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Magazine - Year 1973 - Version 2

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वर्णाश्रम धर्म की महान पृष्ठ भूमि

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यों वर्ण-धर्म का भी अपना महत्व है। उससे श्रम एवं उत्तरदायित्वों का विभाजन होता है और एक वर्ग अपने लिए निर्धारित कार्य पद्धति निश्चित करके उस दिशा में वंश परम्परा युक्त विशेषताएँ उत्पन्न करता है। पूर्वज जिस कार्य को करते रहे हैं उसे भावी संतान भी अधिक अच्छी तरह कर सकती है। अध्यापक के बच्चे अपेक्षाकृत अच्छे अध्यापक बन सकते हैं और व्यापारी के बालकों में व्यावसायिक कुशलता का होना स्वाभाविक है। जो चर्चा जो क्रिया, जो परिस्थिति सामने रहती हैं- परम्परागत वली आती है उसमें पीढ़ियाँ स्वयमेव अधिक सुविधा अनुभव करती हैं और कुशलता बढ़ाती चलती हैं। व्यवसाय एवं श्रम-विभाजन का भी संतुलन बना रहता है; बेकारी नहीं बढ़ती। ऐसी कितनी ही विशेषताएँ थीं जिन्हें ध्यान में रखते हुए वर्ण-व्यवस्था को भारतीय संस्कृति में एक महत्वपूर्ण विशेषता के रूप में निर्मित विकसित किया गया था।

दुर्भाग्य को क्या कहा जाय-जिसने वर्ण व्यवस्था जैसी महत्वपूर्ण समाज-प्रक्रिया को, एक समाज को, खंड–विखंडों में काट कर फेंक दिया। अदूरदर्शिता पूर्ण—अनीति मूलक और अत्यन्त अहित कर ऊँच-नीच मान्यता का जन्म दिया और एक समाज के ऐसे असंख्य टुकड़े बँट कर बिखर गये जो परस्पर रोटी बेटी तक का व्यवहार करने के लिए तैयार नहीं। वर्ण-व्यवस्था का मूल स्वरूप अब लगभग नष्ट हो गया है उसके स्थान पर बिरादरी-वाद की विकृति ने जड़ जमाती है। जाति में से उपजाति की विष बेलें फूटती और फैलती चली गई हैं। यह जंजाल राष्ट्रीय जीवन में अन्तः कलह की भूमिका प्रस्तुत कर रहा है। धर्म, व्यवसाय, राजनीति आदि सब में बिरादरी-वाद का बोल-बाल है। प्रान्तवाद- भाषावाद की तरह की अब जाति-पाँति का सम्प्रदायवाद भी भीतर ही भीतर आग की तरह सुलग रहा है और राष्ट्रीय एकता को भस्मसात् करने की विभीषिका उत्पन्न करता जा रहा है।

ऐसी दशा में वर्ण व्यवस्था पर नये सिरे से विचार करना पड़ेगा और उसमें मौलिक एवं क्रान्तिकारी परिवर्तन करने होंगे। जन्म-जाति की वर्तमान मान्यताओं का उन्मूलन करना पड़ेगा। मनुष्य-मनुष्य के बीच बिरादरी के नाम पर जो ऊँच नीच की भेड़चाल चल पड़ी है उसे हटाना होगा। व्यवसाय के आधार पर वंशपरम्परागत जाति चल सकती है और भले बुरे कर्मों के आधार पर ऊंच-नीच का निर्धारण किया जा सकता है। इन क्राँतिकारी परिवर्तनों से निश्चित ही वर्ण-व्यवस्था का समयानुकूल पुनर्निर्धारण होगा। आज जो स्थिति है उसके रहते वर्णधर्म का समर्थन करना-उसे प्रोत्साहित करना आत्मघाती ही हो सकता है।

जातियाँ अपनी पंचायतें करके विभिन्न वर्गों और क्षेत्रों में फैली हुई कुरीतियों का उन्मूलन कर सकती हैं, और उपजातियों की बेड़ी काट कर जाति में जाति में-जाति का बंधन काट कर महाजाति में परिणत होने के लिए कदम बढ़ा सकती हैं। मात्र इस एक ही प्रयोजन के लिए जाति-संगठनों अथवा सम्मेलनों का समर्थन किया जा सकता है अन्यथा उस विभेद की उपयोगिता अब नष्ट ही हो गई। जब तक नये सिरे से पुनर्निर्धारण न हो जाय, वर्ण-व्यवस्था के संबंध में हमें उदासीन ही रहना होगा। प्राचीन परंपरा के अनुसार वर्ण-धर्म की उपयोगिता कितनी ही बड़ी क्यों न हो-भविष्य में उसका कितना ही अच्छा उपयोग क्यों न किया जाय पर आज की स्थिति में इस क्षेत्र में विषबेल जैसी विकृतियों की झाड़ियाँ उग पड़ी हैं उन्हीं से निपटना पड़ेगा।समर्थन एवं अभिवर्धन की बात तो इसके बाद ही सोची जा सकेगी।

