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Magazine - Year 1973 - Version 2

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अपनी महान परम्पराओं को खोकर ही हम दीन हीन बने हैं।

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प्राचीन भारत की सर्वतोमुखी गौरव गरिमा समस्त विश्व में संव्याप्त थी। इस भूमि का महान उत्पादन संसार के कोने-कोने तक आलोक उत्पन्न करता था और उससे समस्त मानत जाति लाभान्वित करता था। ज्ञान और विज्ञान की-सम्पत्ति की समर्थता का कोई पक्ष ऐसा न था जिससे इस देश के नररत्न सुसम्पन्न न रहते हों। यह महान उपलब्धियां इतनी आकर्षक एवं उपयोगी थीं कि उन्हें सीखने समझने के लिए संसार भर के लोग यहाँ आते थे। सच्चे अर्थों में भारत ही उन दिनों विश्वविद्यालय था। आवश्यकतानुसार यहाँ की प्रतिभायें अन्यान्य देशों की व्यवस्था बनाने और सुधारने के लिए जगद्गुरु-चक्रवर्ती शासक, विज्ञानवेत्ता एवं सम्पदा सम्पन्न व्यक्तित्वों के रूप में उपस्थित होती थी। भारतीय महामानवों के इस अनुदान से समस्त विश्व किसी समय कृतकृत्य था।

आज की स्थिति सर्वथा बदल गई। अन्न से लेकर शास्त्रों तक के लिए हम परमुखापेक्षी हैं। हमारी शिक्षा आवश्यकता विदेशी पूरी करते हैं। चिकित्सा तक आत्मनिर्भर नहीं। यह तो भौतिक सम्पत्ति की बात रही। आत्मिक क्षेत्र की दशा और भी अधिक दयनीय है। अनुशासन, वचन पालन, समय की नियमितता, नागरिक कर्तव्य, सामाजिक-उत्तरदायित्व, देशभक्ति शिष्ट व्यवहार जैसी मानवोचित विशेषताओं की कसौटी पर हमारा जन-जीवन खरा नहीं खोटा ही सिद्ध होता है। स्वच्छता जैसी प्राथमिक मानवी आवश्यकता तक से हम अभी परिचित नहीं हो पाये हैं। सामाजिक कुरीतियाँ, मूढ-मान्यताएँ एक प्रकार से देश की जड़े खोखली कर चुकी हैं नर−नारी की असमानता -वंश जाति के आधार पर बरती जाने वाली ऊँच-नीच की मान्यता लगभग एक करोड़ लोगों द्वारा अपनाया गया भिक्षा व्यवसाय विवाहों की प्राणघातक खर्चीली धूम-धाम, जैसे कुष्टव्रण राष्ट्र की काया को किस प्रकार अपंग, कुरूप और कलंकित किये हुए हैं यह देख कर दर्द उठता है। जिस देश में शिक्षा 20 प्रतिशत हो-80 प्रतिशत अशिक्षित भरे पड़े हों, वहाँ विविध भ्रष्टाचारों का पनपना स्वाभाविक है। धर्म से लेकर राजनीति तक में धूर्त विडम्बनायें अपनी जड़े दिन-दिन अधिक गहरी घुसाती चली जा रही हैं इन परिस्थितियों में हम अन्तर्द्वन्द्वों में-गृह युद्ध जैसी स्थिति में रहते हुए प्रगति से वंचित ही रह सकते थे- रह रहे हैं।

प्राचीन काल की महान प्रगति और आज की अवगति की तुलना पर्वत शिखर और गहरे गर्त से की जा सकती है। भौतिक दृष्टि से जो खोया सो दुखद है उसकी क्षति पूर्ति आसानी से हो सकती है। पर मर्म भेदी दुख उस आत्मिक स्थिति के पतन का है जिसके कारण इस देश का प्रत्येक घर नर-रत्नों की खान बना हुआ था, जिसके कारण समस्त विश्व अपने उत्कर्ष के लिए आशा भरे सहयोग की अपेक्षा करता था।

यह अत्यधिक विचारणीय प्रश्न है कि धर्म और अध्यात्म का कलेवर भूतकाल की अपेक्षा इन दिनों घटा नहीं बढ़ा है। धर्म संगठनों की, धर्मध्वजी महन्त मठाधीशों की-देवाराधन कर्मकाण्डों की भी धूम है। मन्दिर तो इस तेजी से बनते चले जा रहे हैं मानो उन्हीं की संख्या वृद्धि पर धर्म की आधारशिला रखी हुई हो। इतना सब होते हुए भी धर्म की आत्मा क्यों मर गई? उसकी सड़ी लाश ही हमारे हाथ क्यों रह गई?

