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Magazine - Year 1974 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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अपनों से अपनी बात - प्रस्तुत जीवन−मरण के संकट से जूझने की चुनौती

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First 37 39 Last
‘अखण्ड−ज्योति’ को निकलते 37 वर्ष पूरे होने को है। इस लम्बी अवधि में उसे ऐसे संकट का सामना कभी नहीं करना पड़ा जैसा इन दिनों उपस्थित है। इसे एक प्रकार से जीवन−मरण की समस्या कह सकते हैं।

पिछले कुछ ही समय में कागज के दाम तीन गुने बढ़ गये। छपाई की लागत ढाई गुनी जा पहुँची। मजदूरी हर काम की बढ़ी है। पोस्टेज बढ़ गया। इन सब बढ़ोतरियों को जोड़ने से अखण्ड−ज्योति की मूल लागत दूनी हो गई। गत वर्ष चन्दा 7) था अब उस पर खर्च 14) आता है। गत वर्ष एक रुपया बढ़ाया भी था सात से आठ किये थे, पर वह तो जलते तवे पर पानी की एक बूँद की तरह जल गई उससे लागत और बिक्री का सन्तुलन बनाने में रत्तीभर भी सहायता नहीं मिली। गत वर्ष सोचा गया था महंगाई तात्कालिक है। अगले दिनों दाम गिरेंगे तो सन्तुलन बन जायगा, पर आशा के सर्वथा विपरीत मूल्य वृद्धि का क्रम दावानल की तरह बढ़ता चला गया।

यह कहने की आवश्यकता नहीं कि अखण्ड−ज्योति सदा से लागत से कुछ कम मूल्य पर ही दी जाती रही है। उसका अपना कुछ प्रकाशन रहा है जिसमें रहने वाले लाभाँश से उस कमी की पूर्ति करते रहने की नीति बनी चली आ रही है। लागत से कभी भी उसका चंदा अधिक नहीं रखा गया। अन्य पत्र पत्रिकाएँ अपनी आय विज्ञापनों से बढ़ाते हैं। अपनी नीति वह भी नहीं रखी गई। विज्ञापनदाता कोई दानी तो होते नहीं। विज्ञापन छपाने से जो आमदनी होती है उसका एक अंश छपाई में दे देते हैं। पाठकों को दुहरा बोझ पड़ता है। विज्ञापनदाता पत्रिका के पाठकों से खूब कमाते हैं। इस आमदनी में मूल्य अत्यधिक रखने और कई बार तो हानिकारक बेकार चीजों को बहुत लाभदायक बताकर पाठकों के गले मढ़ दिया जाता है। इसमें माध्यम पत्र बनते हैं। ‘विज्ञापनदाता ने बेचा—पाठकों ने खरीदा—इसमें किसने कमाया, किसने खोया इसमें हमारा क्या दोष?’ यह कहकर पत्रिकाएँ अपने दोष से मुक्त नहीं हो सकती। दलाली की भूमिका तो उन्होंने निभाई।

अखण्ड−ज्योति अपने प्रिय पाठकों के हितों की अपने आपको संरक्षक मानती रही है। उसे अवाँछनीय दलाली की आमदनी स्वीकार नहीं। इसलिए विज्ञापन आरम्भ से ही नहीं लिए गये और उस नीति को अंत तक नहीं लाया जायगा भले ही पत्रिका बन्द क्यों न करनी पड़े। इसी प्रकार दान संग्रह करके—किसी से लेना किसी को देना हमें पसन्द नहीं। पाठकों को उचित मूल्य देकर उपयोगी वस्तुएँ खरीदने की आदत डालना एक स्वस्थ परम्परा है। दान के आधार पर सस्ती की गई चीजें खरीदार को भिक्षुक के स्तर पर ला बिठाती है। समर्थ व्यक्तियों के लिए इस प्रकार का लाभ उठाना अनैतिक है। अखण्ड−ज्योति का आदर्शवाद इस बात के लिए भी इजाजत नहीं देता कि सम्पन्न लोगों से धन लेकर पत्रिका का घाटा पूरा किया जाय। उसने अपने ही साधनों से एक मद की कमी दूसरी मद से पूरी करने की पद्धति अपनाई। पुस्तकों के लाभाँश से पत्रिका से रहने वाला घाटा पूरा किया। यह अन्तर्व्यवस्था है। दोनों के खरीदार एक ही थे। इस प्रकार पत्रिका पुस्तकें मिलाकर लागत का सन्तुलन बनाया जाता रहा। पर अब तो वैसी स्थिति भी नहीं रही। क्या पुस्तकें क्या पत्रिकाएँ सभी की मूल लागत एक से अनुपात से बढ़ी हैं, अस्तु पुस्तकों का लाभाँश भी समाप्त हो गया।

