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Magazine - Year 1975 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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देवत्व का वरण करें− असुरता का नहीं

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हमारे भीतर देवता भी विद्यमान हैं और असुर भी। देवता अपनी प्रेरणाएं भरते हैं और असुर अपनी और खींचते हैं। दोनों के बीच निरन्तर रस्साकशी−चलती रहती है। अन्तःकरण को अपने अधिकार में करने के लिए दोनों ओर से प्रबल प्रयत्न चलते रहते हैं। अपने−अपने पक्ष की उपयोगिता और श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिए दोनों ही ओर से आकर्षक तर्क उपस्थित किये जाते हैं और तथ्य प्रस्तुत किये जाते हैं।

असुरता की रीति−नीति अपना कर कितने ही लोग बहुत जल्दी धन सम्पत्ति तथा पद वैभव कमाने में सफल हो सकें, इसके उदाहरण प्रचुर परिमाण में अपने ही इर्द−गिर्द बिखरे पड़े होते हैं। असुर हमें उनके समीप ले पहुँचते हैं और बताते हैं यही तरीका अच्छा है और सरल है। इस मार्ग पर चलते हुए बहुत शीघ्र अधिक मात्रा में सुख साधन एकत्रित किये जा सकते हैं। बड़े आदमियों जैसे विविध विधि उपभोगों के रस चखे जा सकते हैं। जब इन तर्कों और तथ्यों की ओर मन खिंचता है तो लगता है कि नीति−अनीति के झंझट में पड़ने की अपेक्षा जैसे भी बने वैसे अधिक वैभव और उपभोग का लाभ उठाया जाना ही ठीक है। जब हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं तो समझना चाहिए कि अन्तर में रहने वाले असुर की विजय हो गई।

देवता दूसरे प्रकार के तर्क और तथ्य उपस्थित करते हैं। वे उन महामानवों का चरित्र चित्रण करते हैं जो मानव जाति का गौरव बढ़ाने की ऐतिहासिक भूमिका प्रस्तुत करते हैं। जिन्होंने प्रकाश स्तम्भ बनकर अनेकों का मार्गदर्शन किया। जिनके पद चिन्हों पर चलते हुए अगणित लोगों को ऊँचा उठने और आगे बढ़ने की प्रेरणा मिली। यह देव मानव भले ही भौतिक साधनों की दृष्टि से काम चलाऊ स्थिति में गुजर−बसर करते रहे हों पर उन्होंने लोक सम्मान, आत्म संतोष का जो लाभ पाया, वह इतना बड़ा था कि सम्पत्ति वालों के संसारव्यापी वैभव को उसके ऊपर निछावर किया जा सकता है। बड़प्पन का विस्तार कितना ही बड़ा क्यों न हो, वह मानवता के वजन की तुलना में सदा ही हलका पड़ेगा। शरीर को सुख भले ही वैभव से मिले, आत्मा को शान्ति तो शालीनता के अतिरिक्त और किसी तरह नहीं मिल सकती। सुख की तुलना में शान्ति की गरिमा को ही महत्व मिलना चाहिये। शरीरगत लिप्सा के लिए आत्मा को प्रताड़ित नहीं किया जाना चाहिये। इस प्रकार के तथ्य और तर्क देवता द्वारा अन्तःकरण के सम्मुख प्रस्तुत किये जाते हैं। उन से जो प्रभावित हो गया समझना चाहिये उस पर देवत्व की विजय हो गई।

असुर पक्ष की ओर से उन उदाहरणों की झड़ी लगा दी जाती है जिन में देव−पक्ष का अनुसरण करने वालों को सीमित अर्थ साधनों, में गरीबों के साथ गुजर करनी पड़ी− दुनियादारी की दृष्टि से मूर्ख बनना पड़ा और दुष्टों ने अपने मार्ग में बाधक मान कर उन्हें तरह−तरह से सताया। संयम और त्याग से प्रत्यक्षतः हानि भी हे और कष्ट भी। असुरता कहती है कि इस झंझट में पड़ने से लाभ ही क्या है? लोक श्रद्धा और आत्म संतोष के बदले यदि सम्पन्नता जन्य सुख सुविधा गँवानी पड़ी तो इसमें क्या क्या लाभ रहा? असुर पक्ष के यह तर्क काफी प्रभावी हैं और जिनका मन देव पक्ष की ओर झुक रहा था उन्हें निराश करने के लिए काफी वजनदार हैं।

देव पक्ष की ओर प्रतिपक्ष के जो दोष दिखाये जाते हैं वह भी कम वजनदार नहीं हैं। नीति पूर्वक सीमित धन ही कमाया जा सकता है फिर नीतिवान व्यक्ति अपने समीपवर्ती जरूरतमंदों के प्रति भी उदार रहता है, इस लिये वह जो कमाता है उसका अधिकाँश इस सहायता में ही चला जाता है। अतः देव जीवन का निर्वाह सादगी अपना कर ही हो सकता है। उच्च विचारों की रक्षा करने वाले अमीर नहीं हो सकते यह ठीक है, पर यह भी निश्चित है कि वैभव संग्रह करने और उसका विलासी उपभोग करने के लिये अन्तःकरण को तभी रजामन्द किया जा सकता है जब उसको निष्ठुरता और स्वार्थपरता की गहरी शराब पिलादी जाय। संसार की पीड़ाओं और पिछड़ेपन की आवश्यकताओं से जो आँख बन्द कर सकेगा उसी के लिये यह सम्भव होगा कि बड़े परिमाण में वैभव इकट्ठा करे और उससे अपने अहंकार की तृप्ति करे तथा परिवार के चन्द लोगों को उच्छृंखल वैभव विलास के साधन जुटायें। अनीति जन्य उपार्जन और निष्ठुर उपभोग की कलुषित गतिविधियाँ अपना कर किसी का अंतःकरण शान्ति नहीं पा सकता। उसकी आत्म प्रताड़ना उसके अन्तःकरण को इतनी भीषण पीड़ा पहुँचाती रहेगी कि वैभव का नशा कितना ही गहरा पीते रहने पर भी उस कसक से बचा न जा सकेगा। प्रचुर सम्पदा रहने पर शरीर भले ही कुछ सुविधा अनुभव करे पर आत्मा को उससे कुछ भी सन्तोष न मिल सकेगा।

