Magazine - Year 1975 - Version 2
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Language: HINDI
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जीवनी शक्ति का अपव्यय− तनाव उत्पन्न करेगा अन्यथा थका देगा
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सिर में दर्द, चक्कर आना, जी घबराना, अनिद्रा, बेचैनी, उत्तेजना जैसी शिकायतें तनाव के लक्षण हैं। लगता है भीतरी मस्तिष्क गरम हो रहा है और सिर की नसें चटक रहीं है। निद्रा, शान्ति और विश्राम के लिये मानसिक शिथिलता आवश्यक है, पर जब सिर तना हुआ हो तो थकान दूर करने वाली नींद कहाँ से आये? काम के दबाव से अथवा चिन्ताओं से उत्पन्न हुआ तनाव विश्राम से ही दूर हो सकता है। तनाव विश्राम की स्थिति उत्पन्न होने नहीं देता ऐसी दशा में स्थिति क्रमशः बिगड़ती ही जाती है।
मनः शास्त्रवेत्ता बताते हैं कि विचार परक आवेश और शरीर की उपार्जित शक्ति से अधिक का खर्च होना महत्वपूर्ण ग्रन्थि एड्रीनल पर दबाव डालता है फलतः एड्रीनेलिन नामक स्राव अनावश्यक मात्रा में उत्पन्न होकर शरीर में ऐसे आवेश उत्पन्न करता है जो विश्राम की स्थिति बनने ही नहीं देता।
पेट का अल्सर, आँतों की सूजन, बढ़ा हुआ रक्त चाप, धड़कना बढ़ना, मधुमेह जैसी बीमारियों के मूल में नाड़ियों का तनाव ही विशेष कारण होता है। इससे लकवा मार जाने और हृदय का दौरा पड़ने जैसे संकट खड़े हो सकते हैं।
बड़े शहरों के निवासी देहात में रहने वालों की अपेक्षा अधिक तनावग्रस्त पाये जाते हैं। समक्ष भोजन, नशेबाजी, शरीर में पोषक तत्वों का कम उत्पादन, अधिक श्रम, अत्यधिक मस्तिष्कीय काम, चिन्ताओं और विक्षोभों में डूबा हुआ मन, इन्द्रिय संयम का अतिक्रमण इन दिनों तनावपूर्ण मनःस्थिति उत्पन्न करने का प्रधान कारण है। संक्षिप्त में जीवनी शक्ति का उत्पादन कम और व्यय अधिक होने के शारीरिक और मानसिक कारण मिलकर मनुष्य को तनाव की स्थिति में धकेल देते हैं।
सितार के तारों को अधिक कड़ा कसते जायं तो वे टूट जायेंगे। मनःस्थिति पर अधिक तनाव डाला जाय तो उसकी प्रतिक्रिया स्वास्थ्य सन्तुलन को तोड़−मरोड़कर रख देगी।
न शरीर पर अधिक बोझ डालें और न मन पर अधिक दबाव पड़ने दें। अत्यधिक श्रम बुरा है। हाथ पैरों को− पेट को− दिमाग को यदि सामर्थ्य से अधिक श्रम करना पड़ेगा तो टूट−फूट हो जायगी। इसका अर्थ यह नहीं कि इसी बहाने आलस्य और प्रमाद अपनाकर आवश्यक श्रमशीलता से जी चुराने का बहाना ढूँढ़ लिया जाय। यहाँ निषेध ‘अत्यधिक’ और ‘असीम’ का किया जा रहा है। हानि उसी से हो सकती है। सहज श्रम तो शरीर और मन को बलिष्ठ बनाता है और विविध−विधि सफलताएं सामने लाकर खड़ी करता है।
जिस प्रकार लगातार अत्यधिक कठोर श्रम करने से माँस पेशियाँ टूटने लगती हैं और नाड़ियाँ दर्द करने लगती हैं उसी प्रकार अवाँछनीय मानसिक श्रम से मस्तिष्कीय समर्थता का कचूमर निकल जाता है। पढ़ने−लिखने सोचने विचारने में भी शक्ति एवं सीमा का ध्यान रखना चाहिए, पर सबसे बड़ी बात यह ध्यान में रखनी चाहिए कि उत्तेजनाएं एवं उद्विग्नताएं सबसे अधिक मानसिक शक्तियाँ नष्ट करती हैं। ईर्ष्या, भय, द्वेष, क्रोध, कुढ़न, दुश्चिन्ता, आशंका, निराशा, कुकल्पना