Magazine - Year 1975 - Version 2
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
अन्तर का परिष्कार सफल जीवन का आधार
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
वाह्य जगत की जानकारियों को अधिक मात्रा में प्राप्त करना उचित भी है और आवश्यक भी। पर सबसे अधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि हम अपने निज के बारे में अधिकाधिक जानें। अपनी समस्त स्थिति को समझें और अपना हित साधन करने के लिये समुचित ध्यान दें और प्रयत्न करें।
जीवन की प्रगति और अवनति में बाह्य परिस्थितियों का नगण्य स्थान है प्रमुख भूमिका तो आन्तरिक स्थिति की ही होती है। अपना आपा यदि मलीन, निकृष्ट और अस्त−व्यस्त हो तो उसकी प्रतिक्रिया अगणित समस्याएं तथा विपत्तियाँ उत्पन्न करेंगी। मुँह से दुर्गन्ध आती हो तो पास आने वाले हर व्यक्ति को घृणा होती है और वह दूर हट कर बैठता है। जिसके चिन्तन और स्वभाव में दुर्गन्ध आ रही होगी उसका न तो कोई मित्र होगा और न कोई सहयोगी। शत्रुता और निन्दा का वातावरण ही उसे अपने चारों और घिरा हुआ दिखाई पड़ेगा। भीतर की स्थिति यदि सद्भाव सम्पन्न और शालीनता युक्त है तो उसका चुम्बकत्व सज्जनों का सहयोग अपने इर्द−गिर्द जमा कर देगा।
यह दुनिया दर्पण की तरह है, उसमें प्रायः अपना ही प्रतिबिंब दीखता है। जो जैसा होता है उसके मित्र एवं सहयोगी भी उसी स्तर के बढ़ते जाते हैं। परिस्थितियाँ एवं साधन भी उसी तरह के मिलते रहते हैं और व्यक्तित्व तथा वातावरण तदनुकूल ही ढल जाता है, जैसी कि भीतर की स्थिति होती है।
परिस्थितियाँ जैसी होंगी वैसी भली बुरी स्थिति हमें प्राप्त होंगी, यह सोचना गलत है। सही यह है कि जैसी कुछ अपनी भीतरी स्थिति होगी उसी के अनुरूप वाह्य स्थितियाँ बदलती चली जायेंगी। अपने आपको सुधारने का मतलब है अपनी उलझी समस्याओं को सुधारना और अपनी सर्वतोमुखी प्रगति का पथ प्रशस्त करना। यह कठिन है कि बाहर के व्यक्ति यों को अथवा घटनाओं को अपनी इच्छानुकूल ढाल लें। उसकी अपेक्षा यह सरल है कि अपनी अन्तःस्थिति को बदल कर अभीष्ट वातावरण को अपने आप ही बदल जाने का द्वार खोल दें, बुद्धिमत्ता की यही रीति है।
दूसरों की सही समीक्षा कर सकना कठिन है पर अपने आप को आसानी से जाना जा सकता है। दूसरे को सुधारना कठिन है। पर अपने आप को तो आसानी से सुधार जा सकता है। दूसरों की सहायता बड़ी मात्रा में करना सम्भवतः उतना न बन पड़े जितना कि अपनी सहायता आप की जा सकती है। हम अपने को समझे, अपने को सुधारे और अपनी सेवा करने के लिये आप तत्पर हों तो निश्चित रूप से दूसरों की सेवा के लिये किये जाने वाले पुण्य परमार्थ का प्रथम किन्तु अत्यन्त महत्वपूर्ण कदम होगा। जो पाना चाहते हैं उसके लिये बाहरी दौड़−धूप करने से पहले अपने भीतर उपयुक्त पात्रता उत्पन्न करें व्यक्तित्व को जितना ही प्रखर−परिपक्व और समर्थ बनाया जायगा उतना ही अभीष्ट उपलब्धियों को प्राप्त करना सम्भव ही नहीं सरल भी होगा अपनी विशेषताएं ही बाहरी सहयोग को आकर्षित करती हैं। उपलब्धियों से लाभ उठा सकना भी उसी के लिए सम्भव है जो भीतर से मजबूत है अपनी दुर्बलताओं की अपेक्षा करते रहेंगे तो बाहरी उपलब्धियाँ पकड़ की सीमा से बाहर ही बनी रहेंगी। इसलिए अपना चुम्बकत्व प्रखर बनाने के लिए तत्पर होना चाहिये, अनेकों सफलताएं उसी के आधार पर खिंचती हुई चली आवेंगी।