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Magazine - Year 1974 - Version 2

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अनेकता में एकता के दर्शन

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प्राणियों का शास्त्रीय वर्गीकरण शरीरधारी और अशरीरी दो भागों में किया गया है। अशरीरी वर्ग में (1)पितर (2)मुक्त (3) देव (4)प्रजापति हैं। शरीरधारियों में (1) उद्भिज (2) स्वेदज (3) अंडज (4) जरायुज हैं।

चौरासी लाख योनियां शरीरधारियों की हैं। वे स्थूल जगत में रहती हैं और आँखों से देखी जा सकती हैं। दिव्य जीव जो आँखों से नहीं देखे जा सकते हैं उनका शरीर दिव्य होता है। सूक्ष्म जगत में रहते हैं। इनकी गणना तत्वदर्शी मनीषियों ने अपने समय में 33 कोटि की थी। तेतीस कोटि का अर्थ उनके स्तर के अनुरूप तेतीस वर्गों में विभाजित किये जा सकने योग्य भी होता है। कोटि का एक अर्थ वर्ग या स्तर होता है। दूसरा अर्थ है—करोड़। इस प्रकार यह भी कहा जा सकता है कि उन दिव्य सत्ताधारियों की गणना तेतीस करोड़ की संख्या में सूक्ष्मदर्शियों ने की होगी। जो हो उनका अस्तित्व है—कारण और प्रभाव भी।

शरीरधारी योनियों में 84 लाख की संख्या किसी समय गिनी गई होगी, पर सदा सर्वदा वह उतनी ही रहे यह आवश्यक नहीं। जीवों के विकास क्रम को देखने से पता चलता है कि कितनी ही प्राचीन जीव जातियाँ लुप्त होती जाती हैं और कितने ही नये प्रकार के जीवधारी अस्तित्व में आते हैं। फिर देश काल के प्रभाव से भी उनकी आकृति प्रकृति इतनी बदलती रहती है कि एक वर्ग को ही अनेक वर्गों का माना जान जा सके। फिर कितने ही जीव ऐसे हैं जिन्हें अनादि काल से जन–संपर्क से दूर अज्ञात क्षेत्रों में ही रहना पड़ा है और उनके सम्बन्ध में मनुष्य की जानकारी नहीं के बराबर है। कुछ प्राणी ऐसे हैं जो खुली आँखों से नहीं देखे जा सकते। सूक्ष्मदर्शी यन्त्रों से ही उन्हें हमारी खुली आँखों से नहीं देखे जा सकते। सूक्ष्मदर्शी यन्त्रों से ही उन्हें हमारी खुली आँखें देख सकती हैं। इतने छोटे होने पर भी उनका जीवन−क्रम अन्य शरीरधारियों से मिलता जुलता ही चलता रहता है।

अपनी पृथ्वी बहुत बड़ी है, उस पर रहने वाले जलचर—थलचर—नभचर कितने होंगे, इसकी सही गणना कर सकना स्थूल बुद्धि और मोटे ज्ञान साधनों से सम्भव नहीं हो सकती, केवल मोटा अनुमान ही लगाया जा सकता है, पर सूक्ष्मदर्शियों के असाधारण एवं अतीन्द्रिय ज्ञान से साधारणतया अविज्ञात समझी जाने वाली बातें भी ज्ञात हो सकती हैं। ऋषियों की सूक्ष्म दृष्टि ने अपने समय में जो गणना की होगी उसे अविश्वसनीय ठहराने का कोई कारण नहीं जबकि जीव शास्त्रियों की अद्यावधि खोज ने भी लगभग उतनी ही योनियां गिन ली हैं। इसमें कुछ ही लाख की कमी है जो शोध प्रयास जारी रहने पर नवीन उपलब्धियों के अनवरत सिलसिले को देखते हुए कुछ ही समय में पूरी हो सकती है; वरन् उससे भी आगे निकल सकती है।