आदि ऐसे उद्वेग हैं जो एक घण्टे में उतनी मानसिक शक्ति खा जाते हैं जितनी कि आठ घण्टे पढ़ने−लिखने एवं सोचने−विचारने में खर्च होती है। स्वार्थपरता, लिप्सा, तृष्णा, विलासिता, कृपणता, अनुदारता यों उत्तेजनात्मक तो नहीं है, पर उनके कारण मनःक्षेत्र एक बहुत छोटे दायरे में सिकुड़ कर रहा जाता है और आँतें तथा आमाशय के सिकुड़ जाने पर जिस प्रकार पेट विकार ग्रस्त हो जाता है उसी प्रकार लिप्सा ग्रस्त मस्तिष्क भी लगभग आवेश उत्पन्न करने वाले मनोविकारों से उत्पन्न विकृतियों की तरह रुग्ण रहने लगता है।
हँसी−खुशी का सहज सामान्य का सहज सामान्य जीवन क्रम छोड़कर जटिलताएं उत्पन्न करने वाली मनःस्थिति में जा फँसना मानसिक तनाव उत्पन्न करने वाली− पैर में कुल्हाड़ी मारने जैसा− अनचाहा किन्तु दूरदर्शितापूर्ण प्रयास है। इस स्थिति में शरीर में मन्द विषों की उत्पत्ति आरम्भ हो जाती है। माँस पेशियों और नाड़ियों को सिकोड़ने वाला एक विषाक्त पदार्थ ‘एसिटिल कोलिन’ उन लोगों के शरीर में बनता है जो मानसिक उत्तेजनाओं से ग्रसित रहते हैं। यह विष शरीर के अन्य रासायनिक पदार्थों में सम्मिलित होकर लैक्टिक अम्ल बनाने लगता है। इससे शरीर में अकड़न, शिथिलता, रुक्षता जैसी शिकायतें बढ़ती हैं और सामान्य जीवन यात्रा में कई प्रकार की कठिनाईयाँ उत्पन्न होती हैं। इन्हीं परिस्थितियों में ‘तनाव’ भी बढ़ता है।
यों खाद्य पदार्थों में कैल्शियम की कमी होना भी पेशियों में तनाव, अनिद्रा, उत्तेजना, दिल एवं दिमाग की कमजोरी का एक कारण है। पर यदि शरीर ठीक है तो सामान्य शाक−भाजी एवं रोटी दाल के पच जाने पर भी उसकी कमी पूरी हो जाती है। भोजन स्तर में थोड़ा सुधार करने से भी काम चल जाता है, पर मानसिक दबाव से जो क्षति उत्पन्न होती है उसकी पूर्ति सहज ही नहीं हो सकती। दूध, दही, गाजर, मूली, आँवला जैसे कैल्शियम प्रधान खाद्य पदार्थ लेते रहने पर भी− इस अभाव की पूर्ति के लिये बनी औषधियाँ लेते रहने पर भी शरीर दुबला ही रहता है और थकान तथा उत्तेजना बनी रहती है। अशान्त मस्तिष्क सारे शरीर को चकमका कर रख देता है।
हर समय अपनी ही वर्तमान परेशानियों की बात सोचते रहना− भूतकाल की सफलताएं एवं दुखद घड़ियों का स्मरण करते रहना− भविष्य में कभी आ सकने वाली कष्टकर सम्भावनाओं के कल्पना चित्र गढ़ते रहना एक प्रकार से जान−बूझकर दुखी रहने की चेष्टा है। इस चिन्तन से क्या लाभ? जो कठिनाई आज है उसके सम्बन्ध में इतना सोचना ही पर्याप्त है कि उसे हटाने या घटाने के लिये इस समय अपने हाथ में क्या उपाय है और इस प्रयोजन के लिए निकट भविष्य में क्या साधन जुटाये जा सकते हैं।
लोगों का साथ निभाने की कला हमें अपनी चाहिए। आदमी मिट्टी के खिलौने नहीं है जो चाहे जब चाहे जहाँ हटाये बदले जा सकें। कुछ व्यक्ति ऐसे होते हैं जिनके साथ हमें इच्छा या अनिच्छा से रहना ही पड़ेगा। पड़ौस में जो लोग बसे हुए हैं उनका घर उजाड़ा नहीं जा सकता और न अपने खेत खलिहान का परित्याग कर किसी दूर देश में घोंसला रखा जा सकता है। पड़ौसी जैसे भी हैं आखिर रहना तो उन्हीं के साथ पड़ेगा। आवश्यक नहीं कि वे समझाने−बुझाने या अनुनय−विनय करने पर ही हमारी मर्जी के बन