इन प्रश्नों का समाधान ढूँढ़ने के लिए गहराई में उतरने और विस्तृत विवेचन करने पर हमें इस निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ता है कि हमारे आश्रम धर्म की रीढ़ टूट गई और प्राचीन भारत की गौरव गरिमा की स्थिति अपंग जैसी हो गई। भारतीय धर्म को दूसरे शब्दों में वर्णाश्रम धर्म कह सकते हैं चार आश्रमों की सुदृढ़ आधार शिला पर अपनी संस्कृति का भवन खड़ा किया गया था। जब तक वे स्तंभ बने रहे तब तक गौरव-गरिमा भी गगनचुंबी बनी रही। जब उसमें विग्रह संकट उत्पन्न हुआ तो सारा ढाँचा ही लड़खड़ा गया और धर्म विडम्बनाओं की अवाँछनीय विकृतियाँ ही हमारे हाथ रह गई।

अब एक ही वर्ण शेष तीन वर्ण है-वैश्य। और एक है आश्रम जीवित है गृहस्थ। शेष तीन वर्ण मर गये तीन आश्रमों का भी अन्त हो गया। हर व्यक्ति का जीवन-लक्ष्य धन है। त्यागी-वैरागी भी प्रकारान्तर से उसी कुचक्र के इर्द-गिर्द घूमते देखे जा सकते हैं। आकाँक्षाओं का केन्द्र अब सम्पत्ति ही बन कर रह गया है। वासनाओं और तृष्णाओं की पूर्ति उसी से तो होती है। इसके अतिरिक्त अन्त कुछ लक्ष्य किसी का नहीं दीखता। ऐसा दशा में यह कहना अत्युक्ति न होगा कि वर्ण-धर्म सिमट कर वैश्य-वर्ण में सीमित हो गया है। ठीक इसी प्रकार आश्रम धर्म की दुर्गति हुई है। स्कूल में जाते-जाते अबोध बालक काम कुचेष्टाएँ सीख जाते -हैं पास-पड़ोस में उन्हें अश्लील गालियाँ सीखने को मिल जाती हैं घर बाहर कामुकता की विविध प्रकृतियां बचपन में ही गृहस्थ की दीक्षा दे देती हैं और उसमें क्रमशः वृद्धि ही होती रहती है। किशोरावस्था परिपक्व होने से पहले ही बच्चे अपना बहुत हद तक आत्मघात कर चुके होते हैं। स्मरण शक्ति की कमी, चेहरे की निस्तेजता, काया की दुर्बलता और मानसिक उद्वेगों का बाहुल्य देखते हुए यह सहज ही समझा जा सकता है कि उन पर क्या बीती है। समय से पूर्व गृहस्थ की किसी भोंड़ी और फूहड़ प्रकृति का जो दुष्परिणाम होना चाहिए उसे अपने हर बालक पर काली घटाओं के रूप में छाया देखते हैं। बाल-विवाह तो और भी कोढ़ में खाज का काम करता है। जिन्दगी के अन्त तक कामुकता-प्रजनन, अर्थोपार्जन, कुटुम्बचर्या के अतिरिक्त कभी कोई बात सूझती ही नहीं। समस्त प्रकृतियां इसी केन्द्र पर केन्द्रीभूत रहती हैं। होश संभालने के दिन से लेकर होश बन्द होने की घड़ी तक गृहस्थ स्तर की आकाँक्षाएँ ही मनःक्षेत्र को आच्छादित किये रहती है। ऐसी दशा में यही कहा जा सकता है कि चार आश्रमों में से तीन समाप्त हो गये। ब्रह्मचर्य-वानप्रस्थ और संन्यास की परम्पराएँ नष्ट हो गईं। केवल एक ही आश्रम बचा है गृहस्थ साधु-संतों की मनोदशा और गतिविधियों को देखते हुए उन्हें भी भगवाँ वस्त्र धारी गृहस्थ ही कह सकते हैं तीन पाये टूट जाने पर एक के ऊपर खड़ी की गई चारपाई की जो डाँवाडोल स्थिति होनी चाहिए-वही है आज भारतीय समाज की। इन परिस्थितियों में भौतिक आर्थिक स्थिति की स्थिरता की कुछ बात तो सम्भव भी है पर आत्मबल पर टिकी हुई उन महानताओं की आशा नहीं की जा सकती जिन पर प्राचीन भारत का महान गौरव आधारित रहा है।

