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Magazine - Year 1976 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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परिस्थितियों पर नहीं मनःस्थिति पर प्रसन्नता निर्भर है।

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गरम हवा के साथ उड़कर धूलि आसमान में छा जाती है, जाड़े के दिनों में वह धरती पर लुढ़कती है और वर्षा होते ही कीचड़ की तरह दिखाई पड़ती है। ऐसा इसलिए होता है कि वह हलकी, तुच्छ और नगण्य है भारी चट्टानों की स्थिति धूलि से भिन्न होती है, वे आँधी-तूफानों में भी यथास्थान बनी रहती हैं और वर्षा, गर्मी से उनकी स्थिति में कोई खास अन्तर नहीं आता। चट्टानों का गौरव, उनकी अविचल एवं भारी-भरकम होने के कारण ही है।

मनुष्य की गरिमा उसकी भारी-भरकम काया नहीं, वरन् उसकी सन्तुलित मनःस्थिति है। परिस्थितियाँ सदा एक जैसी नहीं रह सकतीं, उनका बदलना और पलटना नितान्त स्वाभाविक है सृष्टि के नियमानुसार संसार की हर वस्तु और हर परिस्थिति बदलती रहती है। यह परिवर्तन ही संसार में गतिशीलता का चक्र चला रहा है। स्थिरता का अर्थ जड़ता ही हो सकता है। यदि पृथ्वी का घूमना, हवा का चलना और रात-दिन का बदलना बन्द हो जाय तो यहाँ भयंकर निस्तब्धता छा जायेगी।

किसी को भी यह आशा नहीं करनी चाहिए कि कोई वस्तु, व्यक्ति तथा परिस्थिति सदा एक स्थिति में बने रह सकते हैं आज का बच्चा कल किशोर, परसों तरुण, अगले दिन अधेड़, फिर बूढ़ा और अन्ततः मृतक बनेगा ही, इस व्यवस्था को बदला नहीं जा सकता । कोई व्यक्ति सदा एक जैसी स्थिति में रहना चाहे तो उसकी यह इच्छा कभी पूरी नहीं हो सकती। पौधे उगते, बढ़ते, परिपक्व होते और वृक्ष बनकर नष्ट हो जाते हैं। घर में कभी जन्म होता है, कभी मरण। दुकान में किसी दिन घाटा पड़ता है, किसी दिन लाभ होता है। ऋतुएँ बदलती हैं, अपना-अपना प्रभाव दिखाती हैं और फिर नई के आने के लिए स्थान खाली करके स्वयं चली जाती हैं। जो इस काल-चक्र की सुनिश्चितता को समझते हैं, वे पहले से ही यह समझ लेते हैं कि इन परिवर्तनों के लिए तैयार रहना चाहिए और जब अनुकूल स्थिति बदलकर प्रतिकूलता का अवसर सामने आये तो उसे अप्रत्याशित न समझकर सहज स्वाभाविक मानें और अपने चित्त को बेतरह असन्तुलित न करें। धैर्यवानों की-विवेकशीलों की मनःस्थिति ऐसी ही होती है। वे न तो अनुकूलता में हर्षोन्मत्त होते हैं और न प्रतिकूलता में सिर धुन-धुनकर रोते हैं। परिवर्तनों का प्रभाव तो हर किसी पर पड़ता है, पर वह विवेकवानों को उतना ही प्रभावित करते हैं जितना कि ऋतुओं का बदलाव। सर्दी की ऋतु में जो ढर्रा था, गर्मी आने पर अभ्यस्त प्रक्रिया बदलने की अड़चन तो पड़ती है, पर कुसमुस करके ढर्रा भी बदल लिया जाता है। दिनचर्या, कपड़े-लत्ते, सोना-जागना बहुत कुछ बदलना पड़ता है, पर इसे अनिवार्य मानकर बिना बहुत गड़बड़ाये सहज स्वभाव से सँभाल लिया जाता है।