जायं। यहीं बात अपने कुटुम्बियों के सम्बन्ध में भी है। बूढ़े माता−पिता, जवान भाई−भावज, सयाने लड़की−लड़के, धर्म−पत्नी इनकी आदतें अपनी मर्जी के अनुरूप ही हों यह आवश्यक नहीं। जिस प्रकार हर मनुष्य की शकल में अन्तर होता है उसी प्रकार उसका व्यक्तित्व भी कितनी भली−बुरी विशेषताओं से जुड़ा होता है। कुछ इनमें से बदलती रहती है। अच्छे बुरे बन जाते हैं और बुरे अच्छे। अरुचि की स्थिति उत्पन्न होते ही उन्हें हटा दिया जाय− खुद हटा जायं या अपनी मर्जी का सुधार हो जाय यह तीनों ही बातें कठिन हैं। सरल यही है कि हमें जिन लोगों के साथ रहना पड़े, उनके साथ इस प्रकार निर्वाह करें कि बिना आये दिन का टकराव उत्पन्न किये समय गुजरता रहे और यथा सम्भव सहयोग की सम्भावनाएं बढ़ती रहें। ऐसा सहिष्णुता की नीति अपनाने से ही हो सकता है। हर किसी से लड़ते रहना या मरने मारने पर उतारू होना भी लाभदायक विकल्प नहीं है।
घुटन को डिब्बी में बन्द करके तकिये के नीचे दबाये रहना ठीक नहीं। एक बात सामने आई उस विचार किया और सिनेमा की फिल्म की तरह उसे दिमाग के पर्दे से हटा दिया। जब हम साँस को फेफड़े में नहीं रोके रह सकते, तो किसी विक्षोभ हो की मन में जमाकर, दबाकर क्यों बैठे रहें। नई साँस लेने के लिये पुरानी साँस बाहर निकलना आवश्यक है। भविष्य का निर्माण करने वाले विचारों को आमन्त्रित करने के लिए यह आवश्यक है कि जो बीत चुका उसकी कष्टकारक स्मृतियों के विस्मरण के गड्ढे में धकेल कर जी हलका करें।
खाली बैठे सिर अधिक गरम होता है। दुश्चिन्ताओं, और उद्वेगों से पिण्ड छुड़ाने का एक तरीका यह भी है कि ठालीपन दूर कीजिए और तुरन्त किसी काम में लग जाइये। बहुत से काम ऐसे हैं जो मस्तिष्क में गड़बड़ रहते हुए भी किये जा सकते हैं। झाड़ू लगाना, कपड़े धोना, चक्की पीसना जैसे काम अभ्यस्त हाथ ऐसा ही करते रह सकते हैं। तैरना, खेलना, किसी काम से अन्यत्र चले जाना जैसे छोटे परिवर्तन उत्तेजित मनः स्थिति को हलकी कर सकते।
मधुर मुस्कान चेहरे पर बनाये रहना-प्रकृति प्रदत्त सुन्दरता को अनेक गुना बड़ा लेने का सरल उपाय है। दार्शनिकों, वैज्ञानिकों, ध्यान मग्न योगियों या अहंकारियों जैसी गम्भीरता बनाये रहना अपने निज के लिए बहुत बोझिल सिद्ध होती है। दूसरे लोग इस प्रकार की प्रकृति वालों से बचने की कोशिश करते हैं। अत्यन्त आवश्यक काम होने पर ही नपी तुली आधी अधूरी बात करते हैं पास बैठने से कतराते हैं। ऐसे लोगों को अक्सर अधिक समय एकाकी व्यतीत करना पड़ता है। जिन्हें मजबूरी में पास रहना पड़े वे भी उन क्षणों को विपत्ति की घड़ी मानते हुए ज्यों-त्यों काटते हैं। ऐसे व्यक्ति न स्वयं हँसते हैं और न दूसरों को हँसता देखने से जो आनन्द मिलता है उसका अनुभव कर पाते हैं।
दूसरों पर विश्वास न करें-अपनी मर्जी पर किसी को अकारण अविश्वस्त मान बैठना और उसके सम्बन्ध में तरह-तरह की अनुपयुक्त कल्पनाएँ गढ़ना भी न्याय संगत कहाँ है? मित्र और शत्रु के बीच भी एक रेखा रहनी चाहिये। जिनसे हमारे गहरे सम्बन्ध नहीं हैं उन्हें मध्यवर्ती क्यों न मानें। उनके भले या बुरे होने के सम्बन्ध में आवश्यक प्रमाण न मिलने तक मान्यता बनाने की जल्दी क्यों करें?