आश्रम-व्यवस्था में वैसी कठिनाई नहीं है। वह आयुष्य विभाजन की शाश्वत, सनातन और सार्वभौम प्रक्रिया है। उस पर आँच आने का प्रश्न नहीं। सामयिक विकृतियों में थोड़ा सा ही हेर फेर कर देने से वह अत्यन्त महत्वपूर्ण प्रक्रिया मानत-जाति की महती सेवा करने में पुनः समर्थ हो सकती है। बाल-विवाह की प्रथा हटा दी जाय-अध्ययन और स्वास्थ्य-संवर्धन किशोरावस्था के अनिवार्य कर्तव्य ठहरा दिये जायं-शिक्षा-पद्धति में मानवोचित गुणों के समावेश का प्रबन्ध कर दिया जाय, तो ब्रह्मचर्य आश्रम पुनः पूर्वकाल जैसा ही प्रशस्त हो सकता है। परिवार संस्था में कर्तव्य और उत्तरदायित्वों का वर्गीकरण करके सुनियोजित आचार संहिता का निर्धारण करेगा जिससे परिवार के किसी सदस्य के न तो उचित अधिकारों का अपहरण हो और न निठल्ले बैठकर खाने की प्रवृत्ति पनपे। उपार्जन करने और उपार्जन न करके वालों का तालमेल न्यायोचित आधार पर बिठाया जाय। बच्चों की संख्या न बढ़ने देने के सम्बन्ध में कठोर दृष्टि रहे। बड़े लड़के अपनी वधू को लेकर अलग हो जायं और छोटे भाई बहिनों का ख्याल न रखें,इस स्वार्थी प्रवृत्ति पर नियन्त्रण किया जाय। घरों में घुटन के आतंक का वातावरण न रहकर एक सहयोग-समिति जैसी हँसती खेलती परिस्थितियाँ रहें तो अपने परिवार स्वर्ग बन सकते हैं। अर्थ व्यवस्था में सभी का परामर्श और सहयोग रहे। शिक्षा और संस्कार का घरों में आवश्यक वातावरण रहे बच्चों को कहानियों के माध्यम से जीवन की दिशा देने वाला मार्ग दर्शन मिलता रहे, तो भारत की संयुक्त परिवार वाली पद्धति समस्त संसार के लिए अनुकरणीय बन सकती है। परिवार-संस्था संसार के लिए टूट रही है, भारत में उसका स्वरूप अभी मजबूत है; यदि उसे व्यवस्थित और परिष्कृत बना लिया जाय तो समस्त विश्व को एक ऐसी दिशा मिल सकती है जिससे श्रेष्ठ समाज के निर्माण की आधी समस्या हल हो जाय। व्यक्ति और समाज के बीच की अत्यन्त महत्वपूर्ण कड़ी-परिवार संस्था है। उसे सुनियोजित करके ही समाज का पुनर्निर्माण संभव हो सकता है। इस दृष्टि से गृहस्थाश्रम का पुनर्निर्माण यदि एक व्यवस्थित आन्दोलन के रूप में चलाया जा सके तो प्राचीनकाल की आश्रम-व्यवस्था में चार चाँद लग सकते हैं। परिष्कृत गृहस्थ को घर में स्वर्ग के अवतरण की भूमिका के रूप में देख जा सकता है।

संन्यास का जो स्वरूप इन दिनों है शायद उसमें आमूलचूल ही परिवर्तन करना पड़ेगा। निठल्ले व्यक्ति लाल, पीले कपड़े पहन कर अपनी हेय गतिविधियों से समाज की जो कुसेवा करते हैं उससे केवल हानि ही हानि हाथ लगती है। भिक्षा-व्यवसाय अपने देश में जिस ढंग से पनपा है वह किसी समय देश के लिए चिन्ता, लज्जा और कलंक की बात होगी। साधु सन्तों ने प्राचीनकाल की तरह लोकोपयोगी जीवन जिया होता और उसकी गति विधियाँ सृजनात्मक रही होतीं तो अब 56 लाख से बढ़कर 80 लाख तक जा पहुँचे इस वर्ग का भार भी उठाया जा सकता था। पर जिस प्रयोजन को लेकर वे चलते हैं उसमें ऐसी कोई गुंजाइश नहीं है, इसीलिए ऐसी आशा भी नहीं रही कि वे समाज से जितना लेते हैं कम से कम उतना अनुदान तो लौटा ही सकेंगे। इस निराशाजनक स्थिति में संन्यास का सार्वजनिक समर्थन नहीं किया जा सकता। कुछ सुयोग्य और आदर्शवादी सन्त प्राचीनकाल की आश्रम व्यवस्था का आदर्श जीवित रखने के लिए दृष्टि गोचर होते रहें तो इतने से ही हमें सन्तोष करना होगा।

