
गायत्री का वाहन राजहंस
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भगवती गायत्री का वाहन राजहंस माना गया है। यह उस हंस वृत्ति का प्रतीक है जिसके सम्बन्ध में शास्त्रकारों की अपनी कल्पना और मान्यता है। जलाशयों के निकट पाये जाने वाले हंस पक्षी उन गुणों से युक्त नहीं पाये जाते जिन्हें भगवती गायत्री के वाहन राजहंसों से विभूषित माना गया है।
नीर−क्षीर विवेक राजहंसों की विशेषता है। दूध पानी मिला होने पर वे दूध पीते हैं और पानी अलग कर देते हैं। यह गुण सामान्य हंसों में नहीं पाया जाता। उन्हें दूध कौन पिलायेगा? वे दूध कहाँ पायेंगे? फिर यदि दूध मिल भी जाय तो उनमें पानी को पृथक करके दूध पीने की विशेषता कहाँ होती है। इसी प्रकार यह भी कहा जाता है—”कै हंसा मोती चुगै कै लंघन मरि जाँय” अर्थात् हंस या तो मोती चुगेंगे या लंघन—निराहार—मर जायेंगे। अर्थात् मोती के अतिरिक्त वे और कुछ नहीं खाते। उपलब्ध हंसों पर यह उक्ति लागू नहीं होती। वे कीड़े−मकोड़े खाते हैं। मोती गहरे समुद्रों में पाये जाते हैं, उतनी गहराई तक डुबकी लगा कर जाना और मोती की सीपें तलाश करके उनका पेट चीर कर मोती पाना इन हंसों के लिए सम्भव नहीं। वे सामान्य पक्षियों जैसे ही होते हैं।
राजहंसों का अलंकारिक रूप हंस पक्षियों जैसा चित्रित किया तो गया है पर वस्तुतः वे शुभ्र पवित्रता, विवेकशीलता एवं शालीनता के प्रतीक हैं। यह विशेषताएँ जिन व्यक्तियों में हों उन्हें हंस कहा गया है और यह माना गया है कि दिव्य सत्ता उन्हीं को अपने अनुग्रह का पात्र हंस नियत करेगी।
हंस गुणों का वर्णन कितने ही काव्य ग्रन्थों में कितनी ही प्रकार से वर्णित किया गया है। वस्तुतः वह वर्णन हंस पक्षियों पर लागू नहीं होता वरन् शालीनता युक्त श्रेष्ठ व्यक्तियों पर ही घटित होता है।
एक वर्णन में राजहंस से कहा गया है, श्वेत जल अथवा काला जल उनके शुभ्र कलेवर को प्रभावित नहीं कर सकता। किसी भी भली−बुरी परिस्थिति में रहकर श्रेष्ठ व्यक्ति अपनी मौलिक शालीनता को अक्षुण्ण बनाये रहते हैं यही उस प्रतिपादन के पीछे अलंकारिक तथ्य है।
एक सुभाषित है—
गांगमम्बुसितमम्बु यामुनं
कज्जलाभमुभयत्र मज्जतः।
राजहंस तव सैव शुभ्रता
चीयते न च न चापयोचते॥
हे राजहंस! गंगा का जल श्वेत है और यमुना का काजल जैसा काला है। तुम दोनों में से किसी में स्नान करो, तुम्हारा अपना शुभ वर्ण हल्का होने की जगह अधिक निखर उठता है।
बहु संख्यक क्रिया कुशल व्यक्तियों की तुलना में महानता युक्त एक व्यक्ति ही किसी देश या युग का गौरव होता है। इस तथ्य का वर्णन कवियों ने एक हंस और अनेक बगुलों के झुण्ड के साथ करते हुए कहा है।
एकेन राहहंसेन या शोभा सन्सो भवेत्।
न सा बकसहस्रेण परितस्तीरवासिना॥
तालाब में रहने वाले एक राजहंस से तालाब की जो शोभा बढ़ती है, वह किनारे पर घूमने वाले हजारों बगुलों से भी नहीं हो सकती।
सुख−सुविधाओं के साधन एक से एक बढ़कर जहाँ तहाँ पाये जा सकते हैं। पर राजहंस प्रवृत्ति के व्यक्ति अपने लिए श्रेष्ठतम कर्त्तव्य पालन का स्थान ही चुनते हैं और नवीनताओं का−सुविधाओं का विचार न करते हुए अपने कर्म क्षेत्र में ही जमे रहते हैं। इस तथ्य का वर्णन इस प्रकार है—
अस्ति यद्यपि सर्वत्र नीरं नीरजमण्डितम्।
रमते न मरालस्य मानसं मानसं विना॥
यद्यपि सभी स्थानों पर कमलों से सुशोभित जलाशय विद्यमान है; परन्तु हंस का मन मानसरोवर के अतिरिक्त अन्यत्र कहीं नहीं रमता।
विपन्नताओं के रहते हुए भी श्रेष्ठ व्यक्ति अपने कर्त्तव्य पथ को नहीं छोड़ते। भले ही उन्हें हेय स्थिति अपनाने पर कितनों का ही सहयोग या कितनी ही सम्पदा क्यों न मिले। कहा भी है—
पुरा सरसि मानसे विकचसारसालिस्खलत्−
परागसुरभीकृते पयसि यस्य यातं वयः।
स पल्वलजलेऽधुना मिलदनेकभेकाकुले
मरालकुलनायकः कथय रे कथं वर्तताम्॥
जिस हंसों के राजा ने खिले हुए कमलों से झड़ते हुए पराग से सुगन्धित, मानसरोवर के जल में आयु व्यतीत की है, अब वह मेंढकों की भीड़ के कारण विक्षुब्ध पोखर के पानी में कैसे निवास करेगा?”