समझदारी का तकाजा है कि संसार चक्र के बदलते क्रम के अनुरूप अपनी मनःस्थिति को तैयार रखें। लाभ, सुख, सफलता, प्रगति, वैभव, पद आदि मिलने पर अहंकार से ऐंठने की जरूरत नहीं है। कहा नहीं जा सकता वह स्थिति कब तक रहेगी। स्थिति कभी भी बदल और उलट सकती है, ऐसी दशा में रोने, झींकने, खीजने, निराश होने में शक्ति नष्ट करना व्यर्थ है। परिवर्तन के अनुरूप अपने को ढालने के, विपन्नता को सुधारने में, उपाय सोचने, हल निकालने और ताल-मेल बिठाने में यदि मस्तिष्क को लगाया जाय तो वह प्रयत्न रोने, सिर धुनने की अपेक्षा अधिक श्रेयस्कर होगा।

दूरदर्शी लोग समझते हैं कि हर परिवार का यह स्वाभाविक क्रम है कि कुछ जन्मते रहेंगे, कुछ मरते रहेंगे। यह अनिवार्य और अपरिहार्य है। राजी से, बिना राजी से इन परिस्थितियों का सामना करना ही पड़ेगा। अस्तु बुद्धिमत्ता इसी में है कि हर्ष, शोक की प्रतिक्रिया को सीमित रखा जाय उसे इतना अनियन्त्रित न होने दिया जाय कि मस्तिष्क विक्षिप्त जैसा बन जाय और उलटे रास्ते अपनाकर हाथ के कामों को भी चौपट बनाते हुए दुहरी हानि खड़ी कर दे। यदि सन्तुलन बनो रहने का अभ्यास हो तो जो क्षति हुई उतने से ही बीतेगी। शोकाकुल विक्षिप्तता से रो-रोकर आँखें खराब कर लेना, आवश्यक कामों को अपने समझाने-बुझाने में उलझा लेना, आवश्यक कामों को अस्त-व्यस्त करके नई हानि उत्पन्न करना जैसे स्वनिर्मित संकटों से बचा जा सकता है। बुद्धिमान दैवी विपत्ति को ही पर्याप्त मानते हैं, अपनी ओर से नई विपत्तियाँ आमन्त्रित नहीं करते। धैर्यवानों की समझदारी ऐसे ही प्रसंगों पर परखी जाती है।

धन लाभ सदा होता रहे तो कोई भी व्यक्ति लखपति, करोड़पति बन सकता है। एक का लाभ दूसरे का घाटा, दूसरे का लाभ एक का घाटा, यहीं अनवरत क्रम इस संसार में अनादिकाल से चल रहा है यह सब बन्द हो जाय तो निर्धन, निर्धन ही बने रहेंगे और धनी, धनपति स्थायी हो जायेंगे। तब धनी को अपनी स्थिति नीरस लगेगी और निर्धनता की आशंका से उसे सतर्क रहने की आवश्यकता पड़ेगी। ऐसी स्थिति में वह सोने की शिला जैसा जड़ बन जायेगा। हानि और लाभ का चक्र यों बड़ा अटपटा और बेतुका लगता है, विचार बुद्धि से देखने पर प्रतीत होता है कि सृष्टि में सजीवता बनाये रहने के लिए वह कितना अधिक आवश्यक है। ईश्वर ने अपना यह विधान कितना समझ-सोचकर रखा है। जो वस्तुस्थिति को समझते हैं वे ज्वार-भाटों के साथ उछलते-गिरते नहीं, वरन् समुद्र तट पर बैठ कर उस प्रकृति कौशल का विनोद भरा आनन्द लूटते हैं।

संयोग-वियोग, हानि-लाभ, सुख-दुःख, जन्म-मरण, सफलता-असफलता जैसे परस्पर विरोधी अवसर दिन और रात की तरह आते और चले जाते हैं। इनने बड़े-बड़ों को प्रभावित किये बिना नहीं छोड़ा। राम का वनवास, सीताहरण, कृष्ण का गोपी विछोह, वंश नाश, व्याध बाण से मरण, पाण्डवों का अज्ञातवास, ईसा को शूली, सुकरात को विषपान, गाँधी को गोली, शंकराचार्य को भगंदर, राम-तीर्थ को जल समाधि जैसे घटना-क्रमों को देखते हुए लगता है कि धर्मात्मा और बुद्धिमान भी सदा सुखी ही नहीं बने रहते, उन्हें भी विपत्तियाँ घेरती, झकझोरती हैं। अन्तर इतना ही रहता है कि ओछे स्तर के मनुष्य तुच्छ धूलि का अनुकरण करते हैं, गर्मी आते ही आकाश छूते और चक्रवात के साथ घूमते हैं किन्तु वर्षा की बूँदें आते ही कीचड़ की तरह खाई-खड्डों में पड़े दुर्गति का रोना रोते हैं। भारी भरकम चट्टानें इन उतार-चढ़ावों को धैर्यपूर्वक सहती हैं और अपना संतुलन बनाये रहती हैं।