अब विकल्प दो ही हैं या तो पत्रिका बन्द कर दी जाय या उसका मूल्य उतना बढ़ाया जाय जो लागत के लगभग समीप जा पहुँचे। इस दृष्टि से मूल्य 14) किया जाना चाहिए।

अपनी ओर से इस बढ़ोतरी की घोषणा आसानी से की जा सकती है। पर प्रश्न पाठकों की आर्थिक स्थिति पर पड़ने वाले दबाव का भी है। इस कमरतोड़ महँगाई ने उस नीचे मध्य वर्ग के जिसके सदस्य अधिकाँश अखण्ड−ज्योति पाठक हैं—बेतरह अर्थ संकट में फँसा दिया है। लगातार मिशन की प्रेरणाओं ने उन्हें अनुचित कमाई से भी विरत कर दिया है। ईमानदारी की आमदनी सीमित होती है उसमें आवश्यक खर्चों का जुटाना ही कठिन पड़ रहा है। लोगों को भोजन, वस्त्र जैसी प्रारम्भिक निर्वाह आवश्यकताओं में भी कटौती करनी पड़ रही है और जीवित रहने के लिए सौ प्रकार सोचना पड़ रहा है। ऐसी दशा में अखण्ड−ज्योति का चन्दा भी बढ़े तो फिर उनकी कठिनाई और भी बढ़ सकती है। कटौती की कैची पत्रिका न मँगाने के रूप में भी चल सकती है।

ग्राहक संख्या घट सकती है। ऐसी दशा में बढ़ा हुआ चन्दा भी आर्थिक सन्तुलन बना सकने में समर्थ न हो सकेगा। एक और मूल्य तो बढ़े पर दूसरी ओर ग्राहक संख्या घट जाय तो फिर घाटा जहाँ का तहाँ बना रहेगा। अर्थशास्त्र का सर्वविदित सिद्धान्त है कि वस्तुओं का उत्पादन जितने बड़े पैमाने पर होगा उतनी ही लागत का अनुपात कम पड़ेगा। कम तादाद में बनाई गई चीजों की लागत बढ़ जाती है। वही बात अखण्ड−ज्योति पर भी लागू होगी चन्दा बढ़ाने से ग्राहक घटे तो वह बढ़ाना भी निरर्थक चला जायगा। मूल्य बढ़ाने से एक ओर पाठकों पर पड़ने वाले दबाव का संकोच दूसरी ओर ग्राहक घटने की आशंका का भय। दोनों स्थितियों पर विचार करने से असमंजस जहाँ का तहाँ बना रहता है। समस्या का हल निकलता नहीं।

एक ओर कुँआ दूसरी ओर खाई के बीच खड़े हुए असमंजस की घड़ी में अन्ततः एक ही दुस्साहस करने का निष्कर्ष निकाला है कि चन्दा बढ़ा दिया जाय और पाठकों की रुचि एवं निष्ठा को कसौटी पर चढ़ने दिया जाय। उन्हें हर वस्तु का बढ़ा हुआ मूल्य देकर ही अपना निर्वाह चलाना पड़ रहा है यदि अखण्ड−ज्योति उन्हें आवश्यक और उपयोगी प्रतीत होगी तो वे उसे लेंगे। यदि वह ऐसे ही कूड़ा−कचरा है—अनावश्यक और भार रूप है तो फिर वे मँगाना बन्द कर ही देंगे कटौती की मद में आने वाली अन्य अनावश्यक चीजों में से एक इस पत्रिका को भी मान लेंगे। इस प्रकार न केवल पाठकों की आन्तरिक रुचि का भी पता चल जायगा, वरन् यह भी सिद्ध हो जायगा कि हम अपने स्तर के बारे में जो सन्तोष और गर्व की भाषा में सोचते हैं वह मान्यता वास्तविक है या अवास्तविक। यदि अखण्ड−ज्योति अपनी इतनी उपयोगिता सिद्ध नहीं कर सकी कि उसे पाठक अपनी अत्यन्त आवश्यक वस्तुओं की श्रेणी में गिन सकें और जिस प्रकार हर आवश्यक वस्तु को बढ़ा मूल्य देकर खरीदते हैं उसी प्रकार इस पत्रिका के ग्राहक भी रह सकें तो फिर यही समझा जायगा कि निरर्थक वस्तुएँ जिस प्रकार काल चक्र का आघात न सह सकने के कारण नष्ट हो जाती है उसी प्रकार अखण्ड−ज्योति को भी बन्द हो जाना चाहिए। इस वर्ष प्रयोग परीक्षण इसका भी कर लिया जाय। कसौटी पर वस्तुस्थिति की परख लिया जाय। बन्द करना तो आसान है। इस वर्ष न सही अगले वर्ष वैसा किया जा सकता है।