वैभव के साथ जुड़े रहने वाले विविध−विधि दुर्व्यसनों और दुर्गुणों से कोई इनकार नहीं कर सकता। गुजर−बसर से अधिक धन जहाँ होगा वहाँ दुर्बुद्धि अवश्य उपजेगी फलतः दुष्प्रवृत्तियां भी पनपेंगी। इससे अपने तन का, मन का, व्यक्तित्व का तथा यश का सर्वनाश हो जायगा। आत्मिक पतन होगा और समाज में अस्वस्थ परम्पराओं का प्रचलन होने के साथ साथ ईर्ष्या−द्वेष का वातावरण बनेगा। असंतुलित उभार को गाँठ कहते हैं शरीर में जहाँ भी ऐसे अर्बुद उठते हैं वहाँ पीड़ा भी बढ़ती है और कुरूपता भी। उसका समाधान कष्टकर चीर−फाड़ ही करती है। दरिद्र देश में चन्द व्यक्ति यों को सम्पन्नता और विलासिता ऐसे उपद्रव उत्पन्न करती रहती है जिसमें वैभववान् तो मरता ही है अपने साथ अन्य असंख्यों को मरने के लिए विवश करता है। राजदण्ड, समाज दण्ड, और आत्म दण्ड की विविध प्रताड़नाएं उस पर बरसती ही रहती हैं। इन नारकीय यातनाओं के सहते हुए यदि उन्मादी लिप्सा, लालसा की तनिक सी पूर्ति कर ली भी गई तो उसमें क्या बुद्धिमानी रही।

देव पक्ष की यह दलीलें कम वजनदार नहीं। उन पर विचार किया जाय तो विवेक यह कहता है कि बहुमूल्य मानव जीवन को विलासी लक्ष्य में नियोजित करता अदूर दर्शिता पूर्ण है। जब उपभोग एक सीमित मात्रा में ही हो सकता है और संग्रह को दूसरों को हराम की कमाई खा कर नष्ट होने के लिए छोड़ना है तो उस दौड़ धूप में कष्ट साध्य परिश्रम करने और पाप की गठरी शिर पर लादने से क्या फायदा? जितना श्रम, समय और मनोयोग इस विलासी उन्माद में लगाया जाता है उससे आधा भी यदि आत्म कल्याण और लोक मंगल के प्रयोजन में लगा दिया जाय तो जीवन की सार्थकता का आधार बन सकता है।

दोनों पक्षों की बात सुनकर यदि निष्पक्ष न्यायाधीश की तरह विवेक को विचारने का अवसर मिले तो वह लोभ और मोह की− वासना और तृष्णा की सड़ी कीचड़ में से निकलने वाली कुरूप दुर्गन्ध को भली प्रकार देख और सूँघ सकता है और इस निष्कर्ष पर पहुँच सकता है कि दूरदर्शिता उसी राह पर चलने में है जिस देव पर पुरुष और महामानव चलते रहे हैं। असुर पक्ष के समर्थन में खोना बहुत पड़ता है, और पाना तो नगण्य जितना ही होता है। इसके विपरीत देव पक्ष के अनुगमन में शरीर निर्वाह की व्यवस्था तो रहती है, साथ ही उन आत्मिक सम्पदाओं के संग्रह का अवसर मिलता है जो अन्तरंग में सन्तोष और बहिरंग में श्रेय सम्मान का गौरव निरन्तर प्रदान करती है। नरक से स्वर्ग श्रेष्ठ है और असुरता से देवत्व का पक्ष।

निर्णय अपने विवेक को ही करना पड़ता है। देवत्व और असुर पक्ष दोनों ही अपने भीतर विद्यमान हैं और दोनों तथ्य प्रस्तुत करते हैं। यह फैसला करना अपना काम है कि किसे स्वीकार करें और किसे अस्वीकार। अनिश्चित मति हवा के झोंकों की तरह कभी इधर चलती है और कभी उधर। कभी एक को महत्व देती है और कभी दूसरे को। कभी एक को पकड़ती कभी दूसरे को कभी पूर्व कभी पश्चिम चलने की निरर्थक विडम्बना में उलझे रहने की अपेक्षा वे बुद्धिमान हैं जो दोनों पक्षों में से एक का अवलम्बन करते हैं। निश्चय ही लाभ में वे रहते हैं जिन्होंने असुरता की उपेक्षा उसके देवत्व को अपना आधार, अवलम्बन स्वीकार किया।

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