कम बोलना और उपयोगी वार्तालाप ही करना तो उचित है, पर मुँह पर ताला लगाये डरपोक संकोची अथवा बुद्धू की तरह गुम-सुम बैठे रहना बुरा है। अपराधी की तरह डरते, काँपते, झिझकते रहने से अपनी प्रतिभा दबती है मुँह के रास्ते घुटन को निकाल बाहर करने का अवसर हाथ से चला जाता है। अपनी बात कहना दूसरे की सुनना यह सामाजिक गुण है। इससे वह घुटन नहीं जमती जो कहने योग्य बात को भी मुँह से न निकालने के कारण सड़ी गन्दगी की तरह जमा होती चली जाती है। वाणी में शिष्टता, नम्रता, मधुरता का समावेश होना एक बात है और बड़ों के सामने मुँह न खोलने की कमजोरी दूसरी। दोनों को एक नहीं मान बैठना चाहिए और मुँह पर ताला डाले रहने को विनम्रता या सज्जनता का चिन्ह नहीं मानना चाहिए। हँसते हुए और मन की बात कहते हुए बच्चे कब किस को अशिष्ट या उद्दण्ड लगते हैं। अपनी कहना और दूसरे की सुनना हर आयु और हर स्तर के व्यक्ति के साथ सरल एवं सुखद होना चाहिए।
तनाव की उत्तेजना जब स्नायु संस्थान को अति दुर्बल कर देती है तो फिर मनुष्य अपने आपको थका हुआ, अशक्त दुर्बल अनुभव करता है, उसे लगता है कि शक्ति भण्डार चुक गया और कुछ कर सकने लायक सामर्थ्य बची ही नहीं। न कुछ करते बनता है न सोचते। नस-नस में आलस्य छाया रहता है। काम आरम्भ करने को जी ही नहीं करता-किया भी जाय तो पूरा होने से पहले ही छूट जाता है। न शरीर-बल दिखाई पड़ता है न मनोबल लगता है शरीर एक खोखले ढोल की तरह निर्जीव हो गया है।
आवश्यक नहीं कि ऐसी स्थिति तनाव के बाद ही आवे। उत्तेजना उत्पन्न होने के स्थान पर धीरे से थकान भी आकर सवार हो सकती है। थकान दूर करने क लिए बहुत समय बिना कम पड़े रहने या कम काम करने से भी कुछ प्रयोजन सिद्ध नहीं होता। शरीर जो गँवा चुका है, मन जिस कदर अशक्त हो चुका है उसकी क्षति पूर्ति किये बिना केवल काम न करना भी बेकार ही चला जाता है।
शरीर शास्त्री डा. ब्रूहा के अनुसार थकान का ही दूसरा नाम जराजीर्ण स्थिति अथवा वृद्धावस्था है। शरीर संचालन एवं आजीविका उत्पादन उत्तरदायित्वों का निर्वाह जैसे कार्यों में जितनी शक्ति खर्च होती है, यदि उतनी ही उपलब्ध होती रहे तो स्फूर्ति बनी रहेगी और शक्ति भण्डार क्षति ग्रस्त न होने से मृत्यु का दिन दूर रखा जा सकेगा। शरीर यात्रा के लिये जितना शक्ति नितान्त आवश्यक है उतनी ही खर्च हो और जो खर्च होना अनिवार्य है उसका उपार्जन ठीक तरह होता रह तो वह सन्तुलन बना रहेगा। इसके सहारे देर तक कार्य क्षमता बनी रह सकती है और थकते-थकते जराजीर्ण होकर जीवन दीपक बुझ जाने की अवधि लम्बी हो सकती है।
पोषण कैसे प्रदान किया जाय आमतौर से इसी प्रश्न पर विचार किया जाता है। जबकि अधिक ध्यान इस बात पर दिया जाना चाहिए कि क्षति को किस प्रकार रोका जाय। 30 वर्ष की आयु के व्यक्ति ने फेफड़ों का जितना आकार होता है 80 तक पहुँचते-पहुँचते उसका एक तिहाई भाग घिसकर समाप्त हो जाता है। पसलियों के कठोर हो जाने से साँस को पूरी मात्रा में ग्रहण कर सकना उनके लिये कठिन हो जाता है। यदि पसलियाँ उतनी कठोर न होतीं और जो हिस्सा गलकर समाप्त हो चुका है वह बचा लिया गया होता तो श्वाँस-प्रश्वास क्रिया ठीक चलती रहती। रक्त शुद्धि यथावत होती रहने से विषाक्तता की वह मात्रा न बढ़ती जिसने वृद्धावस्था की जराजीर्ण स्थिति और साथ ही कई प्रकार की रुग्णता उत्पन्न कर दी।