वर्ण-धर्म के अनुसार ब्राह्मण वर्ण को नैतिक और सामाजिक स्थिति की सुदृढ़ता बनाये रखने का उत्तर दायित्व सम्भालना पड़ता था। धर्म और अध्यात्म का उपासना और साधना का-विशाल काय-कलेवर मनुष्य की आन्तरिक महानता में उत्तरोत्तर अभिवृद्धि का लक्ष्य रखकर ही खड़ा किया गया है। नीति-निष्ठ, कर्तव्य परायण और समाजसेवी व्यक्तित्वों का विकास ही धर्म धारणा का- अध्यात्म-दर्शन का एकमात्र प्रयोजन है। ईश्वर की समीपता और प्रसन्नता प्राप्त करने का आधार लेकर चलने वाले मनुष्य को आत्म-परिष्कार और उदार ममता विस्तार का अवलम्बन स्वीकार करना पड़ता है। इस तरह प्रकारान्तर से आस्तिकता और ईश्वर भक्ति-धर्म धारणा और तपश्चर्या का चरम प्रयोजन मनुष्य में देवत्व का अवतरण ही बनता है। ब्राह्मण वर्ग इसी प्रयोजन की पूर्ति में अपने को खपाता था। एक सुयोग्य वर्ग के सदस्य जब बड़ी संख्या में जन-समाज के भावना स्तर को सम्भालने में अपने अस्तित्व को समर्पित करदें तो कोई कारण नहीं कि जन-जीवन में उत्कृष्ट चिन्तन एवं आदर्श कर्तृत्व का बाहुल्य न रहे। आज ऐसा ब्राह्मण कहां है? जाति पांति के नाम पर वामन कहलाने वाले व्यक्ति करोड़ों की संख्या में होने पर भी उनमें, ब्रह्मपरायण आत्मायें ढूँढ़ निकालना बहुत ही कठिन है। अब ब्राह्मण जीवन का आदर्श प्रत्यक्ष प्रस्तुत करने वाले लोगों की संख्या लगभग शून्य के स्तर पर जा पहुँची है। पेट्रोल के अभाव में मोटर क्या चलेगी? आग के अभाव में भोजन कैसे पकेगा? पानी के अभाव में प्यास कैसे बुझेगी? ब्राह्मण के अभाव में जन-मानस में धर्म का अस्तित्व कैसे जीवित रहेगा। आदर्शवादी धर्मधारणा को उपेक्षित कर देने के बाद जनसमाज में नर-पशुओं के अतिरिक्त और किस वर्ग का अस्तित्व दृष्टिगोचर होगा।

चारों वर्ण सिमटकर वैश्य बन जायं, ब्रह्मसत्ता का अस्तित्व मिट जाय यह भारतीय संस्कृति के उस भूल-भूत आधार की कपाल-क्रिया है, जिस पर कि विश्व-मानव को देवस्तर पर पहुँचाने की किसी समय सफल चेष्टा की गई थी। कितने दुर्भाग्य की बात है कि तैंतीस कोटि देवताओं की जनसंख्या वाले-इस देव मानवों के देश में- देव-पुरोहितों का- ब्राह्मणों का इस प्रकार दयनीय अन्त देखना पड़े। उसका परिणाम पतनोन्मुख समाज को दुर्दशा ग्रस्त स्थिति में पड़े रहने की विभीषिका के रूप में देखना पड़े।

यहाँ जन्म के आधार पर अपने को ब्राह्मण करने और कहाने का अभिमान करने वाले जाति वालों की चर्चा नहीं हो रही है। वे तो अभी भी करोड़ों हैं और प्रजनन की दृष्टि से किसी से पीछे न रह कर दिन-दिन बढ़ ही रहे हैं। यहाँ चर्चा कर्म-ब्राह्मणों की हो रही है। पोथी-पत्रा के सहारे आजीविका कमाने वाले लोगों की भी यहाँ गणना नहीं की जा रही है। यहाँ ब्राह्मण को अभिप्राय उस वर्ण से है जो अपने अस्तित्व को लोकमंगल के लिए- भावनात्मक उत्कृष्टता अभिवर्धन के लिए, अपने आपको तिल-तिल करके जलाता है। अपनी सत्ता का पूर्णतया समर्पित करता है। यह वर्ण अपना व्यक्तित्व अत्यन्त उच्चकोटि का समान आदर्शवाद में ओत-प्रोत करके आरम्भ करता है और क्रमशः उसकी परिणत लोक-मंगल एवं लोकशिक्षण की विविध प्रकृतियों के अभिवर्धन में दृष्टिगोचर होती है। ब्राह्मण की तात्विक परिभाषा के अंतर्गत ऐसे ही व्यक्तित्व आते हैं। ब्राह्मणत्व का आधार जन्म नहीं कर्म है। आज लोग जन्म से वर्ण मानते है।, वे ऐसी ही भूल करते हैं जैसी किसी को जन्म से ही वकील, डाक्टर, प्रोफेसर अथवा चार-डाकू, व्यसनी, दुर्गुणी आदि मानने वाले करते हैं। जन्म से तो मनुष्य सिर्फ नर-पशु ही पैदा होता-है पीछे जो कुछ वह बनता है उसी के आधार पर उसका वर्ण विभाजन होता है। उसी तथ्य को ध्यान में रखने हुए ऊपर की पंक्तियों में ब्राह्मणत्व के अभाव और व्यापक दुष्परिणाम की चर्चा की गई है।

