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Magazine - Year 1975 - Version 2

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विज्ञान ईश्वर के अस्तित्व से इन्कार नहीं कर सकता

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संसार की प्रत्येक वस्तु का कोई न कोई निर्माता होता है तभी वह बनती है। इतने बड़े विश्व का भी कोई न कोई निर्माता होना चाहिए। सृष्टि की विभिन्न वस्तुओं में से प्रत्येक में अपने-अपने नियम क्रम पाये जाते हैं। उन्हीं के आधार पर उनकी गतिविधियां संचालित होती हैं। यह नियम न होते तो सर्वत्र अस्त-व्यस्तता और अव्यवस्था दृष्टिगोचर होती। इन नियमों का निर्धारणकर्ता कोई न कोई होना चाहिए। जो भी शक्ति इस निर्माण एवं नियन्त्रण के लिए उत्तरदायी है वही ईश्वर है। वस्तुओं का उगना, बढ़ना जीर्ण होना, मरना और फिर उनका नवीन रूप धारण करना, यह परिवर्तन क्रम भी बड़ा विचित्र किन्तु विवेकपूर्ण है। इस प्रगति चक्र को घुमाने वाली कोई शक्ति होनी चाहिए। यह जड़ता का स्वसंचालित नियम नहीं हो सकता।

विज्ञान इस निष्कर्ष पर पहुंच गया है कि संसार का मूल तत्व एक है। एक ही ऊर्जा अपनी विभिन्न चिनगारियों के रूप में, विभिन्न दिशाओं में, विभिन्न रंग-रूप में उछल-कूद कर रही है। यहां आतिशबाजी का तमाशा हो रहा है। कुशल शिल्पी बारूद को कई उपकरणों के साथ बनाकर कई प्रकार के बारूदी खिलौने बना देते हैं, उनमें से कोई आवाज करता है, कोई चिनगारियां उड़ाता है, कोई रंग-बिरंगी रोशनी करता है, कोई उड़ता-उछलता है। इन हलचलों की इस भिन्नता और विचित्रता के रहते इस संसार में दृश्यमान भिन्न-भिन्न आकृति-प्रकृति के पदार्थों के बारे में लागू होती है। उनके स्वरूप में और गुण, धर्म अलग हैं तो भी वे जिस सत्ता से उत्पन्न होते हैं वह व्यापक और एक है।

विज्ञान ने कभी यह नहीं कहा है कि- ‘ईश्वर नहीं है।’ उसने केवल इतना ही कहा- उसकी अनुसन्धान प्रक्रिया की पकड़ में ईश्वर जैसी कोई सत्ता नहीं आती। इन्द्रिय बोध के आधार पर सूक्ष्मदर्शी उपकरणों की सहायता से प्रयोगशालाओं में वैज्ञानिक अनुसन्धान चलते हैं। इस परिधि में जो कुछ आता है वही विज्ञान का प्रतिपाद्य विषय है। उसकी अपनी छोटी सीमा और मर्यादा है। उससे जितना कुछ ज्ञान पकड़ा पाया जाता है उसे ही प्रस्तुत करना उसका विषय है। इस मर्यादा में यदि ईश्वर नहीं आया है तो उसका अर्थ यह नहीं कि उसकी सत्ता है ही नहीं।

