
धर्माचरण की मर्यादा और गंभीरता
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एक प्रख्यात बौद्ध जातक कथा का सार इस प्रकार है—
इन्द्रप्रस्थ के राजा धनंजय के घर अति प्राचीन काल में बोधिसत्व ने एकबार पुत्र रूप में जन्म लिया था। पिता के मरने पर वे सिंहासनारूढ़ हुए। उनकी न्याय−निष्ठा और दानशीलता की ख्याति समस्त जम्बू द्वीप में फैल गई। प्रजा धर्मशील थी और सुखी भी।
कलिंग देश में उन्हीं दिनों अनावृष्टि के कारण दुर्भिक्ष पड़ा। प्रजा क्षुधित और रुग्ण होकर मरने लगी, जिनसे बन पड़ा वे देश छोड़कर भाग गये।
प्रजा के दुख को देखकर कलिंग राज बहुत दुखी हुए और देश के विज्ञजनों को बुलाकर दुर्भिक्ष निवारण का उपाय पूछने लगे।
एक वयोवृद्ध ने कहा−दुर्भिक्ष के समय पुराने राजा अपना समस्त राज्यकोष दान कर देते थे और एक महीने तक घास पर सोते थे और व्रत रखते थे। ऐसा करने से वर्षा हो जाया करती थी। राजा ने तुरन्त वही कर डाला। दान, व्रत और भूमिशयन की क्रिया सही रूप से पूरी हो जाने पर भी वर्षा नहीं हुई।
दूसरी सभा बुलाई गई। एक ज्योतिषी ने कहा—कुरु देश के राजा के पास अजन वसभ नामक माँगलिक हाथी है वह किसी प्रकार अपने देश में आ जाय तो दुर्भिक्ष दूर हो जायगा। कलिंग नरेश ने उस हाथी की याचना के लिए दूत भेजे। उदार कुरु राजज ने वह प्रार्थना स्वीकार करली और तत्काल हाथी दान में दे दिया। मंगल गज आ तो गया पर वर्षा इससे भी न हुई।
तीसरी सभा बुलाई गई। उसमें बहुत विवेचना के पश्चात् निष्कर्ष निकला कि इन्द्रप्रस्थ में कभी दुर्भिक्ष नहीं पड़ता वहाँ की प्रजा धर्माचरण करती है और सदा सर्व सुख रहती है। हमारे देश में अधर्माचरण बढ़ गया है अस्तु दुर्भिक्ष पड़ा। हमें इन्द्रप्रस्थ नरेश से धर्माचरण के नियम पूछने चाहिए, उन्हें स्वर्ण पटल पर लिखाकर मँगाना चाहिए और प्रयोजनों को उन्हें पालन करने के लिए बाधित करना चाहिए तभी वर्षा होगी।
कलिंग नरेश ने आठ ब्राह्मणों का दल इन्द्रप्रस्थ भेजा, नरेश ने लिखवाया—”निष्ठुर मत बनो। बिना परिश्रम का धन मत लो। छल और दम्भ मत करो। स्नेह सौजन्य बरतो। संयम बरतो और प्रसन्न रहो।” इतना लिखा देने पर राजा को सन्देह हुआ कि यह नियम अपूर्ण हो सकते हैं। धर्म तत्व को निर्देशक नहीं उसके प्रयोक्ता ही जानते हैं। सो उन्होंने ब्राह्मणों को अपनी धर्मनिष्ठ माता के पास भेजा कि जो इसमें कमी हो उसे उनसे पूरी करालें।
ब्राह्मण मण्डली राजमाता के पास पहुँची। राजमाता ने कहा—धर्माचरण के लिए सतत प्रयत्नशील रहने पर भी मुझसे भूल होती हैं सो आप लोग उपरांत के पास जायें वे मुझसे अधिक जागरूक हैं। उपरांत ने भी अपनी प्रयत्नशीलता की बात तो कहीं पर साथ ही यह भी माना कि अभी उन्हें बहुत कुछ सुधरना शेष है। इसलिए धर्म तत्व का विवेचन अधिकारी कर्त्तव्यनिष्ठों से कराया जाय। इसके लिए मैं नहीं विद्रुध आमात्य के पास वे पधारें।
ब्राह्मण आमात्य के पास पहुँचे। आमात्य डंडे में रस्सी बाँधकर खेतों की लम्बाई−चौड़ाई नाप रहे थे। इस प्रयास में उनके पैरों से एक मेढ़क कुचल कर मर गया। वे खिन्न बैठे। ब्राह्मण दल ने उनसे अपना अभिप्राय व्यक्त किया। आमात्य बोले आप देखते नहीं मैंने कर्त्तव्य−पालन के साथ−साथ बरनी जाने वाली सतर्कता में चूक करदी। प्रमादी तो अधार्मिक होता है। मैं धर्म−शिक्षा का अधिकारी कहाँ रहा? आप सुधार सारथी के पास जाइये वह बिना प्रमाद के धर्माचरण करने में प्रख्यात हैं।