जीवन की सुरक्षा एवं स्थिरता में आहार का अत्यधिक महत्व है। यदि सुपाच्य, सुसन्तुलित और सही आहार उपयुक्त मात्रा में उपयुक्त रीति से किया जाय तो उसके द्वारा अभीष्ट पोषण प्राप्त हो सकता है। अन्यथा वह शक्ति देने की अपेक्षा प्रकृति प्रदत्त शक्ति भण्डार को नष्ट करने का ही कारण बनता रहता है। स्वाभाविक और सही भोजन के अभाव में शरीर दुर्बल होता जाता है और उसे जर्जरता जराजीर्ण स्थिति आकर घेर लेती है यह अनिवार्य विपत्ति नहीं है इससे थोड़ी सतर्कता बरतने पर सहज ही बचा जा सकता है।
तनाव एवं थकान को मिटाने के लिए सम्पूर्ण शरीर को ढीला करके पड़े रहना कारगर किन्तु सामयिक उपाय है। इसे शवासन, शिथिलासन या शिथिलीकरण मुद्रा करते हैं। आराम कुर्सी पर, पलंग पर शरीर को पूरी तरह ढीला करके चित्त पड़े रहना चाहिए। आँखें बन्द रखनी चाहिए। नीचे नीला जल नीला आसमान भर है कहीं कोई व्यक्ति या पदार्थ नहीं रहा प्रलय काल जैसा शून्य शान्ति स्थिति सर्वत्र छाई हुई है और उस वातावरण में हम अकेले जल पर पड़े कमल पत्र पर पड़े-सोते तैरते चले जा रहे हैं। यह कल्पना जितनी गहरी होगी उतना ही शिथिलासन अधिक कारगर होगा। शरीर के प्रत्येक अंग को पूरी छुट्टी देनी चाहिए। उसे तनिक भी कार्य नहीं करना पड़ रहा है, प्रत्येक माँस पेशी शिथिल एवं निष्क्रिय पड़ी है। गहरी सुषुप्ति अवस्था में जो स्थिति होती है वह बन गई है। मन में कोई विचार नहीं उठ रहा है वह योगनिद्रा की शून्यावस्था में प्रवेश करके परम शांति एवं गहन विश्रान्ति का अनुभव कर रहा है। मन में न कोई कामना न कोई चिन्ता। सर्वथा निश्चिन्त, निर्द्वंद्व एवं निर्भय अपनी स्थिति रह रही है। ऐसी कल्पनाएँ मन में यथार्थता के रूप में हृदयंगम की जायं।
यह स्थिति आरम्भ में अटपटी लगती है आधी अधूरी और थोड़ी देर के लिए ही बन पड़ती है। तनाव इसमें बार-बार विक्षेप डालता है। किन्तु अभ्यास को जारी रखा जाय। नित्य नियमित रूप से 15 मिनट उसे नियत समय पर करते रहा जाय तो एक दो महीने में इसकी आदत पड़ जाती है और आधा घण्टा तक उस स्थिति में भली प्रकार पड़े रह सकना सम्भव हो जाता है। अभ्यास की दृष्टि से प्रातःकाल अथवा रात्रि को सोते समय इसका प्रयोग करना चाहिए किन्तु पीछे जब भी तनाव अनुभव हो तभी आधा घण्टे का समय निकालकर शिथिलीकरण मुद्रा की स्थिति में पड़े रहना चाहिए। इसका लाभ तत्काल दिखाई पड़ेगा। बेचैनी एवं थकान दूर हुई प्रतीत होगी।
तनाव एवं थकान की स्थिति उत्पन्न होने देने से पूर्व ही अपना आहार-विहार एवं मानसिक स्तर ऐसा सुसंयत रखना चाहिए जिससे इस प्रकार की विपत्तियों का सामना ही न करना पड़े। शक्ति के उत्पादन और व्यय का संतुलन मिलाते हुए जीवनचर्या बनाई जाय-हँसती-हँसाती आदतें सँजोई जायं अनावश्यक चिन्ताओं का भार वहन किया जाय, तो तनाव से भी बचा जा सकता है और थकान से भी।