विज्ञान अपने शैशव से क्रमशः विकसित होता हुआ किशोरावस्था में प्रवेश कर रहा है अभी उसे प्रौढ़, वृद्ध एवं परिपक्व होने में बहुत समय लगेगा। उसे अभी तो आज की गलती कल सुधारने से ही फुरसत नहीं। बाल-बुद्धि आज जिस बात का जोर-शोर से प्रतिपादन करती है उसके आगे के तथ्य सामने आने पर पूर्व मान्यताएं बदलने की घोषणा करनी पड़ती है। यह स्थिति संभव है आगे न रहे जब विज्ञान अपनी किशोरावस्था पार करेगा और यौवन की प्रौढ़ता में प्रवेश करेगा तो उसे ऐसे आधार भी हाथ लग जायेंगे जो आज के भौंड़े उपकरणों की अपेक्षा प्रकृति की अधिक सूक्ष्मता की थाह ला सकें। तब सम्भवतः उन्हें पदार्थ की भौतिक शक्ति के अन्तराल में छिपी हुई चेतना की परतें भी दृष्टिगोचर होने लगेंगी। आज भी इसकी संभावना स्वीकार की जा रही है। इसलिए ईश्वर के अस्तित्व की सिद्धि न होने पर भी विज्ञान अन्यान्य अनेकों सम्भावनाओं की तरह ईश्वर की सम्भावना का भी खण्डन नहीं करता, वह केवल नम्र शब्दों में इतना ही कहता है अभी प्रयोगशालाओं ने अपनी पकड़ में ईश्वर को नहीं जकड़ पाया है। उसका खण्डन इसी सीमा तक है। विज्ञानी नास्तिकता दुराग्रही नहीं हैं। वह अपनी वर्तमान स्थिति का विवरण मात्र प्रस्तुत करती है।

ईश्वर की सत्ता को प्रामाणित करने के लिए यह आधार ही काफी है कि सृष्टि के प्रत्येक घटक को नियम और क्रम के बन्धन में बँधकर रहना पड़ रहा है। कभी−कभी भूकम्प, तूफान, उल्कापात, जैसी घटनाएँ− प्राणियों के पेट के विचित्र आकृति−प्रकृति की सन्तानों का होना जैसे व्यतिक्रम दीख पड़ते हैं, पर गहराई से विचार करने पर वे भी ऐसे नियम कानूनों के आधार पर होते हैं जिन्हें आमतौर से नहीं जानते वे अपन काम करते हैं और जब अवसर पाते हैं तो विलक्षण स्थिति उत्पन्न करते हैं।

‘दि मिस्टीरियस यूनीवर्स’ ग्रन्थ के लेखक सर जेम्स जीन्स ने अत्यन्त गम्भीरतापूर्वक यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि− “इस ब्रह्मांड का सृष्टा कोई विशुद्ध गणितज्ञ रहा होगा। उसने न केवल मानव प्राणी की वरन् अन्य सभी जड़ चेतन कहे जाने वाले प्राणियों और पदार्थों की संरचना में गणित की उच्चस्तरीय विद्या का पूरी तरह प्रयोग किया है। यदि इसमें कहीं कोई भूल रह जाती तो हर चीज बनने से पूर्व ही बिखर जाती। प्राणी जीवन धारण करने से पूर्व ही मर जाते और ग्रह−पिण्ड अपना पूर्ण रूप बनाने से पूर्व ही एक−दूसरे के साथ टकरा कर चूर−चूर हो जाते हैं। यह सृष्टा के गणित ज्ञान का चमत्कार ही है कि न केवल पृथ्वी वरन् समस्त ब्रह्मांड एक क्रमबद्ध प्रक्रिया के साथ गतिशील है।”

न्यूटन की खोजें किसी समय अत्यन्त सत्य मानी गई थीं, पर अब परिपुष्ट विज्ञान ने उन्हें क्षुद्र, असामयिक एवं व्यर्थ सिद्ध कर दिया है। गुरुत्वाकर्षण की खोज किसी समय एक अद्भुत उपलब्धि थी अब आइंस्टीन का नवीनतम सिद्धान्त प्रामाणिक माना गया है और गुरुत्वाकर्षण सिद्धान्त को बाल−विनोद ठहराया गया है। ‘आइंस्टीन के अनुसार देश, काल और एकीकरण की− स्पेश टाइम और काजेशन− के एकीकरण सिद्धान्त की एक वक्राकृति मात्र है जिसे हम पृथ्वी का घुमाव मानते हैं। यह इस वक्रता के दो उपाँशों का आनुपातिक सम्बन्ध भर है। इसी से पृथ्वी घूमती दीखती है और उसकी गतिशीलता को अनुभूति में एक कड़ी गुरुत्वाकर्षण की भी जुड़ जाती है। यह आकर्षण तथ्य नहीं वरन् हलचलों की एक भोंड़ी सी अनुभूति मात्र है।”

