
मात्र भौतिक समृद्धि ही सब कुछ नहीं
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अमेरिका आज संसार का सबसे धनी देश है। उसके पास अपार धन राशि है। धन के साथ−साथ यहाँ शिक्षा, विज्ञान एवं सुख−साधनों का प्रचुर मात्रा में अभिवर्धन हुआ है। उपार्जन की तरह उन लोगों ने उपभोग की कला भी सीखी है। इसलिए वहाँ के निवासी हमें धनाधित देव पुरुषों की तरह साधन संपन्न और आकर्षक दिखाई पड़ते हैं। हर तीन में से एक के पीछे एक कार है। इसका अर्थ यह हुआ कि जिस परिवार में स्त्री, पुरुष और एक बच्चा होगा वहाँ एक कार का औसत आ जायगा। टेलीविजन, रिफ्रीजेटर, हीटर, कूलर, टेलीफोन तथा दूसरे सुविधाजनक घरेलू यन्त्र प्रायः हर घर में पाये जाते हैं। विलासिता के इतने अधिक साधन मौजूद है जिनके लिए भारत जैसे गरीब देशों के नागरिक तो कल्पना और लालसा ही कर सकते हैं।
इतने पर भी उस देश की भीतरी स्थिति बहुत ही खोखली है। शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य की दृष्टि से वे खोखले बनते जा रहे हैं। संयुक्त कुटुम्ब, दाम्पत्य निष्ठा, सन्तान सद्भाव एवं सामाजिक सहयोग क्रमशः घटता ही चला जा रहा है। बढ़ती हुई व्यस्तता एवं औपचारिकता के कारण हर व्यक्ति एकाकी बनता चला जा रहा है। किसी को किसी पर न तो भरोसा है और न कठिन समय में किसी विश्वस्त सहयोग का विश्वास। नशा पीकर अथवा नग्न यौन उत्तेजना के मनोरंजन देखकर अथवा इन्द्रिय तृप्ति के साधन अपना कर किसी प्रकार गम गलत करते रहते हैं। भीतर एकाकीपन और खोखलापन उन्हें निरन्तर कचोंटता रहता है।
अमेरिकन पत्र−पत्रिकाओं, पुस्तकों सरकारी तथा गैर सरकारी रिपोर्टों के आधार पर उस देश के निवासियों की जो भीतरी स्थिति सामने आती है वह वस्तुतः बड़ी करुणा उत्पादक है। कभी−कभी तो वहाँ तक सोचना पड़ता है कि उन सुसम्पन्न लोगों की तुलना में हम निर्धन अशिक्षित कहीं अच्छे हैं जो किसी प्रकार सन्तोष की रोटी खा लेते हैं और चैन की नींद सो लेते है।
स्वास्थ्य रिपोर्टां के अनुसार अमेरिका में प्रायः 1 करोड़ व्यक्ति —पन्द्रह में से एक—व्यक्ति मानसिक रोगों से ग्रसित है। पन्द्रह लाख व्यक्ति —एक प्रतिशत पागलपन के शिकार हैं। प्रायः डेढ़ करोड़ व्यक्ति सनकी हैं। बारह बच्चों में से एक मानसिक रोगी पाया जाता है। अस्पतालों की रिपोर्टों के अनुसार अब से सौ वर्ष पूर्व जितना मानसिक रोगों का प्रसार था अब उसका अनुपात 12 गुना अधिक बढ़ गया है।
द्वितीय महायुद्ध में एक करोड़ 40 लाख व्यक्तियों की जाँच कराई गई थी कि इतनों में से सेना में भर्ती होने योग्य स्वास्थ्य कितनों का हैं उनमें से सिर्फ 20 लाख व्यक्ति काम के निकले और शेष ‘अनफिट’ ठहरा दिये गये।
संसार में पागलों की सबसे अधिक संख्या वाला देश अमेरिका है। वहाँ प्रति दो सौ व्यक्ति पीछे एक पागल हैं। सबको तो अस्पतालों में जगह नहीं मिलती, पर जो इलाज के लिए दाखिल होते हैं उन्हीं पर 75000 करोड़ डालर की गगनचुम्बी धन राशि सरकार को खर्च करनी पड़ती है।
