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Magazine - Year 1974 - Version 2

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क्या ईसामसीह भारतीय धर्मानुयायी थे?

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इतिहासज्ञ श्री रमेशचन्द्र दत्त लिखित “हिस्ट्री आफ सिविलाइजेशन इन ऐंशियन्ट इण्डिया” में इस तथ्य पर सुविस्तृत प्रकाश डाला गया है कि ईसाई धर्म बुद्ध धर्म की प्रतिच्छाया मात्र है।

ईसा से लगभग दो सौ वर्ष पूर्व यूरोप में ‘असेसियन’ सम्प्रदाय का प्रचलन था इसका संस्थापक था—’एसो’ या ‘एसिन’। मृत सागर के पश्चिमी तट पर ऐंगदी नामक, नगर में इस सम्प्रदाय का प्रधान मठ था। इसकी मान्यताएँ संन्यास धर्म प्रधान थीं। ईसा इसी सम्प्रदाय के अनुयायी थे इसका संकेत मेथ्यू 5—34, एवं 19—12 में—जेम्स 5—12 में —कृत्य 4-32, 35 में स्पष्ट रूप से मौजूद है। यहूदी धर्म, कर्म प्रधान है। उसमें संन्यास की मान्यता नहीं दी गई है। पीछे इस धर्म के प्रभाव क्षेत्र में संन्यास परक विचारों का प्रवेश इसी ‘असेसियन’ सम्प्रदाय के कारण हुआ। ईसाइयों पर संन्यास धर्म की छाप होने का कारण पाइथागोरस का यूनानी तत्वज्ञान कहा जाता था। पर अब स्पष्ट हो चला है कि छाप बौद्ध धर्म की थी जो ईसा के जन्म से बहुत पहले ही योरोप में फैल चुकी थी। असेसियन धर्म और कुछ नहीं, बौद्ध धर्म का स्थानीय भाषा के माध्यम से स्थानीय परम्पराओं के साथ मिलाकर किया गया प्रचार मात्र था। ‘ऐसी’ का अपभ्रंश ही ‘ईसाई’ है।

ऐसी या ईसाई धर्म की बौद्ध धर्म के सिद्धान्तों के साथ ही असाधारण समानता नहीं है वरन उनके संस्थापकों का चरित्र−चित्रण भी एक सा है। शैतान ईसा को भ्रम में डालने आता है और ईसा 40 दिन का उपवास करके सिद्धावस्था प्राप्त करते हैं। महात्मा बुद्ध पर ‘मार’ का आक्रमण होता है और वे 49 दिन उपवास करके सिद्धि प्राप्त करते हैं। ईसा कोढ़ियों, डाकुओं और वेश्याओं का उद्धार करते हैं। बुद्ध चरित्र में ऐसे ही प्रसंग भरे पड़े हैं। ‘अपने पड़ौसियों से प्रेम कर—चपत मारने वाले के सामने दूसरा गाल भी करदें’ जैसे उपदेश बुद्ध के अहिंसा, प्रेम और करुणा की शिक्षा से पूर्णतया मेल खाते हैं। आर्थर लिल ने इस सैद्धान्तिक और चरित्रगत समानता का सुविस्तृत उल्लेख करते हुए ईसाई धर्म पर बौद्ध धर्म की छाप को स्वीकार किया है। 600 वर्ष की अवधि में ईसा का जन्म होने तक बौद्ध धर्म की शिक्षाएँ पूरे योरोप में छा गई थीं। स्वस्तिक आर्यों का साँस्कृतिक चिन्ह है। बौद्ध धर्म में उसे मान्यता मिली। अन्ततः ईसाई धर्म ने ‘क्रूस’ के रूप में उसे अपना पवित्र चिन्ह अंगीकार कर लिया। कोलम्बस के अमेरिका पहुँचने से पूर्व मैक्सिको और पेरु से स्वस्तिक ने मान्यता प्राप्त करली थी। इस प्रकार की प्रमाण सामग्री हम विद्वान लिलि के ग्रन्थ ‘बुद्ध एण्ड बुद्धिज्म’ तथा ‘बुद्धिज्म इन क्रिस्टनडम’ में प्राप्त कर सकते हैं।