उज्ज्वल भविष्य के लिए प्रबल पुरुषार्थ करना उचित है। आज की अपेक्षा कल का दिन अधिक सुखद और अधिक साधन सम्पन्न हो इसके लिए उत्साहपूर्वक पूरा प्रयत्न किया जाना चाहिए अनावश्यक रूप से लम्बी-चौड़ी महत्वाकाँक्षाएँ गढ़ना और उनके तत्काल पूरी न होने पर बेतरह दुःखी होना व्यर्थ है। इच्छाओं के अनुरूप सफलताएँ मिल ही जायं यह आवश्यक नहीं, मनुष्य का एकाकी प्रयत्न ही सब कुछ नहीं होता, दूसरों का सहयोग और परिस्थितियों की अनुकूलता मिलकर ही अमुक सीमा में-अमुक अवधि में अभीष्ट सफलताएँ उत्पन्न होती हैं। इसके लिए धैर्य रखना और अनवरत गति से प्रयत्नरत रहना पड़ता है। जो इतना नहीं कर पाते-मनोरथों की पूर्ति के लिए अधीर आतुरता प्रकट करते हैं, विलम्ब लगने या आँशिक सफलता मिलने पर भाग्य को कोसते, दुःख पाते हैं, उन्हें प्रकृति चक्र से अपरिचित ही कहा जा सकता है।

बुद्धिमानी इसमें है कि जो उपलब्ध है उसका आनन्द लिया जाय और सन्तोष भरा सन्तुलन कायम रखा जाय। और आगे प्रगति करने के लिए प्रयास तो जारी रखें, पर वह सब कुछ खिलाड़ी की मनोभूमि रखकर किया जाना चाहिए। अच्छे खिलाड़ी रोज हारते-जीतते हैं, पर वे न तो सफलता पर उन्मत्त होते हैं और न असफलता पर सिर धुनते हैं। दोनों ही परिस्थितियों में वे खट्टे-मीठे विनोद का आनन्द लेते हैं। यही प्रौढ़ मनोभूमि है। जो ऐसी स्थिरता बनाये रहते हैं वे ही जीवन का आनन्द लेते हैं महत्वाकाँक्षाओं के लिए आतुर उद्विग्नता तो एक प्रकार की मानसिक रुग्णता है, जिससे ग्रसित मनुष्य सदा अशान्त, व्यथित, खिन्न और विक्षुब्ध ही पाये जाते हैं। इस प्रकार की मनोभूमि के लोग पाने का सुख लेने की अपेक्षा अतृप्ति का दुःख अधिक पाते हैं और हर हालत में अपनी ही क्षति करते हैं। इसी स्थिति को तृष्णा कहा गया है और उसे अबुद्धिमत्तापूर्ण ठहराया गया है।