देखे पहचाने जा सकने योग्य इन शरीरधारियों को मनीषियों ने चार भागों में विभक्त किया है—(1)उद्भिज (2)स्वेदज (3)अंडज (4)जरायुज।

उद्भिज वर्ग में पेड़−पौधे, लता गुल्म, घास, अन्न जड़ी−बूटियाँ आदि की गणना की जाती है। स्वेदज का मोटा अर्थ तो पसीने से उत्पन्न होने वाले ‘जूँ’ आदि का नाम लिया जाता है, पर वस्तुतः यह शब्द मेरुदण्ड रहित प्राणियों के लिए प्रयुक्त होता है कीट−पतंग, मक्खी, मच्छर, टिड्डी, तितली आदि इसी वर्ग में आते हैं। अंडज वे हैं, जो अपने शरीर से अंडा ही उत्पन्न कर सकते हैं। बच्चा उनके शरीर में नहीं पलता, वरन् अण्डे में विकसित होता और उसी को फोड़कर शरीरधारी बनता है। इस वर्ग में मछलियाँ, पक्षी, रेंगने वाले कीड़े आदि आते हैं। चौथे जरायुज जिन्हें पिण्डज भी कहते हैं वे हैं जो माता के साथ नाल तन्तु से बँधे हुए उत्पन्न होते हैं। जन्म के समय ही जिनकी आकृति अपने जन्मदाताओं के अनुरूप होती है। मनुष्य और पशु इसी श्रेणी में गिने जा सकते हैं। यों स्वेदजों में से भी अधिकाँश अण्डज ही होते हैं, पर उन्हें पृथक रीड़ रहित या रीड़ सहित होने के कारण पृथक वर्ग का गिना गया है।

शरीरधारियों की चौरासी लाख अथवा उससे न्यूनाधिक कितनी ही जातियाँ क्यों न हो वस्तुतः उनका आरंभिक जन्म एक ही रासायनिक तत्व से हुआ है। सृष्टि के आरम्भ में एक ही जीव रसायन था और वही अभी तक समस्त प्राणियों की संरचना का एकमात्र कारण है। परिस्थितियों ने लम्बे समय की क्रमिक विकास शृंखला में बाँधकर उन्हें आगे बढ़ाया है। प्रगति की घुड़दौड़ में एक से अनेक बने हुए प्राणधारी अपनी दिशा और तीव्रता के सहारे विभिन्न स्तर के—विभिन्न आकृति प्रकृतियों के बनते चले गये हैं।

सृष्टि के आरम्भ होने से पूर्व ब्रह्म एक था। उसने एक से बहुत होने की इच्छा की तद्नुसार वह अपने आपको विभक्त कर बैठा और उन खण्ड−विखण्डों ने अपनी विभिन्न प्रकार की आकृति−प्रकृति बना ली। तद्नुसार यह विश्व अनेकानेक जड़−चेतन पदार्थों में बनता, बढ़ता और विकसित परिष्कृत होता हुआ वर्तमान स्थिति तक आ पहुँचा।

जीवन विद्या का निष्कर्ष यह है कि विश्व−व्यापी चेतना अविछिन्न है। प्रत्येक प्राणी में वही समुद्र की लहरों की तरह छोटे−बड़े वर्गों में विभाजित हुई दृष्टिगोचर हो रही है।

प्राणियों के बीच पाया जाने वाला सहचर्य, सहयोग, स्नेह और सम्वेदन एक तथ्य है जिसे झुठलाया नहीं जा सकता। जड़ जगत में प्रत्येक पदार्थ अन्यान्य पदार्थों का सहयोग लेकर एवं देकर ही अपना अस्तित्व बनाये हुए हैं। यदि यह सहयोग सूत्र टूट जाय जो प्रत्येक अणु−परमाणु अपने पृथक अस्तित्व में बिखरा−बिखरा दिखाई पड़ेगा फिर ऐसे किसी पदार्थ का आकार न बन सकेगा जिसे वस्तु नाम दिया जा सके या इन्द्रियों से देखा पकड़ा जा सके। दृष्टि सन्तुलन विद्या—इकालॉजी यह सिद्ध करती है कि जड़ समझी जाने वाले प्रकृति का प्रत्येक घटक सहयोग के आदान−प्रदान क्रम का अपनाये हुए है और उसी आधार पर उसका अस्तित्व एवं विकास क्रम चल रहा है।