ईसा बारह वर्ष की आयु से लेकर तीस वर्ष की आयु तक कहाँ रहे इस सम्बन्ध में बाइबिल मौन है। मैथ्यू 2-5 में पूर्व देशा से ईसा के जन्म समय ज्ञानी— पुरुषों के आगमन का वर्णन है। प्लुटार्क ने लाल समुद्र को पारकर अलैक्जेण्ड्रिया में बौद्ध यतियों के आगमन का वर्णन किया है। अशोक के शिला लेखों में भी इनका उल्लेख है। ईसा के पूर्वजों को उन्हीं ने प्रभावित किया था, वे स्वयं भी इसी प्रभाव को लेकर अग्रसर हुए।

शूली से उतर कर ईसा के पुनर्जीवन की बात प्रख्यात है। उन्होंने इसकी भविष्य वाणी भी करदी थी और वह सही भी उतरी वे तीन दिन मूर्छित रहने के उपरान्त पुनर्जीवित हो गये और फिर अन्यत्र के लिए चल दिये। यहूदी उनके शत्रु थे इसलिए उस क्षेत्र को छोड़ देने में ही उनकी खैर थी।

अजीज कुरेशी ने अपनी पुस्तक ‘क्राइस्ट इन काश्मीर’ में यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि ईसा पुनर्जीवन के उपरान्त आकर रहे और वहीं उनका अन्त हुआ। सर जफरुल्ला खाँ ने भी अपने एक लेख में यह बताया है कि ईसा अपने माता−पिता समेत भारत आकर बसे पिण्डी प्वाइन्ट न उनकी माता का शरीरान्त हुआ जहाँ उनकी कब्र भी मौजूद है। ईसा भी अन्त तक काश्मीर में ही रहे।

उन दिनों यहूदियों की एक बड़ी जनसंख्या भारत में आकर बस गई थी और उनके वंशज अभी भी यहाँ पाये जाते हैं। काश्मीर के गुज्जर लोग अभी भी अपने को स्त्रायिन गोत्र का बताते हैं। उनके नाम यहूदी ढंग के हैं। वे उस तरह की भाषा बोलते हैं जो हिंदू से मिलती−जुलती है। यहूदियों की इसराइल में प्रचलित भाषा हिब्रू है। उनके निवास स्थानों के नाम भी यहूदी ढंग के हैं। ईसा स्वयं भी यहूदी परिवार में जन्मे थे। वे लोग व्यापार के सिलसिले में प्रायः भारत आते रहते थे और उनमें से कुछ यहीं बस भी जाते थे। ईसा का उन्हीं के साथ बहुत सा जीवन काल बिताना कुछ आश्चर्यजनक भी नहीं है।

ईसा की मृत्यु के सम्बन्ध में इस्लाम धर्म के प्रधान ग्रन्थ कुरान शरीफ के सूरत निशा—पारा 6—157 में एक आयत है जिसका भावार्थ है—” मरियम पुत्र रसूल ईसा मसीह को न ता उन्होंने मारा और न शूली पर चढ़ाया अपितु ऐसा लगा जरूर। जो लोग इस तथ्य में शंका करते हैं उन्हें वास्तविकता का ज्ञान नहीं है।”