कोई चित्रकार यदि अन्य किसी ग्रह पर बैठकर पृथ्वी का रंगीन चित्र बनाये तो वह रंग बिरंगे दृश्यों का एक समतल दृश्य ही होगा। गोला भी बनाया तो वह केवल एक पक्षीय होगा। पूरा गोला इस तरह बनाया जाना असंभव है जो दोनों ओर की स्थिति को एक साथ दिखा सके। कल तक लम्बाई−चौड़ाई बताने वाले चित्र ही तैयार होते थे। − हराई का आभास उनसे यत्किंचित् ही होता था। अब ‘थ्री डाईमेंशनल’ स्थिति देखने की भी सुविधा बन चली है और गहराई को देख सकना भी सम्भव हो गया है। आगे चित्रकला के विकास में कई और डाईमेंशनल जुड़ेंगे, पर अभी तो वे सम्भव नहीं। इसलिए जो भी चित्र बने वे अधूरी दृश्य प्रक्रिया पर निर्भर है। अन्य ग्रह पर बैठकर बनाया गया पृथ्वी का चित्र यहाँ की हलचलों की सही जानकारी दे सके यह सम्भव नहीं। भले ही उस ग्रह के निवासी उस चित्र को कितना ही सर्वांगपूर्ण क्यों न मानें।

हमारे पूर्वज धरती को समतल मानते थे। पीछे पता चला कि वह गोल है। इसके बाद यह जाना गया कि वह घूमती भी है और परिक्रमा भी करती है। इसके उपराँत यह जाना गया कि वह अपने अधिष्ठाता के साथ अन्य भाइयों के साथ किसी महासूर्य की प्रक्रिया के लिए भी दौड़ी जा रही है और वह महासूर्य किसी अतिसूर्य की परिक्रमा में निरत है। अपने सौरमण्डल जैसे अन्य कितने ही सौरमंडल उस महासूर्य सहित अतिसूर्य की प्रदिक्षणा में निरत है। मालूम नहीं यह महा− अति और अत्यन्त अति का सिलसिला कहा जाकर समाप्त हो रहा होगा और पृथ्वी के भ्रमण की कितनी हलचलों का भाग्य उन अचिन्त्य− परिक्रमाओं के साथ जुड़ा होगा। कुछ दिन पूर्व यह भी पता लगा कि पृथ्वी लहकती और थिरकती भी है। सीधे−साधे ढंग से अपनी धुरी पर घूमती भर नहीं है वरन् वह कई प्रकार की कलाबाजियां भी दिखाती है। साँस लेती हुई फूलती और पिचकती भी है इससे उसकी भ्रमणशीलता में अन्तर आता है तदनुसार गुरुत्वाकर्षण भी घटता−बढ़ता है।

