमार्थ प्रयोजन को ही मानते हैं ओर उसी में अपन मनोयोग भी लगाते हैं। परिवार की देख-भाल तो एक सरल स्वभाव चलते रहने वाला गौण कार्य होता है। कोई विशेष अड़चन आ जाय तो बात दूसरी है अन्यथा उनका अपनी रुचि का विषय परमार्थ ही होता है। अपने समय,श्रम और मनोयोग का उसी में लगाते हैं। घर रहते हुए भी जल में कमल जैसी स्थिति ही बनाये रहते हैं। एकान्त निवास के लिए घर में या किसी निकटवर्ती देवालय आदि में अपना निवास रखते हैं जिससे अपने विरक्त स्तर का भान निरन्तर होता रहे।

कनिष्ठ स्तर का वानप्रस्थ वह है जिसमें पारिवारिक जिम्मेदारियों का निर्वाह भी जुड़ा हुआ है। बच्चे छोटे हैं, पत्नी शारीरिक अथवा मानसिक दृष्टि से रुग्ण है। अन्य विवशताएं ऐसी हैं जिनमें घर छोड़ कर अन्यत्र जा सकना सम्भव नहीं। परिवार के लिए आजीविका उपार्जन करने से भी छुटकारा नहीं ऐसी स्थिति में भी कनिष्ठ वानप्रस्थ लिया जा सकता है किन्तु उसमें भी दो शर्तें तो पालनी ही पड़ती है। एक यह कि सन्तानोत्पादन उत्तम और मध्यम वानप्रस्थी की तरह ही बन्द कर दिया जाय और कम से कम चार घण्टे प्रतिदिन अपने समीपवर्ती क्षेत्र में ज्ञानयज्ञ सत्प्रवृत्तियों के अभिवर्धन में लगाते हैं। साधारणतया 7 घण्टे सोने के लिए, पाँच घण्टे फुटकर कामों के लिए और आठ घण्टे आजीविका उपार्जन के लिए नियत रखे जायँ तो इन बीस घण्टों में शारीरिक एवं पारिवारिक जिम्मेदारियाँ भली प्रकार निबाही जा सकती हैं और चार घण्टे का समय परामर्श प्रयोजन के लिए बड़ी आसानी से लगाया जा सकता है। मन मुर्दा हो गया हो तो बात दूर अन्यथा कोई भी भावनाशील व्यक्ति इतना समय सदुद्देश्य के लिए निकाल सकता है और लगा भी सकता है। आमतौर से लोग ढेरों समय ऐसे ही आलस्य प्रमाद में नष्ट करते रहते हैं यदि मुस्तैदी से पूरा मन लगाकर काम करने की आदत हो तो घिस-घिस पूरा समय नष्ट करा देती है और फुरसत न मिलने की शिकायत बनी रहती है-उसका कोई कारण न रह जाय। घरेलू काम भी आसानी से निपट जायें और परमार्थ के लिये भी चार घण्टे निकल आवें। इन सन्तानोत्पादन की बन्दी और चार घटे ज्ञानयज्ञ के लिए समय दान का जो साहस कर सके वे भी कनिष्ठ स्तर का वानप्रस्थ ले सकते हैं। प्रभु समर्पित जीवन भी गहन आस्था रखते हुए घर परिवार को संरक्षक माली मुनीम जैसी ईश्वरीय नियुक्ति की मान्यता अपने सम्बन्ध में रख सकते हैं। छुट्टी के दिनों परिव्रज्या के लिये अधिक दूर तक जा सकते हैं किन्तु साधारण समय में समीपवर्ती संपर्क क्षेत्र ही उनकी परिव्रज्या की परिधि बना रह सकता है। इतना साहस कर सकने वाले भी ढलती आयु के श्रेष्ठतम सदुपयोग वानप्रस्थ का एक सीमा तक लाभ उठा सकते हैं।

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