चेतना के सम्बन्ध में भी यही बात है। जीवधारियों की चेतना में विकास, उल्लास एवं क्रिया−कलाप न्यूनाधिक दिखाई पड़ता है। उसका कारण सहचर्य, स्नेह, सहयोग की न्यूनाधिक ही है। मनुष्य को इस सहकारिता की अधिक मात्रा उपलब्ध हुई। फलतः उसकी बुद्धि का विकास क्रम द्रुतगति से चला। इसी आधार पर उसने अन्य पदार्थों एवं पदार्थों का अधिक अच्छा उपयोग करना सीखा—खड़े होने, बोलने, लिखने एवं सोचने की क्षमता बढ़ाई—परिवार तथा समाज का ढाँचा खड़ा किया और क्रमिक गति से आगे बढ़ते हुए वर्तमान स्थिति तक आ पहुँचा।

जिस प्रकार जीव रसायन के एक ही मूल आधार से अनेकानेक प्राणियों का जन्म एवं विकास हुआ है, उसी प्रकार एक ही चेतना तत्व जिसे प्राण कहते हैं—आत्मा का—मूलभूत आधार है। कपड़ा अनेक धागों से मिलकर बना होता है। चेतना के अनेक घटकों से मिला हुआ ही यह चेतन जगत है। अलग−अलग प्राणी दिखाई पड़ते हुए भी वे एक ही महाप्राण के अविछिन्न अंग हैं। सभी घटों में एक ही संव्याप्त आकाश पृथक−पृथक रूपों और सीमाओं में बँधा हुआ देखा जाता है। पृथक आत्मा वस्तुतः एक ही व्यापक आत्मा की भिन्न दिखने वाली पर वस्तुतः अभिन्न इकाइयाँ हैं। दृश्यमान अनेकता अपने मूल में अविछिन्न एकता को धारण किये हुए हैं।

दिव्य योनियों के चार वर्ग पितर, मुक्त, देव और प्रजापति हमारी तरह पंच तत्वों का दृश्यमान शरीर धारण किए हुए नहीं है अस्तु उन्हें हम चर्मचक्षुओं से नहीं देख सकते तो भी उन्हें सूक्ष्म शरीरधारी ही कहा जायगा। शब्द, रूप, रस, गन्ध, स्पर्श की तन्मात्राएँ उनके दिव्य शरीरों में विद्यमान रहती हैं अतएव वे शरीरधारी प्राणियों को एवं पञ्चतत्वों से बने हुए पदार्थों को प्रभावित कर सकते हैं। अपनी सीमा मर्यादा के अनुरूप वे अपनी सामर्थ्य का वे उपयुक्त अवसर पर प्रयोग भी करते हैं और दृष्टि सन्तुलन बनाये रखने में अपनी भूमिका का निर्वाह भी करते हैं।

पितर वे हैं जो पिछला शरीर त्याग चुके किन्तु अगला शरीर अभी प्राप्त नहीं कर सके। इस मध्यवर्ती स्थिति में रहते हुए वे अपना स्तर मनुष्यों जैसा ही अनुभव करते हैं। पिछले भले−बुरे गुण, कर्म, स्वभाव की प्रतिक्रियाएँ स्वर्ग−नरक के रूप में अनुभव करते रहते हैं। जन संकुल वातावरण में ही वे आत्माएँ भ्रमण करती रहती हैं। छोड़े हुए शरीर के जीवन काल में अनवरत श्रम करते हुए जो थकान चढ़ी थी उसे उतारने के लिए यह अवधि होती है।