अपनी आकाश गंगा में हमारे सौरमण्डल जैसे लाखों सौरमण्डल हैं। इन सौरमण्डलों के अपने ग्रह−उपग्रह हैं। समूचे ब्रह्मांड में कितनी गंगाएं हैं? इन प्रश्न का उत्तर वैज्ञानिक अरबों में गिनते हैं। प्रत्येक आकाश गंगा कितने सौरमण्डल अपनी कमर के साथ रस्सी में बाँधे हैं और वे सौरमण्डल कितने ग्रहों को जकड़े बाँधे बैठे है और उन ग्रहों के साथ कितने उपग्रह चिपके हैं इस सारे पिण्ड परिवार की गणना की जाय तो हमारा अंक गणित झक मारेगा और उस गिनती की पूरी कल्पना तक कर सकना मनुष्य के क्षुद्र मस्तिष्क के लिए सम्भव न हो सकेगा। समस्त ब्रह्मांड में हमारी पृथ्वी जैसे क्षुद्र ग्रह कितने होंगे? और उनमें से कितनी ही- कितने चित्र विचित्र आकृति−प्रकृति के प्राणियों को अपनी गोदी में खिला रही होगी। वहाँ की आणविक− रासायनिक जैवीय परिस्थितियाँ एक दूसरे से कितनी अधिक भिन्न विपरीत होंगी यह सब कल्पना करना ही हमारे लिए अशक्य है। अभी तो अपनी पृथ्वी के वातावरण में जो हलचलें चल रही हैं उन्हीं की खोज अत्यन्त विस्मयजनक परदे उठाती चल रही हैं और उन्हीं की खोज अत्यन्त विस्मयजनक परदे उठाती चल रही है और उन्हीं उलझनों से हम हतप्रभ रह रहे हैं जब अन्य ग्रह तारकों में पृथ्वी से सर्वथा भिन्न प्रकार के वातावरण को ध्यान में रखते हुए हमारे विज्ञान में सर्वथा विचित्र अपरिचित विज्ञान का ककहरा पढ़ेंगे तो लगेगा कि इतने असीम ज्ञान−विज्ञान का क्षुद्र मानव मस्तिष्क द्वारा खोज पाया जाना तो दूर उसकी समूची कल्पना करना तथा अशक्य है।

विज्ञान अभी अपना बचपन भी पार नहीं कर पाया कि उसे अपने विषय की गहराई दिन−दिन अधिक दुरूह प्रतीत होती जा रही है। पदार्थ की सबसे छोटी इकाई इलेक्ट्रॉन घोषित तो कर दी गई है पर उसका किसी भी यन्त्र से अब तक प्रत्यक्षीकरण नहीं किया जा सका। न उसे आंखें से देखो गया है न चित्र से उतारा गया है। वह मात्र एक परिकल्पना है जिसे ‘रूप हीन’ कहकर पिण्ड छुड़ाया गया है। इस इकाई की गतिविधियाँ तो नोट करली गई हैं, पर वे क्यों होती हैं इन हलचलों के लिए उन्हें प्रेरणा एवं क्षमता कहाँ से मिलती हैं। खर्च होने वाली शक्ति की वे पूर्ति कहाँ से करती हैं इसका कोई उत्तर प्राप्त नहीं किया जा सका। अणु विज्ञान के मूर्धन्य मनीषी आइन्स्टीन और मैक्स प्लेक तक इस सम्बन्ध में चुप है और यह सोचते हैं कि भौतिक सत्ता के ऊपर कोई अभौतिक सत्ता छाई हुई है। यह अभौतिक सत्ता क्या हो सकती है और उसका उद्देश्य एवं क्रिया−कलाप क्या होना चाहिए यह खोज पाना अभी विज्ञान के लिए बहुत आगे की बात है।

परमाणु परिवार से लेकर सौरमण्डल और ब्रह्मांड संव्याप्त ग्रहपिण्ड परिकर के बारे में हम अभी इतना भी नहीं जानते जितना कि सारे शरीर की तुलना में एक बात। हम केवल पंचतत्वों से बने हुए स्थूल पदार्थों के बारे में ही थोड़ी बहुत जानकारी प्रयोगशालाओं के माध्यम से प्राप्त कर सके हैं। जीव सत्ता− मस्तिष्कीय सम्भावना, अचेतन मन की अतीन्द्रिय शक्ति के अगणित प्रमाण होते हुए भी अभी वैज्ञानिक व्याख्या नहीं हो सकती है। असंख्य क्षेत्रों की जानकारियां अभी प्रारंभिक अवस्था को भी पार नहीं कर सकी हैं। ऐसी दशा में यदि ईश्वर जैसा अति सूक्ष्म तत्व प्रयोगशालाओं की पकड़ में नहीं आया तो यह नहीं कहा जाना चाहिए कि वह नहीं हैं। तत्वदर्शी दृष्टि से हम उसकी सत्ता महत्ता और व्यवस्था सहज ही सर्वत्र बिखरी देख सकते हैं और उस पर श्रद्धा भरा विश्वास कर सकते हैं।

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