इन्हीं अनेक उलझनों में से गत पिछले दिनों उलझे रहने के उपरान्त अब यही निश्चय किया गया है कि मूल्य बढ़ाने के अतिरिक्त जीवित रहने का जब कोई चारा ही नहीं तो उसे बढ़ाया ही जाय। लागत 14) आती है उतना न सही पर न्यूनतम 12) तो करना ही पड़ेगा। दो रुपया घटी की पूर्ति पुस्तक आदि के प्रकाशन पर फिर ध्यान देकर की जा सकेगी ऐसा सोचा गया है। इस अंक से पत्रिका का बढ़ा हुआ मूल्य बारह रुपया वार्षिक माना जायगा। पाठक नोट करलें। नये ग्राहकों को तो अक्टूबर 74 के वर्तमान अंक से ही यह वृद्धि लागू होती है, पर पुराने चालू ग्राहकों पर यह वृद्धि जनवरी 75 से ही लागू होगी। इस वर्ष के शेष अंक पुराने हिसाब से ही उन्हें मिलेंगे। सन् 75 का चन्दा उन्हें 12) ही देना होगा।

एक सुझाव यह भी था कि पृष्ठ घटा दिये जाँय, पर वह भी गले नहीं उतरा। क्योंकि पाठकों को जो अगले दिनों देने की योजना बनाई गई थी उसमें पृष्ठ संख्या की वृद्धि आवश्यक थी। युग की आवश्यकताओं के अनुरूप तात्विक और तथ्यपूर्ण चिन्तन एवं प्रतिपादन और भी अधिक गम्भीरता एवं विस्तार के साथ किया जाता है। अभी अधिक सोचे, अधिक लिखे और अधिक पढ़े जाने की आवश्यकता में कमी नहीं की जा सकती, बढ़े हुए बुद्धिवाद और विज्ञान ने जो असंख्यों विसंगतियाँ, विभूतियाँ और विडम्बनाएँ रचकर खड़ी कर दी हैं, उन्हें निरस्त करने के लिए प्रखर चिन्तन और प्रतिपादन की आवश्यकता और अधिक बढ़ गई है। उसमें भी कटौती नहीं की जा सकती। चिह्न पूजा के लिए तो अखण्ड−ज्योति निकल नहीं रही है। सैकड़ों पत्र−पत्रिकाओं की भीड़ के एक सदस्य बने रहने की उसकी तनिक भी इच्छा नहीं है। पत्रिका निकालने के लिए निकालना—यह निरर्थक नीति हमें तनिक भी पसन्द नहीं। पन्ने घटा कर इतना ही हो सकता है कि यह समझा जाता रहे कि अखण्ड−ज्योति निकलने के लिए निकल रही है—जीवित है। पर उसमें जो प्रतिपादन रहते हैं, रहने चाहिएँ—वे जो रह ही नहीं सकेंगे। क्षीण कलेवर होने पर वह निस्तेज हो जायगा। उसकी प्रखरता, प्रतिभा, तेजस्विता एवं गरिमा नष्ट हो जायगी। हम बार−बार पृष्ठ बढ़ाने की ही बात सोचते रहे हैं, घटाने की बात तो उसे बन्द करने जैसी ही कष्टकारक लगती है। पिछले दिनों की अपेक्षा अगले दिनों कहीं−कहीं अधिक कहना और लिखना है। पृष्ठ घटा देने पर तो वे सारी उमंगें ही नष्ट हो जायेंगी।