सारथी ने अपनी भूलें बताते हुए कहा—सही चाल से चलने पर भी मैंने एकबार घोड़ों को द्रुतगति से दौड़ने के लिए भावुक बरसाये थे और यह ध्यान में नहीं रखा था कि इससे उन्हें कितना अनावश्यक कष्ट होगा। जिसकी सहानुभूति में न्यूनता है वह धर्मोपदेश क्या करे? आप अनाभ श्रेष्ठि के पास जाय वे माने हुए धर्मात्मा हैं। अनाभ ने ताजी घटना सुनाई जिसमें उन्होंने राज्य का कर भाग चुकाये बिना खेत से कुछ कच्चा अन्न भूनकर खा लिया था। खाते समय यह ध्यान नहीं रखा था कि कर चुकाने के बाद ही खाना चाहिए। फिर भला मैं धर्म−शिक्षा कैसे दूँ। उपदेश तो वह करे जो आचरण में खरा हो। आप विरोजन आमात्य के पास जाय वे इसके अधिकारी हैं।
महामात्य मुँह लटकाये बैठे थे। उनके जिम्मे किसानों के उपार्जन का छठा अंश राज्य कर के रूप में नापना था। कल एक किसान के अनाज की ढेरी उनने नापी थी। विभाजन की मध्य रेखा बनाने के लिए उन्होंने थोड़ा सा अनाज चिह्न प्रतीक के रूप में रख दिया था। नाप पूरी होते−होते वर्षा आ गई। महामात्य ने वह चिह्न प्रतीक वाला अन्न जल्दी में उठाकर राज्य भाग में डाल दिया और वह राज्यकोष में जमा हो गया। वे सोच रहे थे इस भूल से राजा को अनुचित लाभ मिला और किसान के साथ अन्याय हुआ। जब मुझे न्याय के लिए भेजा गया था उसमें पूर्ण सतर्कता बरतनी चाहिए थी। ब्राह्मणों को उनने अपनी भूल बता दी और कहा आप सुधीर द्वारपाल के पास जायँ।
द्वारपाल ने ब्राह्मणों की बात सुनी और एक घटना सुनाई। राजदरबार में एक युवक अपनी बहिन को लेकर किसी न्याय प्रयोजन के लिए आया था। वे हँसते−हँसते जा रहे थे। मैंने उन्हें व्यभिचारी समझा और कटु शब्दों में डाँटा। जब उन लोगों ने अपने सम्बन्ध बताये तो मुझे दुख हुआ कि बिना पूरी बात जाने मैंने केवल सन्देह के आधार पर क्यों खोटी मान्यता बना ली? आप ही बतायें कि जिसका आचरण संदिग्ध हो वह शिक्षा कैसे दे? आप चन्द्रवती वेश्या के पास जाँय।
वेश्या ब्राह्मणों की बात सुनकर रुँआसी हो गई। उसने सुनाया एक परदेशी युवक ने सहस्र मुद्रा देकर मुझे एक वर्ष प्रणय क्रीड़ा के लिए अनुबंधित कर लिया। अचानक उसे स्वदेश लौटना पड़ा। तीन वर्ष तक मैंने उसकी प्रतीक्षा की जब कुछ पता न चला और भूखी मरने लगी तो दूसरे युवक का अनुबंध स्वीकार कर लिया। अब इस सोच में पड़ी हूँ कि कहीं प्रथम युवक के साथ मैं विश्वासघात तो नहीं कर बैठी? मेरा धर्माचरण नष्ट तो नहीं हो गया? ऐसी असमंजस युक्त मनःस्थिति में किस प्रकार आपको कुछ परामर्श दूँ।
ब्राह्मण इन सबके क थन का सार अपने मन से जमाकर राजा के द्वारा लिखाये गये निर्देशों वाले स्वर्ण पटल समेत कलिंग देश चल पड़े। राज्य सभा में उन्होंने समस्त विवरण सुनाया और कहा धर्माचरण की मोटी मर्यादा तो इस पटल पर लिखी है। उनका मर्म रहस्य यह है “कि हर व्यक्ति अपने आचरण की गहरी समीक्षा करे, सुधार के लिए सचेष्ट रहे। विनम्र बने और अपनी अपेक्षा दूसरों को श्रेष्ठ माने।”
कलिंग राज ने स्वर्ण पटल पर लिखी मर्यादाओं के साथ−साथ ब्राह्मणों द्वारा परखे गये धर्म रहस्य भी जोड़ दिये और उन्हें पालन करने के लिए प्रजा को मनाया।
जैसे ही धर्माचरण का पालन आरम्भ हुआ वैसे ही विपुल वर्षा होने लगी और दुर्भिक्ष का स्थान सुभिक्ष ने ले लिया।