आश्रयदाता के प्रति कृतज्ञता, उपकारी का प्रत्युपकार, मित्र का स्नेह निर्वाह का ध्यान रखते हुए सदा उनके प्रति कोमल अभिव्यञ्जनायें रखना यह सज्जनों की विशेषता होती है। उपकारी के प्रति अनुपकार करना—मित्र के साथ विश्वासघात करना—वे सबसे बड़ा पातक मानते हैं। शास्त्रों में मित्रद्रोही को सबसे बड़ा पापी कहा है। “ब्रह्म हत्या मुच्यते पाप मित्र द्रोही न मुच्यते” “ब्रह्म हत्या करने वाला प्रायश्चित करके पाप मुक्त हो सकता है पर मित्र द्रोही का पाप−पंक से कभी छुटकारा नहीं मिलता। यह सोचकर वह मित्र कर्त्तव्य का पालन हर स्थिति में अनवरत रूप से करता रहता है। कवि कहता है—
भुक्त मृणालपटली भवता निपीतान्य−
म्बनि यत्र नलिनानि निषेवितानि।
रे राजहंस! वद तस्य सरोवरस्य
कृत्येन केन भविताऽसि कृतोपकार॥
हे राजहंस! जिस सरोवर के कोमल मृणालों का तुमने भोजन किया, जल रूपी अमृत का पान किया और नलिनों का उपभोग किया, उसके उपकार का बदला कैसे चुका सकोगे?
निन्दकों, कटुभाषियों और विद्वेषियों के आरोपों से विचलित न होकर अपने सन्तुलन को अक्षुण्य बनाये रहना। उनके प्रतिरोध में लगने वाली शक्ति को बचा कर अपने निर्धारित लक्ष्य में अविचल भाव से लगे रहना राजहंस की विशेषता बताई गई है।
अपसरणमेव शरणं मौनं या तत्र राजहसस्य।
कटु रटति निकटवर्ती वाचालष्टिट्टिभो यत्र॥
यदि समीप बैठा हुआ कोई टिट्टिभ (टिटहरी) कर्ण कठोर स्वर में निरन्तर टें−टें करता रहे, या तो वह वहाँ से हटकर दूसरी जगह चला जाये अथवा चुपचाप बैठा रहे।
नीर−क्षीर विवेक की प्रख्यात विशेषता को भी कवियों ने बड़े भाव पूर्ण शब्दों में स्मरण किया है।
नीरक्षीरविवेके हं सालस्यं त्वमेव तनुषेचेत्।
विश्वस्मिन्नधुनान्यः कुलव्रतं पालयिष्यति कः?
हे हंस! यदि तुम्हीं नीर क्षीर−विवेक में प्रमाद करने लगे, तो संसार में अपने कुल के व्रत का पालन और कौन करेगा?
भगवती गायत्री का वाहन राजहंस जलाशयों के समीप पाया जाने वाला सामान्य हंस पक्षी नहीं वरन् अनेक दिव्य गुणों से विभूषित—शालीनता सम्पन्न महामानव ही है। उसी पर दिव्य शक्तियों का अनुग्रह बरसता है वे ही अपनी पीठ पर भगवान को प्रतिष्ठापित देखने का सौभाग्य प्राप्त करते हैं।