इस संक्रान्ति वेला में जबकि चन्दा बढ़ाया गया है एक और दुस्साहस किया गया है कि आठ पृष्ठ बढ़ा दिये गये हैं। यह अंक 56 पृष्ठ का है जबकि पिछले अंक 48 पेज के निकलते रहे हैं। इन बढ़े हुए आठ पृष्ठों का अधिक मूल्य नहीं जोड़ा गया है। यदि वह भी जोड़ा जाता तो मूल्य 16) जा पहुँचता। यदि 56 पृष्ठों पर 12) तो 48 पृष्ठों पर 10) के करीब ही पड़ते हैं। यदि 48 पृष्ठ की ही पत्रिका निकलती रहती तो यह वृद्धि अनुपात 10) ही पड़ता। पर यह अतिरिक्त दुस्साहस ही प्रयत्न किया जायगा कि इसे कायम रखा जा सके। यह अतिरिक्त प्रयोग इस बात पर टिका हुआ है कि अगले दिनों और अधिक महँगाई बढ़ती है या नहीं। यदि वस्तुओं के वर्तमान मूल्य ही बने रहें तो फिर अतिरिक्त घाटा उठाते रहकर भी 56 पृष्ठ ही चालू रखे जा सकेंगे। जहाँ मूल्य वृद्धि से पाठकों को असन्तोष होगा वहाँ उन्हें इस बात का सन्तोष भी होगा कि अधिक पाठ्य सामग्री मिलने का अतिरिक्त लाभ मिलना भी आरम्भ हो जायगा।

इस संक्रान्ति वेला में परिजनों के कन्धों पर अतिरिक्त उत्तरदायित्व आया है। वे स्वयं ग्राहक रहने और दूसरों को बनाने का प्रयास तो सदा ही करते रहे हैं। इस सघन आत्मीयता भरी निष्ठा से ही अब तक की प्रगति चलती रही है। किसी समय कुछ सौ ही निकलने वाली पत्रिका अब इतनी अधिक छपती है जिसकी तुलना में धार्मिक पत्रों में एक ‘कल्याण’ ही ठहरता है। अन्य सभी को उसने योजनों पीछे छोड़ दिया है। इसमें परिजनों की निष्ठा, तत्परता एवं चेष्टा ही प्रधान कारण रही है। उनके उत्साह एवं परिश्रम ने ही उसका प्रकाश क्षेत्र इतना अधिक बढ़ाया और यह स्थिति की है कि उसका अनुवाद गुजराती युग−निर्माण योजना, मराठी युग−निर्माण योजना, अंग्रेजी युग−निर्माण योजना, उड़िया युग−निर्माण योजना के नाम से अन्य भाषाओं में भी प्रकाशित होता रहे। यदि महंगाई का वर्तमान सर्वभक्षी संकट सामने न आता तो अब तक भारत की चौदहों मान्यता प्राप्त भाषाओं में उसका प्रकाशन आरम्भ हो गया होता और देश के कोने−कोने में इस प्रकाश प्रेरणा का आलोक जाज्वल्यमान हो रहा होता।

जिन परिजनों ने स्वेच्छा से, आत्म−प्रेरणा से पिछले वर्षों में इतना अनवरत श्रम किया है उनसे इस संक्रान्ति वेला में कुछ विशेष अनुरोध करने का भी साहस किया जा सकता है। इस बार बढ़े हुए मूल्य के संदर्भ में इस बात का पूरा खतरा सामने प्रस्तुत है कि ग्राहक संख्या घट जाय।

जो बहुत समय पुराने हैं और जिन्हें उसकी गरिमा का रसास्वादन होने लगा है वे बारह रुपया तो क्या अपने कपड़े बेचकर भी कितना ही बढ़ा−चढ़ा मूल्य चुका सकते हैं। पर जो अभी पिछले ही साल ग्राहक बने हैं जिन्होंने अभी नियमित रूप से पढ़ना भी आरम्भ नहीं किया है उन्हें मूल्य वृद्धि जरूर अखरेगी और वे टूट जायेंगे। इस टूट−फूट में ग्राहक संख्या घटने से कम उत्पादन पर लागत बढ़ने के कारण पत्रिका का घाटा मूल्यवृद्धि के बावजूद पूर्ववत् बने रहने का खतरा है। वहाँ दूसरी ओर प्रकाश क्षेत्र, प्रभाव क्षेत्र घट जाने से मिशन के एक छोटे दायरे में हाथ−पैर बँधकर, सिमट कर रह जाने का भी संकट सामने है। यह अर्थ असन्तुलन से भी बड़ा खतरा है।