आश्रम धर्म की महत्ता वर्ण धर्म से भी अधिक महत्व पूर्ण है। उसके अनुसार प्रत्येक भारतीय धर्मानुयायी को बाध्य किया गया है कि अपना आधा जीवन व्यक्तिगत एवं पारमार्थिक उद्देश्य के लिए सुरक्षित रखे। ब्रह्मचर्य अवधि मस्तिष्क को- शरीर को परिपुष्ट बनाने के लिए विद्याध्ययन एवं संवर्धन के क्रिया कलापों में लगे इसके पीछे जोशीले खून की विविध उमंगों एवं महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए गृहस्थी बसाये- अर्थ उपार्जन करें-परिवार का सुसंचालन करे, समाज की भौतिक प्रगति में योगदान दें अर्थ उपार्जन का एक बड़ा अंश लोकोपयोगी कार्यों में देकर सत्प्रवृत्तियों का पोषण करें। इस प्रकार आधा जीवन-ब्रह्मचर्य और गृहस्थ-आश्रम की परिधि में रहकर भौतिक प्रयोजनों की पूर्ति में लग जाता है और उससे व्यक्तिगत एवं सामाजिक आवश्यकताओं की अपने स्तर की-आवश्यकताएँ पूर्ण होती हैं।

जीवन का उत्तरार्द्ध परमार्थ प्रयोजनों में लगाया जाना चाहिए। यह हमारी साँस्कृतिक परम्परा है। वानप्रस्थ और संन्यास की परिपाटी इसी प्रयोजन के लिए है। आधी आयु बीत जाने पर आत्म-कल्याण एवं परमार्थ प्रयोजन में जीवन धारा मोड़ दी जानी चाहिए। यही वस्तुतः दूसरा जन्म है। आदर्शवादी जीवन-नीति को स्वीकार करने वाले द्विज कहलाते रहे हैं और भौतिक लिप्साओं में निमग्न व्यक्ति अत्यन्त अछूत रह कर उपहासास्पद तिरस्कृत समझे जाते रहे हैं। जीवन के उत्तरार्द्ध को देव भाग माना गया है, जो उसे भी पशु प्रवृत्तियों के आगे फेंक दें उसे धार्मिक परिभाषा के अनुसार इसी हेय वर्ग में गिना जा सकता है।

पूर्वार्ध में भौतिक प्रगति का लक्ष्य रख कर जो प्रक्रिया अपनाई जाती है लगभग उसी की पुनरावृत्ति उत्तरार्ध में होती है। ब्रह्मचारी विद्याध्ययन और स्वास्थ्य संवर्धन इसलिए करता है कि उसे गृहस्थ के संचालन में सहायता मिलेगी। वानप्रस्थ में नये सिरे से उस ज्ञान का उपार्जन अध्ययन करना पड़ता है जो आत्म-कल्याण एवं लोकमंगल के लिए नितान्त आवश्यक है। ऐसा ज्ञान क्रमबद्ध रूप से पहले कभी दत्तचित्त से नहीं किया होता इसलिए वानप्रस्थ में स्वाध्याय को- अध्यात्म तत्व दर्शन को- लोक स्थिति के स्वरूप एवं समाधान नये सिरे से- सांगोपांग विधि अपनाना पड़ता है। उसे ज्ञानयोग की साधना कहते हैं। वानप्रस्थ मनोबल आत्मबल सम्पादन करने के लिए योगाभ्यास, तपश्चर्या तितिक्षा, मनो-निग्रह की रीति नीति य अपना कर अपनी आन्तरिक प्रखरता प्रदीप्त करता है। ब्रह्मचारी और वानप्रस्थ दोनों ही अपने-अपने स्तर का अध्ययन और स्वास्थ्य संवर्धन करते हैं। अन्तर इतना ही रहता है कि पूर्वार्ध की चेष्टाएँ होती हैं भौतिक प्रयोजनों के लिये उत्तरार्ध की मनोबल आत्मबल बढ़ाने के लिये।