रूसी इतिहास शोध कर्त्ता डाक्टर निकोलस नोटोविच ने अपने दीर्घकालीन शोध— निष्कर्ष सन् 1898 में प्रकाशित कराये तो ईसा के अज्ञातवास वाले 17 वर्षों पर अभिनव प्रकाश पड़ा। उन्होंने लगातार 40 वर्षों तक विविध देशों की यात्रा करके तथा दुष्प्राप्य शोध सामग्री संकलित करके यह पाया कि ईसा इस अवधि में शिक्षा प्राप्त करने के लिए भारतवर्ष में रहे थे। उन्होंने तिब्बत के हिमोस बौद्ध विहार में ताड़पत्र पर लिखे एक पुरातन ग्रन्थ के समस्त पृष्ठों के चित्र उतारे और उनका अनुवाद अंग्रेजी—रूसी—फ्रेंच तथा जर्मन भाषा में कराया। इस ग्रन्थ में 14 प्रकरण तथा 244 श्लोक हैं। उनकी व्याख्या विवेचना भी है। ग्रन्थ में दिये गये विवरणों से स्पष्ट होता है कि—ईसा ज्ञान प्राप्ति की इच्छा से यरुसलेम से चले व्यापारियों के एक दस के साथ भारत आये। वे सिन्ध प्रवेश होते हुए आर्यावर्त आये। बौद्ध, जैन और ब्राह्मणों से उन्होंने धर्मग्रन्थ पढ़े, साधनाएँ सीखीं, तीर्थ यात्राएँ कीं, बौद्ध धर्म की दीक्षा ली, 6 वर्ष तक साधना की। फिर नेपाल होते हुए तिब्बत पहुँचे। इसके बाद वे ईरान होते हुए अपने देश लौट गये।”

इसी से मिलता−जुलता वर्णन नाथ सम्प्रदाय की पुस्तक ‘नाथ नामावली’ में मिलता है—”ईसा चौदह वर्ष की आयु में भारत आये। उनने शिव की उपासना की। अपना नाम ‘ईस ना बदल लिया। उन्हें प्यार में ईसा कहा जाता था। वे भक्ति का प्रचार करने अपने देश लौट गये। जहाँ उन्हें शूली का दण्ड मिला। एक समर्थ गुरु ने उन्हें शूली से उतार लिया और उन्हें भारत ले आया। हिमालय में उनने तपस्या की।”

ईसा को मृत्यु दण्ड तो दिया गया था पर उसकी चिन्ह पूजा ही करदी गई। जान से नहीं मारा गया। मत्ती 27—29 के अनुसार न्यायाधीश पीलातुस की पत्नी ने अपने पति को समझाया था कि सन्त को मारा न जाय। मत्ती 27—12 से 24 तक के अनुसार पीलातुस स्वयं भी ऐसा ही चाहते थे कि दण्ड की घोषणा तो हो पर जान न ली जाय।

न्यू टेस्टामेन्ट में मरकुस ने लिखा है—यूसुफ जब ईसा की लाश माँगने न्यायाधीश पीलातुस के पास गया तो आश्चर्य यह किया गया कि वे इतनी जल्दी कैसे मर गये। फिर भी लाश उसे दे दी गई। उन दिनों फाँसी लगाने के बाद अपराधी के पैर तोड़ दिये जाते थे ताकि वह पूर्णतया मर जाय। ईसा के पैर नहीं तोड़े गये। यूसुफ ने लाश को एक सफेद कपड़े में लपेट कर एक सुरक्षित गुफा में सुला दिया। मूर्छा समाप्त होने पर वे गुफा मार्ग से बाहर निकल गये।

डाक्टर स्पेसर ने अपनी पुस्तक “मिस्टिकल लाइफ आफ जीसस” में यही सिद्ध किया गया है कि ईसा ने हिन्दू संन्यासी के रूप में भारत में शिक्षा प्राप्त की और वे शूली लगने के उपरान्त भारत में जाकर रहे एवं यहीं 60 वर्ष की आयु तक वे जीवित रहे।

रूसी विद्वान निकोलस रोरिक ने अपना ग्रन्थ ‘हार्ट आफ रसिया’ सन् 1929 में प्रकाशित कराया। उसमें उनने काश्मीर, लद्दाख, भारत, मध्य रूस, सिक्याँग, मंगोलिया आदि देशों में प्रचलित जन श्रुतियों का उल्लेख करते हुए यह बताया है कि इन क्षेत्रों के निवासी चिरकाल से यही विश्वास करते रहे हैं कि ईसा का न केवल शिक्षा काल वरन् अन्त काल भी भारत ही रहा है।

