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Magazine - Year 1975 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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हे परम प्रभु हमें पवित्र बनादे

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ओऽम् विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परासुव। यद्भद्रं तत्र आसुव॥ अंक 5।82।5

हे सकल जगत के उत्पन्न करने वाले ईश्वर! तू हम सबों के पापों को दूर कर और कल्याणकारी विचार हैं, उन्हें हमें प्रदान कर। हे कृपानिधे हमारे अन्तःकरणों को पवित्र कर हमें शुद्ध बुद्ध और पवित्र बना।

ऋग्वेद की उपर्युक्त ऋचा में ऋषि ने परमात्मा से प्रार्थना की है। इसमें पहली माँग है कि हे परमपिता परमेश्वर पहले हमारे पापों को दूर कर दे। यह बात एक दम स्वाभाविक है कि यदि हम कोई चीज बाहर से कड़ी मेहनत के बाद कमा कर लाते हैं तो उसके रखने को पहले सोचते हैं। उसके लिए जगह बनाते हैं। किसान जब फसल काटता है तथा अन्न निकाल लेता है तब उस अन्न को जहाँ तहाँ जैसे−तैसे नहीं फेंकता। उसको रखने के लिए महीनों पूर्व एक बखार के लिए की सफाई करता है, कोठिला या अन्नागार बनाता है उसका नीम आदि की पत्ती जलाकर शोधन करता है। आजकल तो तरह−तरह की रासायनिक दवायें मिलने लगी हैं, अन्नागार या अन्न गोदाम को शोधने के लिए। इससे रखे जाने वाले अन्न में कीड़े−मकोड़े नहीं लगते। वर्षा का पानी नुकसान नहीं करता तथा जो कुछ रखा जाता है, उसे हम अपनी इच्छानुसार सुरक्षित रख पाते हैं। किन्तु यदि प्रमादवश उस गाढ़ी कमाई को जहाँ−जहाँ बिना सुरक्षा का ध्यान किये फेंक देंगे तो परिणाम भी तत्काल भुगतना पड़ेगा। अन्न में कीड़े लग सकते हैं या सीलन से दाने सड़ने−घुनने लगते हैं। अतः महीनों जिसे कमाने में अपनी मेहनत लगाई, थोड़ी−सी सतर्कता न बरतने के कारण हम उसे गँवा बैठते हैं।

हमारे ऋषियों का यह पहला ध्यान रहा है कि ईश्वर भजन और तप से जो कुछ भी विचार की या बुद्धि की ऊर्जा वरदान स्वरूप मिले उससे पहले हे प्रभो! हमारे संचित पापों को हमसे दूर कर दो। पाप तो हमारे मन की वृत्ति है। जो संस्कार स्वरूप हमारे अचेतन मन में दबी पड़ी है। तथा जैसे अवसर आता है वह अहंकार पर सवार होकर हमारी बुद्धि को भ्रमित कर देती है। जब बुद्धि भ्रमित हो जायेगी तो हम उस वृत्ति के अनुसार वैसे कर्म भी कर डालेंगे जो हमें स्वयं पसन्द नहीं। किन्तु लाचार हैं हम अपनी आदत से। अतः ऋषि इस पाप की वृत्ति से सजग हैं तथा सर्वशक्तिमान् से पहला वरदान माँगते हैं कि प्रभो पहले हमें पाप और उसकी वृत्ति से मुक्त करो। क्योंकि जब तक पाप और उसकी प्रवृत्ति बनी रहेगी तब तक न हमसे भक्ति होगी न सद् कर्म। पाप निवृत्ति के बाद ऋषि की प्रार्थना है कि कल्याणकारी विचार मन में जगें। विचार मन में उठे उस भाव को कहते हैं जिसका अनुगमन कर हमारी कामेन्द्रियाँ क्रिया स्वरूप करती हैं। यदि यह बुद्धि और विवेक सम्मत होगा तो कल्याणकारी होगा या नहीं किसी मानसिक आवेग से निकला होगा तो अकल्याणकारी होगा। ध्यान देने की बात है कि ऋषि ने मन्त्र दर्शन करते समय समष्टि का ध्यान पहले रखा तथा जो कुछ प्रार्थना की वह बहुवचन में यानी समग्र समाज का प्रतिनिधि होकर न कि केवल अपने लिए यह बात स्वाभाविक है कि जब सबका या पूरे समाज का कल्याण होगा तो हम उससे बरी नहीं रहेंगे। अतः वसुधैव कुटुम्ब की भावना अवश्य रही होगी। नहीं तो ऋषि कहते कि हे प्रभो केवल मुझमें ही अच्छे विचार जगें।

