
धन का उपार्जन और उपयोग नीतिपूर्वक हो
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बुराई से केवल बुराई ही बढ़ती है। धन यदि बुरे माध्यम से कमाया गया है तो उसका खर्च भी उचित रीति से नहीं हो सकता। जिसने पसीना बहाकर गाढ़ी कमाई से पैसा कमाया है, उसे खर्च करते समय दर्द लगेगा और बार−बार सोचेगा कि इसे किस कार्य के लिए कितनी मात्रा में खर्च करना उचित है? सच बात तो यह है कि हराम की कमाई आडम्बर बनाने, ढोंग रचने और विलासिता के प्रसाधन जमा करने में ही खर्च होती है। इससे अनेक विपत्तियों और व्यथाओं का सामना करना पड़ता है। अनुचित कमाई अपना क्षणिक चमत्कार दिखाकर अन्ततः मनुष्य को अंधकार के गर्त में गिरा देती है। इसका परिणाम यह हो रहा है कि राष्ट्र का आर्थिक, शारीरिक, मानसिक एवं आत्मिक पतन होता जा रहा है।
आर्थिक व्यभिचार को प्रोत्साहन देने में न केवल अर्थ− पिपासुओं का ही हाथ है वरन् उन अज्ञानियों का भी हाथ समझना चाहिए जो गुणों के स्थान पर धन को आदर देने की भूल करते हैं। आज जिसके पास अधिक धन−सम्पत्ति है, समाज के लोग उसको ही आदर ‘प्रतिष्ठा ‘ देने लगते हैं। वह यह देखना नहीं चाहते कि जो प्रचुर मात्रा में धन एकत्रित किया गया है वह किस मार्ग और उपाय से आया है। बेईमानी पूर्वक धन कमा लेने पर जब अवमानना के स्थान पर सम्मान ही होता है तो कोई वैसा करने में संकोच ही क्यों करे? इस आर्थिक व्यभिचार को कम करने का उपाय यह है कि− धन के स्थान पर गुणों का आदर किया जाय। ऐसे व्यक्तियों का नागरिक अभिनन्दन किया जाय जिन्होंने अपनी ईमानदारी तथा सदाचरण का प्रमाण दिया है, फिर चाहे वह धन के सम्बन्ध में दरिद्री ही क्यों न हो। भ्रष्टाचार से बने हुए धन कुबेर के मुकाबले में वह व्यक्ति जो अपनी छोटी−सी तनख्वाह में सन्तोषपूर्वक गुजर करता है और धन की लिप्सा में न तो किसी को धोखा देता है और न झूठ बोलता है, प्रशंसनीय ही है।
धन कमाने के लिए उचित प्रयत्न करना सराहनीय है। उपार्जन और उत्पादन के लिए प्रयत्नशील रहने से व्यक्ति और समाज की क्षमता बढ़ती है, राष्ट्र की आर्थिक स्थिति सुदृढ़ होती है। प्रगति का पथ−प्रशस्त करने वाले साधनों में एक महत्वपूर्ण वस्तु धन भी है। किन्तु “धन कमाना सरल है उसे खर्च करना कठिन है।” हमारी आर्थिक समस्याओं के पीछे कमाने का इतना दोष नहीं है जितना खर्च करने का। हम नहीं जानते कि हमें किस तरह से खर्च करना चाहिए। जहाँ खर्च नहीं करना चाहिए वहाँ हम पानी की तरह पैसा बहाते हैं और जहाँ खर्च करना चाहिए वहाँ हम रीते ही रह जाते हैं। अपव्यय और कंजूसी दोनों ही बहुत बड़े दोष हैं। बहुत से लोग जीवन भर कमाते ही मर जाते हैं किन्तु अपने और दूसरों के लिए आवश्यक खर्च भी नहीं करते। अपने बच्चों को योग्य बनाने, अपने स्वास्थ्य और रहन−सहन को, सामान्य स्तर पर बनाये रखने के लिए भी खर्च नहीं करते। वे या तो अपनी सन्तानों के लिए कमाते हैं या व्यर्थ नाम के लिए। सन्तानें उस धन का दुरुपयोग करती हैं, सन्तानों को धन नहीं, योग्यता देनी चाहिए। पैसा जहाँ रुकता है वहाँ सड़ता है।
बहुत से लोग नाम के लिए धन खर्च करते हैं वे धर्म या मानव के प्रति कर्त्तव्य भावना से प्रेरित नहीं होते। ऐसे खर्चे और ऐसे व्यक्ति भी प्रशंसा के पात्र नहीं हो सकते। यदि वही धन दीन, दुखियों की सहायता में, मानव मात्र की सेवा में, सद्गुणों के विकास में खर्च किया जाता तो समाज और राष्ट्र का कितना हित होता।