मुक्त वे जो लोभ−मोह के—राग−द्वेष के—वासना तृष्णा के बन्धन काट चुके। सेवा सत्कर्मों की प्रचुरता से जिनके पाप प्रायश्चित्त पूर्ण हो गये। उन्हें शरीर धारण करने की आवश्यकता नहीं रहती। उनका सूक्ष्म शरीर अत्यन्त प्रबल होता है। अपनी सहज सतोगुणी करुणा से प्रेरित होकर प्राणियों की सत्प्रवृत्तियों का परिपोषण करते हैं। सत्प्रवृत्तियों के अभिवर्धन में योगदान देते हैं। श्रेष्ठ कर्मों की सरलता और सफलता में उनका प्रचुर सहयोग रहता है।

देव वे जिन्हें सृष्टि सन्तुलन बनाये रहने का ईश्वर प्रदत्त विशिष्ट उत्तरदायित्व वहन करना पड़ता है। वे समय−समय पर विशेष प्रयोजनों के लिए—विशेष कलेवर धारण करके देवदूतों, महामानवों एवं अवतारी महापुरुषों के रूप में जन्म लेते हैं। समय की विकृतियों का निराकरण और अभीष्ट सत्प्रवृत्तियों का सम्वर्धन उनका प्रधान कार्य रहता है। धर्म की ग्लानि और अधर्म के अभ्युत्थान का समाधान—साधुता का परित्राण एवं दुष्कृतों का विनाश—इन अवतारी महामानवों का लक्ष्य रहता है। लोक−शिक्षण एवं नव−निर्माण के लिए उनके विविध क्रिया−कलाप होते हैं। सामयिक सन्तुलन ठीक हो जाने के उपरान्त वे अशरीरी रहकर विश्व−कल्याण के प्रयोजनों में निरत रहते हैं।

प्रजापति वर्ग की वे दिव्यात्माएँ होती हैं जो केवल पृथ्वी का न हों वरन् समस्त ब्रह्माण्ड का—उसमें अवस्थित पृथ्वी जैसे असंख्यों चेतन प्राणधारियों वाले पिण्डों का और निर्जीव ग्रह−नक्षत्रों का सन्तुलन बनाते हैं। ब्रह्माण्ड में चल रही विविध क्रियाओं एवं उनकी प्रतिक्रियाओं की स्थापना और व्यवस्था उसी वर्ग की आत्माओं को सम्भालनी पड़ती है। उन्हें सृष्टा, पोषक−संहारक स्तर के कार्य ब्रह्मा, विष्णु, महेश की भूमिका में सम्पन्न करने पड़ते हैं।

परब्रह्म साक्षी, दृष्टा, अचिन्त्य एवं अनिर्वचनीय है। उसकी अनुभूति ही हो सकती है व्याख्या नहीं। शरीरी और अशरीरी स्थूल और सूक्ष्म कहे जाने वाले समस्त प्राणी उसी में से उत्पन्न होते हैं और अत्यन्त उसी में लय हो जाते हैं। जड़ और चेतन सृष्टि का—परा और अपरा प्रकृति का सृजेता एवं अधिपति वही है। उसी ब्रह्म महासागर की लहरें हमें विविध आकार−प्रकारों में ज्ञान−विज्ञान के माध्यम से अनुभव करते हैं।

चौरासी लाख शरीरधारी और तेतीस कोटि अशरीरी प्राणियों का यह अखिल विश्व ब्रह्माण्ड वस्तुतः ईश्वर की दिव्य सत्ता से ही ओत−प्रोत है। उसका प्रसार−विस्तार सर्वत्र दृष्टिगोचर होगा यदि हम विवेक के ज्ञान−चक्षुओं को खोल सके तो देखेंगे कि अनेकता के बीच एकता का कितना सुदृढ़ आधार मौजूद हैं। इसे जानने के बाद अपने पराये का भेद समाप्त हो जाता है। इसे अनुभव करने के बाद आत्मा का प्रेम इस अजस्र निर्झर के रूप में फूटता है और उस अमृत भरे आनन्द से अन्तरात्मा का कण−कण भाव−विभोर हो जाता है। यही है जीवन का परम लक्ष्य।

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