पुराने मात्र परिजन ही ग्राहक रह जाँय और नये क्षेत्र की पकड़ हाथ से निकल जाय तो भी उसे एक दुर्भाग्यपूर्ण दुर्घटना ही माना जायगा। इस दुहरे संकट की घड़ियों में अखण्ड−ज्योति के निष्ठावान सदस्यों को दूने उत्साह और चौगुने परिश्रम के साथ काम करना होगा। यह वर्ष उनके परिश्रम की निष्ठा की वैसी ही कसौटी लेकर सामने आ खड़ा हुआ है, जिस तरह हमारे सामने निकालते रहने का, बन्द कर देने का असमंजस। हम दोनों को ही इस चुनौती का सामना करना चाहिए। शिथिलता किसी भी पक्ष में नहीं आनी चाहिए। हम अपनी पूरी जागरूकता को समेटकर प्रकाशन सम्बन्धी अड़चनों से जूझेंगे उसे यथावत् ही अधिक सुन्दर, अधिक उपयोगी बनाने का प्रयत्न करेंगे। ताकि मिशन की प्रखरता और व्यापकता को अधिक विस्तृत होने का अवसर मिले।

किन्तु यह सब एक पक्ष ही नहीं कर सकता। हमारे प्रयास ही पर्याप्त नहीं होंगे। उसे जीवित रखने और व्यापक बनाने का कार्य वस्तुतः परिजनों के कंधों पर ही है। वर्तमान सदस्यों को बनाये रहना और नयों को पकड़ते रहना उन्हीं का काम है। अब तक यही होता रहा है इस वर्ष तो उस सक्रियता की अनेक गुने साहस के साथ आगे बढ़ाना है। कीचड़ में गहरी फँस गई गाड़ी के पहियों को आगे बढ़ाने के लिए कई व्यक्ति मिल−जुलकर जिस प्रकार जोर लगाते हैं—लगभग उसी स्तर का प्रयास इस वर्ष अपेक्षित है। इस समय की पुकार में एकाएक अखण्ड−ज्योति के सदस्यों को लगना चाहिए। संकट इससे कम में पार नहीं हो सकता। इस वर्ष एक भी परिजन की शिथिलता भारी पड़ेगी। उन्हें यह मानकर चलना है कि संशय की कमी—रुचि की न्यूनता—आर्थिक कठिनाई आदि जो भी कारण पत्रिका न मँगाने के लिए विवश करें उनमें से प्रत्येक को निरस्त करेंगे और इस संकट के वर्ष में और किसी कारण न सही इतने उपयोगी मिशन को जीवित रखने की दृष्टि से ही सही अपनी सदस्यता चालू रखेंगे। उसे किसी भी कारण बन्छ नहीं करेंगे।

दूसरा कर्त्तव्य यह होना चाहिए—अपने निजी परिचय और प्रभाव क्षेत्र में जहाँ गुंजाइश हो वहाँ तीखी नजर डाली जाय और उनमें से कुछ को अखण्ड−ज्योति का नया सदस्य बनाने का लक्ष्य रखा जाय। यदि सावधानी और इच्छा होगी तो इस दिशा में थोड़ी बहुत सफलता अवश्य मिलेगी। कुछ तो नये ग्राहक अवश्य ही मिल जायेंगे। यह थोड़ा सा मनोयोग, थोड़ा सा प्रयास अखण्ड−ज्योति के युगान्तरकारी मिशन को जीवित रखने और उसे आगे बढ़ने के लिए उसका पथ−प्रशस्त करने में अति महत्वपूर्ण भूमिका प्रस्तुत कर सकता है।

बढ़ी हुई महंगाई के कारण अखण्ड−ज्योति के सामने प्रस्तुत जीवन मरण जैसे संकट से जूझने के लिए हमें आपत्तिकालीन धर्मयुद्ध की तरह जूझना चाहिए। हमारे बलबूते में जो कुछ है उबरने के लिए पूरा−पूरा प्रयास कर रहे हैं। परिजनों से उनके कर्त्तव्य पूरा किये जाने की प्रबल आशा रखते हैं। संकट से पार होने के लिए यह नितान्त आवश्यक है कि परिजन भी अपने प्रस्तुत परम पवित्र कर्त्तव्य का पूरी श्रद्धा और तत्परता के साथ पालन करें। यह आशा−निराशा नहीं बनेगी ऐसा विश्वास किया जाता है।

*समाप्त*

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