सम्बद्ध व्यक्ति, साधन, पदार्थ एवं परिस्थितियाँ यह सब अनुकूल हों तो मनुष्य अपने आपको सुखी मानता है, पर वास्तविकता इससे सर्वथा भिन्न है। हर मनुष्य की वास्तविक दुनिया उसकी मान्यताओं और कल्पनाओं की बनी हुई है। कल्पनाओं का गठन जिस स्तर का होता है उसी स्तर की अनुभूतियाँ होती रहती हैं और उसी आधार पर चित्त प्रसन्न एवं उद्विग्न बना रहता है। बाहर के पदार्थ बहुत कम मात्रा में ही सुख-दुःख दे पाते हैं। सम्पन्नताएँ एवं विपन्नताएँ सापेक्ष हैं। किसी धनी के साथ तुलना करने पर लगता है हम घोर दरिद्र हैं और निर्धनों के साथ तुलना करने पर लगता है, हमें लाखों, करोड़ों की तुलना में कहीं अधिक मिला हुआ है। तुलना का माप-दण्ड ही हमें दरिद्र अथवा धनी होने का निश्चय कराता है और दुःखी रहने अथवा प्रसन्न रहने का अवसर देता है। इच्छित परिस्थिति पाना कठिन है, पर अपना तुलनात्मक मापदण्ड आसानी से बदला जा सकता है और हर स्थिति में जो प्रस्तुत है उसका सौभाग्य मानते हुए प्रसन्न रहा जा सकता है। यही तरीका सही और सरल है, इस दृष्टिकोण को अपनाकर हर, व्यक्ति हर समय हँसता-मुसकाता, सुखी, सन्तुष्ट रह सकता है। जो उपलब्ध है उसकी महत्ता को समझने का प्रयत्न करें तो ईश्वर को हजार धन्यवाद देने का जी करेगा कि जो लाखों, करोड़ों को नहीं मिल सका वह हमें मिला हुआ है। जो मिला नहीं है उसकी कमी का अन्त नहीं। पर्वत से तुलना करने पर चट्टान अपने आपको सदा दीन-दयाल ही मानेगी, पर यदि किसी ढेले की तुलना में अपना मूल्याँकन करेगी तो, प्रतीत होगा कि जो है उसे नगण्य नहीं समझा जा सकता। छोटी योनियों में जी रहें प्राणियों की तुलना में दरिद्र मनुष्य को भी इतना अधिक मिला है कि वह उनका लेखा-जोखा लेकर हर घड़ी अपना सौभाग्य सराहता रह सकता है।

व्यक्तियों और परिस्थितियों के सम्बन्ध में भी यही बात है। साथियों के दोष ढूंढ़ें तो लगेगा कि हमारे कुटुम्बी, मित्र, स्वजन सभी घटिया स्तर के हैं। त्रुटियाँ सब में हैं- सब में कुछ न कुछ अपूर्णता है। पूर्ण तो एक परमेश्वर है। यदि दोष दृष्टि अपनाये रहें, छिद्रान्वेषण करते रहें तो हर किसी को दुष्ट मानने और रुष्ट रहने की मनःस्थिति बनी रहेगी। इसके विपरीत यदि गुण देखने, ढूँढ़ने का स्वभाव हो तो हर व्यक्ति में ढेरों अच्छाइयाँ दिखाई पड़ेंगी। दोष-दर्शन का परिणाम यह है कि जिसे भी ध्यान से देखें वही अनुपयुक्त, हानिकारक और असन्तोषजनक लगेगा। ऐसी दशा में अपना जी जलता ही रहेगा। यदि सोचने का तरीका बदल लिया जाय और उसी व्यक्ति की अच्छाइयों, सहायताओं और समय-समय पर मिली सद्भावनाओं की सूची तैयार की जाय तो वही बहुत उपयोगी प्रतीत होगा और प्रिय लगने लगेगा। गुण, कर्म, स्वभाव की सभी कसौटियों पर खरे व्यक्ति ढूँढ़ जाय तो निराशा ही हाथ लगेगी और सारा संसार मात्र दोष, दुर्गुणों से पटा मिलेगा। गुण ग्राहकता की नीति से तो अपूर्णताएँ रहते हुए भी श्रेष्ठताओं की मात्रा इतनी मिल जायेगी जिस पर सन्तोष किया जा सके और प्रसन्न रहा जा सके। परिस्थितियों की उतनी महत्ता नहीं जितनी मनःस्थिति की। गई-गुजरी परिस्थितियों में भी लोग हँसते-हँसते जिन्दगी काट लेते हैं, इसके विपरीत हर दृष्टि से साधन सम्पन्न व्यक्ति भी रोते-कलपते, झल्लाते, खीजते पाये जाते हैं। हमें अच्छी परिस्थितियाँ पाने और अच्छे व्यक्तियों का साथ ढूँढ़ने का तो प्रयत्न करना ही चाहिए, पर यह नहीं भूल जाना चाहिए कि जब तक अपना दृष्टिकोण गुणग्राही न बनाया जायेगा, तब तक असन्तोष से पीछा छुड़ाना और प्रसन्न रहने का अवसर पाना असम्भव ही बना रहेगा। हमें सबसे अधिक ध्यान अपना मानसिक सन्तुलन एवं स्तर सही बनाने पर देना चाहिए, ताकि संसार का परिवर्तन चक्र एवं विविधतापूर्ण निर्माण उद्विग्न बनाने की अपेक्षा प्रसन्न प्रमुदित रहने का निमित्त बन सके।

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