आश्रम-धर्म के अंतर्गत सबसे महान और सबसे महत्वपूर्ण आश्रम इन दिनों वानप्रस्थ ही हो सकता है। प्राचीनकाल में भी उसी की गरिमा सर्वोत्कृष्ट थी। व्यक्ति अपना आधा जीवन भौतिक प्रयोजनों के लिए रख कर चढ़ते खून के उभारों को सही दिशा में खर्च कर लेता था। परिवार संस्था की सेवा करता था। राष्ट्र की भौतिक समृद्धि के अभिवर्धन में योगदान देता था। पुरुषार्थ के बढ़े-बढ़े अवसरों के सहारे अनेक उपयोगी सफलताओं का सृजन करके प्रगति शील सम्भावनाएँ प्रस्तुत करता था। धन, श्रम एवं समर्थन से सत्प्रवृत्तियों का पोषण करता था। ब्रह्मचर्य भौतिक जीवन की तैयारी और गृहस्थ उसकी परिणति-इस प्रकार एक में ज्ञान दूसरे में कर्म-एक में संचय, दूसरे में प्रयोग का जोड़ा बनता था और इन दोनों आश्रमों की संयुक्त शृंखला समाज के मौलिक स्वरूप को आदर्श, उत्कृष्ट एवं सुसंपन्न, सुदृढ़ बनाने के लिए बहुत कुछ करती थी। राष्ट्र में सर्वतोमुखी समर्थता फूटती थी। प्रगति और समृद्धि के बहुमुखी प्रयोजन ब्रह्मचारी और गृहस्थ का सुसम्बद्ध युग्म ही पूर्ण करता था। इसलिए उसकी उपयोगिता सर्वमान्य समझी जाती रही है और समझी रहेगी।

जीवन का उत्तरार्ध भारतीय संस्कृति के निर्माणकर्ता मनीषियों की दृष्टि से परमार्थ-प्रयोजनों के लिए ही नियत निर्धारित किया गया है। इसमें व्यक्ति और समाज दोनों का आत्यन्तिक हित साधन सन्निहित है। पूर्वार्ध व्यतीत कर लेने के उपरान्त व्यक्ति की इन्द्रिय-जन्म वासनाओं और मनोविकार से संबद्ध तृष्णाओं की निरर्थकता का तब तक भली भाँति अनुभव हो चुकता है और उसकी लिप्सा-लालसाएं आयु ढलने के साथ-साथ तृप्त नहीं तो शिथिल अवश्य हो लेती हैं। लोभ और मोह के आवेशों का खोखलापन स्पष्ट हो लेता है। ऐसी दशा में आन्तरिक उद्वेगों की धमाचौकड़ी घट जाने से अन्तः स्थिति में विवेक और संतुलन की इतनी मात्रा उत्पन्न हो जाती है कि आत्मकल्याण एवं परमार्थ-प्रयोजन के लक्ष्य की ओर शान्ति, स्थिरता एवं गम्भीरता पूर्वक कदम बढ़ा सकें।

ऐसी आयु में आत्मा को आनन्द विभोर कर देने वाली ब्रह्मविद्या का तत्व-चिन्तन मनन, स्वाध्याय और निदिध्यासन संभव हो जाता है। आत्मबोध और तत्वबोध की ज्ञान साधना से ही ऋतम्भरा प्रज्ञा प्रकट होती है और जीवात्मा का ‘भूमा’ स्थिति प्रज्ञता में प्रविष्ट होना संभव होता है। आत्मा की यह भूख बुझाने के लिए नये सिरे से विद्याध्ययन करना पड़ता है-यह ब्रह्मचारी की लौकिक शिक्षा से सर्वथा भिन्न होता है, वानप्रस्थ लेने का प्रथम सोपान है-ब्रह्मविद्या का पारायण करना, उसमें पारंगत होना- ज्ञानमृत से परिपूर्ण व्यक्ति ही ब्रह्मनिर्वाण प्राप्त करते हैं और लोक निर्माण जैसे महान प्रयोजन के लिए अधिकारी बनते हैं, यह कहने की आवश्यकता नहीं।