इन दिनों वहाँ ढाई करोड़ व्यक्ति अर्थात् जनसंख्या का छठा भाग किसी न किसी शारीरिक रोग से ग्रसित है। इनमें से 70 लाख तो अस्पतालों की चारपाई ही पकड़े रहते हैं। केन्सर तो गजब की गति से बढ़ा है। 55 साल की उम्र के बाद पुरुषों में से हजार पीछे आठ के और महिलाओं में से 14 की मृत्यु केन्सर से होती है। दमा, मधुमेह, रक्त चाप, हृदय रोग, अनिद्रा, अपच यह पाँच अब सभ्यता के आवश्यक अंगों में जुड़ गये है। प्रायः हर परिवार में इन बीमारियों में प्रयुक्त होने वाली दवाएँ मौजूद मिलेंगी।
गर्भ निरोध के उपकरणों से प्रायः प्रत्येक वयस्क नर−नारी परिचित और अभ्यस्त हैं फिर भी गर्भ धारण होते रहते हैं और गर्भपात कराने पड़ते हैं। आमतौर से गर्भपात के लिए कुनैन स्तर की दवाएँ दी जाती हैं जिनका प्रभाव प्रजनन संस्थान पर चिरकाल तक बना रहता है और जो भी बच्चे जन्मते हैं वे उन दवाओं के असर का कुछ न कुछ भाग अपने शरीर में लेकर आते हैं। सिर दर्द की एक दवा ‘एस्पिरीन’ अकेली ही एक करोड़ चालीस लाख पौंड वजन की बिक जाती हैं। नींद लाने वाली दवाएँ छै लाख पौंड वजन की खपती हैं। कब्ज तो तीन चौथाई लोगों को रहता है। इसलिए उसकी दवाएँ तो इन सबसे अधिक मात्रा में होती हैं। सिनेमा, टेलीविजन के व्यसन ने आँखों की रोशनी इस कदर घटा दी है कि चश्मा भी कोट−पेण्ट की तरह एक आवश्यक परिधान बन गया है। दाँत तो पचास फीसदी के खराब हैं। शराब के आदी वयस्कों में से आधे लोग हैं। सिगरेट तो 75 प्रतिशत लोग पीते हैं। उससे प्रायः बालक ही बचे होते हैं और कुछ प्रतिशत महिलाएँ भी नहीं पीतीं।
होने वाले विवाहों में से प्रतिवर्ष तीन के पीछे एक तलाक का औसत आता है। हर वर्ष प्रायः ग्यारह लाख पचास हजार गम्भीर अपराध होते हैं, उनतीस हजार आत्म−हत्याएँ करते हैं, 7 से 17 वर्ष की आयु वाले अल्प वयस्कों में से दो लाख पैंसठ हजार को गिरफ्तार करके पुलिस अदालतों के समक्ष प्रस्तुत करती हैं।
उस देश में ‘एस्पीरिन’ दवा का अब इतना अधिक प्रचलन हो गया है कि वह गाँव−गाँव और घर−घर जा पहुँची है। सिर दर्द या दूसरे दर्द अनुभव में न आयें इसके लिये उसका प्रयोग होता है। अकेले अमेरिका में उसकी वार्षिक खपत 27,000,000 पौंड है। मानसिक उद्वेगों ने धीरे−धीरे उस देश में सिरदर्द के एक चिरस्थायी मर्ज के रूप में अपने पैर जमा लिये हैं। नींद लाने की गोलियाँ भी उस देश में अब एक दैनिक आवश्यकता की वस्तु बन गई हैं।
यह बोलते तथ्य यह बताते हैं कि मात्र भौतिक समृद्धि अथवा वैज्ञानिक प्रगति ही सब कुछ नहीं हैं। शिक्षा तथा दूसरी तरह की सुविधाओं का बाहुल्य होना अच्छी बात है, पर उतने से ही यह सम्भव नहीं कि व्यक्ति का चारित्रिक स्तर ऊँचा उठ सकेगा और सामाजिक सद्भावनाओं का विकास हो सकेगा।
सच्ची प्रगति और सच्ची शान्ति के लिए उत्कृष्ट विचारणा और आदर्शवादी रीति−नीति अपनाये जाने की आवश्यकता है। इन विभूतियों के होते हुए कम संपत्ति और कम शिक्षा के रहते हुए भी हँसती−हँसाती जिन्दगी जियी जा सकती है किन्तु यदि मात्र भौतिक समृद्धि की दिशा में भी बढ़ते रहे तो आज के अमेरिका जैसे और भूतकाल के लंका जैसे देश भी चैन की साँस नहीं ले सकते।