किन्तु इस तरह की एकाँगी प्रार्थना कर और वरदान पाकर क्या कोई सुखी रह सकता है? कदापि नहीं। यदि अथाह धन कमाते जायें महल, अटारी उठाते जायें। मुझमें तो अच्छे विचार प्रभु कृपा से जगें। किन्तु पड़ौसियों में पाप बढ़ता जाय तथा कुविचार उपजते जायं भक्त होने के बावजूद भी समाज के आचरण का भोग हमें भी भोगना ही पड़ेगा। पड़ौस के लोग हमारे धन से जलेंगे। हमारी आनन्द की स्थिति से जलन करेंगे और किसी दिन महल में डाका डाल मुझे बरबाद कर सकते हैं। किन्तु धन न बढ़ा तो क्या लेकिन पड़ौस के सभी लोगों के विचार अच्छे हो जायं, सबमें अच्छी बातें आ जायें तो हमारी गरीबी भी स्वर्ग ला देगी। हम सभी मिलकर आनन्दपूर्वक पूरा जीवन बिता सकेंगे।

यह उदात्त मनः स्थिति है मानव और पशु में भेद करती है। हमारा सारा सामाजिक ढाँचा ऋषि की केवल एक माँग पर अवस्थित है। यदि सद्विचार की भावना हमारे अन्दर से एकाएक गायब हो जाय यह सारा का सारा वैभव नष्ट हो जाय। कोई विकास भी नहीं होगा। जैसा हम पशुओं में देखते हैं कि वहाँ अपने सामूहिक स्वार्थ की बात नहीं होती सभी अपने पेट के पीछे पड़े रहते हैं। ऐसे चींटी और मधुमक्खी इसके अपवाद हैं। दूसरी ओर मानव है। जुलाहा कपड़ा बुनता है, तकनीकी में विकास करता है, सैनिक रक्षा करता है तथा समग्र राष्ट्र की रक्षा के लिए मरता जीता है, वैज्ञानिक रात−दिन एक कर अन्वेषण करते हैं तथा इसी प्रकार अन्य पेशा वाले दूसरों का काम करते रहते हैं। प्रत्यक्ष हम देखते हैं कि मानव समाज में हम एक दूसरे की सेवा करते हैं और परोक्षतः सबको आवश्यकतानुसार यथेष्ट सहायता मिल जाती है। इस प्रकार समाज की गाड़ी चल रही है। हमारा विकास दिन−प्रतिदिन हो रहा है। हमारी सुख−सुविधाएं बढ़ रही हैं। इस सारे विकास का एकमात्र कारण है कि हमारे मन में कल्याणकारी विचार हैं।

किन्तु जिस दिन मानव के हृदय से कल्याणकारी विचार उठ जायेंगे, हमारे मन में केवल कुत्सा, संकीर्णता और घृणा जगह बना लेगी तो विनाश होने से कोई बचा नहीं सकता। त्रेता में केवल रावण के कारण एक द्वीप की पूरी आबादी नष्ट हो गयी। द्वापर में दुर्योधन के अन्दर कुविचार उठने से महाभारत जैसा भयंकर युद्ध हुआ। तथा प्रथम और द्वितीय महायुद्ध कुविचारों के ही परिणाम थे। अतः हमारे ऋषियों को पता था कि कल्याणकारी विचार के बदले कोई और चीज माँगी गयी तो वह भी निरर्थक है क्योंकि उत्कृष्ट मनःस्थिति न होने पर प्रत्येक सम्पदा हमारे लिए विपत्ति का कारण बनेंगी। इसके विपरीत यदि सद्भावनाओं का बाहुल्य होगा तो समस्त उपयोगी सुख साधन स्वतः ही उपलब्ध होते चले जायेंगे। अतः केवल ऋषि ने एक ही माँग की कि प्रभो हम यानी पूरे समाज में कल्याणकारी विचार भर दो।

मुख्य पूँजी ऋषि ने माँगी कल्याणकारी विचार की। किन्तु इस विचार वरदान का तभी फल होगा जब पुनः इसको पाप ताप से बचाकर पवित्रता और विवेक से रक्षा की जाय। हम बड़ी मेहनत से किसी ऐसे दुर्लभ पेड़ का बीज अपने घर लाये हैं उसको अपने खेत में लगाकर उसका फल चखना चाहते हैं तो आवश्यक है कि उसके लिए उपयुक्त भूमि तैयार करें। फिर उसकी रक्षा की पूरी व्यवस्था करें। भूमि और रक्षा की पर्याप्त नहीं है, सिंचाई का भी प्रबन्ध करें। अन्त में ऋषि प्रभु से पुनः प्रार्थना करते हैं कि हमारी अन्तरात्मा पवित्र बनी रहे। जब अन्तःकरण शुद्ध रहेगा तो जो कल्याणकारी विचार वरदान स्वरूप मिला है उससे अच्छे कर्म फूटेंगे और जब सद्कर्म होंगे तो पूरे समाज को अच्छा परिणाम भी मिलेगा। जिससे सभी सुखी और प्रसन्न होंगे तो प्रभो हमें भी प्रसाद अवश्य मिलेगा। अतएव हे परमपिता परमेश्वर हमारे अन्तःकरणों को पवित्र कर हमें शुद्ध−बुद्ध और पवित्र बना।

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Version 2
Type: TEXT
Language: HINDI
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