वानप्रस्थ की अवधि का एक अंश ज्ञान सम्पादन एवं योगाभ्यास परक तपश्चर्या में लगता है और दूसरा अंश लोकमंगल की सेवासाधना में प्रयुक्त होता है। उसे लोकशिक्षण के लिए परिव्राजक की तरह भ्रमण करना होता है। उन दिनों शरीर में उतनी समर्थता भी रहती है कि दौड़-धूप के प्रयोजन पूरे कर सके सुदूर क्षेत्रों में आवागमन कर सके और कष्टसाध्य सेवाकार्यों को अपने बलबूते क्रियान्वित कर सके। सत्प्रवृत्तियों में जनसाधारण के साथ कन्धे से कन्धा लगाकर कदम मिलाकर कार्य कर सके। इसलिए वानप्रस्थी को ज्ञान सम्पादन और योगाभ्यास में आधे से कम समय लगाकर आधे से अधिक समय प्रत्यक्ष लोकसेवा कार्यों में समर्पण करना होता है।

आध्यात्मिक प्रौढ़ता और परिपक्वता वानप्रस्थ की अवधि पूरी करने की उपरान्त आती है। उसी आत्मिक यौवनकाल को संन्यास कह सकते हैं। आयुष्य के चौथे भाग में शरीर शिथिल हो जाता है, भागदौड़ की क्षमता वहीं रहती- कष्ट साध्य योग-साधन भी नहीं बन पड़ते। तब एक स्थान पर बैठ कर गुरुकुल चलाने जैसे सरल कार्य उन्हें चलाने होते हैं। उपासना में ध्यान प्रक्रिया ही मुख्य रह जाती है।

प्रकारान्तर से जीवन के परमार्थ-परायण उत्तरार्ध का दो स्थितियों में रहने के कारण कार्य-विभाजन दो विभागों में कर दिया गया है। जब तक शरीर में जान रहे तब तक स्वाध्याय, तपश्चर्या और सेवासाधना की दौड़-धूप। जब शरीर अशक्त-असमर्थ हो जाय तो एक स्थान पर बैठ कर अध्यापन, प्रवचन,सत्संग जैसे सेवा साधनों को तथा ध्यान−धारणा परक उपासना की पूर्ति। वस्तुतः दोनों का लक्ष्य एक ही है-शरीर की स्थिति के अनुरूप कष्ट साध्य एवं सरलतम कार्यों का विभाजन किया गया है।

आश्रम धर्म में यह उत्तरार्ध ही भारतीय धर्म की महानतम सम्पदा रही है उसी पूँजी के बल पर इस देश के नागरिकों का स्तर देवोपम रहा है और यह भूमि स्वर्गादपि गरीयसी कहलाती रही है। ज्ञानवान, प्रतिभावान् परिष्कृत भाव सम्पदा से सुसम्पन्न परम निस्वार्थ लोकसेवियों की भारी सेना जीवन क्रम के सी उत्तरार्ध मंच से निकल रही है। वही विकृतियों से जूझी है। उसी ने सत्प्रवृत्तियों का अभिवर्धन किया है। जन-मानस को पतनोन्मुख होने से उसी ने बचाया है। आदर्शवादी व्यक्तित्वों को विकसित करने में उसी की प्रमुख भूमिका रही है। अनुकरणीय सत्कर्मों का बाहुल्य उसी के प्रयास से सम्भव हुआ। धर्म सेवा ने ही असुरता को हराया और देवत्व को जिताया है। स्पष्ट है कि ऐसी स्थिति जहाँ भी रहेगी वहाँ रह क्षेत्र में प्रगति और समृद्धि के ही सुखद प्रतिफल दिखाई देंगे। यही है प्राचीन भारत की गौरव गरिमा का रहस्य। वर्णाश्रम धर्म के आधार पर बिन वेतन के- न्यूनतम निर्वाह लेकर समाज की अति महत्वपूर्ण प्रतिभायें आगे आती थीं और मानव जाति के सर्वतोमुखी उत्कर्ष के लिए अपने को समर्पित करती थीं। इतनी बड़ी पूँजी के आधार पर यदि भारत भूमि विश्व की मुकुट मणि बन कर रही हो तो इसमें आश्चर्य ही क्या है। उन महान परम्पराओं को खोकर हम मणि हीन सर्प की तरह निर्जीव और निस्तेज बनकर कूड़े के ढेर में पड़े हैं तो इसमें भी कुछ अनहोनी बात भ्रष्ट करने पर यह दुर्गति होनी ही थी जिसने हमें अत्यन्त कष्टकर त्रास के चंगुल में बेतरह जकड़ लिया है।

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