उत्तरार्ध में जिस वानप्रस्थ आश्रम की उपयोगिता मनीषियों ने जोर देकर प्रतिपादित की है उसका दूसरा चरण है- तप साधना, योगाभ्यास। आत्मा पर चढ़े हुए कषाय कल्मष और मल, आवरण एवं विक्षेपों का निवारण निराकरण इसी अग्नि संस्कार द्वारा संभव होता है। दबी हुई आन्तरिक प्रखरता इसी मार्ग पर चलने से निखरती है। आत्मबल के सम्पादन का प्रधान मार्ग तप ही तो है तपस्वी ही प्रकारान्तर से तेजस्वी होता है- अन्तः क्षेत्र में- पंचकोशों में-षटचक्रों में-तीन शरीरों में जो एक से एक अद्भुत विभूतियाँ दबी पड़ी हैं, उन्हें सुषुप्त मूर्छना से उवार कर प्रखर एवं प्रचण्ड बनाने का मार्ग तप ही है। योग के बिना आत्मा को परमात्मा से जोड़ो नहीं जा सकता और जब तक ईश्वरीय समर्थन-सहयोग प्राप्त न हो तब तक महामानवों की--ऋषि भूमिका में प्रवेश करना कठिन पड़ता है। आत्मा को--देवात्मा बनाते हुए उसे परमात्मा स्तर तक पहुँचा देना, योग-साधना द्वारा ही संभव है। इसलिए तप-साधना का परम पुरुषार्थ भी करना पड़ता है। श्रेयार्थी के लिए तपस्वी जीवन की रीति-नीति अपनानी ही पड़ती है। ब्रह्म-तेजस उसी से निखरता है। इसी बलिष्ठता के--समर्थता के आधार पर व्यक्ति अपनी जीवन-नौका को खेता हुआ लक्ष्य तक ले पहुँचता है और साथ ही उसमें बिठा कर अनेकों को पार कर सकता है।

ब्रह्मविद्या की उपलब्धि और योगाभ्यास परक तपश्चर्या के अतिरिक्त परमार्थ जीवन का तीसरा चरण है-- सेवा-साधना। भौतिक सेवा-साधना तो धनी मानी लोग कर सकते हैं पर जन-मानस में उत्कृष्टता को बोना, उगाना और बढ़ाना केवल ब्रह्म परायण लोगों के लिए ही संभव होता है। उसे बकवादी वक्ता पूरा नहीं कर सकते। धर्मशाला, मन्दिर, प्याऊ, सदावर्त, विद्यालय, चिकित्सालय, उद्योगशाला, व्यायामशाला जैसे अर्थसंभव परमार्थ प्रयोजन धनीमानी लोग ही करते हैं। उनके धन का सदुपयोग भी ऐसे ही कार्यों का जन-मानस में आरोपण, अभिवर्धन केवल उच्च कोटि के परमार्थ-परायण व्यक्ति ही कर सकते हैं। धन-लोलुप प्रचारक तो लोकरंजन भर कर सकते हैं। उनकी उछल कूद सुनने वालों का कौतूहल ही तृप्त कर सकती है। किसी को बदल सकना उनके लिए अशक्य है। जिसने अपने को ही नहीं बदला वह दूसरों को कैसे बदलेगा। वक्ताओं और प्रचारकों की सेना हर संस्था द्वारा भरती की जाती है पर उसमें प्रोपेगेण्डा एवं धन उपार्जन के अतिरिक्त और कोई भाल नहीं होता। ऊँचा उठाने और परिवर्तन करने के लिए ऐसे व्यक्तित्व ही समर्थ हो सकते हैं जो स्वयं ऊँचे उठे हैं जिन्होंने अपना परिवर्तन किया है। समाज की इस महती सेवा साधना को ज्ञानवृद्ध-तपस्वी एवं सेवा परायण वानप्रस्थ ही पूरा कर सकते हैं। उन्हें ही करनी भी होगी।

जीवन के पूर्वार्ध की आनन्द-उपलब्धियाँ अपने ढंग की हैं-उन्हें जाना समझा गया है इसलिए उनका आकर्षण सर्व विदित है पर उत्तरार्ध की सांस्कृतिक परम्परा के अनुरूप यदि जिया जा सके तो उसका आनन्द-आकर्षण पूर्वार्ध की तुलना में अत्यन्त उच्चकोटि का और उत्कृष्ट स्तर का होगा। कठिनाई एक ही है कि उस क्षेत्र में प्रवेश करके अपनी दिव्य अनुभूतियों का रसास्वादन सर्वसाधारण पर प्रकट कर सकें ऐसे व्यक्ति दृष्टिगोचर ही नहीं होते।