ईसा के भारतीय धर्मानुयायी होने के सम्बन्ध में तिब्बत आदि में जो प्रमाण सामग्री उन्हें मिली उसका उल्लेख आरियन्टल होम युनिवर्सिटी मद्रास द्वारा प्रकाशित—व्हाडुपुर के दुराइ स्वामी आयंगर द्वारा लिखित “लोंग मिसिंग लिंक्स आर दि मारव्हेल्स डिसकवरीज एवाउट आर्यन्स जेसस क्राइस्ट एण्ड अल्लाह” पुस्तक में विस्तार पूर्वक किया गया है।

उक्त पुस्तक में इसी संदर्भ में श्रीमती जेमसन द्वारा लिखी गई एक प्राचीन पुस्तक लीजेन्डस आफ दि मेडोना’ के कई प्रामाणिक उद्धरण प्रमाण स्वरूप प्रस्तुत किये गये हैं। इसी पुस्तक में प्राचीन काल के हस्तनिर्मित ऐसे चित्र भी थे जिनसे भी ईसा का हिन्दू धर्मानुयायी होना सिद्ध होता है।

श्री आर्यनगर ने अपनी पुस्तक में श्रीमती जेमसन की पुस्तक से चार प्राचीन चित्र उद्धृत करके छापे हैं। एक से ईसा की माता मरियम गले में वैष्णव चिन्ह धारण किये हुए हैं दूसरा ईसा के ‘वपतिस्मा’ दीक्षा लेने के समय का है जिसमें उनके मस्तक पर शैव तिलक अंकित है तीसरा मेरी और जीसर क्राइस्ट का है जिसमें ईसा बच्चे के रूप में सोये हुए हैं और उनके मस्तक पर शंख तथा शिव लिंग अंत है। चौथे में क्रूस पकड़ते समय ईसा के मस्तक पर हिन्दू तिलक अंकित है।

उपरोक्त दोनों पुस्तकों में ऐसे प्रमाणों का उल्लेख है जिनसे स्पष्ट होता है कि ईसा मसीह न केवल भारत में लम्बे समय तक शिक्षा प्राप्त करते रहे वरन् हिन्दू धर्म के अनुयायी भी बने। रूसी पत्रकार नोतोविच के द्वारा संकलित प्रमाण सामग्री से भी यही निष्कर्ष निकाला गया है।

भविष्य पुराण प्रसंग स. 3 अ. 2 श्लोक 21 से 26 में शकाधीश शालि वाहन की भेंट ईसा से होने का उल्लेख है जिसमें उन्होंने स्वयं ही अपनी स्थिति का स्पष्टीकरण किया है—

एकदा तु शकाधीशो हिमि तुग समज्ययी। हूण देशस्य मध्ये वै गिरिस्थं पुरुषं शुभम्।

को भवानिति तं प्राह सहोवाच मुदान्वितः। ईसा पुत्रञ्च माँ विद्धि कुमारी गर्भ संभवम्।

निर्मर्यादि म्लेच्छ देशे मसीहोऽहं समागतः। ईसामसी च दस्यूनाँ प्रादुर्भूवा भयंकरी। तामहं म्लेच्छतः प्राप्य मसीहत्व मुपागतः।

अर्थात्—एक बार शकराजा शालिवाहन हिमालय से आगे हूण देश में एक श्वेत वस्त्रधारी गौरांग सन्त से मिले। उन्होंने उनका परिचय पूछा। उत्तर में सन्त ने कहा मेरा नाम ईसा है। कुमारी पुत्र हूँ। म्लेच्छ देश से आया हूँ। मुझे मसीह कहते हैं।

इस वर्णन में ईसा के व्यक्तित्व और इतिहास का परिचय उन मान्यताओं की पुष्टि करता है जिनमें भारत में ईसा के धर्म शिक्षा प्राप्त करने का प्रतिपादन किया गया है।

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