बचपन के खेल-कूद, आमोद-प्रमोद, निश्चित मनः स्थिति-बड़ों का स्नेह-संरक्षण, उत्साह भरी प्रकृति, मनोवृत्ति, अभिनव काय-कलेवर का सौंदर्य-उल्लास देखते ही बनता है। इसलिए बचपन की याद बुढ़ापे में बेतरह सताती रहती है। पढ़ने और खेलने के अल्हड़ दिनों का स्मरण बार-बार आता रहता है। यह आनन्द अपने ढंग का अनोखा ही था।

युवावस्था की मादकता भी अपने ढंग की अनोखी ही होती है। अर्थ उपार्जन का गौरव, दाम्पत्य जीवन के गुह्य आकर्षण की कसक, पिता बनने का गर्व, परिपुष्ट शरीर की साहसिकता, बढ़-चढ़ कर किये गये पुरुषार्थों का श्रेय सम्मान जैसी अगणित उपलब्धियाँ यौवन काल की हैं। दिवानी जवानी कुछ ऐसी ही होती है जिस में पैर धरती पर नहीं जमता-वे अधर में चलते हैं और आसमान में बिना पंखों के उड़ते हैं। कल्पनाओं, कामनाओं और आकाँक्षाओं की सघन घटायें मस्तिष्क के अन्तरिक्ष में ऐसी उमड़ती घुमड़ती हैं कि हर घड़ी सावन बरसता सरसता रहता है। जिससे झगड़ना पड़ा उसके प्रति रोष-प्रतिशोध भी ऐसा गर्जन तर्जन करता है मानो आज नहीं तो कल प्रलय ही प्रस्तुत की जानी है। ऐसे सुहावने होते हैं दिन-जवानी के। बुढ़ापा जब उसकी याद करता है तो आठ-आठ आँसू रोता है। जरा जीर्ण अवस्था सामने आने पर मनुष्य कितनी अन्तर्व्यथा अनुभव करता है इस तथ्य को देखकर यह सहज ही जाना समझा जा सकता है कि जवानी के दिनों का कितना अधिक मूल्य महत्व है। भौतिक उपलब्धियाँ और और सरसताएं इन्हीं दिनों तो ऐसी ललक उत्पन्न करती हैं जिससे मनुष्य मदान्ध मादकता में खोया भोया रहता है।

भौतिक जीवन की सरसता जीवन के पूर्वार्ध में अपनी पूर्णाहुति सम्पन्न कर लेती है। उत्तरार्ध-सांसारिक दृष्टि से रुग्णता, पीड़ा, असमर्थता, अपमान और उपेक्षा की अवधि है। ज्ञानेन्द्रियां साथ छोड़ती जाती हैं और कर्मेन्द्रियों की शिथिलता बढ़ती है। अनुपयोग भारभूत। निठल्ला और उपेक्षित उपहासास्पद जीवन काटना कठिन हो जाता है। एक-एक दिन भारी पड़ता है। गुजरे हुए दिन याद आते हैं तो कांटे जैसे, डंक जैसे चुभते हैं। खीज बढ़ती है और स्वभाव में चिड़चिड़ापन आता है। यहां जायं, वहां बैठें ऐसे ही ताना-बाना बुनते रहते हैं पर चैन कहीं नहीं- जहां भी जायं उपेक्षा अवज्ञा ही हाथ लगती है।

जीवन का उत्तरार्ध भौतिक दृष्टि से अपने लिए कष्ट कारक और परिवार के लिए क्रमशः अधिकाधिक भार भूत होता चला जाता है। वे दिन भी निकट आते हैं जब स्वयं भगवान से मौत माँगनी पड़ती है और घर वाले मन ही मन वैसी प्रार्थना कामना करते हैं। इस हेय स्थिति के आने से पूर्व यदि समय रहते सजग हो सका जाय और अध्यात्म भूमिका में प्रवेश करके अपनी गतिविधियों को वानप्रस्थ स्तर की बना लिया जाय तो प्रतीत होगा कि नया जन्म हो गया। पूर्वार्ध जितना आनन्दमय और शानदार था उससे हजार गुनी अधिक प्रसन्नता और सरसता प्रदान करने वाली संजीवन मूँरि हाथ लग गई। वानप्रस्थ की विधि व्यवस्था दूरदर्शी ऋषि मनीषियों ने इसी दृष्टि से बनाई और उसे साँस्कृतिक जीवन प्रक्रिया में अत्यन्त उच्चकोटि का स्थान दिया है।

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